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जून 2019

प्रतीकों और रूपकों के बीच पेरिस

मंगलेश डबराल

यात्रा संस्मरण और पेरिस पर विख्यात कविताएं

 

     शायद पेरिस के भीतर जितना पेरिस है उससे कहीं ज्यादा बाहर है। पूरी दुनिया में उसकी जगहें, वस्तुएं, उसके लोग और विचार फैले हुए हैं और पेरिस उन सभी चीज़ों के भीतर फैला हुआ है। वह प्रतीकों की भाषा में बात करता है। घटनाएं, चीज़े, जगहें, संस्कृति और रहन-सहन - सब कुछ। एफिल टावर, लूव्र, शौंअलीज़े, बास्तील, ओपेरा, सेन नदी, डिज्नीलैंड, मोलारूज़, नोत्रदाम, मोंमार्त, आर्क द’त्रियोम्फ, मोंपारनास, लैटिन क्वार्टर जैसी जगहें और ईव्ज़ सौंलरां, मों ब्लां, शैनेल, लोरियल, पिएर कार्दा, लुइ वित्तों, दियोर, ज्यां पोल गोल्तिये जैसे फैशन-प्रसाधन उसके ब्रांड और प्रतीक हैं और पेरिस खुद इन प्रतीकों का प्रतीक है। यहाँ तक कि लोग और विचार भी पेरिस के ब्रांड हैं. ज्यां पोल सात्र्र, सीमोन दबोआ, आल्बेयर कैमू, पिकासो, ब्राक, ज्यां लुक गोदार, फ्रांस्वा त्रुफो, अला रोब्ब-ग्रीये, आंद्रे मालरो जैसी प्रतिभाएं, और इतिहास में ज्यादा पीछे जाएँ तो वोल्टेयेर, मोंतेस्क्यु, रूसो, विक्टर ऊगो, देकार्ते, थोरो, बालज़ाक, एमिल ज़ोला,मिशेल फूको, दरीदा, रोलां बार्थ-दार्शनिको-लेखकों की सूची का कोई अंत नहीं होगा। एक दूसरे स्तर पर वह न्यूयॉर्क की याद दिलाता है क्योंकि शायद न्यूयॉर्क भी खुद न्यूयॉर्क में उतना नहीं है जितना उसके बाहर है: पूरे अमेरिका और दुनिया के दिमाग में छाया हुआ। 'आइ मेड/ कुड नाट मेक इट टु न्यूयॉर्क!’ कई साल पहले अमेरिका की यात्रा में यह मुहावरा बहुत सुनाई दिया था।

किताबें लोगों और जगहों की तरह होती हैं। अपनी छुअन और गंध के साथ वे कहीं स्मृति में अटकी रहती हैं और हम याद करने की कोशिश करते हैं कि उनसे कहाँ और कैसे मुलाक़ात हुई थी और उनमें क्या था जो याद रह गया है। तीस-पैंतीस साल पहले दरियागंज में इस्तेमालशुदा किताबों के पटरी बाजार से अर्नेस्ट हेमिंग्वे के पेरिस प्रवास के संस्मरणों की किताब 'अ मूवेबल फीस्ट’ खरीदी थी जो बाद में बारिश में भीग गयी और उसके पन्ने सूख कर चिपक गए। ये संस्मरण द्वितीय विश्वयुद्ध के तुरंत बाद के थे जब हेमिंग्वे लेखक बनने की प्रक्रिया में पेरिस आये थे, गरीबी से जूझ रहे थे और एक युवा पत्रकार के तौर पर काम करते थे। यह किताब पाब्लो पिकासो, एज़रा पाउंड, गेरट्रुड स्टाइन, जेम्स ज्वायस, दोस पेसोस जैसे उस व$क्त के युवा लेखकों-चित्रकारों से उनकी पहली मुलाकातों और दोस्तियों को बहुत एन्द्रिक शैली में बतलाती थी। उसके कुछ साबुत पन्ने फिर से पढऩे को मिल गए और कई प्रसंग लौट आये। हेमिंग्वे ने पेरिस को एक 'चलायमान दावत’ या 'सचल भोज’ की तरह देखा, जिसका कोई अंत नहीं था। वे दिन उनके लिए 'कठिन और सुन्दर’ थे। उन्हें हर वक्त भूख लगी रहती थी और जैसे ही कहीं से कुछ पैसा मिलता, वे तुरंत किसी कैफ़े में खाने के लिए चल पड़ते। यह ऐसा दौर था जब बहुत से नए कलाकार और चित्रकार पेरिस में आकर रहने लगे थे। एजरा पाउंड अपने प्रिय कवि टीएस एलियट के लिए पैसा जुटाने में लगे हैं ताकि वे बैंक की उबाऊ नौकरी छोड़कर पूरा समय कविता को दे सकें। पेरिस के कला और साहित्य समाज में खासा रसूख रखने वाली लेस्बियन लेखिका गेरट्रुड स्टाइन से हेमिंग्वे की मित्रता उनके जीवन में बहुत परिवर्तन लाती है। उनकी निगाह में, 'आप दुनिया में दो ही जगह खुश रह सकते हैं—अपने घर में या पेरिस में।’ एक जगह वे लिखते हैं:  'अगर आपको किस्मत से अपनी युवावस्था के दिन पेरिस में बिताने का मौका मिला हो तो फिर आप जहां कहीं भी जाएँगे, पेरिस हमेशा आपके साथ रहेगा क्योंकि वह एक चलती-फिरती दावत है।’ इसी किताब में हेमिंग्वे शहर को बहुत शिद्दत से याद करते हैं:  'लेकिन पेरिस एक बहुत पुराना शहर था और हम लोग बिलकुल नए और युवा थे और कुछ भी आसान नहीं था, न गरीबी, न अचानक मिला हुआ पैसा, न चाँद की रोशनी, न सही न गलत, न उस व्यक्ति की साँसें, जो चाँद के प्रकाश में तुम्हारी बगल में लेटा हुआ होता था।’

और 26 मई 1968  का वह छात्र विद्रोह भी अब एक ब्रांड है जिसका नेतृत्व पेरिस के गुस्साए हुए छात्रों ने किया था और जिसमें सात्र्र, सीमोन दबोआ, गोदार, रोब्ब ग्रीये ने सक्रिय हिस्सेदारी की थी और लगातार पर्चे बांटे थे। 'नयी संकल्पना को शक्ति दो’ का नारा देने वाली इस ऐतिहसिक बगावत के दौरान जब सात्र्र की गिरफ्तारी की मांग उठी तो राष्ट्रपति शोल द’ गोल की इस प्रतिक्रिया की भी ब्रांडिंग हो चुकी है: 'वोल्तेयर को भला कोई कैसे गिरफ्तार कर सकता है!’

