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अप्रैल - 2019

बात निकली लेकिन दूर तक नहीं गई

सुषमा मुनीन्द्र

कहानी

 

 

पंचभूत ब्रम्हाण्ड के दो एकनिष्ठ सत्य।

जन्म और मरण।

इन दो सत्य के बीच जो उपक्रम चलते हैं उन्हें चिकित्सकीय भाषा में जीवन, आध्यात्मिक भाषा में कर्मयोग कहते हैं। मनुष्य का प्रयास बल्कि प्रत्याशा होती है जीवन को अभीष्ठ की तरह जिये। यही प्रत्याशा साधन-सुविधा विहीन बत्तीस वर्षीया लज्जा को अपनी डेढ़ साल की चौथी पुत्री एकादशी को लेकर है। घरेलू नाम से सम्बोधित की जाती तीनों बड़ी बेटियों का उचित नामकरण बकिया (ग्राम) की माध्यमिक पाठशाला में भर्ती के समय हुआ है। लज्जा के पति जोगेन्द्र जिसे जुगिन्दा कहा जाता है, को जो नाम सूझ गया, लिखा दिया। चौथी पुत्री चूंकि एकादशी के दिन जन्मी है, लज्जा उसे एकादशी पुकारने लगी। सोच रखा है शाला में यही नाम दर्ज होगा।

कीर्तनपुर से पन्द्रह किलोमीटर की दूरी वाले बकिया की आबादी नौ हजार है। यहाँ बहुतायत में तिवारी ब्राह्मण बसे हैं अत: उनका मोहल्ला तिवरान कहा जाता है। एक वक्त था जब चमकती पुरोहिताई और सम्पन्न कृषि के कारण तिवारी श्रेष्ठ माने जाते थे। लज्जा वाली तीसरी पीढ़ी तक आते-आते श्रेष्ठता चौपट हो गई है पर अभ्यासवश ये विप्रवर 'हम बकिया के तिवारी हैं’ कहना नहीं बिरसते। चौपट होने के कारण स्पष्ट हैं। पूजा-कथा में लोगों की आस्था क्षीण होती जा रही है और पीढिय़ों में विभक्त होते हुए कृषि भूमि इतनी विभक्त हो गई है कि लज्जा के हिस्से में जो कुल पाँच एकड़ है उससे सालाना समुचित अन्न नहीं मिलता। अपनी पीढ़ी को मेहनती करार देते हुए बाबू (ससुर) अक्सर धिक्कार व्यक्त करते हैं -

''यह पीढ़ी जांगरचोर है। न पुरोहिताई सीखी, न खेती करने का जांगर है। इतने बुरे दिन आ गये है कि बाह्मन के लडि़का मजूरी करने कीर्तनपुर जाते है।’’

यह वक्रोक्ति बाबू मूलत: जुगिन्दा को सुनाते थे। बड़े पुत्र नरेन्द्र ने कीर्तनपुर के एक बैंक में गार्ड का स्थान ग्रहण कर जो तसल्ली दी उसे दुर्बुद्धि जुगिन्दा बकिया के ठेकेदार के साथ मजदूरी करने कभी-कभी कीर्तनपुर जाकर मटियामेट कर चुका है। जबसे कीर्तनपुर के कारावास में बंद है लज्जा कभी बाबू के साथ कृषि में स्वेद बहाती है, कभी ठेकेदार के साथ मजदूरी में। बाबू की बूढ़ी आँखों में अब धिक्कार नहीं संताप होता है ''तिवारियों के ऐसे दिन आ गये कि कुल लक्ष्मी नान्ह जाति के साथ ईंट-पाथर ढोती है। जब से घर बँटा, किस्मत बँट गई।’’

यह दंग कर देने वाला गृह विभाजन अम्मा के प्रश्रय में हुआ है। घर के साथ अम्मा-बाबू भी बँट गये। लज्जा की बेटियों को देखकर अम्मा का कपार तड़कने लगता था। उन्होंने नरेन्द्र की पत्नी नगीना को तीन वंशधर जनने के प्रताप स्वरूप ददुहाई (पूतों वाली) की पदवी भर नहीं दी, उसके हिस्से में रहने भी चली गई। जब तक जीवित रहीं लज्जा के कलेजे में त्रिशूल चलाती रहीं ''लड़कियाँ चुल्हबा (चूल्हा) सम्भाल लें पै बंस न संबालेंगी। इसके लिए दादू चाहिए।’’

सहृदय बाबू, जुगिन्दा की अकर्मण्यता से तादात्म्य नहीं बैठा पाते तथापि लज्जा के हिस्से में रहते हैं। नरेन्द्र ने अपने हिस्से में इस तरह भित्ति निर्माण करा लिया है कि हिस्सा घर का अद्र्ध भाग नहीं स्वतंत्र भाग जान पड़ता है। लज्जा के हिस्से की भित्तियों को सुधार का इंतजार है।

लज्जा की गृहस्थी में आपदाओं की प्रचुरता है। नई आपदा यह कि सप्ताह भर से एकादशी ज्वर से पीडि़त है। बकिया के झोला छाप डॉक्टर ने पाँच दिन उपचार कर छठे दिन खेद व्यक्त कर दिया-

''डेंग्यू, चिकनगुनिया, स्वाइनफ्लू, मलेरिया क्या-क्या तो बगरा है। एकादशी को कीर्तनपुर के जिला अस्पताल में भर्ती कराओ।’’

''कल सुबह जाऊँगी।’’

