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अप्रैल - 2019

मोखा* की माटी

गौरीनाथ

कोसी प्रवास की डायरी

 

आप कोई अच्छा-सा सपना देखते हैं तो क्या करते हैं?... सबसे पहले अपने ख़ास दोस्त, मनमीत, प्रिया को सुनाते हैं। यदि वैसा कोई सहज उपलब्ध नहीं हो, तो जो भी सहृदय, आत्मीय-सा आपके दैनंदिन जीवन की परिधि में बातचीत के लिए मिलता है उसको सुनाकर अपने मन के उत्ताप को कम करने की कोशिश करते हैं। यदि वैसा भी कोई उपलब्ध नहीं तो आप नदी, पेड़-पौधे या पशु-पक्षी के बहाने ख़ुद को सुनाते हुए अपनी व्यथा को शब्द देते हैं। इस तरह के सपने जब डायरी के पन्ने  पर उतरते हैं तो ज़रूरी नहीं कि वह किसी कविता, कहानी की तरह मुकम्मल-सा एक कला-रूप हो। मैं डायरी नियमित नहीं लिखता हूँ और ना ही एक तरह से लिखता हूँ। अक्सर यात्राओं में ही लिखता हूँ और भाषा प्राय: मैथिली होती है, स्वत:। अक्सर यात्राओं में, एकाकीपन के क्षण में, उदासी के पल में किसी प्रिया से गुफ्तगू का सिलसिला-सा चलने लगता है और तभी कुछ शब्द बहते हुए पन्नों पर दर्ज हो जाते हैं।...

वर्ष 2015 के 7 से 31 अगस्त के बीच के ऐसे ही कुछ बेतरतीब पन्ने आपके सामने हैं...

7 अगस्त, 2015, दोपहर, डिब्रूगढ़ राजधानी, नई दिल्ली से प्रस्थान

घर से निकलते वक़्त यात्रा का बैग कोंच-कोंच कर पूरी तरह भर देने से तब परेशानी आती है, जब रास्ते में ख़रीदी गई कोई महत्त्वपूर्ण चीज़ रखने की गुंजाइश नहीं बचती है। भूख ज़रा भी ना हो और फूड फेस्टिवल में जाओ तो क्या स्वाद मिलेगा! ऐसा ही होता है जब किसी यात्रा पर जाने से पहले उस संदर्भ-प्रसंग से जुड़ी ढेर सारी बातें दिमाग़ में जमा हो गईं हों!...नेल पॉलिश तक लगाने से पहले स्त्रियाँ इत्मीनान से नाख़ून साफ़ करती हैं। और एक मैं हूँ कि किसी यात्रा पर निकलने से पहले अपने दिमाग़ की झाड़-पोंछ ज़रूरी नहीं समझता!

जहाँ का मैं मूल निवासी हूँ, वहाँ जा रहा हूँ यात्री बनकर!... मेरे मन में आया कि कोसी और कोसी परिसर को एक बार नई तरह से देखा और महसूस किया जाए! लेकिन यह क्या कि दिमाग़ में अँटी पड़ी पुरानी स्मृतियाँ, स्याह-सफेद तस्वीरें, अनुभव के अज़ीम कारख़ाने और किताबों में पढ़ी बातों की प्रभाव-ऊष्मा से मुक्त होकर जाने के बजाय उसका सघन दबाव महसूस कर रहा हूँ!

जैसे हार्ड-डिस्क से किसी चीज़ को बार-बार डिलीट या फार्मेट करने के बावजूद वो हट नहीं रहा हो, प्राय: वही हाल मेरा है।

ऐसा होता है कि अगर आप पहाड़ी हैं तो इस ख़ुशफ़हमी में रहते हैं कि पहाड़-विशेषज्ञ हैं! बंगाली हैं तो बंगाल विशेषज्ञ और मैथिल हैं तो मिथिला विशेषज्ञ! जैसे विश्वविद्यालय के गलियारे में मिलनेवाले वेतनभोगी साहित्य के प्राध्यापक अपने को आलोचक-साहित्यकार से कम नहीं आँकते हैं। हम प्रवासी मानुस भी अपने गाँव-गिराँव की तरफ़ लौटते समय अक्सर जिज्ञासु नहीं होते, हमें कतई यह अहसास नहीं होता कि हम अपने जन्म स्थान जहाँ हमारा बचपन और कैशोर्य गुज़रा उसको समग्रता में ठीक-ठीक नहीं जानते! और प्राय: इसीलिए वहाँ हुए नए-नए परिवर्तनों का नियंता काल-देवता बामी मछली की तरह बार-बार हाथ से फिसलकर धोखा दे जाता है।

मैं मिरचैया की गोद में ही खेलता जवान हुआ जो मेरी पहली प्रेमिका है, लेकिन एक बार जब डूबते-डूबते बचा तब पता चला कि मैं इस अल्हड़ नदी को कितना कम जानता हूँ। बालपन में जिन मलाहिन, ग्वालिन, दलित-आदिवासी स्त्रियों को मेहनत-मज़दूरी करते देखा था, आज अपेक्षाकृत आर्थिक निर्भरता के पहले पायदान पर पैर रखते ही उसके संघर्ष के दिशाहीन रास्ते मेरी समझ में नहीं आते! 'पूरे तालाब तैर आया/किनारे में डूब जाऊँगा कौन जानता था’ (अग्निपुष्प) कहाँ जानता था कि जो सबकी नज़रों से बचाकर मेरे लिए लाती थी अधपका अमरूद, एक दिन भाई के डर से मुझे बेर-चोर बता जाएगी!...

रात्रि 9 बजे, इलाहाबाद के बाद...

देह ट्रेन में, मन कहीं और उड़ा चला जा रहा है...जैसे प्रसवा स्त्री की नाक और जीभ तेज़ होती है, प्राय: उसी तरह प्रवासी मानुस में अपने माटी-पानी से जुड़े अतीत को सूँघने की क्षमता बढ़ जाती है। लकड़ी के पुराने बक्से में रखे माँ के बनाए पौती, बिड़हारा, तकली, सूत के साथ झिंगुर के घोंसले की याद और उसके साथ ही फिनायल की टिकिया की गंध से मन-प्राण व्याकुल हो उठे!...

पुश्तैनी बड़ा संदूक़ हठात्ï खुलता है। धूल-गर्द के बीच विभिन्न आकार-प्रकार की कई घाँटी, घंटी, मोटी-मोटी लाल-पीली रस्सियाँ जिसको हम 'गरदामी’ और 'कड़ाम’ कहते थे। हरिन के सिंग और हाथी दाँत के टुकड़े! जंग लगी लगाम भी आधा दर्जन से कम नहीं। गाय और भैंसें पर्याप्त थीं। घोड़ा तब एक भी नहीं बचा था, लेकिन लगामें सारी की सारी मौजूद थीं। और वह इस वहम के कारण कि लगामें रहेंगी तो घोड़े एक न एक दिन आ ही जाएँगे!... सुना था कि किसी बच्चे के होंठों के कोर पर लगामी घाव हो जाए तो लगाम लगा देने से ठीक हो जाता है। मुझे कोई घाव नहीं था, लेकिन दो-चार बार लगाम लगा के घोड़े की तरह दौडऩे के प्रयास में होंठों के कोर इस कदर छिल गए थे कि लगामी घाव हो गया। इस कारण कई दिनों तक खाते वक़्त जब नमक-मिरचाई कटकटा के लगती तो अपनी मूर्खता पर क्षोभ होता। उस उम्र में मैं बुद्धिमानी वाला कोई काम किया होऊँ यह याद नहीं, लेकिन मूर्खतापूर्ण घटनाओं के अम्बार हैं जो आज भी महानगरी जीवन की आपाधापी में अक्सर याद आ जाते हैं। जैसे अघोरी से लडऩा!...अनार की चोरी! हिरणी-बिरनी की प्रणय-कथा सुनने का लोभ!...बद्री बाबा के मोदक के लिए लुभाना!... दूल्हे-दुलहन के स्वाँग में निरंतर ठगाते जाने का सुख!...

क्या यह स्मृति-शृंखला घर की तरफ़ लौटते परदेशी के नॉस्टेलजिक होने का संकेत नहीं?...