पेरिस जाने से पहले मेरे दिमाग में हेमिंग्वे की चलती-फिरती दावत घुमड़ रही थी और पेरू में जन्मे स्पानी भाषा के एक महान कवि सेसार वाय्येखो की एक कविता भी, जिसका अनुवाद बहुत पहले प्रेमलता वर्मा ने किया था: 'सफ़ेद पत्थर के ऊपर काला पत्थर’। मैंने उसे नेट पर खोजा तो अंग्रेजी अनुवाद उपलब्ध था: 'मैं पेरिस में मरूंगा एक झंझावात के बीच,/उस दिन, जो मुझे पहले से ही याद है,/ मैं पेरिस में मरूँगा—और यह कहने में क्या झिझक—पतझड़ के दिनों में, शायद गुरूवार को, जैसे आज का दिन है।’ वाय्येखो की मृत्यु पेरिस में हुई और यह कविता जैसे एक भविष्य-कथन थी जिसमें उन्होंने अपनी मृत्यु को देख लिया था। कुछ दिन पहले 'इनविजिबल सिटीज़’ और 'इफ औन अ विंटर्स नाइट अ ट्रैवलर’ जैसी कृतियों के बेजोड़ इतालवी लेखक इतालो काल्वीनो के आत्मकथात्मक लेखन की एक किताब 'हरमिट इन पेरिस’ भी उलट-पुलट कर देखी थी जिसमें उन्होंने इस शहर को 'पनीर का विश्वकोश’ और 'अदृश्य और नामालूम होने के लिए सबसे अच्छी जगह’ बताया था. यात्रा से पहले मैंने यह किताब बैग में रख ली.

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जर्मनी में मेरी यात्रा के पड़ाव दक्षिणी हिस्से में थे जहां से पेरिस ज्यादा दूर नहीं था--ट्रेन से सिर्फ तीन- साढ़े तीन घंटे का सफ़र। मैंने सोचा, अगर जेब में कुछ पैसे बचे रहे तो वहां जाया जा सकता है, फिर पता नहीं ऐसी यात्रा मुमकिन हो या न हो। मैंने पेरिस जाने की इच्छा के बारे में प्रो. आनि मोंतो को एक मेल भेजी, लेकिन कोई जवाब नहीं मिला। आनि मोंतो इनालको नामक एक प्रसिद्ध एशियाई अध्ययन संस्थान में हिन्दी और भाषाशास्त्र की प्रोफ़ेसर रही हैं और उन्होंने कृष्ण बलदेव वैद, केदारनाथ सिंह, निर्मल वर्मा, अलका सरावगी आदि की कुछ कृतियों का फ्रांसीसी में अनुवाद किया है। एक बार उनसे संक्षिप्त मुलाक़ात हुई थी। मैंने उन्हें किसी पुराने पते पर मेल भेजी जो बमुश्किल उन तक पंहुची, इसलिए उनका जवाब कई दिन बीतने पर आया कि 'मैं इनालको से रिटायर हो चुकी हूँ और पेरिस से दूर एक गाँव में रहती हूँ, लेकिन आपसे मिलने आ सकती हूँ।’

'इनालको आकर छात्रों से बातचीत की कोई गुंजाइश?’ 'शायद। लेकिन मुश्किल लगता है क्योंकि अगले हफ्ते से संस्थान में छुट्टियां होने जा रही हैं, फिर भी मैं उन लोगों से बात करती हूँ। 'कुछ दिन बाद इनाल्को के एक प्रोफेसर हरित जोशी की मेल आयी कि इनालको में छुट्टियों से पहले सिर्फ एक दिन खाली है जब कविता आदि पढ़ी जा सकती है, लेकिन पेरिस में रहना बहुत महंगा है और सबसे अच्छा और सस्ता उपाय यह होगा कि मैं चलने से पहले वहां 'मेजों द’लांद’ में एक कमरा बुक करा लूं।

मेजों द’लांद यानी भारत भवन। यूरोप के कुछ बड़े शहरों में सरकार ने ऐसी इमारतें बनवाई हैं जहाँ कम खर्च में भारत से जाने वाले छात्र और दूसरे लोग कुछ समय रह सकते हैं। बगैर चाय-नाश्ते का एक कमरा। किराया 50 यूरो प्रति दिन। मैं बुकिंग करता हूँ, लेकिन उसका जवाब भी मेरे यात्रा पर निकलने से दो दिन पहले ही मिलता है और यह हिदायत भी कि पहले दिन रात दस बजे से पहले पहुंचना ज़रूरी है क्योंकि दफ्तर बंद हो जाता है।

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स्टुट्गार्ट से पेरिस जाने वाली शाम की ट्रेन सुन्दर, शांत और आधुनिक सुविधाओं से लैस है। जर्मनी से ज्यूरिख की ट्रेन की ही तरह। शायद ये सभी यूरो-रेल का हिस्सा हैं और इच्छा होती है कि वे अनन्त तक चलती चली जाएँ और हम चुपचाप उनमें बैठे रहें, उतर कर देखने की इच्छा न हो कि कहाँ पहुंचे हैं। सहसा ट्रेन जर्मनी और फ्रांस की सीमा पर रुकती है। यह स्ट्राउसबुर्ग है। इस शहर के दृश्य मैंने कुछ समय पहले स्त्री-पुरुष आकर्षण के यथार्थ और विभ्रम पर बनी एक प्यारी सी स्पानी फिल्म 'इन द सिटी ऑफ़ सिल्विया’ में देखे थे जिसमें स्ट्राउसबुर्ग की ध्वनियों, अंतरालों और खामोशियों को बहुत  संवेदनशीलता के साथ चित्रित किया गया था। फिल्म में एक चित्रकार युवक एक युवती की तलाश में आता है जिससे वह पिछली बार ज़रा सा मिला था। वह परिचित होने के भ्रम में एक युवती का गुपचुप पीछा करता है, लेकिन यह भ्रम और धुंधलका बना रहता है कि वह युवती सचमुच वही है या नहीं। शहर की आहटें, ट्रामों-साइकिलों की आवाजें और घरों की खामोशी इस तरह थीं जैसे हम ध्वनियों और संकेतों की कविता देख रहे हों। अफ़सोस, मैं यहाँ उतरकर शहर को नहीं देख सकता। ट्रेन ग्यारह बजे पेरिस पहुंचेगी यानी तब तक मेजों द’लांद का दफ्तर बंद हो जाएगा। लेकिन यह समस्या भी हल हो गयी थी। स्टुट्गार्ट में अपने घर से दिव्यराज अमिय ने जब आनि मोंतो को फोन किया तो उन्होंने कहा कि मैं रात को उनके घर में रुक सकता हूँ जो फिलहाल बंद है, लेकिन वे करीब एक सौ किलोमीटर दूर अपने घर से मुझे चाबी देने पेरिस आ सकती हैं। एक अजनबी शहर की रात में मुझे असुविधा से बचाने के लिए वे अपने एक छात्र निकोला को भी मुझे लेने स्टेशन भेजेंगी। उनकी इस दयानतदारी ने मुझे अभिभूत कर दिया।

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जहां ट्रेन रुकती है, वह रेलवे स्टेशन नंबर तीन और शायद उसका पिछवाड़ा है, जहां अँधेरा है। यह बहुत पुराना, कुछ अव्यवस्थित स्टेशन लगता है। अपने यहाँ के स्टेशनों जैसा। निकोला मुझे लेने के लिए हाज़िर हैं। वे पोलिश मूल के हैं और अगले वर्ष हिंदी और भारतीय संस्कृति के अध्ययन के लिए वर्धा में महात्मा गाँधी अंतरराष्ट्रीय विश्वविद्यालय में जाने वाले हैं। कुछ संकोची लगते हैं। जब हम उनकी कार से आनि के घर के सामने उतरते हैं तो क्या संयोग है कि आनि ठीक सामने से आती हुई दिखती हैं।

