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अप्रैल - 2019

फ़िन्नार-ए-जहन्नुम

सेराज खान बातिश

कहानी

 

 

''आँ ज़हानी फ़िराक गोरखपुरी की - पैदाइश के मौके पर कल टाऊन हाल में एक कुल हिंद मुशायरे का एहतमाम किया गया...’’

जैबुन उर्दू दैनिक की इस ख़बर को पढ़ अख़बार एक तरफ़ फेंकते हुए मन-ही-मन सोचने लगी - ''अजीब लोग हैं, हर शै को इस्लामी जामा पहना देते हैं। ग़ालिब ने ठीक ही कहा है - क़ैस तस्वीर के पर्दे में भी उरियाँ निकला- ‘‘

...आख़िर रघुपति सहाय फ़िराक गोरखपुरी को उर्दू वाले मरहूम क्यों नहीं लिखते... ये क्या तुक है कि सारी ज़िंदगी उर्दू की खिदमत करने वाले रघुपति जनंती (जन्नती) नहीं हो सकते... अल्लाह की उन पर सलामती नहीं हो सकती... अस्सलाम वालैकुम के उत्तर में वालेकुम अस्सलाम नहीं सुन पाते...?

जैबुन की इस बेचैनी को महसूस करते हुए शाहिद उसके क़रीब आ बैठा, जैबुन अपने को सहेजते हुए पूछ बैठी- ''अच्छा ये आं ज़हानी क्या है...’’ ''अरे भई तुम तो ऐसे-ऐसे सवाल करती हो कि... यह एक ख़ास कलब है, जो दिवंगत गैर मुस्लिमों के लिये इस्तेमाल किया जाता है... हम उन्हें मरहूम नहीं लिखते... हमारा विश्वास है कि हम उम्मते रसूल ही रोज़े कमायत जन्नत के हक़दार होंगे। शकील नबी-नगरी ने क्या ख़ूब कहा है- ''क्यों कर गुज़र न होगा जन्नत में शकील अपना, फिरदौस के जो मालिक सरकारे मदीना हैं - यह है इस्लामी शायरी, वैसे शायरों की एक बड़ी जमात जहुनूम की हक़दार होगी, क्योंकि शायर नित नये ख़याल करते हैं, हर शै को अपने ढंग से देखते हैं...’’

खैर छोड़ो इन सब बातों को इस्लाम में हुज्जत नहीं है जहाँ संदेह-शक की गुँजाइश ज़ेहन में पैदा हो समझ लेना चाहिए कि नास्कितता उसके वजूद पर क़ब्ज़ा कर रही है।

...अच्छा मैं कॉलेज जा रहा हूँ। जल्दी आ जाऊँगा आज जुमा है... नमाज़ में बड़ी भीड़ होगी...। पति-पत्नी सुसंस्कृत एवं सुशिक्षित तो थे किंतु उनकी पारिवारिक पृष्ठभूमि रवायती संस्कारों की संवाहक थी... जैबुन उन रूढिय़ों एवं वृत्तियों से अपने को मुक्त कर चुकी थी। लेकिन वह अपनी सोच में बिलकुल अकेली हो गयी थी।

...शाहिद विज्ञान का प्रोफेसर था परंतु रूढिग़्रस्त। वह कुरआन और हदीस की रोशनी में ही आइंस्टीन और गैलीलियो को देखता। हद तो ये थी कि वह टाई-सूट में भी इस्लाम की कट्टरता को बरकरार रखना चाहता... शायद उसे मालूम नहीं था कि टाई बाँधना ईसाई मत को गहरे तौर पर स्थापित करना है, क्योंकि टाई बाँधते समय गले के पास बनते हुए क्रास से अनभिज्ञ था वो।

जैबुन ससुराल से पहली बार मायके आयी थी। साथ उसका पति शाहिद भी आया। रिक्शे से वे शाही मस्जिद के बड़े रास्ते से गुज़र रहे थे। शाहिद के लिये यह मंज़र वंडरलैंड-सा लग रहा था। हरेक चीज़ को वह आँखों में बसा लेना चाह रहा है। हर गली-मोड़ जैसे उनका स्वागत कर रहे हों। शहर का हरेक जैसे उन्हें इज़्जत की निगाह से निहार रहा हो। प्यार के इस उमंग भरे चेहरों को देख कोई भी पहली नज़र में ही उनके अंदर उमड़ते प्रेम को समझ सकता था।

शाहिद ने मस्जिद के कलात्मक सौंदर्य से आत्मविभोर हो पूछा- ''जैबुन इस आलीशान मस्जिद के विषय में कुछ बताओ न...’’