बड़ी बेटी नंदिनी रसोई सम्भाल लेती है। छोटी बहनों के साथ ले वक्त पर शाला चली जाती है। बाबू जरूरत मुताबिक सम्बल देते हैं फिर भी सुबह जल्दी उठ कर लज्जा ने जरूरी काम सम्पादित कर दिये। मोटे कपड़े के झोले में पानी वाली प्लास्टिक की बोतल, बिस्किट का पैकेट, दो रोटी, गुड़ रखते हुये आठ बज रहे हैं। एकादशी को गोद में लेकर लज्जा, ओसारे में बैठे बाबू के पास आई -

''बाबू एकादशी की बोखार नहीं उतर रही है। डॉक्टर बोले हैं हिंया इलाज न होगा। कीर्तनपुर में भरती कराओ। थोड़ पइसा मेरे पास है। तुम्हारे पास कुछ हो तो दो।’’

चकमा खाये से बाबू ने लज्जा को भरपूर निहारा। जुगिन्दा से अकारण पिट जाने वाली लज्जा में चरम स्थिति से गुजर कर इतनी दृढ़ता आ गई है कि मालकिन की तरह फैसले लेने लगी है।

''हमहूँ चलते हैं।’’

''जरूरत होगी तो मोबाइल पर बताऊँगी। ऑटो से आ जाना। तुम्हारे घुटने वैसे भी पिराते हैं। लड़कियाँ स्कूल से आयें तो पढऩे बैठा देना।’’

''ओंकार (नगीना का मझला पुत्र) को ले जा।’’

''जानते तो हो, जिज्जी से देखा दृष्टि (एक-दूसरे की ओर देखना) नहीं है। कहती है मेरे कारण दादा भाई (नरेन्द्र) फरारी काट रहे हैं। जिंदा हैं धौं (कि) मर गये।’’

''आराम से जाना।’’

''हौ।’’

कपोल और गर्दन के झुलसे दाहिने हिस्से को आँचल से मँूदती-छिपाती लज्जा माध्यमिक शाला के समीप आ गई। मजदूरी के लिये कीर्तनपुर जाते हुए जानती है यहाँ से ऑटो मिलता है।

लज्जा जब पहुँची क्षमता से अधिक भरा ऑटो गमन के लिए तत्पर था। लज्जा ने हाथ दिखा कर रोका। लोगों ने कसमसा कर उसके बैठने लायक जगह बना दी। बाबू वाणी को वक्र कर कहा करते हैं ''हम लोग कीर्तनपुर पैदल या साइकिल चला कर सपाटे से जाते थे। अब लोगन को ऑटो चाहिए या फटफटी (बाइक)।’’

ऑटो ने रफ्तार पकड़ ली। लज्जा इस पथ को चीन्हती है। मजदूरी करने इसी पथ से कीर्तनपुर जाती है। जुगिन्दा से मिलने कारावास कभी नहीं जाती। बाबू को जुगिन्दा का हिंसक हृदय आज भी हदस से भरता है पर पिता होने के नाते मुलाकात की तिथि पर उससे भेंट-मुलाकात करने चले जाते हैं। लज्जा ने ऑटो की रफ्तार से उत्पन्न हो रही सरसराती हवा से बचाव के लिए एकादशी को शॉल से भली प्रकार मूँद लिया। इसे पुत्री नहीं चुनौती की तरह ग्रहण किया है। चुनौती मानते-मानते इससे इतना मोह हो गया है कि सबसे अधिक फिक्र इसी की रहती है। ताप से बेचारी का मुख अरुण हो गया है। ऑटो की असुविधा में स्थापित लोग दुनिया भर की अभिव्यक्ति दे रहे हैं लेकिन लज्जा दूरी नाप रही है कि किसी तरह कीर्तनपुर पहुँचे। ...ऑटो कीर्तनपुर की जद में प्रविष्ट हुआ। लोग अपने-अपने गंतव्य के समीप ऑटो रुकवाते रहे। लज्जा जब अस्पताल चौराहे पर उतरी, मोबाइल बता रहा था नौ बज रहे हैं। यहाँ से अस्पताल नजदीक है। एकादशी को पुचकार कर लज्जा उसे बोतल से पानी पिलाने लगी। एकादशी ने दो घूँट पीकर थूँक दिया। रोगी का जूठा पानी नहीं पीना चाहिये जैसी भिज्ञता न होने से लज्जा ने उसी बोतल से पानी पी लिया। एकादशी को बिस्कुट पकड़ाया। जाहिर है एकादशी ने नहीं पकड़ा। लज्जा ने घाम, बरसा रहे अंत भादौं के आसमान को निहारा। जैसे वहाँ से मदद आने वाली है। चौराहे से अस्पताल की ओर गई सड़क को दूर तक निहारा। जैसे अनुमान लगा रही हो अस्पताल पहुँचने में कितना वक्त लग जायेगा। कितने लोग, कितने वाहन। मनुष्य और वाहनों की अभ्यस्त हो चली आवारा गउयें बिना किसी को हुरपेटे सड़कों पर विचर रही हैं। अरे बप्पा, कीर्तनपुर पहले ऐसा नहीं था। सड़कों में सभ्यता दिखती थी। लज्जा असभ्य सड़कों में जल्दी-जल्दी रेंगने लगी। अस्पताल परिसर के विशाल लौह गेट से दाखिल होते हुए परिसर में जमा भीड़ को देख दंग हुई। ऐसी भीड़ तो मेले में होती है। जान पड़ता है सगला कीर्तनपुर बीमार है। कहा जाता है सरकारी चिकित्सालय नरक कुंड है पर ये अस्पताल न हों तो अंदाज लगाना कठिन है कितने लोग काल के गाल में अकाल समा जायेंगे। लज्जा निराश्रित सी एक ओर खड़ी हो गई। दो-तीन बार अस्पताल आई है। चीजों को गहराई और गम्भीरता से नहीं परखती अत: स्थान और राह को याद नहीं रख पाती। उसे अस्पताल बहुत बदला हुआ लगा। किस ओर भाग-दौड़ करे कि डॉक्टर एकादशी को तत्काल भर्ती कर बोतल (सेलाइन) लगा दे। ड्रिप लगाना उसे हर मर्ज का शर्तिया उपचार लगता है। उसका ध्यान वहीं खड़ी कुलीन मुख वाली दो स्त्रियों की ओर गया। कीमती हुलिये को देख अदब अपने आप आ जाता है। लज्जा ने कहा -