08 अगस्त, 2015, दोपहर बाद, कालिकापुर

तालाब के पश्चिम बाग़ में लगे फलदार दरख्तों को देखते हुए मैं बाँसों के जंगल तक पहुँच गया था। जहाँ से बाँसों की बाड़ शुरू होती थी उसके एक किनारे तीसेक साल से खड़े शीशम की जो क़तार थी उसमें अब एक मात्र शीशम बच गया था। यहाँ पश्चिम-दक्षिण के कोने में जामुन का एक विशाल पेड़ होता था। वह पेड़ भी कई साल पहले कट गया, लेकिन उसके साथ जुड़ी खट्ïटी-मीठी स्मृतियाँ मन-प्राण में उसी तरह हलचल पैदा करती हैं। एकाएक उस जामुन पेड़ की याद दशकों पहले बिछुड़ी प्रिया की तरह आई और प्यास से गला सूखने लगा।

...चौदहवें या पंद्रहवें साल का ग्रीष्म रहा होगा। काले-काले जामुन का चमकीला ताज़ापन ध्यान खींचने लगा था। उसमें कुछ ख़ास था जो बगल की शहतूत की लाली या अत्ता अथवा बड़हर की लाली से एकदम अलग था। पकी जलेबी के फलों में भी अक्सर लाली मिल जाती है। बेशक! सिंदूरी आम और रक्तिम अमरूद में भी अद्ïभुत लाली होती है। लेकिन अनार और जामुन के रंगों के साथ ख़ासियत जुड़ी थी। ज़रा सा दबाव पर ही फट पडऩे की दहशत से लवरेज! जैसे होंठों की लाली!...और यह भी उसी ग्रीष्म में पता चला था कि सुंदर बालाओं के रक्ताभ होंठों को लेकर गाँव में अनेक रहस्य-कथा प्रचलित हैं...और सबसे बढ़कर यह कि रूप, रंग और गंध से प्रीति की शुरुआत तभी हुई थी। गर्म लहू की लाली, सुबह के रक्तिम सूर्य की लाली, मेहनतकश के श्रम की लाली में साम्य देखने-समझने की शुरुआत अवचेतन मन में कहीं-न-कहीं उसी काल-खंड में हुई थी।

कामना में जावाकुसुम खिलने की उम्र थी वह, 'लाल लाल तीन लाल’ के अर्थों में पंख लगाने की उम्र।...

लौटकर मैं अपने नव-निर्मित भवन में आया। कुछ ही घंटे पहले मैं यहाँ पहुँचा हूँ और कुछ ही देर बाद अररिया के लिए निकलूँगा। पाँव में पहिया लगा हो जैसे!...

09 अगस्त, 2015, सुबह, डाक बंगला, अररिया

इस डाक बंगला में मैं रात को ही आया था। 10 बजे के क़रीब। 'मैला आँचल’ और कोसी का 'छाडऩ’ परिसर का नया मुख्यालय है यह। इस शहर से होकर मेरा जाना-आना 1985 से हो रहा है। यहाँ अनेक आत्मीय मित्र-परिजन हैं जिनसे जहाँ-तहाँ मुलाकातें होती ही रहीं, लेकिन इस शहर में रात गुज़ारने का अवसर पहली बार मिला है। रात में किसी शहर की धड़कन ज़्यादा साफ़ सुनी जा सकती है शायद!

इस शहर में पाँव रखने से पहले रास्ते में जो सूचना मिली उससे मन खिन्न हो गया था। शहर में तनाव की स्थिति थी। हवा में ज़हर घुली हुई थी। बूचड़ख़ाने से जुड़े कारोबारियों के ख़िलाफ़ धर्म-ध्वजाधारियों ने तांडव मचा रखा था। इला$के के चरित्र से भिन्न ख़बर थी यह!

रात में नींद तो ठीक से नहीं ही हुई! बगल के कमरे में ठहरे भारत यायावर और रतन वर्मा देर रात तक मेरे साथ थे। मैंने उन्हें शहर के हालात के बारे में रात में कुछ नहीं बताया। भोजनादि के बाद जब वे सोने के लिए अपने कमरे में चले गए, मैं अकेले काफ़ी दूर तक टहलते चला गया। उस वक़्त शहर कहीं से जगा हुआ नहीं लग रहा था। एक अजीब तरह का दूर तक फैला सन्नाटा इस परिचित शहर को अपरिचित बना रहा था। लौटकर डाक बंगला परिसर में खड़ा हुआ तो वहाँ का एकमात्र कटहल गाछ जगा हुआ और आत्मीय-सा प्रतीत हुआ। गाछ के नीचे हवा में खडख़ड़ाते कटहल के पत्ते के स्वर परिचित लगे। दिनभर की गर्मी का प्रभाव कम हो गया था। मैं सोने को गया, लेकिन नींद का दवाब बिल्कुल नहीं था। कितनी बार आँखें लगीं, लेकिन सपने देखने जैसी नींद की आमद नहीं हुई।

सुबह में पानी, चाय और अख़बार तीनों मिले। स्नानादि के बाद तैयार होकर शहर में निकला और जल्दी ही लौट आया। शहर रूटीन में था। बस यह वो शहर नहीं लग रहा था, जहाँ हमारी नाल गड़ी थी। वो निश्चिंतता, वो धीमी चाल—ठुमरी और दादरा की तरह—बेदख़ली का दंश झेल रही हो जैसे! शहर न तो उस तरह आधुनिक हुआ था और न पहले वाली कोई बात रह गई थी जिसके संग 'फेनुगिलासी’ हँसी का तार जुड़ता हो।

लेकिन एकदम से तमाम अच्छाइयाँ ख़त्म भी नहीं हुई थीं। मेरे चश्मे की एक पिन गिर गई थी। तब चश्मे की कोई दुकान आसपास खुली नहीं थी। एक घड़ीसाज से मैंने अपनी परेशानी बताई। चश्मे देखने के बाद उसने अपनी दराज से बारी-बारी से कई डिब्बे निकाले, कई तरह की पिन लगाने की बार-बार कोशिश की। आख़िरकार, पंद्रह-बीस मिनट के परिश्रम के बाद वह सफल हुआ। मैंने उसके श्रम को देखते हुए पचास का नोट बढ़ाया। वह पूरे रुपए लौटाते हुए बोला,

'इसका भी कोई पैसा बनता है, सर? पाँच-दस पैसे की पिन!’

'आपकी मेहनत तो लगी?’

'यह तो इन्सानियत के नाते किया कि आप बाहर से आए हैं, इस छोटे से काम के लिए कहाँ-कहाँ भटकेंगे!’

'आपका नाम?’

'शराफ़त।’

आगे मैं कुछ बोल नहीं पाया। उसकी तरफ़ हाथ बढ़ाया तो उसने बड़ी गर्मजोशी से थाम लिया।...

10 अगस्त, 2015, होटल, एन.एच. 57, अररिया

पिछली रात 'विदापत’ देखा, आज पमरिया नाच। रेणु की धरती पर रेणु के नाम पर आठ-दस लाख ख़र्च करके कोई साहित्यिक आयोजन हो (रेणु महोत्सव, 2015) और उसके साहित्यिक सत्रों में दस-बीस स्थानीय श्रोता-दर्शक भी न जुटें तो इसको क्या कहेंगे?

'विदापत’ को पुनर्जीवन देने का प्रयास अच्छा लगा। इसकी एक अलग तरह की प्रस्तुति गत वर्ष नेपाल में देखने को मिली थी। उसमें हास्य पर ज़्यादा ज़ोर था और फूहड़ता भी काफ़ी थी। कंटेंट तो एक तरह से उसमें कुछ था ही नहीं। रेणु गाँव औराही हिंगना की टीम की इस नई प्रस्तुति में हास्य रस तो था लेकिन करुणा का स्थान प्रमुख था और कोसी इलाके के निम्नवर्गीय जीवन-समाज की कलात्मक सजगता और सुरुचि-सम्पन्नता भी यहाँ दिखती थी। लोक जीवन की मानवीय ऊष्मा और ऊर्जा से पूर्ण इस प्रस्तुति में स्थानीय वाद्यों का प्रयोग भी ख़ास था, माने विशिष्ट। इसका मिरदंगिया रेणु जी के समकालीन मिरदंगिया का पुत्र था जिसने जाँडिस से पीडि़त होने के बावजूद कमाल की प्रस्तुति दी थी। निम्नवर्गीय कृषक परिवारों में स्त्री की पीड़ा, उसके संघर्ष और प्रेम को ऐसी गहरी संवेदनशीलता के साथ यहाँ प्रदर्शित किया गया था कि वह नाच यादों में बसा सदा एक टीस देता रहेगा।

इसी तरह झंझारपुर से आई इसराइल पमरिया की टीम की प्रस्तुति भी प्रभावकारी थी। लेकिन रंगकर्मी कुणाल के सानिध्य में आई इस टीम की प्रस्तुति यहाँ के दर्शकों की नई पीढ़ी के लिए जैसे अबूझ थी या अरुचिकर! वहाँ के युवा आर्केस्ट्रा टाइप कार्यक्रम की शुरुआत जल्दी करवाने का दवाब बनाते पमरिया कलाकारों को 'हूट’ करके कार्यक्रम बीच में ही रुकवाने में सफल हो गए थे। 'हूट’ करने का दर्शकों का तरीका बेहद आक्रामक और अभद्रतापूर्ण था। पमरिया सब बुरी तरह आहत और अपमानित महसूस कर रहे थे। 'सोहर’ और 'बधैय्या’ मानो सिसक रहे हों! इसरायल पमरिया तो मंच के पीछे, स्कूल के बरामदे पर बैठ सचमुच फूट-फूटकर रोने लगा था। उसके हृदय पर उससे भी तगड़ा आघात पहुँचा था जैसा कभी रेणु की कहानी 'ठेस’ के नायक सिरचन के हृदय पर पड़ा था। वही धरती, वैसा ही कलाकार! समयांतराल में 'ठेस’ बदलकर तगड़ी 'चोट’ हो गई थी। मैं बुरी तरह व्यथित और परेशान था उन कलाकारों की पीड़ा देखकर!...