फ्लैट में जाने के लिए इतनी संकरी, पुरानी लिफ्ट है कि उसमें सिर्फ दो लोग आ सकते हैं। ऐसी लिफ्ट पहले नहीं देखी। फ्लैट भी एक वर्ग पहेली जैसा है: बाहर से बहुत छोटा, लेकिन अन्दर जाने पर बहुत फैला हुआ। कमरे के भीतर कमरों की संरचना। आनि ठंडे घर को गर्म करने लगती हैं, लेकिन वह बहुत देर बाद गर्म हो पायेगा। वे कहती हैं: 'यहाँ बहुत ठंडा है। बहुत दिन से कोई यहाँ रहा नहीं। आपको कुछ गर्म पीना ज़रूरी है। चाय, हर्बल चाय, कॉफ़ी, सफ़ेद चीनी, भूरी चीनी, गुड़, सब घर में है।’ फिर कहती हैं: 'मैं आज रात रुक कर कल चली जाऊंगी, लेकिन आप कुछ दिन इसी घर में रह सकते हैं। कल भारत से ध्रुपद गायक उस्ताद वसीफुद्दीन डागर अपनी चार-पांच लोगों की टीम के साथ आ रहे हैं और मेरी एक सहेली भी। आपको उन लोगों के साथ आनंद आएगा। डागर हमेशा मेरे यहाँ रुकते हैं और उनकी मंडली घर में ही खाना बनाती है।’ मैं उनका आभार व्यक्त करते हुए कहता हूँ कि मुझे रात में अक्सर दिशा-भ्रम हो जाता है और अकेले घूम कर लौटते हुए शायद घर का रास्ता भूल जाऊँगा।

आनि मोंतो कुछ समय जेएनयू में भी फ्रेंच पढ़ाती रहीं हैं। वे वैद जी की 'नौकरानी की डायरी;’ और केदार जी की 'बाघ’ के अनुवाद की पुस्तकें मुझे भेंट करती हैं। 'ठीक है, मैं इसे केदार जी को दूंगा। वैद तो अब अमेरिका में बस गए हैं।’ आनि कहती हैं, 'ये आपके लिए हैं। मैं आपकी कवितायें भी करूंगी। लेकिन मेरी बेटी बर्लिन में रहती है। उसकी नन्हीं सी एक बेटी है, मेरी नातिन। मुझे हर महीने वहां जाना पड़ता है। समय नहीं मिलता।’

  एक दिक्कत यह है कि मुझे ज़रा भी फ्रांसीसी नहीं आती। 'जो लिखा जाता है वही पढ़ा जाता है’ की संस्कृति के हम हिन्दीभाषियों के लिए फ्रांसीसी में लिखित और वाचित का इतना बड़ा फर्क चकित करने वाला  है। यात्रा पर निकलने से पहले मुझे फ्रांसीसी के कुछ शब्द, जुमले, उच्चारण, कुछ औपचारिक वाक्य जान लेने चाहिए थे। बहरहाल, अगले दिन आनि मोंतो ने मुझे 'मेजों द’लांद’ ले जाकर छोड़ दिया है और वहाँ की औपचारिकता पूरी करके चली गयी हैं। उनसे मैंने पूछा, 'पेरिस देखने का सबसे अच्छा तरीका क्या है?’ उन्होंने कहा, 'पैदल।’

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इस जगह का नाम बुलेवार युर्दान है और अहाते का नाम 'सित्ते युनिवर्सितायर’। यहाँ बहुत से देशों की इमारतें हैं—दूतावास के कर्मचारियों, छात्रों आदि की रिहायशी जगहें। कमरा नंबर 617 छोटा और साफ़-सुथरा है। एक बिस्तर, मेज़-कुर्सी और वाश बेसिन। रसोईघर और वाशरूम साझे हैं। कुछ हिन्दुस्तानी छात्र नहा-धो रहे हैं, कुछ खाना बनाने में लगे हैं, कॉरिडोर में सांबर की खुशबू फ़ैली है और नारियल की चटनी भी बन रही है। इस मंजिल पर ज्यादातर आन्ध्र प्रदेश के युवक-युवतियां हैं जो विज्ञान और इंजीनियरी में उच्च शिक्षा हासिल करने आये हैं। एक छात्र राजस्थान का और एक लड़की चंडीगढ़ की है। मैं जब उन्हें बताता हूँ कि इनाल्को में मेरा कविता पाठ है तो राजस्थानी छात्र कहता है, 'वाह। मैं भी कविता लिखता हूँ। आपको दिखाऊंगा।’ मैं नहा कर कमरे में लौटता हूँ तो लगता है जैसे एक ऐसी ट्रेन में बैठा हूँ जो पता नहीं कबसे रुकी हुई है।

मेजों द’लांद के स्वागत कक्ष में बहुत सी चिकनी-चमकीली पत्रिकाएं सिर्फ पढऩे के मकसद से रखी हुई हैं। ज़्यादातर फैशन और रहन-सहन को समर्पित हैं। कला और साहित्य की दो पत्रिकाएं हैं और वे भी लकदक हैं। मैं उन्हें पढ़ नहीं सकता, लेकिन देखता हूँ कि उनमें छपी लेखकों-कलाकारों की तस्वीरें नफीस और चमकदार हैं जैसे वे भी किसी मॉडल से कम न हों। बाहर दीवाली की तैयारयाँ चल रही हैं: साफ़-सफाई, रंगीन  रिबन, रोशनी की लडिय़ां आदि सजाई जा रही हैं। बाहर कुछ दूर जाने पर एक बड़ा सा पार्क नज़र आता है जहां लोग घूम रहे हैं। उससे सटा हुआ एक कसबे जैसा बाज़ार है। एक दूकान में एक दक्षिण भारतीय लगती युवती बैठी है। मैं उससे सिगरेट, कुछ चिप्स और स्कॉच खरीदता हूँ और पूछता हूँ कि क्या वे भारतीय हैं। युवती जवाब देती है, 'नो. आय’म फ्रॉम श्रीलंका।’

सुबह नाश्ते के लिए पास का एक रेस्तरां काफे लेफ उपयुक्त जगह है। वहां हैम, चीज़, ब्रेड, आलू फ्राइज और सरसों के सौस की एक डिश बहुत स्वादिष्ट है। साथ में कॉफ़ी। पेरिस में कॉफ़ी बहुत चलन में है। चाय शायद कोई नहीं पीता। सुबह का नाश्ता दिन में काफी देर तक काम आता है, फिर शाम के व$क्त कुछ खा लेता हूँ, किसी जगह रुक कर बीयर पी लेता हूँ। लेकिन रात का भोजन एक समस्या है। पास के दोनों रेस्तरां नौ बजे के बाद बंद हो जाते हैं। थोड़ा दूर जाने पर एक बड़ा सा रेस्तरां ल’फ्ल्यूर्स ज़रूर खुला है, लेकिन वह खासा मंहगा है। इसलिए मैं रात में ब्रेड, मक्खन या चीज़ और चिप्स से काम चलाता हूँ और व्हिस्की की घूँट से उन्हें गले से उतारता हूँ। इसमें खूब स्वाद आता है।

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पेरिस के प्रतीक इस शहर का आवरण, उसकी पोशाक हैं। उसका बाहरी स्वरूप, जो दुनिया को आच्छादित किये हुए है। लेकिन हर शहर की तरह पेरिस के भीतर उसके रूपक भी रहते होंगे - उसके आतंरिक संसार की, उसके भीतरी रहस्यों और सचाइयों की, उसकी आत्मा की संरचना बनाते हुए।

