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जून 2019

ज़मीन की मरजाद वाली भारतीयता

विनोद शाही

पुर्नमूल्यांकन

गोदान के अस्सी बरस

 

 

गोदान (1936)

 

 

बहुत से आलोचक सवाल उठाते हैं कि हमें 1936 में प्रकाशित 'गोदान’ को अपने समय में फिर से क्यों पढऩा चाहिए? उन्हें लगता है कि 'गोदान’ में जिन समस्याओं को उठाया गया था वे आज उतनी गहन और गंभीर नहीं रह गई हैं। छोटे किसानों में आत्मघात की प्रवृत्ति के बढऩे से ताल्लुक रखने वाले हमारे समय से 'गोदान’ बहुत अलग लगता है। 'गोदान’ में औपनिवेशिक दौर के हालात तब के किसानों की दुर्दशा के लिये ज़िम्मेदार थे। पर अब न उस तरह के लगान का बोझ है, न ज़मींदारी व्यवस्था का वर्चस्व ही रह गया और न महाजन की अन्यायपूर्ण कर्ज़ की वसूली किसान को अपनी मृत्यु की ओर धकेलती है। मौजूदा उत्तर-औपनिवेशिक पूंजी वाले हमारे दौर में बैंक, बाज़ार, सरकारी कर्ज़, वैज्ञानिक शोध के कारण थोड़े मुनाफे को निगल जाने वाले ज़्यादा मंहगे बीज और उर्वरक और खेती के यांत्रिकीकरण ने छोटे किसान को अपने समय से बेहद पिछड़ा हुआ जीव बना दिया है, जिससे अब वह नये हालात में जी पाने में भी नाकामयाब होकर आत्महत्या को इस दुष्चक्र से बाहर आने का एकमात्र रास्ता मानने की हद तक जा रहा है। ये दोनों स्थितियां एक दूसरे से बेहद अलग हैं। फिर हम आज 'गोदान’ की ओर क्यों देखें, यह पूछा जा सकने लायक वाज़िब सवाल बन गया है।

पर यह सवाल इसलिए इतना विचारणीय हो गया है, क्योंकि बहुत से लोग प्रेमचंद को एक समस्याप्रधान उपन्यासकार के रूप में देखते हैं। अगर 'गोदान’ को एक समस्याप्रधान उपन्यास कहा या माना जाता है, तो इसका मतलब यह है कि इस उपन्यास को जानने समझने की यह दृष्टि सरलीकृत है। सरलीकृत नुक्तेनिगाह से ही यह बात कही जा सकती है कि अब यह उपन्यास अपनी प्रासंगिकता खो चुका है।

दूसरी तरफ 'गोदान’ को आज भी महत्वपूर्ण मानने के पक्ष में कुछ लोग कुछ अन्य तरह की दलीलें दे रहे हैं। उनकी निगाह यह है कि प्रेमचंद इतने बड़े हो गये हैं कि उन्हें अब एक इतिहास-पुरुष के रूप में देखना चाहिए। पर यह बात तभी थोड़ी अर्थपूर्ण हो सकती है जब हम यह कहें कि उनके उपन्यासों में लौटने का प्रयोजन हो सकता है कि हम उन उपन्यासों की मार्फत उस समय के इतिहास को जानने और समझने का प्रयास करें। इस तरह देखते हुए हम प्रेमचंद को, अपने औपनिवेशिक दौर के समाज के यथार्थ को करीब से समझने के लिए आधार की तरह देखने का आग्रह कर सकते हैं। परंतु यह आग्रह भी बहुत समीचीन नहीं है, क्योंकि यह एक साहित्यिक कृति के साथ पूरा न्याय नहीं करता।

'गोदान’ को यदि हमें उस समय के इतिहास की करीबी समझ के लिए पढऩा हो, तो उसके लिए अन्य स्रोत बराबर के महत्व के दिखाई दे सकते हैं। हम इतिहास और समाजशास्त्र की किताबों की ओर रुख कर सकते हैं। परंतु उन ज्ञानानुशासनों की मौजूदगी के बावजूद अगर हम 'गोदान’ को आज भी महत्वपूर्ण पाते हैं, तो उसके कुछ अन्य कारण होने चाहिए।

कुछ आलोचकों का मत है कि 'गोदान’ के होरी और धनिया जैसे पात्र इतने जीवंत हैं कि वे आज भी हमें आकर्षित करते हैं। किसी पात्र के महत्व को जानने और समझने का एक आधार यह होता है कि वह पात्र उपन्यास की स्थितियों में किस प्रकार अपने युग का प्रतिनिधि होने के साथ-साथ, किस हद तक बदलता है और अपने माध्यम से युग स्थितियों को किस प्रकार एक नया अर्थ प्रदान करता है। परंतु आलोचकों की राय यहां भी 'गोदान’ के पात्रों के पक्ष में नहीं जाती। इसकी वजह यह है कि होरी, धनिया, गोबर, मालती, मेहता और राय साहब जैसे जो पात्र इस उपन्यास में दिखाई देते हैं, उनके व्यवहार और आचरण में उपन्यास की स्थितियां कोई बड़ा परिवर्तन प्रस्तुत नहीं करतीं। वे जैसे आरंभ में दिखाई देते हैं, अंत में भी वे कमोवेश वैसे ही नज़र आते रहते हैं। उनके इस तरह यथास्थितिपरक होने के कारण उन्हें हम युग के जटिल यथार्थ के प्रतिनिधि नहीं कह सकते। उन्हें युग की परिस्थितियों में रचनात्मक हस्तक्षेप करने वाले पात्रों की तरह नहीं देख सकते।