जैबुन जो अब तक ख़ामोश थी, प्रश्न सुनते ही दूसरी तरफ़ देखने लगी। उसके दिलोदिमाग़ में अचानक एक तूफ़ान-सा उठने लगा...?

रिक्शा दूर जुबली पार्क की ओर निकल गया था। जुबली पार्क इस इस्पातीय नगर का सबसे सुंदर सजा-सजाया पार्क है, जहाँ जोड़े शांतिमय विचरते हुए भविष्य के सपने संजोते हैं। संध्याकालीन रंगीन फौव्वारों को देख मन में रंगीन सपने तैरने लगते हैं।

वैसे इस छोटे से शहर में महानगरीय वैभव या ऐय्याशी तो कम है पर ऐसा भी नहीं कि प्रेम का सोता सूखा पड़ा हो या बलात्कार की घटनाएँ मुँह छिपाये कहीं पहाडिय़ों में दुबकी पड़ी हों। हाँ रेड लाइट एरिया शायद इस नगरी में कम हैं और चलती-फिरती धँधेबाज शाहजादियाँ भी शायद ही मिलें, लेकिन मकान के पिछवाड़े में झाँकती खाहिशमंद आँखें मंद नहीं हैं... आदिवासियों के परिश्रम में प्रकृति की सुंदरता समाहित है, किंतु कौन देखता है, उसे...

शाहिद का अतीत से विशेष लगाव है, पुराने महल, किले और अवशेषों में उसकी बहुत दिलचस्पी है।

चार राज्यों की सीमा से जुड़े पाँचरंगी संस्कृति, भाषा एवं सभ्यता वाली इस लौह नगरी में इस बार वे एक-दूसरे का जीवन बनकर आये थे। इसीलिए अब सब कुछ नया-नया लग रहा था। हरेक में उन्हें एक नया आकर्षण दिखता था।

जैबुन सोचती है- ''यह इस्लाम भी अजीब मज़हब है। रिश्ते की बहिन भी बीवी बन जाती है... शायद इसीलिए गाली भी प्रचलित है बहिन चो...। वैसे इस्लामी दृष्टि से सारी दुनिया आदम की औलाद है और सारे मुसलमान भाई-भाई अर्थात् हर पति-पत्नी शादी से पूर्व भाई-बहिन ही होते हैं...।’’

जैबुन मन-ही-मन हँस पड़ती है और पास पड़ी पत्रिका 'रूहे अदब’ में अपना ध्यान बाँटना चाहती हैं। उसे कनीज भाई का वो किस्सा याद हो आया जो कि अपनी भांजी को कहता है... मैं मामूजान नहीं, समझो मामू ख़ान हूँ...। मस्जिद का बड़ा-सा साफ़-सुथरा सेहन, सुनहला गुंबद-सेहन में पानी का फौव्वारा। किनारे-किनारे चीड़ के पेड़ किसी भी कला प्रेमी को आकर्षित कर सकते हैं। जब-जब जैबुन इस मस्जिद के रास्ते से गुज़रती है तो इसकी पवित्रता से उसे तैरते तेल की भाँति पाप का प्रदूषण महसूस होता है।

...माइक से नमाज़ की आवाज़ को बुजुर्ग इमाम हुसैनी के जुमे की तक़रीर से दिल दहलने लगता। कई बार उसने शाहिद से कहा है कि शाही मस्जिद के रास्ते न जाया करें- ''हाँ सुना है मस्जिद में जिन्नों का बसेरा होता है। कुछ जिन्न बड़े शातिर होते हैं। जो खामुखाह आदमी को हैरान करते हैं। हमें एहतियात बरतनी चाहिए...।’’