सड़कों पर सिगरेट पीते लोग बहुत दिखते हैं। अश्वेत, अफ्रीकी देशों के लोग भी बहुत हैं। गोरे लोग अक्सर तेज़ी से नाक की सीध में चले जा रहे हैं। जैसे उन्हें बहुत देर हो गयी हो। वे किसी की तरफ नहीं देखते। अफ्रीकी जन कुछ ढीले-ढाले चलते हैं। वे शायद उन कई देशों के आप्रवासी होंगे जहां फ्रांस के उपनिवेश रहे। सूडान, कांगो, सेनेगल, ट्यूनीशिया, माली, नाइजर, और पता नहीं कितने मुल्क, जहां फ्रांस के एक बड़े कवि आर्तुर रामबो तक काले लोगों के व्यापार में लगे रहे।

मेजों के पास की सड़क पर एक बरामदे जैसी जगह में कुछ हलचल दिखती है। यहाँ एक भिखारी महाशय का डेरा-डंडा जमा है। भिखारी दुबला है लेकिन उसके साथ एक भारी-भरकम डरावना कुत्ता है जिसे शायद खूब खाने को मिलता है. भिखारी से ज्यादा ही। बगल में एक नौजवान लड़की और दो मर्द हैं—एक फ्रांसीसी, एक अफ्रीकी और एक तुर्क। सब लोग बीयर और सिगरेट के सेवन में लगे हैं—शायद गांजा या भांग भी हो। बीच-बीच में वे कुत्ते को भी खिलाते हैं। सैंडविच, बिस्कुट वगैरह।

भिखारी महोदय अपना नाम बताते हैं—मिखाइल। उनके साथ के लोग पूछते हैं कि क्या में उनके ग्रुप में शामिल होना चाहता हूँ। युवती लगातार हँस रही है, बीयर पी रही है और भिखारी की ओर मुग्ध भाव से देख रही है। शायद कोई दूसरा नशा भी किये हुए हो। भिखारी मुझसे पैसे मांगता नहीं, बल्कि बेबाकी से देने के लिए कहता है। मैं कुछ पैसे देकर तेज़ क़दमों से बढ़ लेता हूँ। पता नहीं कैसा नेटवर्क हो इनका। आगे जाने पर एकाध जगह और भिखारी नज़र आते हैं। उनके साथ अनिवार्य रूप से खासे तगड़े कुत्ते देखकर आश्चर्य होता है। क्या यह प्रतीकों के इस महान नगर का पहला रूपक है? बाद में भी भिखारी दिखे। ज़्यादातर विशाल लूव्र कला संग्रहालय के बाहर। वही दुर्बल लोग और उनके साथ मोटे-तगड़े कुत्ते। मैंने मिथिलांचल के फ्रेंच स्कॉलर सत्येन झा से इसका रहस्य पूछा तो उन्होंने कहा, 'यूरोपीय समाजों में पशुओं पर दया करने की भावना बहुत अधिक है। लोग भिखारियों से ज्यादा उनके कुत्तों का ख़याल रखते हैं. उनके बहाने भिखारी भी पल जाते हैं। इसीलिए कुत्ते उनसे ज्यादा स्वस्थ हैं।’ यानी भिखारी भी अपने एक अन्नदाता को साथ रखता है!

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पैदल इसलिए भी घूमता हूँ कि जेब में पर्याप्त मुद्राएँ  नहीं हैं और नक्शा उठाकर मेट्रो या ट्राम वगैरह से लम्बा सफ़र करना भी मुमकिन नहीं क्योंकि सारे नक्शे अंग्रेज़ी में न होकर फ्रांसीसी में हैं। मेजों द’लिंद के सामने की सड़क से ट्राम सीधी एवेन्यू द’फोन्स जाती है जहां से कुछ ही दूरी पर इनाल्को है। उसी सड़क पर दो  किलोमीटर चलता जाऊं तो सीधे सेन नदी तक पहुंच जाऊंगा। इनालको से पहले कुछ विचित्र स्थापत्य की पीली-हलकी हरी इमारतें नज़र आती हैं, जिनकी मंजिलें दायें और बाएं बाहर की तरफ निकली हुई हैं जैसे विशाल डिब्बों को कुछ बेतरतीबी के साथ एक के ऊपर एक रख दिया गया हो। यह शिल्प कुछ-कुछ मुंबई में उद्योगपति मुकेश अम्बानी के कुख्यात घर 'एंटीलिया’ जैसा है। इमारतों के सामने लम्बी-काली छड़ों पर कुछ बेडौल भूरे पत्थरों की आकृतियाँ टिकी हैं जो दरअसल आधुनिक मूर्तिकला या इन्स्टालेशन के नमूने हैं। वे शायद पत्थर ही हैं या फाइबर ग्लास जैसी किसी वस्तु से बनाए हुए डंडों के ऊपर आसमान में पत्थरों की संरचना इस इलाके में एक रहस्यपूर्ण अनुभव रचती हैं। मुझे लगा, अगर इन काली छड़ों को रंगहीन या अदृश्य किया जा सके तो यह पूरी तरह सर्रियल और आकाशीय इंस्टालेशन होगा। कुछ आगे बिब्लियोथीक नेशिओनाल द’फांस की विशाल चमकती इमारतें दिखती हैं। इतना बड़ा पुस्तकालय देखकर हैरान रहना पड़ता है। उसका इतिहास पांच सौ साल से भी पुराना है और उसमें लगभग डेढ़ करोड़ किताबें हैं।

पेरिस सेन नदी के दोनों तरफ बसा है। नदी चौड़ी और सुन्दर है और उस पर 37 पुल हैं। मैं जिस पुराने पुल पर खड़ा हूँ, वहां से तीन पुल दिखाई देते हैं। नदी के दोनों तट सीमेंट की दीवारों से बाँध दिए गए हैं। ऐसा शायद इसलिए है कि शहरों में नदियाँ यातायात और व्यापारिक गतिविधि का एक बड़ा साधन हैं। किनारों पर हरियाली लगभग नहीं है, सीमेंट के विस्तार हैं और उन पर एक विस्तृत जगह में भूरे रंग के वैसे ही अन-तराशे 'पत्थर’ संयोजित हैं जैसे इनाल्को जाने वाली सड़क पर दिखे थे। एक और इंस्टालेशन। पानी में स्टीमर आ-जा रहे हैं। अपने पीछे झागदार लकीरें छोड़ते हुए। वापसी में एक रेस्तरां में बैठकर बियर पीता हूँ। अगला दिन इनाल्को में कविता-पाठ का है।