तब यह प्रश्न उठता है कि 'गोदान’ जैसे बड़े उपन्यास की महानता को किस आधार पर परखा और समझा जा सकता है। जहां तक उपन्यास की कथा संरचना का सवाल है, वह भी आलोचकों को इस उपन्यास में काफी अनावश्यक विस्तार लिये हुए दिखाई देता है। अनेक आलोचक इसकी ग्राम कथा और शहर की कथा में कोई बड़ा आपसी संवाद सूत्र और तालमेल नहीं देख पाते। इस कारण कुछ तो इससे दो समांतर उपन्यासों को एक साथ रख दिए जान वाले संहिता-ग्रंथ की तरह देखते हैं। ये संरचनात्मक कमजोरियां इस उपन्यास की महानता को परखने के रास्ते में बड़ी रुकावट बन जाती हैं।

इन तमाम आपत्तियों के बावजूद यह बात भी सही है कि यह उपन्यास अभी तक पाठकों को आकर्षित करता है। इसकी मार्मिकता कारुणिकता और यथार्थ के करीब होने की क्षमता आज भी पाठकों को अक्सर अभिभूत करती है। इस कारण इस उपन्यास को किस कोटि में रखा जाए, यह बात अब बार-बार पुनर्विचारणीय मालूम पडऩे  लगी है। विचारधारा के आधार पर इस उपन्यास की श्रेष्ठता को बताने के लिए यह भी कहा जाता रहा है कि यह उपन्यास हमारे यहां गांधीवाद से मुक्ति पा सकने का प्रेमचंद का एक महत्वपूर्ण प्रयास है। इस वजह से यह उपन्यास यथार्थ के और अधिक करीब हो गया मालूम पड़ता है। कहा जाता है कि आदर्शवाद अथवा आदर्शोन्मुख यथार्थवाद से निजात पाकर 'गोदान’ अपनी खालिस यथार्थवादी ज़मीन के साथ और उससे ताल्लुक रखने वाले पात्रों के साथ अधिक विश्वसनीय तरीके से खड़ा नजर आता है। कुछ आलोचकों की यह राय भी गौरतलब है कि प्रेमचंद हजार जुबान से बोलने वाले रचनाकार हैं। इसलिए उनके उपन्यासों में इस भाषापाठीय सामथ्र्य को उनकी महानता की एक कसौटी की तरह देखा जाना चाहिए। जहां तक इस उपन्यास में वर्णित की गई समस्याओं के बारे में आलोचकों ने अपनी राय जाहिर की है, यह उपन्यास कुछ विशिष्ट समाजार्थिक दृष्टियों से भी देखा और परखा गया है। जिन्होंने आर्थिक आधार को अपने विश्लेषण की मूल दृष्टि की तरह अपनाया है, उन्हें लगता है कि 'गोदान’ महाजनी अर्थतंत्र से जुड़ी कर्ज़ की समस्या वाला ऐसा उपन्यास है, जो औपनिवेशिक दौर की अर्थव्यवस्था के अंतर्विरोधों को हमारे सामने प्रस्तुत करता है। कुछ लोग इसे सभ्यतामूलक दृष्टि से देखते हुए इसमें लोक मरजाद के महत्व को स्थापित हुआ पाते हैं। वे उस लोक-मरजाद को निभाने के गैरजरूरी मोह को इस उपन्यास की त्रासदी का कारण पाते हैं। कुछ के अनुसार यह उपन्यास गांव की कथा को अपना प्रमुख आधार बनाता है। गाय, इस उपन्यास की संरचना की आंतरिक व्यवस्था और लय को समझने के लिए एक प्रतीक का काम करती है। इस तरह यह उपन्यास भारतीय समाज की गाय से जुड़ी हुई सभ्यता संस्कृति के महत्व को स्थापित करने वाले उपन्यास की तरह हमारे सामने आता है।