''नमस्ते मइडम जी।’’

''नमस्ते।’’

''लडि़की को लड़का वाले (बाल रोग विशेषज्ञ) डॉक्टर को देखना है। कहॉ बैठते हैं?’’

''लड़का वाले डॉक्टर?’’

लज्जा ने मंतव्य स्पष्ट किया ''छोटे बच्चों के डॉक्टर अलग होते हैं न।’’

''चाइल्ड स्पेशियेलिस्ट।’’

''जी।’’

''वह हॉस्पिटल बिल्डिंग दिख रही है। वहाँ किसी से पूछ लेना।’’

''जी।’’

दो मंजिला अस्पताल।

कितने बरामदे, कितने दालान, कितने विभाग, कितने वार्ड, कितने कक्ष। इधर-उधर भटक कर लज्जा को लगा दीवारों और द्वारों की भूल-भुलैया से नहीं निकल पायेगी। दो-चार लोगों से दिशा निर्देश लेकर आखिर सही जगह पर पहुँची। आठ दर्जा उत्तीर्ण होने से पढऩे लायक पढ़ लेती है। कक्ष के बाहर पट्टिका में पढ़ा - बाल रोग विशेषज्ञ। कक्षा के उढ़के द्वार की संद से झाँकने लगी। समीप ही स्कूल में आरूढ़ कर्मचारी विराजमान है। अदब सलीकेदार को मिलता है। लज्जा के सस्ते ग्रामीण पहनावे, झुलसे मुख और गर्दन को देखकर कर्मचारी ने बेरुखी दिखाई -

''क्या देख रही हो?’’

''एकादसी को तेज बुखार है। डॉक्टर को दिखाना है।’’

''पर्ची है?’’

''नहीं।’’

''ओ.पी.डी. की पर्ची बनवाओ। बिना पर्ची के डॉक्टर नहीं देखते।’’

लज्जा गिड़गिड़ाने लगी ''डॉक्टर जो मातबर (दयालू) होंगे बिना पर्ची के देख लेंगे।’’

''पर्ची के बिना नहीं देखते।’’

लज्जा जानती है अस्पातल में इमरजेन्सी का महत्व होता है-

''इमरजेन्सी है।’’

''इमरजेन्सी है कि नहीं है डॉक्टर जानेंगे। पर्ची बनवाओ।’’

नियम ज्ञान हो गया है।

अरज का अर्थ नहीं।

एक हाथ में एकादशी को दूसरे हाथ में झोला सम्भाले दो-चार लोगों से दिशा निर्देश ले लज्जा ओ.पी.डी. स्लिप काउण्टर पर पहुँची। आठ काउण्टर। महिलाओं और पुरुषों की पृथक कतारें। लज्जा चकमा खा गई। अपने लेखे जल्दी आ गई है। लोग क्या सुकबा (शुक तारा) देखते ही कतार में लग गये है? भगवान तुमने इतने रोग काहे बनाये? एकादशी को कब बोतल चढ़ेगी? लज्जा महिला कतार में लग गई। जो महिला सबसे आगे खड़ी होगी, किस्मत वाली है। देखते-देखते लज्जा के पीछे कई महिलायें खड़ी हो गईं। अस्वस्थता से अधीर एकादशी कुछ देर शांति बनाये रही फिर क्षीण स्वर में रोने लगी। लज्जा ने पुचकारा -

''एकादशी, पानी पियेगी?’’

''बच्ची को शॉल में क्यों मूँदे हो? हवा लगने दो।’’

लज्जा ने पीछे देखा। सुझाव देने वाली अधेड़ स्त्री पहनावे से अच्छे स्तर की जान पड़ती है।

''जी मइडम।’’

लज्जा ने शॉल की जकडऩे ढीली कर बिस्कुट एकादशी के अधरों पर रखा। एकादशी ने प्रतिक्रिया नहीं दी। अस्पताल प्रबंधन, शासन-प्रशासन, अपने भाग्य की निंदा करते कतार में लगे लोगों के चेहरे ऐसे हो रहे हैं जैसे अब नहीं तब किसी से लड़ पड़ेंगे। कोलाहल से विरत लज्जा अपने असमंजस में मुब्तिला है - नंदिनी ने बाबू को खाना परस दिया होगा। आज वह स्कूल नहीं जा पाई होगी। दोनों छोटी स्कूल चली गई होंगी। अच्छा है जो एकादशी सो गई है। रोती तो सम्भालना कठिन होता। जुगिन्दा का नास हो। होता तो मालूम करता लाइन आगे क्यों क्यों नहीं बढ़ रही है। लज्जा ने आगे वाली स्त्री से पूछा-

''लाइन आगे काहे नहीं बढ़ रही है?’’