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इनाल्को में हिन्दी के प्रोफ़ेसर हरित जोशी की कक्षा। हरित कुमाऊँ के हैं, लेकिन पढाई दिल्ली और पेरिस में हुई है। उनकी पत्नी फ्रांसीसी हैं। वे हिंदी कुछ अटक कर इस तरह बोलते हैं जैसे आला दर्जे के कान्वेंटी बच्चे बोलते हैं। लेकिन भले आदमी हैं। वहीं प्रो. मिश्र से मुलाक़ात होती है जो पहले वेनिस विश्वविद्यालय में एक मित्र और मेरे कविता संग्रह 'आवाज़ भी एक जगह है’ की अनुवादक प्रो. मरिओला ओफ्रेदी के साथ पढ़ाते रहे और अब यहाँ आ गए हैं। बहरहाल, कक्षा में छात्र अच्छी-खासी तादाद में हैं। छात्राएं अधिक हैं। हरित मेरा परिचय देते हैं। फिर आनि मोंतो फ्रांसीसी में कुछ कहती हैं और मैं कविताएं सुनाने लगता हूँ। छात्र भावहीन से बैठे हैं और लगभग एकटक देख रहे हैं। कविता-पाठ ख़त्म होता है तो वे उसी तरह भावशून्य बाहर जाने लगते हैं। कोई प्रतिक्रिया नहीं। क्या कुछ उनके पल्ले पड़ा होगा? क्या कुछ सवाल उनके भीतर उठे होंगे? कल से यहाँ छुट्टियां हो जायेंगी, सो शायद उनके दिमाग में अपने घर का नक्शा घूम रहा होगा। और हो सकता है वे भारत से आये एक हिंदी कवि को मजबूरी में झेल रहे हों।

इनाल्को का केफेटेरिया भी बंद होने वाला है, लेकिन हरित चाय लाने में सफल हो जाते हैं। टेरेस पर चाय पीते हुए गपशप होने लगती है। हरित के दिल्ली के कुछ संस्मरण, प्रो. मिश्र के मरिओला के बारे में संस्मरण और मेरे बारे में कुछ सवाल, कुछ उत्सुकताएँ। हरित जोशी मुझे ट्राम स्टेशन तक छोडऩे आते हैं। सर्दी और हवा दोनों तेज़ होने लगी हैं और मुझे रास्ते में ब्रेड और चिप्स खरीदते हुए मेजों द’लांद पहुंचना है।

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यह कैसे हो सकता है कि आप पेरिस जाएँ और लूव्र में मोनालीसा को देखे बिना लौट आयें? वह स्त्री-सौंदर्य, मुस्कान के रहस्य और उसमें छिपी उदासी की विश्व-प्रतीक है। लेकिन कई बार अपने कद से ज्यादा बड़ी हो चुकी वस्तुएं निराश कर सकती हैं। मोनालीसा को देखकर लगता है—अरे, यही है लियोनार्दो द’विन्ची की वह महानतम कृति, वह आइकॉन, जिससे उत्तर-आधुनिक और पॉप कला भी मुक्त नहीं हो सकी है और अमेरिकी पॉप कलाकार ऐंडी वारहोल उसी छवि के पैरोडी चित्र बना चुके हैं? वह इतनी छोटी है? इतनी सुरक्षा से घिरी हुई? उसके चारों तरफ शीशों की घेरेबंदी है और जहां तक जाना संभव है वहां दर्शकों की भीड़ कभी ख़त्म नहीं होती. इतनी दूर से उसकी रहस्यमय मुस्कान को छू पाना मुमकिन नहीं। वह कभी अकेली नहीं होती। दर्शकों की भीड़ हमेशा उसका फोटो या उसके साथ सेल्फी लेना चाहती है। लूव्र की सीढिय़ों पर जगह-जगह मोनालीसा तक जाने के रास्ते की पट्टियां लगी हैं। शायद इस तरह उसका मिथक भी बढ़ता रहता है। तस्वीरों और कला-पुस्तकों में इससे भी अधिक सुन्दर मोनालीसा मिलती है—अपनी तमाम बारीकियों के साथ। कुछ ऐसी ही हताशा मुझे आगरा में ताजमहल को देखकर हुई थी। दूर से प्रेम का इतना विशाल-भव्य-धवल प्रतीक, और पास जाने पर सिर्फ एक बड़ी सी सफ़ेद इमारत? रबीन्द्रनाथ ने भले उसे 'काल के गाल पर टिका हुआ आंसू’ कहा हो, लेकिन सुमित्रानंदन पन्त की कविता 'हाय मृत्यु का ऐसा अमर-अपार्थिव पूजन’ शायद ताजमहल के लिए ज्यादा सटीक हो। साहिर लुधियानवी की वह ग़ज़ल तो खैर मशहूर ही है: 'इक शहंशाह ने बनवा के हसीं ताजमहल/ हम गरीबों की मुहब्बत का उड़ाया है मज़ाक... मेरी महबूब कहीं और मिलाकर मुझसे।’

लूव्र को एक दिन में देखना संभव नहीं है। वह इतना विशाल है। विश्व में सबसे बड़ा संग्रहालय जो बारहवीं सदी से बनना शुरू हुआ था। बाहर से पिरामिड के आकार की जो आयताकार संरचना दिखती है, वह सिर्फ उसका प्रवेश-द्वार है जो बहुत बाद में निर्मित हुआ और शुरू में उसे भोंडा और फ्रांस की वास्तु-परंपरा का अपमान कहा गया। लेकिन आज लूव्र उसी बिम्ब से जाना जाता है। वह मध्यकालीन यूरोपीय और पुनर्जागरण कला और शिल्प का अथाह भण्डार है। मोनालीसा के बाद ग्रीक प्रतिमा 'मिलो की वीनस’ सबसे प्रसिद्ध है, जिसे सौन्दर्य और प्रेम की देवी एफ्रोदिते से भी जोड़ा जाता है। वह बहुत सुन्दर और भव्य है, हालांकि उसकी दोनों बाहें कटी हुई हैं जिनका रहस्य अब भी अनसुलझा है (सर्रियलिस्ट चित्रकार साल्वादोर दाली ने एक मूर्तिशिल्प में वीनस को आधुनिक परिवेश देने के लिए उसके शरीर में कई दराज़ बना दिए थे)। इस प्रतिमा के सामने देर तक खड़ा रहा जा सकता है.यहाँ डच उस्तादों की कलाकृतियाँ भी एक आश्चर्यलोक हैं, जिनमें वेरमीर की 'एस्ट्रोनोमर’और 'लेसमकर’ ख़ास हैं। उनमें भी प्रकाश की वही कोमलता और पारदर्शिता है जिसके लिए डच उस्ताद मशहूर रहे। हाल्स और रेम्ब्रांट के कामों 'जिप्सी लड़की’, 'स्नानघर में बाथशेबा’ और 'विचारमग्न दार्शनिक’ आदि डच कला की बारीकियों का करिश्मा हैं। उसकी झलक मैंने एम्स्तेर्दम के रेक्स म्यूजियम में भी देखी थी जहां वेरमीर की 'मिल्कमेड’, 'डेल्फ्ट के घर’ और 'पत्र पढ़ती महिला’ और रेम्ब्रांट की 'नाइटवाच’ जैसी अमर कृतियाँ प्रदर्शित हैं। लूव्र का मूर्तिशिल्पों का खज़ाना चकित करने वाला है। विश्व की कितनी सारी प्राचीन सभ्यताओं, असीरिया, सुमेर और बेबीलोन, मिस्र की कला और शिल्प के बेजोड़ नमूने और वीनस के बाद दर्शकों को अभिभूत करने वाला शिल्प 'विजय के पंख’, जो हेलेनिक कला का अप्रतिम उदाहरण है।

सुबह जब मैं यहाँ आया तो टिकट लेने वालों की लम्बी कतार थी। सहसा याद आया एक बार विनोद भरद्वाज ने बताया था कि पश्चिमी देशों में संग्रहालयों के टिकट खासे महंगे हैं, लेकिन अगर आपके पास कोई प्रेस कार्ड है तो मुफ्त प्रवेश की सुविधा है। मैं एक गार्ड से पूछता हूँ कि क्या प्रेस के लिए अलग से कोई कतार है. वह बगल में जाने के लिए कहता है। गेट पर कार्ड दिखाते ही वहां तैनात एक व्यक्ति कहता है, 'दिस वे, प्लीज।’