और 'रेणु महोत्सव’ में साहित्य-चर्चा?...झूठ और झूठ! बस फूल-माला और ड्रामेबाजी... संतोष के लिए भेंट-मुलाकात का अवसर कह लीजिए। रेणु-राजकमल के बाद कोसी क्षेत्र के सबसे महत्त्वपूर्ण कथाकार चंद्रकिशोर जायसवाल को छोड़ कई मित्रों से मुलाकात हुई। बस इतना ही।...

अब जल्दी से जल्दी यहाँ से भाग जाने का मन करता है।...

11 अगस्त, 2015, शाम, कालिकापुर

सुबह जल्दी ही निकल गया था अररिया से रेणु गाँव औराही हिंगना। बीस-बाइस साल बाद गया था। साथ में थे रामधारी सिंह दिवाकर, कुणाल, विकास कुमार झा, सदानंद सुमन। सुमन जी को छोड़ बाक़ी हम सब कुछ ही देर रुके। पद्ïम पराग राय वेणु विधायक हैं, यह सब घर-द्वार के बदले रंगत से भी पता चलता है। लाइट कटने पर जेनरेटर की व्यवस्था थी और वह तुरंत चालू भी हो गई। बैठकख़ाने में रेणु जी की तस्वीरों से बड़ी तस्वीरें वेणु जी की पार्टी के नेताओं (वाजपेयी, मोदी वगैरह) की थीं। बातचीत के क्रम में वेणु जी के चेहरे पर की चिंता-रेखाओं के साथ आगामी चुनाव के प्रसंग छलक रहे थे। मैं पहले की तरह के बात-विचार की तलाश में अंदर से व्यग्र हो रहा था। मेरा मन उस क्षण के क्रूर सत्य से टकरा रहा था। कुछ क्षण के लिए मैंने अपनी नज़रें रेणुजी की तस्वीर पर टिकाए रखीं। फिर ध्यान देश के वर्तमान हालात की तरफ़ चला गया।...

वापसी में निर्माणाधीन रेणु-म्युजियम की नई-नई बनी बिल्डिंग देखकर प्रसन्नता हुई। अभी यह मात्र बिल्डिंग है। लेकिन है भव्य! बिहार में किसी साहित्यकार की जन्मभूमि पर निर्मित अपने ढंग की अलहदा। आगे योजना-अनुकूल सब कुछ अच्छा ही होगा, रेणु की गरिमा और प्रतिष्ठा अनुकूल—ऐसी उम्मीद तो है लेकिन यह सरकारी तंत्र है! बहुत विश्वास के साथ कुछ नहीं कहा जा सकता!...

क़रीब ग्यारह बजे हम सब फारबिसगंज पहुँचे। सबसे पहले दिवाकर जी के पुराने मित्र तारकेश्वर मिश्र 'मयंक’ दम्पती से आत्मीय और याद रह जाने वाली मुलाकात हुई। मयंक जी और उनकी श्रीमती जी की सत्तर-पार की जोड़ी अनुपम थी। एक ज़माने में रही शहर की सबसे चर्चित जोड़ी। यह बात सिर्फ दिवाकर जी नहीं कह रहे थे, दोनों को देख सहज भासित भी हो रहा था और इस शहर के पड़ोस का होने के कारण मयंक जी की अनेक छात्रों के मुँह-सुनी कहानी भी थी...बच्चों के बाहर रह-बस जाने के कारण फारबिसगंज में अब वे दोनों ही रह गए थे। बड़ा-सा पुराने ढंग का मकान जिसमें बस दो जन!...तरह-तरह की मिठाई, नमकीन के साथ हमने चाय समाप्त की।

मयंक जी के यहाँ से निकला तो विकास भाई का विचार हुआ कि हम सब 'जगदीश राइस मिल्स कम्पाउंड’ देखने जाएँगे! फारबिसगंज मैं बचपन से आता रहा हूँ—हाट-बाज़ार के काम से, सिनेमा-थिएटर और मेला देखने, दवाई-वैद के प्रयोजन से अथवा ट्रेन वगैरह के यात्रा-प्रसंग।... 'जगदीश मिल कम्पाउंड’ की बगल से अनेक बार गुज़रा होऊँगा, लेकिन उसके भीतर की दुनिया को देखने की ज़रूरत या इच्छा पहले कभी नहीं हुई थी। आभारी हूँ विकास भाई का, कि उनके कारण इस कम्पाउंड के भीतर की अनजानी दुनिया से परिचित हो पाया।

अब वहाँ राइस मिल नहीं है। राइस मिल अरसे पहले बिक गई, बंद हो गई! लेकिन इस कैम्पस और भवनों को एक भव्य म्युजियम के रूप में सुरक्षित-संवर्धित कर दर्शनीय स्वरूप दिया गया है। पुराने स्मरणीय चित्र, धरोहर कलाकृति और ढेर सारी चीज़ों के साथ ही एक विस्तृत भव्य पार्क भी है। पार्क में अनेक प्रकार की वनस्पतियों की उपस्थिति कोसी परिक्षेत्र के हिसाब से इसको अद्ïभुत और अद्वितीय साबित करती है। मित्र और जानकारों के अनुसार, उस पार्क में अनेक तरह के औषधीय महत्त्व वाली जड़ी-बूटियों की पौध और लताएँ भी हैं। अनेक प्रकार के चिडिय़ों के कलरव सुरम्य परिसर की हरीतिमा को और ज़्यादा मोहक बना रहे हैं। वहाँ से निकलने का मन नहीं कर रहा था, लेकिन दिवाकर जी गाड़ी में बैठे-बैठे परेशान हो रहे होंगे यह सोचकर हम बाहर निकले। दिवाकर जी का बचपन वहीं बीता था और वे अनेक बार वहाँ आए होंगे, शायद इसीलिए उनका आकर्षण वैसा नहीं था। फिर उन्हें गाँव जाने की जल्दी थी।...

निकलते-निकलते बातों के क्रम में विकास जी ने बताया कि बाबा नागार्जुन फारबिसगंज आते थे तो प्राय: इसी कम्पाउंड में ठहरते थे। फ़िलहाल इस कम्पाउंड के भीतर जगदीश बाबू के परिवार की नई पीढ़ी की रुचिरा गुप्ता की 'अपने आप’ नारी केंद्रित संस्था का कार्यालय है। 'अपने आप’ का रजिस्टर्ड कार्यालय न्यूयॉर्क, कोलकाता और दिल्ली में भी है, लेकिन हेड ऑफ़िस 'जगदीश मिल कम्पाउंड, फारबिसगंज’ ही है। चर्चित पत्रकार और समाज सेवी रुचिरा जी के कार्यों का दायरा बहुत विस्तृत है।

फारबिसगंज की पहचान अरसे से कारोबारी शहर के रूप में रही है। जूट और अनाजों से लदी हज़ारों गाडिय़ाँ यहाँ की मंडी में रोज़ आती हैं। अनाज, कपड़ा और अन्य उपभोक्ता वस्तुओं की बड़ी मंडी है यह। उन्नीसवीं सदी के मध्य में अलैक्जेंडर जॉन फोरबेस ने बाबू प्रताप वगैरह से सुल्तानपुर इस्टेट जब ख़रीदी तो इसका नाम फोरबेसाबाद रखा। 1877 की हंटर रिपोर्ट में भी यही नाम है। यूँ फोरबेस कुछ ही समय बाद मलेरिया का शिकार हुए और उनका परिवार इस्टेट बेचकर इंग्लैंड चला गया, लेकिन रेलवे लाइन आई तो शहर का नाम फोरबेसगंज (Forbesganj) कर दिया गया। यहाँ की ज़ुबान में घिसते-घिसते यह आज का फारबिसगंज है जो अंग्रेज़ी में अब भी पूर्ववत Forbesganj लिखा जाता है।