''सर्वर डाउन है। पर्ची नहीं बन रही है।’’

ई हास्पिटल योजना के लिये जब से जिला अस्पताल एन.आई.सी. (नेशनल इंफार्मेशन सेंटर) के हवाले किया गया है तब से सर्वर सुविधा कम, समस्या अधिक बन गया है। लज्जा सर्वर डाउन का अर्थ नहीं समझी लेकिन समझ गई पर्ची नहीं बन रही है। कतार में पता नहीं कितना वक्त बिताना पड़ेगा। वक्त बीच रहा है...। पीछे वाली स्त्री ने हस्तक्षेप किया -

''बच्ची का सिर लटका जा रहा है। कैसे सम्भालती हो?’’

एकादशी का सिर सीधा करते हुए लज्जा ने देखा उसका मुँह चिडिय़ा की चोंच की तरह खुला है।

''बेटी... एकादसी। पानी पियेगी... देख तो...। मइडम जी, एकादसी की तबियत जादे खराब है।’’

स्त्री काफी जोर से बोली ''अरे, यह बेहोश हो गई है।’’

लोक आत्मकेन्द्रित और असंवेदनशील हो गये हैं तथापि आपात स्थिति में सहयोग करने की वृत्ति उनमें मौजूद है। तभी न बाढ़ में डूबते लोगों को बचाने हेतु कुछ दिलेर आगा-पीछा सोचे बिना पानी में कूद जाते हैं। कुछ लोग कतार से निकल कर लज्जा के पास आ गये। एकादशी की मुर्छा ने दास्तान बना दी-

''हाँ, यह बेहोश है।’’

''सरकारी अस्पताल जैसा भउसा (अव्यवस्था) कहीं नहीं है।’’

''अस्पताल वालों के हाथ में क्या मेंहदी लगी है जो मैनुअली पर्ची नहीं बना सकते?’’

''न पर्ची बनेगी न डॉक्टर मरीज की नाड़ी पकड़ेंगे।’’

''कैसे न पकड़ेंगे। बहन जी आप आगे आओ। सीधे काउण्टर पर चलो।’’

अवाक लज्जा की प्रज्ञा सुनिश्चित नहीं कर पा रही थी कतार में लगे रह कर बेवकूफी कर रही है या कतार से हट कर अपनी जगह खोकर करेगी। उसने हठात देखा दस-बारह लोगों ने उसे घेरे में ले लिया है।

''आओ बहन जी।’’ कह कर बलशाली देह-बांह वाला व्यक्ति अनायास मामले का प्रणेता बन गया जो कि अंत तक बना रहा।

बलशाली के नेतृत्व में दस-बारह लोगों का समूह लोगों की आवाजाही के मध्य जगह बनाता हुआ काउण्टर तक पहुँचा। बलशाली ने काउण्टर प्रभारी को जागरुक

किया -

''ओ, हैल्लो। लाइन में लगे-लगे बच्ची बेहोश हो गई है।’’

प्रभारी ने समूह को देखा। एकादशी के खुले मुँह को देखा। अस्पताल में रहने का लम्बा अनुभव है। बलशाली की काया बता रही है हंगामा करने की वजह ढूँढ़ता होगा। एकादसी की दशा बता रही है स्थिति गम्भीर है। प्रभारी स्तब्ध फिर सतर्क हुआ -

''आइये।’’

प्रभारी के लम्बे डग बाल रोग विशेषज्ञ कक्ष के सम्मुख जाकर थके। समूह से

बोला -

''यह इमरजेंसी केस है। आप लोग यहाँ भीड़ न लगायें। डॉक्टर साहब नाराज होते हैं।’’

एक ने कहा ''हमारा मरीज बेहोश न हो तो नहीं देखेंगे? पर्ची नहीं बन रही है। हम कहां फरियाद करें?’’

प्रभारी फरियाद पर चित्त न दे भीतर दाखिल हो गया। पीछे लज्जा थी। बलशाली उसे अजीज लग रहा था। बोली -

''भइया, आप भी अंदर आओ।’’

बाल रोग विशेषज्ञ डॉ. कौशिक स्मार्ट फोन पर ''सैंया मिले लड़कॅइया, मैं का करूं...’’ लोक गीत सुनने में दत्त थे। तीन मूर्तियों को देख कर उचक गये-

''ओ.पी.डी. स्लिप बनने लगी?’’

प्रभारी बोला ''नो सर। लिंक डाउन है। यह इमरजेंसी केस है।’’

चिकित्सक ने मोबाइल ऑफ कर एकादशी की दशा पर चित्त दिया। नाड़ी पकड़ते ही जान गये प्राण चोला छोड़ चुके हैं। लोक गीत से प्राप्त हो रही मुग्धता विलुप्त हो गई। सर्वर की आंख मिचौली के कुसूरवार वे नहीं हैं पर भीड़तंत्र की ताकत होती है। लोगों में धैर्य, विनम्रता, सहनशीलता का लेश नहीं बचा। कारण-अकारण उपद्रव कर देते हैं। उचित उपचार के बावजूद रोगी न बचे इसे संबंधित चिकित्सक की लापरवाही मान लेते हैं। एक-दो बार चिकित्सक पिट चुके हैं। एक-दो बार पिटते-पिटते बचे हैं। एकादशी के नादान मुख को देखा। मृत्यु और आसन्न मृत्यु के क्षण विलक्षण होते हैं। जीवित को न मिले पर मृतक को एकाग्रता मिलती है। परस्पर लडऩे वाले भिन्न राजनीतिक दल के लोग विरोधी दल के मृतक को श्रद्धांजली देते हुये वे गुण ढूंढ़ लेते हैं जो वस्तुत: उसमें नहीं होते। डॉ. कौशिक, एकादशी की मृत देह पर स्टेथोस्कोप घुमाते हुये लज्जा से पूछने लगे -

''कब से बीमार है?’’