                                                             ***

शाम हो रही है. बाहर सत्येन झा मेरा इंतज़ार कर रहे हैं। लूव्र के बाहर पटरियों पर कई भिखारी बैठे दिखते हैं और कुत्ते उनके साथी हैं—मोटे-तगड़े। कुछ लोग उन्हें खाने को दे रहे हैं। फिर से जीवों पर करुणा का दृश्य। पटरियों पर कपड़ों और कई दूसरी चीज़ों के सस्ते बाज़ार की चहल-पहल है। सत्येन के साथ उनकी प्यारी सी बेटी ईशानी है जिसकी उम्र पांच या छह वर्ष होगी।

सत्येन का ज़िक्र जर्मनी में दिव्यराज ने किया था। दोनों जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय से पढ़े हैं। एक जर्मन और दूसरे फ्रांसीसी के अध्येता। सत्येन जर्मन, स्पानी और इतालवी भाषाएँ भी जानते हैं. उनका शोध कार्य फ्रांसीसी उपन्यासकार और विचारक आंद्रे मालरो पर है जिनकी एक किताब 'द ह्यूमन कंडीशन’ चर्चित है। वे द’गोल सरकार में मंत्री भी रहे। दिव्यराज ने कहा था कि अगर कोई ज़रुरत पड़े तो मैं सत्येन से संपर्क कर सकता हूँ। लेकिन अचानक सत्येन ने ही $फोन किया। उन्होंने कहा, 'आप मेरे घर आ जाइए। वहां हॉस्टल में अकेले रहने से यह कहीं बेहतर है.’ मैं नहीं जा पाया, लेकिन शाम को उनके साथ घूमने का कार्यक्रम बन गया जिसे मोटा-मोटा पेरिस-दर्शन कह सकते हैं। रात में कुछ दूर तक शौंअलीज़े की सैर याद रखने लायक थी। बहुत चौड़ा, लम्बा और रोशन राजमार्ग, जहां फ्रांस के इतिहास के कई अध्यायों की आवाजाही हुई, राज्य क्रान्ति के बाद बास्तील पर विजय की पहली शोभा-यात्रा निकली। सत्येन ने बताया कि यह सड़क करीब दो किलोमीटर लम्बी है और कांकौर्द प्लेस से शुरू होकर आर्क द’त्रियोम्फ तक चली गयी है। दोनों तरफ फ्रांस के राष्ट्रपति के एलसी पैलेस समेत कई सरकारी नेताओं के आवास हैं। क्रिसमस में अभी दो महीने हैं, लेकिन अलीज़े की रोशनियाँ शुरू हो गयी है।

सत्येन के घर उनके हाथ का बना चिकन खाने के बाद मैं देर रात में ट्राम से लौटा। ट्राम में बहुत से अश्वेत लोग दिखे। एक स्टेशन पर कई गोरे लोग सवार हुए और कुछ देर में झगड़ा शुरू हो गया। शायद किसी फ्रांसीसी ने किसी अश्वेत लड़की पर फब्ती कसी थी या इसका उलट हुआ था। ड्राइवर ने ट्राम रोक दी। पुलिस को बुलाने की मांग होने लगी। फिर 'नहीं-नहीं’ की आवाजें उठीं। ज़्यादातर अफ्रीकी ऐसे टकराव से बचना चाहते थे। कुछ लोगों के बीच-बचाव करने से नौबत मारपीट तक नहीं पहुंची। मैंने बगल के एक अश्वेत मुसाफिर से इसकी वजह पूछी। शायद गलती अफ्रीकियों की नहीं है, फिर वे पुलिस को क्यों नहीं चाहते? उसने कहा,'गलती किसी की भी हो, पुलिस सबसे पहले काले लोगों को पकड़ती है। जाँच तो बाद में होती रहेगी।’

यानी यहाँ भी ज़बरदस्त रंगभेद है। अश्वेतों के बारे में एक स्टीरियोटाइप। शायद यह गोरे-काले का फर्क भी पेरिस का एक रूपक है। अगले दिन सत्येन से ज़िक्र किया तो वे बोले, 'यहाँ अब बहुत सी समस्याएं होने लगी हैं। सन  2015 के नवम्बर में हुए आतंकी हमलों के बाद पेरिस एक सहमा हुआ शहर बन गया है। लोगों ने खुश रहना बंद सा कर दिया है। यहाँ  रंगभेद तो रहा ही है।’ मुझे लगा, पेरिस शायद पहले से ही एक उदास शहर था जो फैशन, प्रसाधान और रहन-सहन की चमक-दमक के बल पर अपने को प्रफुल्ल बनाए रहता है।

                                                              ***

सत्येन की बेटी ईशानी बहुत प्यारी है—भोली और थोड़ा मनमौजी। उनकी पत्नी पास के किसी शहर में नौकरी करती हैं। ईशानी कभी सत्येन तो कभी अपनी माँ के पास रहती है। उन्होंने अगले दिन सामान लेकर घर आने के लिए कहा, 'मेजों से हवाई अड्डा बहुत दूर है। इतनी सुबह आप कैसे जायेंगे? कौन टैक्सी बुलाएगा? ट्राम पता नहीं मिलेगी या नहीं। मेरे यहाँ से हवाई अड्डा बहुत दूर नहीं है।’

अगली सुबह मैं रोज़ की तरह काफे लफे में नाश्ता करने जाता हूँ। पेरिस का मतलब है पनीर और काफी।  इतालो काल्वीनो 'हर्मिट इन पेरिस’ में कहते  हैं, 'पेरिस में पनीर की दूकानों पर सैकड़ों किस्म के पनीर, अलग-अलग तरह के, सजे हुए हैं। हरेक पर उसका नाम लिखा है, राख से ढंका हुआ पनीर, अखरोट से सजा हुआ पनीर-पनीरों का एक संग्रहालय, एक लूव्र.. और यह सबसे बढ़कर वर्गीकरण और नामकरण की विजय है। यानी अगर कल मैं पनीर के बारे में लिखना चाहूँ तो मैं जाकर पेरिस को पनीर के विराट विश्वकोश की तरह पढ़ सकता हूँ... यह पूरा शहर ही एक सन्दर्भ ग्रन्थ है।’ काल्वीनो इस शहर को एक विराट संग्रहालय की तरह देखते हैं:  'पेरिस में ऐसी दूकाने हैं जहां यह एहसास होता है कि यह एक ऐसा शहर है जिसने संग्रहालय नाम की संस्कृति को ख़ास तरीके से पहचान दी है और बदले में संग्रहालय ने भी दैनिक जीवन के बहुत ही विविध कार्यकलापों को अपना रूप सौंप दिया है जिससे लूव्र की गैलरियों और दूकानों की शो-विंडो के बीच एक निरंतरता कायम होती है। कहना चाहिए कि सड़क की हर चीज़ संग्रहालय में जाने को तत्पर है और संग्रहालय सड़क को अपने में समाने के लिए तैयार है।’