फारबिसगंज से निकलने के बीस-पच्चीस मिनट बाद ही नरपतगंज आ गया। नव निर्मित नेशनल हाईवे के कारण दिवाकर जी को अपने ही घर जाने वाली गली पहचानने में दिक्क़त हो रही थी। मेरा गाँव यहाँ से आठ-दस किलोमीटर से कम ही दूरी पर है और नरपतगंज मेरा आना-जाना रहता है इसलिए मैंने पूछा कि पिठौरा वाली सड़क से पश्चिम वाली गली है क्या?... उन्होंने 'हाँ’ कहा और कुछ ही क्षणों में हम दिवाकर जी के दालान पर थे।

दिवाकर जी के छोटे भाई और भतीजे बहुत प्रसन्न मन से स्वागत में तत्पर थे। दिवाकर जी ने अपने घर का वह कमरा भी हमें दिखाया जहाँ वे युवावस्था में तो रहते ही थे, शादी के बाद भी सपत्नीक अपने जीवन के सबसे ऊर्जावान समय में रहे थे।

दिवाकर जी के यहाँ हम लोग क़रीब दो घंटे रुके। इस बीच उन्होंने अपने गृह-जंजाल के अनेक $िकस्से सुनाए। वे अपने चाचा के बारे में विस्तार से  बता रहे थे!... कि कैसे उनके चाचा ने उन लोगों के हिस्से की ज़्यादातर ज़मीन हड़प ली और बेच दी। उनके कंजूसी के अनंत िकस्से! वे कैसे रोज़-रोज़ पैसे गिनते हैं और एक-एक पैसा दाँत धर के रखते हैं। यहाँ तक कि उनके अपने बेटे-पोते तक उनसे आजिज होकर दूर हो गए। खैर... चलने से पहले जो भोजन कराया गया वह मैथिल प्रकार का तो था ही, उसमें कुछ अलग विशिष्टता भी थी। उस तरह  का कंचू (अरिकंचन) का तरुआ हम सबने पहली बार खाया था। हरी मिर्च, कागजी नीबू, अनेक तरह के पकौड़े, पापड़, दही, रसगुल्ला भी उत्तम। आग्रह-सत्कार आवेश और आत्मीयता से पूर्ण, 'मिथिलांग’ वाला दुराग्रह नहीं! यह बात कुणाल जी को ख़ूब पसंद आई!

दिवाकर जी के साथ-साथ कुणाल जी और विकास जी को भी निकलने की हड़बड़ी थी। वे लोग मेरे गाँव के पास से, डोडऱा क्वार्टर चौक पर मुझे छोड़ते आगे निकल गए। विकास जी के ज़ोर देने के बावजूद दिवाकर जी को पटना पहुँचने की जल्दबाजी थी। वे एकदम अड़ गए। इतने पास से उन लोगों का निकल जाना धक्के की तरह तो ज़रूर लगा, लेकिन अब ऐसे धक्के सहने की आदत-सी बनती जा रही है।

अपने नव निर्मित मकान में बैठे काफ़ी देर तक इसी उधेड़बुन में खोया रहा। फिर अगले दिन की यात्रा की याद आई और सामान सैंतने लगा।...

12 अगस्त, 2015, सुबह, कालिकापुर, प्रस्थान से पहले...

सुबह-सुबह ऐसी तीखी धूप! लेकिन निकलना ही पड़ेगा। मानो कोसी बुला रही हो। उसके साथ-वास का समय यूँ ही कम पड़ गया है। अब और कम करना कठिन है।...

भीतर यात्रा का रोमांच उतर आया है। कोसी का किनारा! मल्लाह-मलाहिन का संग-साथ। नदी...पानी...वन-उपवन...नाव-मछली...बोर्डर...एसएसबी... तस्कर! वहाँ के जीवन में पैठने, रसने और बसने को लेकर एक बार फिर नए ढंग से सोचने लगा हूँ। वहाँ के दिन-रात, लोग-बाग़ झिलमिलाने लगते हैं! वहाँ की अनुभूत गंध मन-प्राण में महमहाने लगती है। कास वन के पार सुदूर तक फैले पानियों के बीच रात, चाँद, तारे और जुगनू मन में कुलबुलाने लगते हैं!...

मन में कई तरह के भय और नई-नई आशंकाएँ आते और जाते रहे।...

इस जीवन में जहाँ-जहाँ से ज़्यादा राग-भाव जुड़ा अधिकांश कमज़ोर धागे की तरह टूटता रहा। बस यह कोसी है कि मिरचैया है, अंत-अंत तक जिसके साथ की आस है। $फुर्सत मिलने पर जब भी उसके पास जाऊँगा, वह थाम लेगी।

मैं तैयार हूँ। सारथि को ज़रा विलम्ब है। मन दौड़ रहा है!... अचानक मन में रात के सपने की रील चलने लगती है। ...अतीत के गर्त में छूट गए कच्चे धागे सा!...

 

उस कमरे में कैसे पहुँचा, नहीं पता

तुम्हारे ही परिजन-पुरजन रहे होंगे, लाल काका-सुंदर बाबा टाइप के

स्वागत-सत्कार हुआ था ख़ूब, यह तक याद है

स्त्रीगण ख़ूब जमा थीं

कानाफूसी और हँसी की लहर दौड़ रही थी कोका बाराह की पानी की तरह

चक्रव्यूह था परीक्षार्थ

मैं कैशोर्य की दहलीज़ पर अपनी असहजता छुपाने के अनंत जतन में परेशान

 

मेरे घर की कोड़ो-बत्तियाँ सड़ी हुईं

छप्पर में साँपों ने छोड़ी थीं केंचुल

कोठी के नीचे चूहों ने जमा कर रखी थी मिट्ïटी

आँगन में सह-सह करती कृमि

दालान पर मोथे का जंगल

मैं था पढ़ा-लिखा बेरोज़गार

ऐसे में सहज बने रहना कितना कठिन रहा होगा रानी

तुम्हारे दमकते आँगन में चकाचक कमरों के बीच

 

रात कौतूहल में नींद तो आई नहीं

लेटा था यूँ ही कि अलस्सुबह

मलयानिल शीतल हवा संग रिमझिम फुहार आई कमरे में

इन्द्रधनुष के सातों रंग गजभर की दूरी पर

तुम आहिस्ते-आहिस्ते घर बुहारती कम निहारती ज़्यादा हो

सपने के घरौंदे की तरफ़

 

सोये होने के बहाने बाँहों की आड़ से मैं

परख रहा हूँ तुम्हारी भाव-दशा

बार-बार एक ही जगह जैसे घर नहीं

बुहार रही हो तुम वसुधा

एक काम के बहाने दूसरे में खोई हिरणी

बस इतनी ही देर का प्रथम मिलन

 

रन्नू सदा ठगाता ही रहा अनेक गाधि और ऋचीक से

कितनी रातें बीत गईं

कितने लाख क्यूसेक पानी बह गया कोसी में

मैं उसी तरह खड़ा हूँ इस तट पर हँसी-ख़ुशी गँवाकर

कजरी, भेसना, सीता, सुरसरि, मिरचैया

नदी मात्र नहीं मेरे लिए

मैं सब में तुमको ही तलाशता रहा हूँ

तलाशता रहूँगा गंगा, ब्रह्मïपुत्र, नर्मदा, झेलम तक

तलाशता ही रहूँगा मिसिसिपी, ह्वांगहो से नील तक

 

12 अगस्त, 2015, रात, रतनपुरा

कटैया पावर हाउस से आधा किलोमीटर पश्चिम, पूर्वी केनाल छोड़कर, कोसी के पूर्वी तटबंध पर जब आएँगे तो एक ख़ूब सघन और अव्यवस्थित बस्ती दिखाई देगी। शैलेसपुर में एसएसबी की जो चेक पोस्ट है, उससे बस थोड़ी सी दूरी पर।... यहाँ मैं क़रीब तीस वर्ष पहले आया था, तो ऐसी कोई बस्ती नहीं दिखी थी। कुछेक घर ही थे तब। आज यह एक अभिनव-अद्ïभुत और बिल्कुल अलग तरह की दुनिया है। यहाँ अनेक देशों के सिक्के चलते हैं। यहाँ के अंतरराष्ट्रीय बाज़ार में एक अलिखित संविधान का अनुपालन कुछ ज़्यादा ही ईमानदारी से होता है। भाषाएँ भी कई प्रचलन में हैं, कुछ भाषाएँ और उसके कोड रोज़-रोज़ गढ़े जाते हैं। पहली ही नज़र में मुझे लगा कि यहाँ दर्जनों उपन्यास और फ़िल्मों की कहानियाँ बिखरी पड़ी हैं।

कभी जहाँ बाँस भर गहरा गड्ढा था आज वहाँ सैकड़ों ट्रक मिट्टी भर कर ख़ूब डीलडौल वाला मकान बन गया है। यूँ काफ़ी घर कच्चे ही हैं, लेकिन व्यवसाय वहाँ भी पक्का चलता है। इस बस्ती में एसएसबी वाले की दबिश कभी भी और दिन-रात में कई बार भी पड़ जाती है। एसएसबी वालों की ऐसी तमाम दबिशों और चौकसियों के संग-साथ यहाँ राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय कारोबार बड़े इत्मीनान से चलते रहते हैं—मौखिक संविधान के अनुसार, नित्य, दिन-रात, सतत!...