''पांच दिन हो गये।’’

''अब लाई हो?’’

''बकिया में डॉक्टर की दवाई चलती रही। वे बोले कीर्तनपुर लइ जाओ।’’

''आपके साथ ये (बलशाली) हैं?’’

स्थिति को सरल बनाने के लक्ष्य से डॉ. कौशिक ने सहानुभूति का प्रदर्शन किया -

''आपका चेहरा कैसे जल गया?’’

लज्जा ने भरे कंठ से आदि-अंत कहा -

''डॉक्टर साहेब मेरी चार लड़कियाँ हैं। यह चौथी है। मेरे आदमी को दादू चाहिये। पै यह पइदा होय गई। यह चारपाई पर सो रही थी। मेरे आदमी और जेठ ने इसके ऊपर मिट्टी का तेल छींट (छिड़क) दिया। तेल की बास सूंघ कर मैं वहां आई। मेरा आदमी माचिस किरिर (जला) रहा था। मैं चिल्लाने लगी। अधरमी के ऊपर देवी सवार हो गई रही। मेरे सिर में दाहिने तरफी तेल उड़ेल दिया। जेठ ने माचिस किरिर दी। ससुर ने आग बुझाई साहेब। मुजे भी देवी सवार हो गई। मैंने रपोट कर दी। मेरा आदमी जेल में है। जेठ फरार हो गये तो आज तक मालूम नहीं कहां हैं।’’

डॉ. कौशिक भयभीत हैं लेकिन सोचने लगे कन्या भ्रूण हत्या का इतना जोर है जबकि यह साधन-सुविधाविहीन स्त्री चार बेटियों को ममता दे रही है।

''तुम हिम्मत वाली हो।’’

''प्रभु ने इसे लडि़की बनाया त इनका कउन दोस? बोतल चढ़ा दीजिए, होस में आ जायेगी।’’

''इमरजेन्सी वार्ड में भर्ती करना पड़ेगा।’’

दस बेड वाला इमरजेंसी वार्ड।

डॉ. कौशिक ने बलशाली सहित किसी को अंदर नहीं आने दिया। लज्जा से बोले -

''तुम आओ।’’

डॉ. कौशिक ने वार्ड में तैनात नर्स को एहतियात बरतते हुए अँग्रेजी में जाली काम की रूपरेखा समझा दी - लज्जा को तुष्ट करने के लिए ऑक्सीजन और सेलाइन लगाने का दिखावा करना है। एक घंटे बाद एकादशी नहीं रही सूचित कर लज्जा को रफा-दफा करना है। मामला संवेदनशील हो, न हो, बना दिया जाता है। आज लिंक डाउन होने से लोग वैसे भी आक्रोशित हैं।

युवा नर्स ने एकादशी की निस्पंद देह देखी। उसे मौत देखने से भय नहीं लगता, लोगों में बढ़ती जा रही हिंसक वृत्ति से लगता है। एक दो बार इसी वार्ड में दो लोग उससे बहुत बहस कर चुके हैं। एकादशी को दिखावे के लिए ऑक्सीजन और बोतल लगा नर्स को निर्देश दे, समूह को भीड़ न लगाने का निर्देश देकर डॉ. कौशिक चल गये। लौट रहे बलशाली से लज्जा ने कहा -

''भइया, एक-दो बार आकर हाल पूछ लेना। अकेली हूं। जी घबड़ाता है।’’

''देख लूं पर्ची बनने लगी कि नहीं? फिर आता हूं। चिंता न करें।’’

बलशाली के जाने पर नर्स ने अमन पाया। लज्जा से बोली-

''घर से किसी को बुला लो। कैन्टीन में कुछ खा लो। मैं एकादशी को देख रही हूँ।’’

''रोटी-गुड़ मेरे पास है।’’

''बाहर बैठ कर खा लो। यहां सब सीरियस मरीज हैं। शांति रहना चाहिये।’’

बाहर बरामदे में दीवार से टिक कर भूमि में बैठी लज्जा रोटी निगलने लगी। नहीं खायेगी तो एकादशी की तरह मूर्छित हो जायेगी। एकादशी को ठीक होने में एक-दो दिन लग जायेंगे। बाबू को कॉल कर बताना पड़ेगा लड़कियों का ध्यान धरेंगे। प्लास्टिक बोतल का पानी चुक गया। लज्जा पानी लेने चली गयी। लौटी तो देखा बलशाली वार्ड में ताक-झांक कर रहा है। उसे आते देख कर बोला -

''एकादशी कैसी है?’’

''होस नहीं आया है।’’

''कैसे आयेगा?’’

बलशाली का अनुमान था एकादशी कतार में ही मर गई थी। वह तथ्य का सत्यापन करना चाहता था। तेज व्यवहार दिखाते हुए एकादशी के बेड पर पहुँचा। सांस न चलने का आभास हुआ। ड्रिप लगी है पर चलाई नहीं गई है। वह नर्स के पास गया -

''सिस्टर ड्रिप क्यों नहीं चलाई?’’