कुछ लोग किसान की व्यथा और किसानी से जुड़ी हुई समस्याओं को आधार मानकर इस उपन्यास की व्याख्या करते हैं। उनके अनुसार भारतीय किसान का औपनिवेशिक दौर में जिस तरह का दोहन शोषण हुआ है, उसने उसकी कमर तोड़ दी है। ग्राम केंद्रित उपन्यास की तरह 'गोदान’ को देखते हुए यह देखा और दिखाया जाता है कि भारत की आत्मा गांव में बसती है, इसलिए 'गोदान’ को पढऩे का अर्थ यह है कि हम इसकी मार्फत भारत की आत्मा के करीब होते हैं। इस दृष्टि से देखने पर 'गोदान’ की शहर की कथा को ग्राम कथा के पूरक के रूप में देखने का प्रयास किया जाता है। इसमें और अधिक गहराई उस दृष्टिकोण के माध्यम से पैदा होती है, जो हमें यह देखने का आग्रह करता है कि 'गोदान’ में मौजूद गांव की दुनिया का संबंध औपनिवेशिक यथार्थ से है। औपनिवेशिक दौर में जो लगान की व्यवस्था की गई थी, उसकी आड़ में ज़मीदार वर्ग भारत के गांव का दोतरफा शोषण करने में लग गए थे। एक तरफ वे अंग्रेजों के हितों के पोषण के लिए लगान की वसूली करते थे और दूसरी तरफ वे अपने निजी स्वार्थ की पूर्ति को सामने रखते हुए किसानों पर अतिरिक्त बोझ भी लाद रहे थे। ज़मीदारों में अधिकांश शहरों की अर्थव्यवस्था में भी अपनी दखल रखते थे। उनकी देश की सत्ता संरचना में भी थोड़ी बहुत भागीदारी दिखाई देने लगी थी। इस तरह गांव के किसान का शोषण मुख्यत: जमींदारों की छत्रछात्रा में होता देखा जा रहा था। ज़मीदार वर्ग के संरक्षण में गांव के महाजन वर्ग की भी खूब चांदी हो गई थी और वे मरते हुए किसान का पूरा रस निचोड़ लेने के लिए बचे खुचे संसाधनों पर गिद्ध की तरह नज़र गड़ा कर बैठे रहते थे। इसमें भारत के ब्राह्मणों ने भी अपनी पूरी हिस्सेदारी निभाई थी। वह भी सांस्कृतिक चेतना के आधार पर मानवीय होने की बजाय सांस्कृतिक कर्मकांड के आधार पर मर रहे किसानों का अपने हित में और अधिक शोषण करने लगे थे। इस तरह प्रेमचंद के 'गोदान’ में जिस ग्राम केंद्रित परिवेश को देखा जाता है, वहां हम छोटे किसान और निम्न वर्ग को एक तरफ खड़ा पाते हैं और महाजन, ब्राह्मण, जमींदार तथा अंग्रेजों की औपनिवेशिक सत्ता व्यवस्था को दूसरी तरफ। इस तरह गांव और शहर भी एक दूसरे के विरोध में आमने सामने खड़े दिखाई देने लगते हैं। वहां गांव का छोटा किसान और निम्न वर्ग के पात्र शोषित हैं और शेष सभी उनके श्रम का अमानवीय तरीके से शोषण करते दिखाई देते हैं। यदि हम 'गोदान’ की व्याख्या उपर्युक्त तरीके से ग्रामीण परिवेश की वर्गगत असमानता उनके अर्थ तांत्रिक अंतर्विरोधों और सत्ता की अमानवीय दखल के रूप में करते हैं, तो हमारे सामने एक बेहद डरावना परिदृश्य उभर आता है। प्रेमचंद के उपन्यास के शीर्षक में इस भय के कारण को साफ तौर पर देखा पहचाना जा सकता है। गोदान, मृत्यु के पश्चात किया जाने वाला कर्मकांड है। इस अर्थ में 'गोदान’ छोटे किसान और निम्न वर्ग के त्रासद अंत के पश्चात होने वाले किसी विवश गोदान की कथा हो जाता है।

उपर्युक्त तरीके की तमाम व्याख्याएं या तो उपन्यास को समस्या केंद्रित मानने से जुड़ी हैं, या उसे संरचना केंद्रित समझने से। दोनों ही तरीके उपन्यास को शिल्प और वस्तु में तोड़ते हैं। जबकि वस्तुस्थिति यह है कि शिल्प के धरातल पर जो कमजोरियां उपन्यास में नज़र आती हैं, कमोबेश वैसी कमजोरियां इसके कथ्य में भी दिखाई देने लगती हैं। कथ्य को समस्या केंन्द्रित मानने से होता यह है कि उपन्यास के कथानक की जटिलताएँ एक बेहद सरलीकृत यथार्थ में बदल जाती हंै। 'गोदान’, इस तरीके से देखने पर, निम्न वर्गों और छोटे किसान की पूर्वनिर्धारित त्रासदी के क्रमिक रूप में सामने आने का आख्यान भर हो कर रह जाता है। ऐसा सरलीकृत कथ्य अपने आप में ही शिल्प को दो फाड़ करने की आधार भूमि बन जाता है। उस आधार पर गांव और शहर भी जुदा जुदा हो जाते हैं। किसान और निम्न वर्गों के मनुष्यों के विरोध में खड़ा शेष पूरा समाज उनसे अलहदा खड़ा नज़र आता है और यह प्रतीत होने लगता है जैसे कि इन दोनों के बीच केवल दिखाने भर का ही एक रिश्ता है। इस रिश्ते का बहाना कर सभी अपने-अपने मानवीय होने की पुष्टि करना चाहते हैं। जबकि हकीकत इसके ठीक उलट है। उपन्यास को इस प्रकार की आलोचना दृष्टि के द्वारा खंडित करने से उपन्यास की रचनाशीलता की हत्या हो जायेगी, यह स्वाभाविक है। प्रेमचंद के गोदान की अब तक की अधिकांश आलोचनाओं का यह पूरा परिदृश्य इस उपन्यास की रचनाशीलता को नष्ट करने और उसके टुकड़ों को अपने अपने मत की पुष्टि के लिए इस्तेमाल करने की हद तक चला गया है। आइए, इस पूरे परिदृश्य को पीछे छोड़ते हुए इस उपन्यास की समीक्षा करने का एक अलग तरह का प्रयास करते हैं।

'गोदान’ को जो महत्व हमें आज तक बना हुआ नज़र आता है, उसके पीछे उपर्युक्त कारणों की बजाय कुछ अन्य कारण काम करते प्रतीत होते हैं। यहां गौरतलब यह है कि 'गोदान’ हिंदी की आधुनिक कथा की परंपरा का पहला ऐसा महत्वपूर्ण उपन्यास है जिसे भारतीय ढंग का उपन्यास कहा जा सकता है।