आज शाम के चार-पाँच बजे मैं राजमिस्त्री का काम करने वाले अपने एक दोस्त के घर समदा-भगवानपुर पहुँचा था। उनको साथ करके जब तक हम कटैया पश्चिम की उस बस्ती में पहुँचे शाम का अंधेरा गाढ़ा हो चला था। मेरे दोस्त के दोस्त का घर तटबंध से सटा हुआ ही था। एक तरह से कोसी का आँगन! उनका दोस्त तब तक भीमनगर से लौटा नहीं था, दोस्तिनी स्वागत-सत्कार में तत्पर थी। कुर्सी मिली और चाय भी। रात के खाने की तैयारी भी होती हुई महसूस हुई। मैंने रोकवाने का प्रयास किया, लेकिन प्रयास बेकार गया।

थोड़ी देर बाद मेरे दोस्त का दोस्त आया। करनी-तेसी वाला झोला रख हाथ-पैर धोकर वह भी संग-साथ हुआ। एक बार फिर चाय का दौर चला फिर हम तीनों बस्ती का एक चक्कर लगाने निकले। मेरे रहने की व्यवस्था उन्होंने लगभग ठीक कर दी। मैं बस्ती में भी रह सकता हूँ और भीमनगर चौक के आसपास भी। बराज के इस पार और उस पार, दोनों जगह, कई होटल वाले जान-पहचान के निकल आए। यानी रात-बिरात कभी किसी तरफ़ से जाते-आते जहाँ चाहूँ, रुक सकता हूँ। कटैया, बराज, शैलेसपुर, भीमनगर, वीरपुर में से कहीं भी। मेरे साथ आया डुमरी चौक का ऑटो वाला भी बड़ा काम का निकला। वह इस इलाके के इंच-इंच से परिचित बंदा है। बात-व्यवहार में भी भला लगा। संग-साथ देने को वह तैयार है। इससे अच्छा सारथि कहाँ मिलता? अब मेरा मन हल्का है।

कोसी किनारे का ऐसा अंधेरा वर्षों बाद मिला था। लंबे-लंबे जूट और कास-पटेर के जंगलों के साथ कोसी के सामीप्य में रात का एक अलग रंग। जुगनुओं की रोशनी सबसे ज़्यादा ऐसी ही रातों में दिखती है।

रात के नौ बजे बस्ती से लौट कर आया तो मेरे दोस्त की दोस्तिनी खाना तैयार कर चुकी थी। भरुआ पूड़ी के साथ तीन-चार तरह की सब्जियाँ परोसी गई थीं। गृहस्वामिनी स्वयं बगल में खड़ी हो पंखा झल रही थी। एक-दो पूड़ी खाया था कि मुझे लगा, यह स्त्री साक्षात कोसी की अनुकृति है। कोसी जैसी ही नेह से भरी हुई। वैसी ही दो टूक बोलने वाली, चमकती बालू पर गिरती चाँदनी जैसी हँसी की मालकिन।

बातों ही बातों में मैंने पूछा—सुना आप नाव बहुत अच्छा चलाती हैं। ऐसी अंधेरी रात में मुझे उस पार से घुमा कर ला देंगी?

वह ठठाकर हँसी—यह भी कोई पूछने वाली बात है?

क्षणभर रुककर मैंने दूसरा प्रश्न किया—मेरे जैसे अनाड़ी को नाव चलाना सीखने में कितने दिन लगेंगे?

—डर जितनी जल्दी ख़त्म करें!...

—डर भगाने का काम तो आपका होगा न?

—वो तो भगा दूँगी, लेकिन आगे-पीछे की मोह माया वाली उलझन न हो तो... फिर इससे ऊपर उठ सकें कि मैं कौन हूँ और क्यों सीखना चाहता हूँ!... बस पानी की धार और उसके व्यवहार पर नज़र होना चाहिए।

—माने जिन डूबा तिन पाइयाँ गहरे पानी पैठ?

अचानक मेरे दोस्त की आवाज़ आई—जो उबरा सो डूब गया, जो डूबा सो पार!

समदा-भगवानपुर होते रात क़रीब साढ़े ग्यारह बजे रतनपुरा लौटा। रास्ते में कास और जूट के खेतों के बीच इकलौते ऑटो की रोशनी एक अलग दृश्य रच रही थी। सड़क पर मेढकों की बड़ी फौज थी। सुबह पाँच बजे ही निकलना था। देह  नींद के झूले पर ऐसे डोल रही थी मानो चारपायी पर नहीं, नाव पर सोये हों!...

13 अगस्त, 2015, होटल सप्तकोसी, वीरपुर

भीमनगर-वीरपुर, भंटाबाड़ी-बराज, पूर्वी कोसी तटबंध, पूर्वी केनाल, कटैया पावर हाउस... इस इलाके के इंच-इंच से वर्षों से परिचित रहा हूँ। लेकिन आज उन समस्त यादों को सिलेट पर लिखी इबारत की तरह मिटा देना चाहता हूँ। पिछले पच्चीस-तीस वर्षों में हुए नए परिवर्तन को समझने-जानने के लिए पहले की छाया से मुक्ति ज़रूरी है। ...आज सुबह-सुबह मैं भीमनगर पहुँचा। यहाँ की अनेक गलियों, कोने-अंतरों को नई तरह से देखना शुरू किया। वाघा बोर्डर, कारगिल बोर्डर या कि बांग्लादेश के बोर्डर को जैसे कोई जासूस पहली बार देख रहा हो, प्राय: उसी तरह। दो-तीन घंटा भटकने के बाद क़रीब नौ बजे वीरपुर पहुँचा। होटल सप्तकोसी में सामान रखकर फिर उसी ऑटो से भीमनगर वापस हुआ। निकलते वक़्त कांधे पर टाँगने वाला जूट का एक थैला ख़रीदा। यह थैला कुछ-कुछ लेडिज पर्श जैसा लगता था, लेकिन रास्ते लायक़ काफ़ी सामान इसमें अँटने की गुंजाइश थी। कांधे पर टाँगने में भी काफ़ी सुविधाजनक। लेडिज हो या जेंट्ïस—फिर यह जानने में मेरी रुचि नहीं रही!...

वीरपुर बस अड्डा बीत गया। पलार, खैर और कासों का वन, गड्ïढे-नाले, खेत, जंगल सब बीतते गए। हरीतिमा का अंतहीन विस्तृत संसार। कास, डाभ, हाड़ा, सेमार, करमी, बेहया, झौआ, पटेर के जंगलों के साथ-साथ, बेर, बबूल, साहुड़, शीशम और बाँस। आम-कटहल के गाछ कम, बहुत कम। झिंगुनी-परवल की लत्तर कहीं-कहीं। एकदम सुनसान रास्ता!...

दस मिनट भी नहीं लगा कि फिर भीमनगर आ गया। ऑटो वाले को भंटाबाड़ी मोड़ के पास छोड़कर पैदल ही आगे बढ़ा। एसएसबी कैम्प के चेक पोस्ट से निकलते मैंने एक हवलदार से पूछा—कुसहा जाने-आने में कितना समय लगेगा? कोई राजस्थानी मीणा था वह। उसने अपने को व्यस्त दर्शाते हुए किसी दूसरे सिपाही से पूछने को कहा। दूसरे ने कहा कि कम ही समय लगता है। अपना वाहन हो तो डेढ़-दो घंटे में लौटकर भी आ सकते हैं। लेकिन मधेसी आंदोलन के कारण नेपाल में बस-गाड़ी लगभग बंद है, इसलिए जाना कठिन! मैंने पूछा—स्मगलरों  को वाहन मिल जाता है, मुझे कुछ नहीं मिलेगा? उसने कहा—स्मगलर वाहनों के बल नहीं चलता, वाहन स्मगलरों के बल चलता है! वह हवा-पानी किसी की भी सवारी गाँठ सकता है!... मैंने उसको उत्साहित करते हुए कहा—वाह! आपके पास काफ़ी जानकारी है। थोड़ा मुझे भी बताइए! स्मगलरों के बारे में जानकारी के लिए ही तो मैं कोसी के किनारे-किनारे भटक रहा हूँ!... अचानक उस सिपाही को साँप सूँघ गया। वह ज़रा घबरा-सा गया। रंग बदलता वह मीणा की तरफ़ बढ़ा और आहिस्ते से उसको मेरे बारे में उसने कुछ कहा। मीणा ने मुझसे आईडी देखने की इच्छा जाहिर की। आईडी बढ़ाते हुए मैंने पूछा, 'ठम जा मीणा जी, स्मगलरों से भी आईडी माँगते हो क्या?’ वह सशंकित बोला, 'क्या पूछते हो सर जी! क्या पूछते हो सर जी!’ और ग़ाजि़याबाद के पते में उलझ गया!... 'जैसलमेर से वाड़मेर तक ऐसे ही घूमा हूँ मीणा जी! ढाणियों में रात गुज़ारी! बाजरे की रोटी कुएँ का पाणी यूँ ही णहीं मिलणा था। और तुम पता देखते हो जी!’ मुझे अनसुना करते उसने असमंजस में मेरी आईडी लौटायी और वहाँ से हट गया। कुछ ही देर में मैं नेपाल चेक पोस्ट पारकर भंटाबाड़ी बस स्टैंड पहुँचा।