लौटते हुए पाता हूँ भिखारी महोदय की गृहस्थी उठ गयी है। उस युवती और उसके दोस्तों का भी नामोनिशान नहीं। वहां एक पौधे पर कई टिश्यू पेपर और एक गुब्बारा अटका है. क्या पुलिस ने उन्हें हटा दिया होगा? नहीं, शायद वे शहर के किसी दूसरे कोने को आबाद करने गए होंगे। काफे ले’फ्यूर्स बियर पीने वालों से आबाद होने लगा है। लोग देर तक यहाँ पीते-खाते रहते हैं। घरों में खाना बनाने का चलन वैसे तो पूरे यूरोप में ही बहुत कम हो गया है, लेकिन पेरिस में काफे और रेस्तराओं की संख्या और भीड़ देखकर लगता है घर में कोई बनाता-खाता नहीं है।

मेरे पास कुछ यूरो बचे रह गए हैं तो सत्येन झा के साथ खरीदारी करने निकलता हूँ। साथ में प्रैम पर ईशानी भी है। रास्ते में वह अपने पिता के कान में कुछ कहती है। वे मुझे बताते हैं कि ईशानी कह रही है कि ये अंकल मुझे जीसस क्राइस्ट की तरह लगते हैं। मैं झेंप जाता हूँ और उसके गाल थपथपाता हूँ। एक बहुत भोली बच्ची की यह टिप्पणी मुझे सिहरा देती है। दूर तक पैदल चलने के बाद हम एक मॉल को खंगालते हैं। घर के महिला सदस्यों के लिए कुछ पर्स, छोटी सी पोती के लिए कुछ फ्रॉक और सर्दियों का जैकेट। सेल्सगर्ल कहती है, 'यह हमारा सबसे बढिय़ा जैकेट है। एक ही बचा है।’ मैं ईशानी के लिए एक छोटा सा पर्स खरीदता हूँ तो वह बहुत खुश हो जाती है।

                                                          ***

अच्छा हुआ कि एफिल टावर हमने रात में देखा। दिन में वह शायद स्टील का एक लम्बा सा, आसमान को भेदता ढांचा लगता होगा। रात में वह जगमगाता है और अलग-अलग मौकों पर उसकी रोशनियों का रंग बदला जाता है। यह सप्ताह पर्यावरण को समर्पित है इसलिए उस पर रह-रह कर हरी-पीली-लाल रोशनियाँ जलती-बुझती हैं। इक्यासी मंजिल का यह शिल्प 327 मीटर ऊंचा है, जिसे गुस्ताव एफिल की कंपनी ने दो साल में पूरा किया और उसका उद्घाटन 1889 में फ्रांस की क्रांति की शताब्दी पर किया गया। इंजीनियरी और शिल्प के मेल का उदाहरण माना जाने वाला एफिल आधुनिक संरचनात्मक कला का भी प्रतिमान है। दिलचस्प यह है कि उस दौर के कई कलाकारों-लेखकों ने उसका पूरी ताकत से विरोध किया, वे पेरिस के सौंदर्य की विशिष्टता और अछूतेपन को जरा भी छेडऩे के पक्ष में नहीं थे। विरोध करने वालों में महान कथाकार मोपासां भी थे। उनका कहना था कि यह विशाल और क्रूर लौह-ढांचा नोत्रदाम, लूव्र, आर्क द’त्रियोम्फ को  अपमानित करने वाला होगा. लेकिन आज एफिल इस शहर का सबसे प्रसिद्ध प्रतीक है!

                                                           ***

कल मुझे एकदम भोर में उठना होगा। पेरिस का मेट्रो देखने की इच्छा थी, सो हम लौटते हुए उसे लेते हैं। उसकी झलक मैंने बहुत पहले फ्रांस्वा त्रुफो की फाशीवाद-विरोधी बेहतरीन फिल्म 'द लास्ट मेट्रो’ में देखी थी। यह मेट्रो सौ साल से भी ज्यादा पुरानी है जो 1900 में शुरू हुई थी और 1990  तक उसका प्रसार और विकास होता रहा। कई लाइनों पर खडख़ड़ करती और भीतर से बदरंग होती ट्रेनें हैं और स्टेशन भी आधुनिक और ऑटोमेटिक नहीं हैं, न उनमें लिफ्ट हैं न टिकट की मशीनें। सत्येन ने बताया, बहुत से लोगों को इसका पुरानापन ही पसंद है और उसे बदल कर आधुनिक नहीं बनाना चाहते। यह सफ़र ऐसा लगता था जैसे किसी ऐतिहासिक विरासत के भीतर आ गए हों।

सुबह उठने में देर हो गयी और पहला ख़याल यही आया कि फ्लाइट छूट जायेगी। सत्येन को आवाज़ दी। वे भी हड़बड़ाते हुए जागे, लेकिन बोले,’मैं टैक्सी बुलाता हूँ। अरे, आप व$क्त पर पंहुच जायेंगे।’ ड्राइवर ने कहा था कि 50 यूरो लगेंगे। कोई बात नहीं। तब भी मेरी जेब में ड्यूटी फ्री से कोई ठीक-ठाक व्हिस्की लेने लायक पैसे बचे रहेंगे। कार की रफ्तार शायद 150 मील से कम नहीं रही होगी, सो उसने मुझे व$क्त पर पंहुचा दिया। सड़क लगभग सुनसान थी, रोशनियाँ उदासी के साथ जल रही थीं जैसे रात भर के श्रम से थक चुकी हों। पेरिस हवाई अड्डे की लम्बी लेकिन स्वचालित दूरी तय करके जब लुफ्तांसा के काउंटर पर पहुंचा तो बोर्डिंग पास देने वाली महिला ने कहा, 'आप बोर्ड करने वाले आख़िरी व्यक्ति हैं!’

शुक्रिया पेरिस। जहाज़ में बैठते हुए लगा, पेरिस को चार दिनों में महसूस करना तो दूर, देख भी नहीं पाया। पता नहीं किस लेखक ने दुनिया के कुछ बड़े शहरों के व्यक्तित्व और स्वभाव का खाका बनाते हुए कहा था कि पेरिस एक स्त्री है जो हमेशा किसी प्रेमी का इंतज़ार करती रहती है। लेकिन इन चार दिनों में मैं उस स्त्री से नहीं मिल पाया। शायद वह उन्हीं लोगों को दर्शन देती है जो उसके आंतरिक संसार से, उसकी आत्मा से प्रेम करते हों, उसके प्रतीकों और अलंकरणों, उसके फैशन और प्रसाधनों और कपड़ों और घडिय़ों, उसके एफिल और नोत्रदाम और शौंअलीज़े से नहीं।

 

 

 

 

 

 

 

पेरिस पर तीन कविताएँ

            मैंने रात को शहरों में सपने देखे

                                                  रेम्को कम्पर्ट

(नेदरलैंड्स के प्रसिद्ध डच कवि और कथाकार। उन्होंने रेडियो के लिए नाटक भी लिखे और दैनिक अख़बारों के स्तम्भ भी। वे पुरानी पीढ़ी के अग्रणी लेखक माने जाते हैं।)

 