प्रेमचंद के उपन्यासों में मुख्यत: अंग्रेजी ढंग का उपन्यास लिखने की प्रवृत्ति दिखाई देती है। वह उन उपन्यासों को किसी निश्चित अंत तक ले जाती है। परंतु 'गोदान’ एक अलग तरह का उपन्यास प्रतीत होता है। वह जहां से शुरू होता है, लगभग वहीं बना रहता है। वह अपनी आरंभ जैसी स्थितियों को गहरा कर ही अपने अंत तक पहुंच जाता है। कथा के धरातल पर इसमें जो अंतर्विकास होता है, वह ऐसा नहीं है जो इसके पात्रों में कोई बड़े चारित्रिक परिवर्तन पैदा करने वाला हो। न ही ऐसा है कि जो हालात इस उपन्यास के अंत में हमारे सामने आते हैं उनसे सामाजिक, आर्थिक या सांस्कृतिक स्थिति में हमें किसी तरह का बदलाव देखने को मिलता हो। न हम वहां यथास्थिति के किसी विकल्प को खोजने की कोई संभावना देख पाते हैं। इसलिए कुछ आलोचकों ने 'गोदान’ को यथार्थवादी किस्म का ऐसा उपन्यास कहने का प्रयास किया है, जो गांधीवादी मानसिकता से मुक्त होने के कारण महत्वपूर्ण हो गया है। यह विचार इस उपन्यास पर एक गैरज़रूरी आरोप है। प्रेमचंद के बाकी उपन्यासों की तुलना में 'गोदान’ यथार्थ के अधिक करीब आया है, इसमें कोई संदेह नहीं है। परंतु प्रेमचंद की बतौर लेखक यह कोई समस्या नहीं है कि उन्हें 'गोदान’ लिख कर गांधीवाद से मुक्ति पानी है और मार्क्सवाद के करीब जाना है। उपन्यास को थोड़ी गहराई से देखें, तो यहां भी हमें मेहता और मालती अंत में समाजसेवा की ओर मुड़ते दिखाई देते हैं और इस उपन्यास की ग्रामकथा को जो एकमात्र खलनायक है, जिसे हम होरी के भाई हीरा के रूप में देखते हैं, उसका साफ तौर पर इस उपन्यास में हृदय परिवर्तन ही नहीं, चारित्रिक परिवर्तन तक करा दिया जाता है। इसलिए इस उपन्यास की व्याख्या गांधीवाद से मुक्ति या मार्क्सवाद की ओर उन्मुखता के आधार पर नहीं की जा सकती। गांधीवादी या मार्क्सवादी तरीके का होने की बजाय 'गोदान’ भारतीय ढंग का उपन्यास इसलिए है, क्योंकि इसका पूरा ताना-बाना वास्तविक यथार्थ जगत से जुड़ी घटनाओं के द्वारा ही नहीं बुना गया है, अपितु उन घटनाओं और स्थितियों के पीछे मौजूद भारतीय मनुष्य की जातीय स्मृतियों और उसके सभ्यतामूलक सरोकारों के आधार पर रचा गया है।

भारतीय उपन्यास 'गोदान’ के साथ पहली दफा अपने जातीय सभ्यतामूलक परिदृश्य में छलांग लगाता हुआ मालूम पड़ता है। यहां बाहर की सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक दुनिया में घटने वाली तमाम वास्तविक यथार्थमूलक घटनाएं गहरा कर हमारी जातीय स्मृतियों और सभ्यतामूलक सरोकारों से विकसित होकर अर्थपूर्ण होती हैं और उन्हीं के भीतर से पैदा हुए तनावों के कारण अपनी परिणतियों तक पहुंचती हैं। कथानक का यह एक बिल्कुल अलग तरह का शिल्पगत ताना-बाना है। यहां बाहर घटने वाली घटनाओं के भीतर एक अन्य दुनिया जीवंत होकर हमारे सामने प्रस्तुत होती है और वह उतनी ही संलग्नता के साथ अपना काम करती है, जितना कि बाहर घटने वाली घटनाएं। इसलिए जब हम यह कहते हैं कि इस उपन्यास में बाहर की घटनाएं कोई बड़े परिवर्तन हमारे सामने प्रस्तुत नहीं करती, तब हम यह भूल जाते हैं कि यहां वे घटनाएं जो बाहर घटी हैं वे गहरे में जातीय और सभ्यतामूलक अर्थों में कितने बड़े परिवर्तन पैदा कर रही हैं।

ऊपर से देखने पर लगता है कि ग्राम कथा में एक सीधा-साधा कथानक है। होरी के पास थोड़ी ज़मीन है। ज़मीन उसे अपने प्राणों से भी अधिक प्रिय है। ज़मीन से अलहदा होना होरी को किसी कीमत पर स्वीकार नहीं है। इसलिए होरी जानबूझकर अपने आप को अनेक तरह के अवांछित दबावों के सामने नतमस्तक होने से रोकता नहीं। वह ज़मीन को बचाना चाहता है। अपने घर को बचाना चाहता है। इसलिए वह दूसरों के अन्यायपूर्ण शोषण को भी सिर झुका कर स्वीकार कर लेता है। उसका प्रतिकार नहीं करता। कुछ लोगों को लगता है कि उपन्यास में होरी का यह व्यवहार एक किसान के सीधे-साधेपन का पर्याय है। यह सही है परंतु यदि हम इसकी व्याख्या नहीं करेंगे तो यह सीधासादापन हमें केवल एक बेवकूफी भरा व्यवहार मालूम पड़ेगा। जिसे हम एक किसान का बालमन सा वाला सीधासादा व्यवहार कहते हैं, वह गहरे में उसकी जातीय और सभ्यतामूलक गहराई से जन्म लेता है। अपनी जातीय स्मृतियों और सभ्यतामूलक सरोकारों के साथ वह कभी कोई समझौता नहीं कर सकता। यह भारतीय मानस की गहरी संरचना है जिसकी ओर बहुत कम लोगों का ध्यान गया है।