भंटाबाड़ी स्टैंड में बसें नहीं थीं। एक स्टैंड किरानी से पूछताछ कर ही रहा था कि एक युवक ने महँगे किराये पर मोटरसाइकिल से पहुँचाने का प्रस्ताव रखा। उस लड़के का रंग-ढंग थोड़ा अजीब लगा। मैंने उसको टालकर सड़क के दूसरी तरफ़ की दुकानों की ओर बढ़ गया। थोड़ी ही देर में बराज की तरफ़ से आई एक ख़ाली बस खड़ी हुई। कंडक्टर से पूछा तो उसने बताया कि आधा घंटा बाद वह बस जाएगी। मैंने तत्काल अंदर जाकर एक सीट पर बैठना ही मुनासिब समझा। धीरे-धीरे कई और पसिंजर आकर बैठते गए। कुसहा के लिए कहाँ उतरना ठीक होगा, मुझे यह पता करना था। सहयात्रियों से मैंने जिज्ञासा की। भीमनगर चौक के पास का एक बुजुर्ग, जो स्त्रियों के आधुनिक पहनावे और फैशन की निंदा पानी पी-पीकर कर रहा था, बगल की सीट पर बैठा था। मैंने पूछा—आपके घर में कौन-कौन हैं? वह अपने सात बेटे और बहुओं की कहानी तफसील से सुनाने लगा। बहुओं के व्यवहार से वह स्पष्टत: दुखी था। विधुर-जीवन और देह-दशा से यूँ वह वृद्ध तो नहीं ही लग रहा था। मुझे महसूस हुआ, ज़रूर यह बुजुर्ग अपनी बहुओं की दुनिया में ताक-झाँक करता होगा! मैंने अपने थैले से सेब निकालते हुए एक बुजुर्ग की तरफ़ बढ़ाया। ना-ना करते हुए उसने सेब ले लिया। फिर उसने अपने यहाँ आने का निमंत्रण भी दिया। फिर उसने स्मगलरी के काम से जुड़ी स्त्रियों के प्रसंग की एक सरस कहानी धीरे-धीरे सुनाई। यौन-अंगों में छुपाकर क्या-क्या और कैसे-कैसे ले जाती हैं स्त्रियाँ, यह सब वह विस्तार से बता रहा था। बस खुलने के कुछ क्षण बाद उसी बुजुर्ग ने मुझे बताया कि अब श्रीपुर चौक आनेवाला है। यहीं उतरकर मैं किसी छोटी गाड़ी की पड़ताल करूँ। कुछ-न-कुछ तो मिल ही जाएगा!...

ग्यारह बजे के क़रीब मैं श्रीपुर चौक उतरा था। श्रीपुर चौक कुसहा से चार-पाँच किलोमीटर पहले है। छोटा-सा चौक। पाँच-सात दुकानें। नेशनल हाइवे के किनारे ही विशाल पीपल के पेड़ के नीचे एक कठघरा में राजू यादव की टायर-ट्ïयूब पंक्चर-मरम्मत की दुकान थी। राजू एक बाइक का अगला चक्का खोलकर उसके पंक्चर ठीक करने में व्यस्त था। मुझे लगा, इस युवक से अपनी समस्या बतायी जा सकती है। उसने अपने काम में लगे रहकर ही मेरी पूरी बात सुनी और कहा—सर, इस चक्का को फाइनल करने तक रुकना पड़ेगा! मैं लेते जाऊँगा और पूरा कुसहा-मृगवन घुमा लाऊँगा। टिकट-भनसार की पर्ची कटवाने के ख़र्चे के बाद लौटने पर तेल का ख़र्चा जो उचित लगे अंदाज़ से दे दीजिएगा!...

चक्का फाइनल करने में उसको आधा घंटा से ज़्यादा ही लगा। फिर दुकान समेट कर वह अपने घर गया और क़रीब दस मिनट बाद एक नई बाइक पर हीरो की तरह अवतरित हुआ। क्षण भर के लिए तो वह पहचान में भी नहीं आ रहा था। मैं बगल के मंदिर के बरामदे में सोये बाबाओं की लापरवाही भरी जि़ंदगी देख ईष्र्यालु हो रहा था। हाथ की बोतल से पानी पीकर मैंने थैले में रखी और हेल्मेट लगाकर पिछली सीट पर बैठा। पाँच मिनट बाद ही हम मृगवन वन्यजीव संरक्षण परिक्षेत्र के चेक पोस्ट नाका पर थे। भनसार-कस्टम पर्ची और एन्ट्री टिकट लेते समय राजू ने अपना पता लाही-श्रीपुर बताया और मेरा पता भी उधर के ही किसी गाँव का लिखा दिया। आईडी उसने सिर्फ अपनी दिखाई। उसकी होशियारी तब समझ में आई जब पता चला कि इंडिया का पता होने पर डबल चार्ज लगता। चेक पोस्ट पर भनसार पर्ची, टिकट वगैरह चेक करनेवाला सिपाही भी उसका परिचित था। कोसी बांध पर आते मैं निश्चिंत था। आगे बढ़ते हुए राजू एक अनुभवी गाइड की तरह मुझे सब कुछ  बताते जा रहा था। एक-एक गाछ, झाड़ी-जंगल के साथ कोसी किनारे चरते अरना भैंस और हाथियों के बारे में बताते जा रहा था। हाथियों के झुंड वाली जगह तेज़ी से पार कर उस जगह वह रुका जहाँ 2008 में कोसी तटबंध तोड़कर तांडव मचाने पूरब की ओर निकली थी। आधा किलोमीटर के क़रीब के इस हिस्से में बाँध तो फिर बन गया था लेकिन पेड़ों के नाम पर नए-नए लगाए कुछ छोटे झाड़ ही दिख रहे थे। बांध के उस हिस्से में नज़रें पश्चिम की तरफ़ न जाकर लगातार पूरब की तरफ़ ही दौड़ रही थीं, जहाँ के गाँव-घर धारा के साथ बह गए थे। पूरा इलाका एकदम उजाड़! मानो वह ज़मीन ख़ुद 2008 में हुई कोसी की विनाश लीला की कहानी बयान कर रही हो!...

आगे फिर जंगल सघन था। अरना भैंसें, जंगली सूअर और हाथियों के झुंड नीचे जंगल में जहाँ-तहाँ एडवेंचर्स क्रिएट कर रहे थे। कहीं-कहीं रुककर हम फोटोग्राफ्स भी ले रहे थे। एक जगह मैं जंगल की तरफ़ उतर रहा था कि राजू ने सख्ती से रोका—सर, ख़तरनाक एरिया है! बहुत बड़े-बड़े नाग हैं इसमें!...नागराज की गति और गतिविधियों की कहानी उसने बहुत ही वैज्ञानिक जानकारियों के साथ सुनाई।

कुसहा पार कर बांध के रास्ते हम मृगवन के अंदर लगातार बढ़ते जा रहे थे। एक मोड़ के पास गाड़ी रोककर राजू ने पूछा—क्या विचार है सर! चतरा तक जाना है क्या? आगे चेक पोस्ट से बाहर हो जाएँगे तो फिर इधर से लौटने नहीं देगा! मैंने कहा—नहीं, लौट चलो! चतरा गया हूँ पहले भी, उधर नहीं जाना। कुसहा के पास सुना है कि नेपाली सेना का कोई म्युजियम है!... उसने कहा—यूँ देखने लायक़ एक और जगह है। मैंने कहा—तब उधर ही चलो!