जुबली पार्क में जैबुन ने टहलते हुए कहा था - ''जानते हो लड़की को शौहर तक आते-आते कितने जतन करने होते हैं। हर पल उसे बचाकर रखना होता है, उसे स्वयं भी सोते-जागते बहुत सचेत रहना पड़ता है। वह किसी भी मंदिर-मस्जिद से कम अहमियत नहीं रखती, जिसे बचाना संस्कृति और सभ्यता को बचाना है। उसका लुटना किसी धर्म विशेष या समुदाय का मसला नहीं, समस्त सृष्टि की समस्या है।’’

लेकिन शाहिद को अचानक जैबुन द्वारा छेड़े गये इस प्रसंग का आशय समझ में नहीं आया कि आख़िर वह कहना क्या चाह रही है। वह विषयांतर कर टाई की गाँठ को चुस्त करते हुए एक हदीस सुनाने लगा-एक वक़्त का ज़िक्र है कि हुजूरे अकरम अपने मित्रों के साथ बैठे हुए थे और उन्हें तक़दीर के विषय में बता रहे थे कि एक यहूदी हाथ में रोटी का टुकड़ा लिये आ खड़ा हुआ। और हुजूर से पूछ बैठा कि - ''ऐ रसूल यह बताओ कि मेरे हाथ की रोटी का क्या हश्र होने वाला है, इसकी तक़दीर में क्या लिखा है?’’

हुजूर अकरम अचंभित हो गये. किंकत्र्तव्यविमूढ़ भी, कठिन परीक्षा की घड़ी थी। अगर वे बोलते कि रोटी को तुम नहीं खा सकोगे, तो वह तुरंत खा लेता और यदि वे कहते कि खा जाओगे, तो वह फौरन उसे फेंक देता...

बैठे भक्तगण भी पराजय की कल्पना से कुंठित हो उठे थे... तभी नबी की आवाज़ उभरी- ''ऐ नाफर्मान यहूदी तू जो करेगा वही इस रोटी के टुकड़े का हश्र होगा... इसका भाग्य होगा...’’

यहूदी विजय योद्धा की भाँति दंभ से हँसता हुआ चला गया। लेकिन हक़ीक़त यह है कि वह हार कर ही गया था। ...जानती हो जैबुन आज भी इस दुनिया में वैसे लोग हैं, जो हार कर भी विजय भाव ही चेहरे पर बनाये फिरते हैं।

जैबुन हँस पड़ी। बस वह यही बोल पायी कि ''जो भी हो वह यहूदी होगा बहुत जहीन, बुद्धिमान...’’ शाहिद गंभीर हो गया, जैसे जेबुन ने कोई भयंकर अपराध कर दिया हो। ...दरअसल शाहिद की मानसिकता उस हिंदू की भाँति थी जो राम मंदिर के निर्माण हेतु पुलिस की लाठी खाना भी पुण्य समझता है। जैबुन ने उर्दू में एम.ए. किया था तथा उसने भी कुरआन के तीन ख़तम किये थे। मौलवी नसरुल्लाह के चिड़चिड़ेपन का शिकार हो उसने भी अपने मासूम ज़िस्म पर सख़्त तीखे बेतों का प्रहार झेला था। लेकिन उसमें वो वैचारिक  संकीर्णता नहीं आयी जो शाहिद में थी... निश्चित ही उनके इस स्वभाव और ज़ेहनियत से किसी भी रूढि़वादी मुसलमान को गुस्सा आ सकता था। उसीक बातों से असहमत होना किसी भी दकियानूसी स्वभाव के व्यक्ति के लिये स्वाभाविक था। लेकिन आश्चर्य यह था कि दांपत्य जीवन में किसी प्रकार की खींचातानी नहीं थी। वैचारिक मतभेद के बावजूद वे बड़े प्रेम से रह रहे थे। उनकी सबसे बड़ी विशेषता यही थी कि वे एक-दूसरे से ज़ेहनी तौर पर मुखलिफत रहते हुए भी बाहरी स्तर पर विरोध नहीं करते।