होरी और धनिया इस आंतरिक सभ्यतामूलक एवं जातीय व्यक्तित्व से युक्त होने के कारण बेहद सप्राण और जीवंत मालूम पड़ते हैं। बाहर की घटनाओं में होता यह है कि ज़मीन के साथ-साथ होरी को एक गाय पाने की भी गहरी इच्छा है। गाय मिल जाने के बाद उसका भाई उसकी हत्या कर देता है और गांव छोड़कर भाग जाता है। गौहत्या के दोष से भाई को बचाने के कारण होरी को बहुत जुर्माना भरना पड़ता है। उसके खेत खलिहान की जमा पूंजी उसमें चली जाती है। फिर उसका अपना बेटा गोबर जिस लड़की को बिना ब्याह गर्भवती कर देता है, उसे होरी और धनिया अपनी बहू के रूप में स्वीकार करके उसी भलमनसाहत का परिचय देते हैं। फिर से दंड भरना पड़ता है। लोक मरजाद के नाम पर उसको फिर से लूटा जाता है। अबकी दफा उनका घर भी गिरवी हो जाता है और पूरी फसल ब्राह्मण भोज के लिए काट ली जाती है, जिससे घर में पूरी तरह दरिद्रता दिखाई देने लगती है। गोबर शहर में जाकर थोड़ा बहुत धन कमाता है। वह पिता को अपनी यह सभ्यतामूलक भलमनसाहत छोड़ देने के लिए भी कहता है। उसे कई तरह के अन्याय से बचाता भी है। परंतु होरी जस का तस रहता है। उसके व्यक्तित्व और चरित्र में कोई परिवर्तन नहीं आता। अंतत: अपनी दोनों बेटियों को किसी तरह ब्याह देने के बाद वह अपने खेतों को गिरवी होता देखता है। इसके बाद मजदूरी करता हुआ सामथ्र्य से अधिक श्रम करने की वजह से मृत्यु का शिकार होता है। उसकी मृत्यु के बाद उसका जो गोदान कराया जाता है उसमें घर की आखिरी जमा पूंजी भी चली जाती हैं। अब यह जो कथानक है, इसमें जो अंतर्विकास दिखाई देता है वह थोड़ी गरीबी से अत्यधिक गरीबी तक का सफर है। वह भलमनसाहत की रक्षा करते करते अंतत: तबाह हो जाने का सफर है। इसलिए ऊपरी तौर पर बाहरी कथानक में हमें कोई बड़े नाटकीय परिवर्तन दिखाई नहीं देते। इससे यह भी प्रतीत होता है कि कथा जैसे अपने किसी पूर्वनिर्धारित अंत की ओर आगे बढ़ती जाती है। परंतु इसके बावजूद वह पूर्वनिर्धारित अंत भी हमें बेहद संवेदित करता है, करुणापूर्ण बनाता है और हम होरी और धनिया को जैसे सदा के लिए अपने साथ जीवंत रूप में साथ लेकर चलने के लिए विवश हो जाते हैं। यह क्यों है?

हम गोबर को अपने साथ लेकर चलने के लिए उस तरह विवश नहीं होते। हालांकि वह अधिक प्रगतिशील और थोड़ा बहुत क्रांतिकारी विचारों से युक्त तक लगता है। इसका कारण स्पष्ट है। गोबर जैसे व्यक्तित्व जो सीमित किस्म का प्रतिरोध करते हैं, उससे सत्ता व्यवस्था में कहीं कोई सेंध नहीं लगती। औपनिवेशिक सत्ता का चरित्र उतना ही अमानवीय बना रहता है और वह जो पूंजी की दुनिया है वह औद्योगिक पूंजी में जिस तरह से बदल रही है वह अपने परजीवी चरित्र से कभी मुक्त नहीं होती। इसलिए वह भारतीय मजदूरों के हितों की रक्षा करने लायक कभी नहीं हो पाता। हमारे परजीवी औद्योगिक विकासतंत्र में बहुत सीमित किस्म का मुनाफा दिखाई देता है, जो या तो उद्योग का विकास कर सकता है या मजदूरों को उनका न्यायपूर्ण हक दे सकता है। वह ये दोनों काम एक साथ कर पाने लायक कभी नहीं होता। इसलिए भारतीय परिदृश्य में औपनिवेशक किस्म की औद्योगिक पूंजी भारत के विकास के मामले में बहुत सकारात्मक भूमिका निभाने से चूक जाती है। अपर्याप्त औद्योगिक पूंजी के चलते, पुरानी पतनशील व्यापारिक पूंजी और अधिक अमानवीय होकर हमारे सामने आती है। शहर की कथा और गांव की कथा को जोडऩे वाला सूत्र, यही पूंजी की दुनिया है।