वापसी में दो जगह नाग देवताओं ने रास्ते काटे। दोनों जगह कुछ क्षण के लिए वह रुका। एक जगह हाथियों का झुंड ज़रा ही नीचे था तो उसने गाड़ी तेज़ भगाई। क़रीब दो घंटे से ज़्यादा का चक्कर पूरा कर हम कुसहा में बाँध पर से नीचे उतरे—कोसी टाप्पू बर्ड वाचिंग कैंप। यहाँ का केयर टेकर राजू के किसी परिचित का समधी था इसलिए राजू उसको 'समधि’ संबोधित कर रहा था। हम लोग उस कैम्पस का मुआयना कर ही रहे थे कि उस कैम्प के डिज़ाइनर, डायरेक्टर कुर्बान मंसूरी भी आ गए।

कोसी टाप्पू बर्ड वाचिंग कैम्प पूरा घूम-फिरकर देखने के बाद मैं इस निष्कर्ष पर पहुँचा कि नेपाल के इस मधेशी इलाके में मिथिला की ग्रामीण शैली-शिल्पकला का गहरा प्रभाव है। मैथिल परिवेश के साथ स्थानीय शैली के फूस-घर का इतना सुंदर कमर्शियल उपयोग करने वाला मेरी जानकारी में कुर्बान मंसूरी पहला व्यक्ति था। बाँस-बत्ती, कास-फूस, जूट की सुतली-डोरी, सखुआ के खूँटे और चिकनी माटी के अलावा उस घर के निर्माण में कहीं भी ईंट, सीमेंट, छड़ जैसी  बाज़ार निर्मित चीज़ों का कोई उपयोग नहीं हुआ था। यहाँ तक कि कालीन-कारपेट की जगह पटेर और मोथा से बनी चिक-चटाई बिछी हुई थी। दीवाल, भित्ती, पाढ़ वगैरह की पुताई विभिन्न रंगों की चिकनी माटी से इस कलात्मकता के साथ की गई थी कि उसके आगे एशियन और रॉयल पेंट का काम फीका था। कमरे से कुछ ही क़दमों की दूरी पर बना वाशरूम ज़रूर पक्का था। इसी तरह किचन रूम, स्टोर रूम और एक बड़ा सा डाइनिंग हॉल भी पक्का था। रहनेवाले कमरे दो-तीन कोटि के थे। कुछ डबल, सिंगल बेड कमरे एक भवन में तीन-तीन थे। कुछ ऐसे कमरे भी थे जिसके लिए एक स्वतंत्र 'हट’ बना हुआ था। कुछ हट ऐसे भी थे जो विस्तृत जलाशय के बीच टाप्पू या कि मचान की तरह लग रहे थे। वहाँ तक जाने के लिए स्वीमिंग पुलनुमा रास्ते थे जो बाँस-बत्ती की कमाचियों से बड़े ही कलात्मक ढंग से बनाए गए थे। सभी रास्ते डाभ, कास के जंगलों के बीच से या जलाशयों के ऊपर से जाते थे। अद्भुत दुधिया सूत से बनी कोरियन मच्छड़दानी। पौराणिक गंरथों में पढ़े जंगल-मध्य ऋषि-मुनि के प्राकृतिक आश्रमों का बिम्ब मन में आ रहा था। अद्ïभुत रम्य कानन। शांत-स्निग्ध वातावरण। कौन अधम नर होगा जो ऐसी जगह में रहने का आमंत्रण ठुकरा कर कहीं और जाना चाहेगा?...

मैं इतना डरपोक हो सकता हूँ यह मालूम नहीं था! बहुत चाहकर भी वहाँ रहने का साहस नहीं जुटा पाया। ऐसा महँगे किराये के कारण नहीं हुआ। किराये की चिंता से तो कुर्बान भाई ने मुक्त कर दिया था। मैं बस नाग-देवता के डर से रहने की हिम्मत नहीं जुटा पा रहा था। चीन और कोरिया वाले पर्यटकों के लिए साँप चूहे-बिल्ली जैसी मामूली चीज़ था। साइबेरियन बर्ड और जंगली जीव-जंतुओं के बीच साँपों के आज़ाद घूमने का मैं विरोधी नहीं हूँ, लेकिन उनके साथ रहने की आदत न होने के कारण मैंने कुर्बान भाई को फिर कभी आने का आश्वासन देकर तत्काल निकलना ही बेहतर समझा। सैनिक म्युजियम भी बाहर-बाहर ही थोड़ा-बहुत देखा। वापसी में धूप का ताप कम हो जाने के कारण साँपों का निकलना इस कदर बढ़ गया था कि जंगल की सीमा से निकलते-निकलते तीन जगह काले नाग के दर्शन हुए।

श्रीपुर चौक आकर राजू की तरफ़ पाँच सौ के दो नोट बढ़ाए तो वह बोला—सर, मेरे पास इसका छुट्टा नहीं होगा।

मैंने कहा—उसकी कोई ज़रूरत नहीं। ...कम तो नहीं हुआ?

वह प्रसन्नता से भर कर बोला—क्या बात करते हैं सर! तीन-चार दिन में भी इतने का तेल नहीं जलेगा।...बहुत पैसा दे दिये।

—तेल और पैसे की बात नहीं है। तुम नहीं होते तो इस तरह मैं कहाँ देख-घूम पाता! तुम्हारे प्रेम का क़जऱ् है मुझ पर, राजू!

—सर जी, आप रात-बिरात जब भी खोज कीजिएगा, मैं तैयार मिलूँगा। राजू का स्वर भीग-सा गया।

तभी दूर से एक बस आती दिखाई पड़ी। मधेसी हड़तालों के समय में बस का जल्दी मिलना राहत से कम नहीं थी। बस में भीड़ काफ़ी थी, लेकिन जैसे-तैसे मैं भी अंदर चला गया। भंटाबाड़ी नहीं उतरकर सीधे बराज ही पहुँचा।

बराज पर पहले की दुनिया का कायाकल्प हो चुका था। पूर्वी केनाल से पूरब की तरफ़ का नया बाज़ार तो पहचान में ही नहीं आ रहा था। लेकिन पश्चिम की तरफ़ कस्टम आफ़िस से लगे इलाके पहले जैसे ही थे। उधर ही एक पुराने ढाबे पर नज़र पड़ी और क़दम आगे बढ़ गए। समय साढ़े पाँच के क़रीब हो रहा था। शाम के नाश्ते का समय था, लेकिन भूख लंच की थी। अंदर में एक स्त्री काउंटर पर और एक ग्राहकों के लिए लगी कुर्सी पर बैठी थी। मैंने बारी-बारी दोनों की तरफ़ देखकर कुर्सी पर बैठते हुए कहा—खाने के लिए क्या मिलेगा? बगल की कुर्सी पर बैठी स्त्री बोली—क्या खाएँगे? क्षणभर रुककर मैंने कहा—गरम-गरम मिल जाए तो मछली चावल!...

किसी ने कोई जवाब देना ज़रूरी नहीं समझा। बगल की कुर्सी पर बैठी महिला उठकर भीतर किचन में गई और खटर-पटर में लग गई। पंद्रह-बीस मिनट बीते होंगे कि एक प्लेट में गरम-गरम चावल और एक कटोरे के शोरबे में डूबी रेवा-बचवा मछली लेकर वह नमूदार हुई। फिर एक छोटे से प्लेट में आलू-बोड़ा की भुजिया और एक कटोरे में भुना हुआ साग आया। शाकाहारी दोनों सब्जियाँ ठंडी थीं, लेकिन उस साग का स्वाद अद्ïभुत था। दोबारा मछली देने आई उस महिला से मैंने उस साग का नाम पूछा था। साग का वह नाम मैंने पहली बार सुना था और इतना अनजाना सा शब्द था वह कि भूल गया, लेकिन उसके स्वाद की तासीर जिह्वा पर अब भी कायम है।

भोजन के बाद भी मैं थोड़ी देर तक वहीं बैठा रहा। उन महिलाओं से बात करने की इच्छा हो रही थी, लेकिन किसी भी बात पर वो एकाध शब्द से ज़्यादा ख़र्च करने को तैयार नहीं लग रही थी। ऐसी शब्द-कंजूस महिला मैं पहली बार देख रहा था। मेरे भीतर के रडार पर कुछ संकेत हुआ, लेकिन आगे की बातें किसी और दिन के लिए रखकर वहाँ से निकल गया।

बराज से दक्षिण-पश्चिम एक पेड़ के पास के एकांत में खड़ा होकर कोसी की जलक्रीड़ा देखने में इस कदर मगन हो गया कि सूर्यास्त हो जाने के बाद तक वहीं खड़ा रह गया। बीच-बीच में जाल बुनने में मगन एक मल्लाह पर नज़र जाती। जब मंदिर के सामने की चाय दुकान की चहल-पहल पर ध्यान गया तो सहसा उधर बढ़ा। सुखद रहा कि बिना दूध वाली काली चाय एकदम मनमाफ़िक मिल गई।

चाय पीकर पूरब की तरफ़ विकसित नए बाज़ार के पास आया। पंक्तिबद्ध सिर्फ शराबख़ाने ही शराबख़ाने!... वहीं खड़ा होकर भीमनगर या भंटाबाड़ी की तरफ़ जाने वाले वाहन का इंतज़ार करने लगा। बड़ी देर की प्रतीक्षा के बावजूद जब कुछ नहीं मिला तो अंधेरे रास्ते पर आगे बढ़ गया। थोड़ा आगे चलकर झोले से टॉर्च बाहर निकाल लिया।

क़रीब आधा घंटा बाद भीमनगर पहुँचने तक पसीने से भीग गया था। भीमनगर चौक से वीरपुर जाने के लिए एक ऑटो लगा हुआ था। दौड़कर उसी में बैठ गया। फिर कोई ऑटो मिले ना मिले!...