नर्स चाहती थी जितनी जल्दी हो सके मामले का पटाक्षेप हो जाये।

''देखती हूं।’’

नर्स बोतल को हिलाने लगी। बलशाली इस तरह तन गया। मानो आम जन का मसीहा बन कर ही रुकेगा -

''सिस्टर मैं समझ गया था बच्ची जीवित नहीं है। आप लोग डेड बॉडी के साथ खिलवाड़ कर रहे हैं।’’

नर्स अकबका गई। ''यहां शोर न करें। पेशेन्ट घबराते हैं।’’

''डॉक्टर को बुलाओ।’’

नर्स के फोन कॉल पर डॉ. कौशिक गम्भीर मुद्रा में प्रकट हुये -

''सिस्टर, ऑक्सीजन हटा दो।’’

बलशाली ने खंडन किया ''ऑक्सीजन की जरूरत कब थी कि हटाने की बात कर रहे हैं। बच्ची लाइन में ही मर गई थी।’’

डॉ. कौशिक ने स्पष्ट किया ''एकादशी क्रिटिकल कंडीशन में यहां लाई गई। हमने कोशिश की।’’

''मान लेता हूं आपने कोशिश की। आपको मानना पड़ेगा पर्ची नहीं बन रही थी।’’

लज्जा बलशाली के आरोप पर विश्वास करे अथवा चिकित्सकीय प्रयास पर। घाम, ज्वर, भूक से एकादशी का मुख शीतल हो गया है। उसने पुत्री नहीं खोई है, चुनौती का सामना शायद ठीक से नहीं कर सकी। इसे बचाने का कितना जतन किया। चेहरा ठीक दिखता था इसे बचाने के प्रयास में झुलस कर कांतिहीन हो गया है। वह एकादशी के हाथ-पैर टटोलते हुये डिंड पुकार कर रोने लगी। नर्स ने रोका -

''शांत रहो। यहां सब सीरियस पेशेन्ट हैं। घबरा जायेंगे।’’

लज्जा इस तरह सहम गई मानो रोकर अपराध कर रही है।

डॉ. कौशिक लौट गये। एकादशी मनुष्य से मिट्टी बन गई। मिट्टी का स्ट्रेचर पर रख वार्ड से बाहर कर दिया गया। वार्ड ब्वॉय ने लज्जा से पूछा -

''साथ में कौन है?’’

''कोई नहीं।’’

''कैसे ले जाओगी?’’

''किसी को बुलाती हूं।’’

लज्जा ने मोबाइल पर बाबू को सूचित किया। बाबू इतना ही बोले ''घबरा मत। कुछ इंतजाम करता हूं। ओंकार घर में होगा तो उसे भेजता हूं।’’

मृत्यु के क्षण विलक्षण होते हैं।

बलशाली ने एकाएक सिरफिरे की तरह शव को बाजुओं में उठा लिया। मानो स्थिति को अब वही संचालित करेगा -

''भउसा नहीं सहेंगे। बहन, हम सिविल सर्जन के पास जायेंगे।’’

लज्जा को लगा अब उसके हाथ में कुछ नहीं है। एकादशी के झूल गये शीश को हथेली का सहारा देकर बोली ''मैं बकिया जाऊंगी। का टाइम हो रहा है? अंधियार होने से पहिले मिट्टी देना है...।’’

बलशाली सिर्फ अपनी कह सुन रहा है -

''कभी सरवर डाउन है, कभी डॉक्टर नहीं हैं, कभी स्टोर में दवाईयां गायब हैं। अस्पताल में सब निकम्मे हैं।’’

नर्स ने आने वाले जलजले को भांप लिया ''जाने दीजिये। बच्ची की मिट्टी क्यों खराब करते हैं?’’

''हमारी बात न सुनी गई तो हम तुम लोगों की औकात खराब करेंगे। सुनो सिस्टर मैं सिविल सर्जन से जानना चाहता हूँ सर्वर का क्या भउसा है?’’

नर्स ने लज्जा को भयभीत किया ''मौत क्यों हुई जानने के लिए डॉ नायक (सिविल सर्जन) पोस्टमार्टम करायेंगे। लज्जा तुम बच्ची की चीर फाड़ कराना चाहती हो?’’

चीर-फाड़ सुनकर लज्जा पूरी तरह ध्वस्त हो गई ''बकिया जाऊंगी।’’

बलशाली ने हौसला कायम रखा -

''चीरफाड़ नहीं होगी। सिस्टर डरा रही हैं।’’

तनावपूर्ण स्थिति

तेज गति वाला बलशाली।

उसके पीछे, शव की सुपुर्दगी चाह रही लज्जा।

कुछ लोग थ्रिल पाने के लिये, कुछ लोग स्थिति का तारतम्य जानने के लिये साथ लग गये। समूह बन गया। नर्स ने डॉ. कौशिक को, डॉ. कौशिक ने डॉ. नायक को सेल फोन पर स्थिति की गम्भीरता से अवगत करा दिया। पहली प्रतिक्रिया स्वरूप डॉ. नायक को अफसोस हुआ - सिविल सर्जन की आसंदी पाने के लिये समर्थ जनों से कितना दबाव डलवाया। अब समझ में आ रहा है आसंदी में लाभ कम, जोखिम अधिक है। इच्छा हुई आक्रोशित लोग कक्ष में आयें इसके पहले भीतर से द्वार बंद कर लेंगे। या द्वार खुला छोड़ कर कहीं भाग जायेंगे। आज कल चिकित्सक खुद को आतंकित महसूस करने लगे हैं।