व्यापारिक पूंजी वाली जो परंपरागत दुनिया थी, वह हमारे यहां सभ्यतामूलक अंतर्विकास के लिए बहुत गहरी संभावना से युक्त थी। परंतु औद्योगिक पूंजी के परजीवी चरित्र के दबाव में हमारी व्यापारिक पूंजी भी उसी के प्रभाव में चली गई। ये हालात छोटे किसान और निम्न वर्गों के पात्रों को एक खास तरह के यथास्थितिमूलक भंवर में डाल देते हैं। वे व्यापारिक पूंजी पर निर्भर हुए बिना अपना काम नहीं चला पाते। परंतु व्यापारिक पूंजी के मानवीय पक्ष के नष्ट हो जाने के कारण अब उनके लिए विकास की संभावाएं भी उसी अनुपात में नष्ट हो गई हैं। व्यापारिक पूंजी अपने आप में लाचार हो गयी है, क्योंकि वह औपनिवेशिक दौर में अपर्याप्त विकास कर रही औद्योगिक पूंजी पर निर्भर होकर अपना काम चलाने लगी है। इससे उसका चरित्र दलाल पूंजी के चरित्र में बदल जाता है। वस्तुस्थिति यह होती है कि ज़मीन से होने वाले श्रममूलक उत्पादन के साथ इस पूंजी का अब कोई सीधा रिश्ता नहीं रह जाता। वह केवल दलाली करके अपने आप को किसी तरह बचाने का प्रयास करती है। यह दलाल वर्ग गांव में जमींदार के कारिंदों और महाजनों के रूप में फलता फूलता है। शहरों में दलाल वर्ग के प्रतिनिधियों के अलावा शेष तमाम लोग पूंजी से उपजे अंतर्विरोधों के दुष्चक्र में फंस कर लाचार हुए सीमित विकास करते हुए ही दिखाई देते हैं। इसलिए हम यह भी देखते हैं कि छोटे किसान और निम्नवर्गों के मन में महाजनों और ज़मींदारों के कारिंदों के प्रति जितनी नफरत है, उतनी समाज के किसी अन्य वर्ग के प्रति नहीं। यह नफरत सीधे-सीधे भारत के औपनिवेशिक हालात और उसकी सत्ता संरचना के खिलाफ बहने वाली भावधारा की तरह है। कहीं पर इसकी कोई सुनवाई नहीं है। उत्पादन आधारित पूंजी को विवश बनाकर औपनिवेशिक सत्तातंत्र केवल दलालों को महत्वपूर्ण बनाता है। ऐसी स्थिति में सभी यथास्थितिमूलक हालात के भंवर में बस इधर से उधर घूमते दिखाई देते हैं। ऐसी स्थिति में प्रेमचंद जब अपने कथानकों को एक गरीब के और अधिक गरीब होते जाने के हालात की तरह विकसित करते हैं, या एक उद्योगपति के बहुत कठिनाई से धीरे-धीरे विकास करने के हालात को दिखाते हैं, तो वे उस दौर के पूंजीगत परिदृश्य को ठीक-ठीक हमारे सामने प्रस्तुत कर रहे होते हैं। जब हालात यथास्थिति मूलक हों, तो हम इससे उपजे पात्रों और उनके चरित्रों में बड़े परिवर्तनों के लिए गुंजाइश पैदा होते हुए कैसे देख सकते हैं। इसलिए होरी और धनिया बाहरी यथार्थ के धरातल पर कोई बहुत बड़ी भूमिका निभाने वाले या उस दौर के इतिहास की सत्तासंरचनाओं के विकल्प को प्रस्तुत करने वाले नहीं होते।

एक उपन्यास बड़ा उपन्यास तभी होता है, जब उसके पात्रों के व्यवहारों के भीतर से किसी तरह के स्थितिमूलक विकल्प के लिए कोई संभावना पैदा होती है। परंतु 'गोदान’ में विकल्प की संभावनाएं नष्ट हो गयी हैं। न गोबर का प्रतिरोध गांव के हालात में कोई बुनियादी तब्दीली लाता है और न मालती और मेहता इस उम्मीद के साथ समाजसेवा की ओर मुड़ते हैं कि उससे समाज कुछ तो बदलेगा ही। ग्रामकथा के पात्र, आरंभ से उन्हें घूरने वाली उनकी अपनी त्रासद परिणति की ओर ही लगातार बढ़ते रहते हैं। शहर के पात्र अपने व्यक्तित्व के विकास के लिए कोई बड़ी संभावना न पाकर ही समाजसेवा जैसे कार्य करते हुए कुछ सार्थक होने का सीमित प्रयास करते हैं। दोनों स्थितियों में हम इन पात्रों और उनके व्यवहारों की यथार्थ में किसी तरह की दखल की संभावना को नहीं देख पाते। नतीजतन यह उपन्यास हमें यथार्थ के भीतर से, उसके अंतर्विरोधों से उबारने वाली कोई खिड़की खोलता हुई दिखाई नहीं देता। उस लिहाज से इस कृति को यथास्थितिवादी कहा जायेगा, तथापि जिन अर्थों में यह उपन्यास महत्वपूर्ण है, वहां आलोचकों ने पर्याप्त ध्यान नहीं दिया है।

पश्चिमी ढंग के उपन्यासों में कथानक की संरचनाएं और उनकी परिणतियां महत्वपूर्ण होती हैं। ऐसा इसलिए होता है क्योंकि वहां समाज के सत्तावर्चस्वी संरचनाओं में सेंध लगाकर किसी तरह के मानवीय विकल्प को प्रस्तुत करने के लिहाज से सफल या असफल होने के हालात दिखाई देते हैं। दोनों तरह से वे पात्र इतिहास का विकल्प होने की दृष्टि से महत्वपूर्ण पात्र बनते दिखाई देते हैं। उपन्यास के कथानक उसी आधार पर अपनी परिणतियों में एक खास तरह की अन्विति तक पहुंचते हैं। परंतु 'गोदान’ उस प्रकार का उपन्यास नहीं है। न ही उसकी आलोचना पश्चिमी तरीके की संरचनामूलक धारणा के आधार पर की जा सकती है।

यहां हम एक अलग तरह का भारतीय ढंग का उपन्यास अपने सामने प्रकट होता देखते हैं। यह उपन्यास इस दृष्टि से अलग तरह का उपन्यास है, क्योंकि यहां मुख्य कथानक की गहरी संरचना में एक अन्य कथानक मौजूद है, जो मुख्य कथा की सतह के भीतर उसी की आंतरिक संभावना की तरह विकास करता है। वह सतह को तोड़ता हुआ बार-बार भीतर से बाहर की ओर झांकता है। फिर वह हमें अपने भीतर डुबकी लगाने का न्यौता देता है।