शाहिद के लिए मस्जिद के आकर्षण का कारण, जहाँ उसके कला पक्ष से अधिक पवित्र एवं अल्लाह के घर होने में था, वहीं जैबुन के लिए उसके विकर्षण का कारण पवित्रता की आड़ में अपवित्रता थी।

धार्मिक स्थल पर क्या है, भय रहित शांति का प्रांगण... पर दंगों में 'संकट मोचन’ मंदिर को देखकर मुसलमानों का संकट और बढ़ जाता है और हिंदू मस्जिद को देख भयभीत हो जाते हैं...।

मगर जैबुन आज भी काँप उठती है, याद कर उस घटना को? जैबुन के पिता का पुश्तैनी मकान यहीं है, मगर शाही मस्जिद के क्वार्टर्स से उसे आज भी भय लगता है...

''जैबुन प्राय: शाम को साफ़-सुथरी सड़कों पर टहलने निकल जाती है, जिसका साथ शाहिद भी देता है... अगर लड़की हुई तो 'शीलनबी’ नाम रखेंगे...!’’ शाहिद चौंकते हुए सवालिया निगाह से देखने लगा...

''इसमें चौंकने की बात क्या है? हम जब टिंकू, रिंकू, भोलू अपने बच्चों का नाम रखते हैं, तो फिर इस तरह के नाम से एतराज क्यों...?’’

शाहिद अंदर-ही-अंदर चटख कर ख़ामोश हो गया। जैबुन बात बदलते हुए सड़क पार करने लगी। तभी अचानक भड़कीली लाल बत्तियों वाली किसी मिनिस्टर की अंबेस्डर साइरन बजाती हुई सन्न से गुज़र गयी। वे दोनों उस वैभव में बँधे दूर तक घिसटते हुए चले गये थे।

''...डॉक्टर बताते हैं कि गर्भावस्था में टहलना स्वास्थ्यकर है...’’ वह चलते-चलते शाहिद से कह रही थी। पर शाहिद किसी दूसरे विषय पर सोच रहा था - ''अल्लाह की इस दुनिया में इंसानों के अजब-अजब रस्मों-रिवाज हैं। लड़की का पहला प्रसव मायके में होना चाहिए, शुभ होता है। शादी के बाद लड़की की लाज आधी हो जाती है, नहीं तो भला इस हाल में कोई लड़की अपने परिवारजनों के मध्य आ बैठती.... छी! गर्भवती स्त्रियों को देख रोमांस की सारी वक्र स्थितियाँ प्रतिबिंबित हो उठती हैं...।’’

साकची सबसे व्यस्त हिस्सा है, इस शहर का। यहीं शहर की सारी विशेषताएँ देखी जा सकती हैं। यहीं थाना और पोस्ट ऑफ़िस हैं तथा बसंत टाकीज भी। ये सब कितने जुड़े हैं, जैबुन के कुँवारेपन से, बचपन से...

महानगर की सारी महानता इनके सामने तुच्छे लगने लगती है उसे और शाही मस्जिद...?

लेकिन एक भयानक रात की याद उसके हृदय में इस हद तक नफ़रत पैदा कर चुकी है कि वह अपने शहर, अपनी पूर्व मान्यताओं से बाग़ी हो चुकी है। आज वह बचपन की सारी इबादतों को बेवकूपी करार देती। आज वह जवाहरलाल नेहरू की इस बात से सहमत है कि वह (मज़हब) एक ऐसे स्वभाव को बढ़ावा देता है, जो विज्ञान के स्वभाव से उलटा है। उससे संकीर्णता और रवादारी, भावुकता, अंधविश्वास, सहज विश्वास और तर्कहीनता का जन्म होता है। उसमें आदमी के दिमाग़ को बंद कर सीमित कर देने का रुझान है। वह ऐसा स्वभाव बनाता है, जो गुलाम एक आदमी का दूसरों का सहारा टटोलने वाले आदमी का होता है...