मरीज और परिजनों की लापरवाही और अज्ञानता को चिकित्सकों की लापरवाही और अज्ञानता साबित करने का चलन होता जा रहा है। मामला व्यक्तिगत से सामूहिक बना दिया जाता है। लोग नहीं समझना चाहते चिकित्सकों पर कितना वर्क लोड है। रोज हजारों की संख्या में मरीज आते हैं। चिकित्सक प्रत्येक मरीज को दिल लगा कर देखें तो दस-बीस से अधिक नहीं देख पायेंगे। कई मरीज क्रिटिकल कंडीशन में लाये जाते हैं। आरोप-प्रत्यारोप, तोड़-फोड़, हंगामा रोज का मसला बनता जा रहा है। स्ट्रेचर न मिलने पर आक्रोशित परिजनों ने वार्ड ब्वॉय को पीटा। स्ट्रेचर दिलाया गया तो मांग आई गद्दा लगा स्ट्रेचर चाहिये। आकस्मिक चिकित्सा कक्ष में तैनात दो युवा नर्सों को धमकाया गया। पोस्टमार्टम कराने, न कराने पर झड़प हो जाती है। मामले की न्यायिक जांच हो जैसी मांग की जाती है। दो-तीन प्रकरण में पांच डॉक्टर्स की जांच टीम गठित कर सात दिन में जांच रिपोर्ट पेश करने के निर्देस दिये गये। चिकित्सक के विरुद्ध आपराधिक प्रकरण कायम हो, पीडि़त को मुआवजा दिया जाये, चिकित्सक को बर्खास्त किया जाये जैसी मांग उठती ही रहती हैं। जूनियर डॉक्टर्स पिट चुके हैं। कभी चिक्तिसक हड़ताल पर गये, कभी पैरा मेडिकल स्टाफ हड़ताल पर गया। ओ.पी.डी., आई.पी.डी. के मरीज परेशान हुये। कई बार डी.एम. या एस.डी.एम., सी.एस.पी., टी.आई. सिटी कोतवाली को मामला शांत करने के लिये आना पड़ता है। ऐसी स्थिति में शर्म का सामना करना पड़ता है। मोबाइल अलग झंझट है। लोग फोटो लेने पर उतारू हो जाते हैं। मीडिया हरदम नायाब की खोज में तल्लीन रहता है। अखबारों की हेड लाइन बन जाती है-

''जिला अस्पताल में बहुत कुछ चिकित्सकीय धर्म के विरुद्ध हो रहा है। नर्सें नींद लेती हैं। मरीज कराहते हैं।’’ डेंग्यू, चिकनगुनिया, स्वाइन फ्लू जैसे गंभीर रोग के रोगियों को चिकित्सक यहां पर्याप्त सुरक्षा उपकरण नहीं हैं कह कर इसीलिये बाहर ले जाने के लिए रेफर कर देते हैं कि दुर्योग से रोगी न बचा तो स्थानीय लोग उपद्रव करते हैं।

प्रत्येक सावधानी पर चिंतन कर डॉ. नायक ने आवश्यकतानुसार बचाव में कुछ कहने के लिये डॉ. कौशिक को बुला लिया। सिटी कोतवाल से मोबाइल पर आग्रह किया दो सिपाही तत्क्षण की इस तरह भेजें जिनका आना आकस्मिक नहीं प्रयोजनपूर्ण लगे। कक्ष के बाहर बैठे कर्मचारी को निर्देश दिया कई लोगों को एकाएक कक्ष में न आने दें। डॉ. नायक ने चेहरे को कर्मठ बना कर खुद को स्थिति का सामना करने के योग्य बना लिया।

समूह को देख कर कर्मचारी ने कहा -

''दो-चार लोग जाकर बात करो।’’

''आओ बहन।’’

बलशाली चाहता था लज्जा अग्रणी की तरह प्रविष्ट हो। ग्रामीण मूर्खता में लज्जा नहीं समझी एकादशी शव मात्र नहीं विराट लक्ष्य बन गई है।

''नहीं।’’

''हम अपनी बात रखेंगे। चीरफाड़ नहीं होगी।’’

नुमाइश की तरह शव थामे हुये बलशाली कक्ष में दाखिल हुआ। किसी ने लज्जा को ठेल कर भीतर कर दिया। वह इती भ्रमित है कि अच्छे कक्ष में आसीन डॉ. नायक उसे अनोखे लग रहे हैं। डॉ. नायक ने लज्जा को देखा। भयातुर विपन्न स्त्री। बोले -

''बैठो।’’

''जी।’’

एक कुर्सी में संकुचित लज्जा, दूसरी में तना हुआ बलशाली बैठा।

''कहिये।’’

बलशाली जानता है घटित उसे ही कहना है। डॉ. नायक ने ऐसी अनभिज्ञता से सुना मानो ठीक अभी घटित जान रहे हैं। वे आश्वासन का महत्व समझते हैं। आश्वासन त्वरित रूप से ढाढ़स और मोहलत देता है।

''अच्छा इलाज हो हम इसीलिये यहाँ हैं। आपकी सराहना करता हूं कि आपने उपद्रव न कर मामले को शांति से मुझे बताना बेहतर समझा। मेरे पास शिकायत आती है तो मैं जांच जरूर करता हूं। लिंक डाउन की जानकारी लूंगा। भरोसा दिलाता हूं ऐसी स्थिति में मैनुअली स्लिप बनाई जायेगी।’’

डॉ. नायक के सद्व्यवहार ने बलशाली को मंद कर दिया। वैसे भी पद का प्रभा मण्डल होता है। बलशाली का वह लहजा अब नहीं है जो पैरा मेडिकल स्टाफ के सम्मुख था।

''सर, व्यवस्था को लेकर आम जन निराश हैं। डॉक्टर कौशिक समझ गये थे बच्ची जीवित नहीं है लेकिन ऑक्सीजन लगाने का ड्रामा किया।’’

डॉ. नायक ने डॉ. कौशिक की ओर दृष्टिपात किया ''इस संबंध में आप कुछ कहें।’’