इस तरह सतह पर जो कथानक यथास्थितिमूलक या इकहरा दिखाई देता है, वह गहराई में बेहद जटिल ही नहीं, भारत के अब तक के जातीय और सभ्यतामूलक इतिहास की अनवरतता को जीने लायक बनाता है। फिर वह उन्हीं अंत:सूत्रों को एक परिणति प्रदान करता है।

'गोदान’ की गहरी संरचना में मौजूद सभ्यतामूलक कथानक के लिहाज से देखा जाये तो होरी सर्वाधिक महत्वपूर्ण पात्र मालूम पड़ता है। वह अपनी जातीय और सभ्यतामूलक ज़मीन पर इतनी दृढ़ता से खड़ा है कि उसके सामने बाहर की वास्तविक ज़मीन की मिल्कियत अपने आप में कोई बड़ा अर्थ नहीं रखती। वह ताउम्र किसान बना रहना चाहता है। बंटवारे के बाद जब उसके दोनों भाई अपनी ज़मीनें गंवा बैठते हैं, तब भी वह किसी न किसी तरह अपनी ज़मीन को बचाए हुए दिखाई देता है। इसलिए उसका एक भाई यह टिप्पणी करता है कि हम तीन भाइयों में से होरी ही एक वास्तविक किसान है। वह होरी की इस आंतरिक अभिलाषा की बात भी करता है कि उसने अपनी ज़मीन इसलिए अभी तक रखी है ताकि वह अपने बेटे गोबर की संतानों को पैतृक संपत्ति के रूप में देने लायक कुछ तो बचा ले। लेकिन आखिरकार जब सारी जमीनें चली जाती हैं, तब भी वह अपने भीतर की ज़मीन से कभी बेदखल नहीं होता।

वह जो भीतर की ज़मीन है वह उसकी जातीय और सभ्यतामूलक ज़मीन है, जहां वह एक मनुष्य के रूप में अपनी श्रेष्ठता और अपने मानवीय सारतत्व को हर समय जीवंत बनाये रखता है। अपने साथ अन्याय करने वालों से वह इसी जातीय सभ्यतामूलक ज़मीन के सरोकारों की वजह से, गोबर की तरह, सीधा संघर्ष भी नहीं करता। यह प्रगति विरोधी, अंधविश्वासपूर्ण या दकियानूसी किस्म का व्यवहार नहीं है। संघर्ष करना उसे आता है। वह जहां तक हो सकता है, अपनी ज़मीन बचाता है। लेकिन अपनी सभ्यतामूलक चेतना की कीमत पर कुछ भी बचाना नहीं चाहता। यहां एक सवाल उठता है कि यह जो सभ्यतामूलक ज़मीन है, वह इतनी बड़ी कैसे हो जाती है कि वह वास्तविक ज़मीन के छिन जाने के बावजूद बची रह पाती है। यही वह मर्म है जो हमें भारतीय मानस की आंतरिक संरचना में उतरने लायक बनाता है। भारत का मनुष्य बाहर की दुनिया में सब कुछ पाना चाहता है, परंतु वह अपने श्रम से जिसे पाता है उसे वह अपनी सभ्यतामूलक चेतना से पाए हुए न्याय की कसौटी पर कस कर देखता है। वह यह देखता है कि वह जिस ज़मीन, राजसत्ता या वस्तु को बचा रहा है, वह सभ्यतामूलक दृष्टि से किस हद तक उचित या मानवीय है। जहां उसे लगता है कि उसका वय्वहार उसे किसी दृष्टि से अमानवीय बना देगा, वहां वह बड़ी से बड़ी कुर्बानी देने के लिए तैयार हो जाता है। 'गोदान’ के आरंभ में बांस बेचने का प्रकरण है। वहां होरी अपने भाइयों में बंटवारे के बाद बांस को बेचने से पाई पूंजी में न्यायपूर्ण बटवारा करने की बजाय थोड़ा अधिक धन अपने लिए बचाना चाहता है। वहां उसका यह व्यवहार उस सभ्यतामूलक न्याय की चेतना के साथ बहुत मेल नहीं खाता। परंतु हम यह कह सकते हैं कि वहां भी यह व्यवहार ऐसा है कि जिसे हम दूसरे भाइयों के प्रति होरी के अमानवीय होने की बात नहीं कह सकते। वह बांसों से पाई हुई पंूंजी को बाकी भाइयों में बांटने की बात आरंभ में ही कह देता है कि वह पाई पाई का हिसाब देगा। परंतु थोड़ा अपने लिए अलग से बचा लेने का प्रयास भी करता है। इससे उसकी सभ्यतामूलक ज़मीन नष्ट नहीं होती। केवल उसकी व्यवहार कुशलता ही सिद्ध होती है। फिर झुनिया को घर में बसाने के प्रसंग में वह अपनी सभ्यतामूलक ज़मीन के साथ पूरी दृढ़ता से खड़ा नजर आता है और उसका साथ धनिया भी उतनी ही तत्परता से देती है। उसे देखकर यह कहा जा सकता है कि ये दोनों पात्र भारतीय सभ्यतामूलक चेतना को जीवंत बनाने वाले यादगार पात्रों में से है।