रात को मैंने शहरों में सपने देखे

पेरिस में चौराहों पर भटका

डामर की सड़कों पर गिरे हुए पैसे ढूंढ़ता रहा

ढाबे मुझे अपनी ब्लैक कॉफ़ी और सख्त उबले हुए अण्डों के साथ लुभाते रहे 

मैं वहीं रुका रहा भोर होने तक

बास्केटबॉल के जूते पहने हुए

लिखता हुआ सुनता हुआ और पीता हुआ

आसमान पर पहली गुलाबी लकीर सुबह के पहले मजदूर सुबह-सुबह साइकिलों

पर पहली मेट्रो

पीले मनुष्य-चेहरों और गर्दन के बालों के साथ

जो अभी गीले थे

पहले प्रकाश में पहला अख़बार

पेरिस में मैंने सपना देखा मैं बात कर रहा हूँ

दुपों में एक फिल्म की शूटिंग चल रही थी

जुलिएत्ते ग्रेको* और किसी आदमी के साथ

जो मुझे दिखाई नहीं दिया 

रात में शहर लोगों के प्रेमी होते हैं

अपने कोमल और प्रकाशमान हाथों के साथ

रात में शहर

लोगों के कंधों और बालों को सहलाते हैं

मैंने देखा है महसूस किया है

मैंने शहरों को सुना है जब वे रात में सो जाते हैं

अपनी नदियों और अपने पेड़ों की बगल में

मैंने लोगों से बात की है उनके शहरों के

कैफे और सिनेमाघरों में

रात में और सांझ की आभा में

मैंने उनका टर्किश तम्बाकू पिया है

और अमेरिकी और अल्जीरियाई भी

मैं उनके साथ पीता रहा और हंसता रहा

उनके साथ चूमता और रोता रहा

उनके शहरों की रात में

वे थके हुए थे और प्रफुल्ल थे या मायूस

मैंने सपना देखा कि मैं सिर्फ़ एक जीभ हूँ

सिर्फ़ दांत, सिर्फ़ होंठ

मैंने सपना देखा कि मैं सिर्फ़ शब्द हूँ

और सांत्वना देती हुई भंगिमा हूँ

मैंने रात में शहरों के चक्कर काटे 

हर कदम पर एक दुनिया को पाया 

मुझे लोगों के चेहरों पर खुशी दिखी

उनके शब्दों की साँसों में पीड़ा नज़र आयी

मैंने बेशुमार सपने देखे

सुबह छह बजे मैंने सपना देखा

मैं मेज पर अपना सिर टिकाये हुए हूँ 

दोनों हाथ उसके इर्दगिर्द डाले हुए हूँ 

मेरे दोस्त थे मेरे चारों ओर

मैंने लोगों के साथ सपने देखे 

सपने देखे दुनिया के साथ

मैंने शहरों के सपने देखे रात में।

* * *

पेरिस में तुम्हारे साथ

                      जेम्स फेंटन

(ब्रिटेन के सबसे प्रमुख कवि। पत्रकार के नाते उन्होंने  वियतनाम युद्ध की रिपोर्टिंग की और वियतकांग की विजय के पहले टैंक में बैठे। अपने बेबाक लेखन और वामपंथी रुझान के लिए चर्चित)

 

मुझसे प्यार की बात मत करो। मेरे कान उससे भरे हुए हैं।

और एक-दो पेग गटकने के बाद मेरे आंसू आ जाते हैं।

मैं हूँ तुम्हारा एक घायल बोलता-बतियाता हुआ।

मैं एक बंधक हूँ। तुम्हारा दास।

लेकिन मैं पेरिस में हूँ तुम्हारे साथ।

 

हाँ, मैं नाखुश हूँ अपने साथ हुए धोखे पर।

और क्रूद्ध हूँ उस सबसे जो कुछ बीती है मुझ पर।

मानता हूँ मैंने फिर से जोड़े हैं रिश्ते के तार

और परवाह नहीं किस अंजाम तक पहुंचेगा प्यार।

मैं पेरिस में हूँ तुम्हारे साथ।

 

क्या तुम्हें बुरा लगेगा अगर हम न जाएँ लूव्र

अगर हम कहें भाड़ में जाए बकवास नोत्रदाम,

अगर हम रहने दें शौंअलीज़े की सैर

और यहीं बने रहें इस

 

पुराने होटल के कमरे में

पता नहीं क्या-क्या कुछ और

क्योंकर और किसके लिए करते हुए

यह जानने की कोशिश में कि तुम कौन हो

यह जानने की कोशिश में कि मैं क्या हूँ।

 

मुझसे प्यार की बात मत करो। हम पेरिस की बात करें,

हमारी आँखों में जितना कुछ पेरिस है।

उधर छत पर एक दरार पडी है

और होटल की दीवारों से पपडिय़ाँ उतर रही हैं

और मैं पेरिस में हूँ तुम्हारे साथ।

 

मुझसे प्यार की बात मत करो। हम पेरिस की बात करें।

मैं पेरिस में हूँ तुम्हारी किसी भी ज़रा सी हरकत के साथ।

मैं पेरिस में हूँ तुम्हारी आँखों के साथ, तुम्हारे मुंह के साथ।

मैं पेरिस में हूँ... आल पॉइंट्स साउथ* के साथ।

मैं तुम्हें शर्मसार तो नहीं कर रहा?

मैं पेरिस में हूँ तुम्हारे साथ।

 

* शाल का एक ब्रांड जिसकी डिजाइन नीचे से ऊपर को जाती है।

            पेरिस 1939

                            सेसार वाय्येखो

(लातिन अमेरिका के महानतम कवियों की पंक्ति में शामिल वाय्येखो आर्जेंतीना में जन्मे थे। वे लातिन अमेरिका के पहले आधुनिक महान कवि माने जाते हैं। उनके हिंदी अनुवाद सन 1970  में पहले-पहल प्रेमलता वर्मा ने किये थे।)

 

सिर्फ मैं हूँ जो जाता है इस सबसे दूर।

जाता है दूर इस बेंच से, अपनी पतलून से,

अपनी लाजवाब परिस्थिति से, अपनी सक्रियता से,

सिर्फ मैं हूँ जो जाता है इस सबसे दूर।

 

जाता हूँ शौंअलीज़े से या जब चाँद का विचित्र पथ

मुड़ता है, मेरी मृत्यु जाती है दूर, जाता है मेरा पालना,

और लोगों से घिरा हुआ मेरा मानवीय प्रतिरूप

अकेला और विच्छिन्न पीछे मुड़ता है

और एक-एक कर भेजता जाता है अपनी छायाएं.

 

और जब मैं हर चीज़ से दूर होता हूँ, तभी से हर चीज़

मेरे जैसे किसी और की तामीर के लिए बची रहती है:

मेरा जूता, उसके छेद, और उसका कीचड़ भी,

और मेरी अपनी बटन-लगी कमीज़ की

कोहनी का मुड़ा हुआ सिरा भी।

 

                                   (अंग्रेज़ी से सभी अनुवाद: मंगलेश डबराल)

 

हमारे समय के बड़े रचनाकार मंगलेश डबराल कविता और गद्य दोनों पर समान अधिकार रखते हैं। जब पत्रकारिता की; उसमें भी नये रास्ते बनाने की कोशिश की। यहाँ छपे ट्रेवलॉग से उनका 'एक बार आयोवा’ याद आता है। लगता है मंगलेश का नया वृत्तांत एक नई कृति के रूप में जल्दी आयेगा। उन्होंने इस बीच काफी सैर की है। हाल ही में अरुन्धति राय के नए उपन्यास का मंगलेश द्वारा अनुवाद प्रकाशित हुआ है, जिस पर इसी अंक में अन्यत्र रमेश अनुपम ने लिखा है।

 


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