भार डॉ. कौशिक पर। मिथ्याचार करते हुए स्वर असंतुलित हुआ लेकिन सम्भाल लिया -

''आप चूंकि डॉक्टर नहीं हैं इसलिए नहीं कह सकते बच्ची ने अंतिम सांस कब ली। बच्ची को क्रिटिकल कंडीशन में अस्पताल लाया गया। बहुत वीक थी। लेकिन क्लीनिकली उसमें जीवन के संकेत थे। डॉक्टर यदि मरीज को नहीं बचा पाते हैं, यह उन्हें व्यक्तिगत असफलता लगती है। आपको समझना होगा लोग कई बार मरीज को यहां लाने में देर कर देते हैं।’’

''लापरवाही तो हुई है सर। पर्ची के बिना डॉक्टर देखते नहीं हैं। मरीज परेशान होते हैं।’’

डॉ. नायक बोले ''आपको बता दूं रोज लगभग डेढ़ हजार मरीज आते हैं। नियम न बनाया जाये तो रोज भगदड़ मचेगी।’’

भयभीत लज्जा को लगा एकादशी को विलम्ब से लाने के लिये उसे दोषी ठहराया जा रहा है। बोली -

''साहेब, बकिया जाऊंगी।’’

डॉ. नायक को तसल्ली मिली। स्त्री दहशत और दु:ख में है। बलशाली अकेले चने की तरह भाड़ नहीं फोड़ सकेगा। बोले ''मैं आपका दु:ख समझ सकता हूं। ये (बलशाली) आपके साथ हैं?’’

''नहीं। ये भले आदमी हैं। मेरा जेठउत (जेठ का लड़का) बकिया से आ रहा है।’’

लज्जा का जी चाहता है बलशाली से शव को छीन कर जितना तेज दौड़ सकती है दौड़ जाये। बलशाली बात को सहज ही खत्म नहीं करना चाहता है पर देखा दो सिपाही चले आ रहे हैं। डॉ. नायक ने ऐसा प्रदर्शित किया मानो सिपाहियों का आना आकस्मिक है-

''आइये। पुलिस आये तो मैं डर जाता हूं कहीं कुछ गड़बड़ है।’’

पहला सिपाही बोला ''मुझे तो गड़बड़ आपके चैम्बर के बाहर लग रही है। कुछ लोग ताक-झांक कर रहे हैं। मैंने समझाया यहां भीड़ न लगायें।’’

वर्दीधारियों को देख कर लज्जा की बुद्धि तत्काल प्रभाव से निलम्बित हो गई। उनके सम्मान में कुर्सी से उठ गई।

डॉ. नायक ने अभयदान दिया ''बैठो, बैठो।’’

लज्जा को बैठने का संकेत कर पहला सिपाही डॉ. नायक से बोला ''सर्जिकल वार्ड में मेरे रिश्तेदार भर्ती हैं। उन्हें देखने आया हूं। देखा आपके चैम्बर के पास भीड़ है हम दोनों इधर चले आये।’’

सार समझा कर डॉ. नायक बोले ''लोगों को शिकायत करने का हक है।’’

दूसरा सिपाही बोला ''लोग दूर से आते हैं। उन्हें असुविधा नहीं होनी चाहिए पर बच्ची को माध्यम क्यों बनाया जा रहा है। डॉक्टर साहब मानव धर्म का पालन होना चाहिए। ये अकेली महिला हैं। परेशान हैं। इन्हें शव वाहन से भेजने का इंतजाम करें।’’

डॉ. नायक बोले ''इंतजाम कराता हूँ।’’

लज्जा को लगा घेरेबंदी से निकलने का यह अवसर है। ''साहेब, मैं बकिया जाऊंगी।’’

बलशाली का बल क्षीण हो गया। लज्जा सहयोग नहीं करना चाहती। सिपाही मौजूद हैं।  स्थिति तनावपूर्ण होते देख पुलिस बल को बुला लेंगे। बात निकलेगी तो दूर तलक जायेगी जैसी स्थिति है पर वह अकेला बात को दूर तलक नहीं ले जा सकता। अफसोस।

 

शव वाहन तैयार है।

सिपाहियों ने अपनी सुपुर्दगी में लज्जा और शव को वाहन तक पहुंचाया। लज्जा का मोबाइल नम्बर याद न होने से उसे इधर-उधर ढूंढ़ कर ओंकार ने आखिर ढूंढ़ लिया। सिपाहियों ने उसे भी आदर के साथ शव वाहन में बैठाया। लज्जा ने माना डॉ. नायक और सिपाहियों जैसे मातबर लोगों के कारण घेरेबंदी से निकल सकी वरना बलशाली एकादशी की चीरफाड़ करा कर दम लेता। शोक की बेला है तथापि कृतज्ञ लज्जा सिपाहियों को नमस्ते करना न भूली।

वाहन चल पड़ा।

अब जाकर लज्जा को उस तरह रोने का अवसर मिला जिस तरह शव के समीप बैठ कर रोया जाता है। रोते हुए उसने एकादशी के केशों में हथेली फेरी - तुम्हारे जन्म पर नाटक हुआ। मौत पर भी हो गया।

कुल अठारह महीने के जीवन में तुम समझ गई यह दुनिया रहने लायक नहीं है। तुम तो तभी मर गई थी जब तुम्हारे बाबू ने तुम्हें जलाने की रचना रची थी। आज तो मरने की खानापूर्ति हुई है। बहनों की उतारन पहनती रही, सूखा खाती रही, पर देखो, अंतिम यात्रा रहीसों की तरह हो रही है। अस्पताल की गाड़ी में... जा बच्ची....।

 

 

संपर्क - द्वारा श्री एम. के मिश्र, जीवन विहार अपार्टमेंट, द्वितीय तल, फ्लैट नं. 7, महेश्वरी स्वीट्स के पीछे, रीवा रोड, सतना (म.प्र.)-485001, मो. 07898245549

 


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