यहां हम गाय को हासिल करने से जुड़े कथानक को, मनुष्य के श्रम और प्रकृति के रिश्तों की बीच वाली कड़ी की तरह देख सकते हैं। गाय के साथ रिश्ता, भारतीय मनुष्य के सभ्यतामूलक विकास का एक अहम पड़ाव है। गाय, जुताई के लायक ज़मीन और वन के बीच की कड़ी है। वह वन की सभ्यता का, कृषिमूलक सभ्यताकरण है। यह भी कहा जा सकता है कि गाय, वन की उत्पादनयोग्य ज़मीन की सहयोगिनी है, जिसे वन का सफाया हो जाने के बाद भी, वन के एक प्रतिनिधि की तरह बचा लिया गया है। वह कृषिमूलक सभ्यता में वन के प्रतिनिधि की तरह प्रवेश करती है और कृषिमूलक सभ्यता को और अधिक विकसित करने में मदद करती है। इसलिए गाय हमारे यहां मुक्ति का पर्याय तक हो जाती है। गोलोक का अर्थ भवभय से मुक्ति को पाने से सीधे सीधे जुड़ जाता है। अब यह जो गाय के साथ जुडऩा है, वह कृषि के साथ-साथ दूध घी और कुदरती खाद को प्राप्त करना भी है। इस तरह वन और कृषि दोनों गाय के भीतर समन्वित हो जाते हैं। फसलें और गौ, ये दोनों चीजें हमारी इस सभ्यतामूलक विकास यात्रा में पूज्य प्रतीकों की तरह धीरे-धीरे हमारे सामूहिक चित्त में घर करती जाती हैं। इन दोनों को बचाने का अर्थ है, अपने पूरे सभ्यतामूलक विकास के सफर से आए हुए सारतत्व को बचा लेना।

इसलिए 'गोदान’ में होरी के घर गाय के आते ही पूरा परिवार उसके साथ जिस तरह से आत्मीय होता है, वह केवल गाय से दूध दुहने भर तक सीमित बात नहीं है। होरी अपने बैलों से जिस तरह प्रेम करता है, वह भी केवल बैलों से अतिरिक्त उत्पादन कराने वाली व्यावहारिक बुद्धि मात्र नहीं है। बैलों के बूढ़ा हो जाने पर भी वह उन्हें बेचता नहीं है। वह उनकी ताउम्र सेवा करता है, भले ही वह अब उन्हें बहुत पुष्टि कारक पदार्थ देने में असमर्थ हो जाता है। गरीबी आई है तो बैलों के लिए भी गरीबी है, परंतु साथ नहीं टूटता है। गाय की मृत्यु हो जाती है, परंतु गाय उनकी चेतना में सदैव जीवित रहती है। इस तरह गाय, इस कथानक में अपनी मृत्यु के बावजूद निरंतर सभ्यतामूलक और सांस्कृतिक अर्थों में विकास करती रहती है।

उपन्यास के अंत में गोदान के रूप में दी गई जमा पूंजी केवल एक ब्राह्मण के शोषण के सामने समर्पण मात्र नहीं है, वह गहरे में अपनी उस सभ्यतामूलक चेतना के प्रति सच्चा होने वाली बात है, जिसकी रक्षा करने के लिए उन्होंने अपना पूरा जीवन समर्पित कर दिया है।

इस तरह 'गोदान’ की यह जो आंतरिक कथा संरचना है, वहां हमें सतह के नीचे गहराई में निरंतर विकास होता दिखाई देता है और वह विकास ऐसा है; वहां पर सभ्यतामूलक चेतना को अपना जीवन देकर भी बचाये जाने की तरह। जीवन नष्ट हो सकता है, परंतु जातीय और सभ्यतामूलक चेतना के मानवीय सारतत्व को कोई नष्ट नहीं कर सकता। यह 'गोदान’ का कथासार भी है और उसकी श्रेष्ठता को समझने की एक दृष्टि भी है, जो उसे एक कालजयी उपन्यास में बदल देती है।

उपन्यास का यह जो भारतीय ढंग का अंतर्विकास है, उसे हम जीवन की अनवरतता में आस्था रखने की चेतना के रूप में भी देख सकते हैं। होरी मर जाता है, लेकिन मरने के बावजूद वह नहीं मरता। धनिया गोदान करके उसे अंतर्विरोधों से घिरे यथार्थ की वैतरणी को पार करने में मदद करती है। मानवीय सारतत्व को बचाने के लिए किये गये संघर्ष की कथा का कुछ भी तो नष्ट नहीं होता। ब्राह्मण जो ले गया वह बाहर के कथानक की सतह पर घटने वाली घटना है, परंतु भीतर जो घटता है वह भव्य और उदात्त है। उस धरातल पर यह उपन्यास कालजयी अर्थ रखने वाला उपन्यास बनकर हमारे सामने आता है। वह हमें यह बताता है कि आप जिस तरह के अर्थतंत्र का विकास कर रहे हैं, उससे छोटा किसान एक दिन मर जाएगा, लेकिन वह खेती जो सभ्यता की ज़मीन पर लहलहा रही है वह कट कर भी पुन: पुन: उगती रहेगी।

 

 

विनोद शाही की आलोचना और चिंतन का फलक बहुत बड़ा है। उन्होंने मार्क्सवाद की धारा के नए नए पहलुओं पर काम किया है और धारा प्रवाह काम किया है। विनोद शाही ने दो महान रचनाकारों जगदीश चंद्र तथा गुरदयाल सिंह पर ज़िल्दें तैयार की हैं। गोदान को अस्सी बरस से ऊपर हो गये। प्रासंगिता के नज़रिये से विनोद शाही ने यह लेख तैयार किया है।

संपर्क - मो. 9814658098, गुरुग्राम

 


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