 

14 अगस्त, 2015, कोसी बराज

आज दिन भर मैं कोसी में था कोसी मुझ में। नाव, जाल, मछली और लकडिय़ों के अलावा भी बहुत कुछ का कारोबार यहाँ खुखरी से संचालित होता है। इननावों और जालों से मारी जाएँगी तरह-तरह की असंख्य मछलियाँ और काठमांडू-कोलकाता में इंतज़ार करते लोगों तक का स्वाद बढ़ाएँगी। मुझ जैसे लेखकों के शब्द-जाल से क्या मारा जाएगा? यश-प्रतिष्ठा या सुधी पाठकों के मन की भूख?

क्या सचमुच हम सब पाठकों के स्वस्थ मन के लिए कोई चिंता-कामना रखते हैं? या पानी संग बहती लकडिय़ों की तरह अभिशप्त है हमारा जीवन?

आज मेरे साथ कोसी थी और कोसी के साथ मैं। इस तरह के संग-साथ की कहानी प्राय: वर्णनातीत होती है। और वर्णनातीत दिनों की बात-कथा डायरी में नहीं लिखी जा सकती है। कोसी किनारे आज यह सवाल बार-बार मेरे भीतर उभर रहा है—क्या सच में हम पाठकों की चिंता करते हैं?...

15 अगस्त, 2015, सप्तकोसी, वीरपुर

आज सुबह सप्तकोसी की बालकनी से स्कूली बच्चों की प्रभात फेरी के आधुनिक दृश्य देखने को मिले। मिथिला समाज के स्कूली बच्चों की प्रभात फेरी के दृश्यों को देखना बीस साल से भी ज़्यादा हो गया था। झंडे और नारे तो प्राय: उसी तरह के थे, लेकिन पंक्तियों के आगे-पीछे लग्जरी गाडिय़ों पर टंगे स्कूलों के नाम वगैरह वाले बड़े-बड़े बैनर मेरे लिए चौंकाने वाली बात थी! कुछ-कुछ चुनावी जुलूस जैसा नज़ारा था। जैसे पंद्रह अगस्त की प्रभात फेरी नहीं, स्कूलों का प्रचार-अभियान चल रहा हो!... अवसर कोई हो, फ़ायदा उठाना ही हम सब का लक्ष्य बनता जा रहा है!

तैयार होकर कोसी की तरफ़ निकलते हुए मैंने वीरपुर शहर के माहौल में स्वतंत्रता दिवस की कोई रंग-आभा या वैसी कोई झलक महसूस नहीं की। आज दिन भर में मैं तस्करी के पेशे से जुड़े कई लोगों से मिला और उनके ठिकाने तक पहुँचा। एक रिटायर्ड सिपाही के अनुभवों को नोट किया जो फ़िलहाल फुलटाइम तस्करी करता है। दोपहर का भोजन करने के लिए बराज पास के उसी ढाबे में पहुँचा जहाँ पिछले दिनों दो शब्द-कंजूस महिलाओं ने गरम-गरम मछली-चावल खिलाया था। आज सिर्फ मछली-चावल खाना लक्ष्य नहीं था। उस सिपाही का संदर्भ देते हुए मैंने उन्हें अपने बारे में सब कुछ बता दिया। उन दोनों महिलाओं के मन को थाह पाना शुरू-शुरू में बड़ा कठिन लग रहा था। मगर टुकड़े-टुकड़े में उनका स्नेह छलका। उस दोपहर बाद के भोजन में एक अलग स्वाद ही नहीं, जीवन-संघर्ष का नया अर्थ समझ में आया। अखरोट का आवरण कितना सख़्त होता है, लेकिन अंदर अनेक गुणों वाला कैसा उत्तम मधुर फल रहता है? कुछ उसी तरह असंख्य करुण गाथाओं की ख़ान हैं वे दोनों महिलाएँ! उनकी कहानी यहाँ नहीं लिख सकता! बस इतना ही बता सकता हूँ कि दोनों साहस और संघर्ष की अप्रतिम मूर्ति हैं।

दोनों वीरांगनाओं का स्नेहाशीष लेकर चार बजे के क़रीब निकला। पूर्वी केनाल के पूरब पुराने बाज़ार वाली जगह पर सजे मछली-दारू बाज़ार में आज चहल-पहल कुछ ज़्यादा ही थी। पंद्रह अगस्त की छुट्ïिटयों के कारण आज दूर-दूर से अनेक गाडिय़ों में भरकर काफ़ी लोग बराज और कोसी देखने आए थे। वहाँ का माहौल पिकनिक स्पॉट की तरह का लगभग रोज़ होता है, लेकिन आज ख़ास था। बेलून या गोलगप्पे टाइप की चीज़ें वहाँ भले उस तरह न बिकती हों, रमन-चमन लायक़ बहुत सी चीज़ें थीं। चौबीस घंटा चलने वाला दारू प्रेमियों का स्वर्ग, तस्करों का बाज़ार, कोसी प्रेमियों के लिए लहरें मारतीं उद्दाम कोसी की बलखाती जलधारा इस मौसम में निखार पर है। दारू तो यहाँ खुली बिकती है, गांजा, हेरोइन, कॉकिन्स, एलएसडी टाइप चीज़ेंहों या खुखरी-सी धार वाली नेपाली लड़कियाँ!...इनको परखने-तोलने वालों की मंडी भी यहाँ बहुत इत्मीनान से चलती रहती है। इन सब के बीच इधर से उधर डोलते हुए मेरी नज़र कहीं और थी। मैं किसी नशा की तलाश में नहीं, एक ऐसी महिला का इंतज़ार कर रहा था जो निशा रानी कहलाती थी। यूँ निशा रानी नशा-रानी भी थी। वह स्पेशली जापानी और नाइजीरियन सौदागरों के लिए काम करती थी। उसके पास पाँच-सात नावें थीं जिनका उपयोग वह दुर्गम से दुर्गम और वर्जित से वर्जित क्षेत्र की यात्रा के लिए करती थी। उसके पास मैंने अपने मन की इच्छाएँ रखीं। उसने बहुत ध्यान से मुझे सुना। फिर बड़ी देर तक चुप रही। फिर काफ़ी टाल-मटोल के बाद वह सशर्त तैयार हुई। दर्जन भर निर्देश मिले। साथ ही कहीं बाहर देखने पर उसको पहचानूँ नहीं, टोकूँ नहीं!... फिर उसका आदेश हुआ कि फ़िलहाल तुरंत उस इलाके से निकल जाऊँ और होटल के कमरे में बैठकर उसके फोन का इंतज़ार करूँ!...

कोसी बराज का उस वक़्त का दृश्य इतना भव्य था कि छोड़कर जाने की इच्छा नहीं हो रही थी, लेकिन निकलने के लिए तत्काल रोड के किनारे आकर वाहन का इंतज़ार करने लगा। थोड़ी देर में पश्चिम बंगाल की नंबर वाली एक मिनी ट्रक काठमांडू की तरफ़ से लौटते में आकर रुकी और उसका ड्राइवर गुटका-सिगरेट और दारू लेने के लिए उतरा। उसके पास पहुँचकर मैंने भीमनगर तक के लिए लिफ्ट माँगी। उसको कोलकाता वापस जाना था। उसने कहा कि भीमनगर चेक पोस्ट से ज़रा पहले तक छोड़ सकता है। आगे मालवाहक वाहन में तीसरे के रहने पर जुर्माना लग जाएगा! इसलिए...

इसलिए भीमनगर चेक पोस्ट से सहरसा चौक तक पैदल ही आया और वहाँ से ऑटो लेकर निकल आया वीरपुर।

(शेष अगले अंक में....)

 

 

हिंदी में तीन कहानी-संग्रह, वैचारिक लेखों की एक किताब के अलावा मैथिली में एक उपन्यास प्रकाशित। दो नाटक भी। 

संपर्क : सी-56/यूजीएफ-4, शालीमार गार्डन एक्सटेंशन-2, ग़ाजि़याबाद-201005

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*  'मोखा’ कमरे के बाहरी दरवाज़े के दोनों तरफ़ की भित्तियों को कहा जाता है। मिथिला परिक्षेत्र में ऐसी मान्यता रही है कि मोखा की मिट्ïटी जिसको खिला दिया जाता है वह कहीं भी जाए, बार-बार उसी चौखट पर लौट आता है।


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