शाहिद का मन उस क्रांतिकारी नागरिक की भाँति हो गया है जो सरकार के परिवार नियोजन पॉलिसी का विरोध करते हुए एक दर्जन बच्चों का बाप हो दु:ख भोगने लगता है।

''जैबुन भी अंदर-अंदर दु:ख भोग रही है, आज तक जिसका कोई हिस्सेदार नहीं। लेकिन इस दु:ख में जो उसे व्यक्तिगत सुख की अनुभूति हो रही है, शायद ही किसी को मयस्सर हो..?’’

जुमेरात की सुबह के चहल-पहल के साथ ही मस्जिद के तेज़ माइक से एलान होने लगा था। हर आधे घंटे के बाद घोषणा हो रही थी- ''हजरात शाही मस्जिद के इमाम हजरत सैय्यद अली हुसैनी साहब का आज तड़के इंतकाल हो गया है। मिट्टी आज भी शाम को होगी... यानी मग़रिब के वक़्त’’

सुबह से कई बार यह सूचना दी जा चुकी थी। शहर भर के लिये सही में यह एक दु:खद समाचार था- मस्जिद के लिए उन्होंने सारा जीवन ही दान कर दिया था। लोग उनकी सहनशीलता, विद्वता एवं चरित्र का बखान कर रहे थे। मस्जिद का सेहन भरता जा रहा था।

पर जैबुन के सामने वर्षों की वह घटना उभर आयी थी - दंगा के बाद शहर आग की लपटों में झुलस रहा है। जैसे किसी हनुमान ने लंका में आग लगा दी हो...!

जैबुन का घर बुरी तरह प्रभावित हुआ था। उसकी सारी किताबें जला दी गयीं थीं। एक संप्रदाय के लोग दूसरे संप्रदाय की बहू-बेटियों को बेआबरू कर रहे थे - मदरसा बुरहानिया के हाफीज दस्तगीर की बीवी, चार बेटे, एक बेटी उनके सामने बस में जलाकर राख कर दिये गये... बीस साल की हँसती-खेलती ज़िंदगी-अपनी मेहराब से तोड़कर ख़ाक़ कर दी गयी। दस्तगीर आज भी विक्षिप्त से रहते हैं। यद्यपि उन्होंने दूसरी शादी आठ साल बाद अपनी साली से की तथा उससे फिर घर बस गया है। चार बेटे, एक बेटी घर-आँगन को फिर गुलजार कर रहे हैं। लेकिन दस्तगीर अब भी अपना भरा-पूरा घर देखकर निराश हो उठते हैं। बला के भाव में... प्रतिशोध में उनका हृदय धधक उठता है।... उसकी बस यही कामना है कि एक बार, बस एक बार फिर भयंकर फसाद छिड़े और वे उसी तरह किसी का भरा-पूरा घर फूँककर अपना दिल ठंडा करें... तमाशा देखें...

... बस किसी प्रकार जान बच पायी थी। वे भागकर मस्जिद के क्वार्टर में पनाह पाये थे। इमाम मौलाना हुसैनी के पुत्र के कमरे में जैबुन के पढऩे की व्यवस्था कर दी गयी थी। क्योंकि बोर्ड की परीक्षा निकट ही थी... बहुत मदद की थी, मौलाना हुसैनी ने ऐसे दुर्दिन में... जैबुन के सामने आज भी वह जलती हुई बस घूम जाती है। जिसमें चीखते हुए लोगों की आवाज़ें सुनायी देती हैं... हफीज़ भाई अपनी बीवी और एक मात्र पुत्र की लाश के सामने चीख़-चीख़ कर पुलिस को बुला रहे हैं, मगर कोई नहीं सुनता है...

कथाकार जकी अनवर के कत्ल की ख़बर उर्दू अख़बारों की सुर्खी बनती है। अख़बारों में ग़म-व-$गुस्सा का इज़हार किया जाता है। मदरसा मिल्त-ए-इस्लामिया मातम पुर्सी का केंद्र बनता है... मगर अपनों द्वारा लुटे हुए लोगों की करुण कहानी सुनने में किसी की रुचि नहीं। आख़िर कौन सुनने को तैयार होगा...?

इमाम हुसैनी का हुजरा ठीक मस्जिद के गेंबर की पिछवाड़े था। बहू का कमरा हुजरे में ही खुलता था। पर वह सदा बंद ही रहता था। इसका रहस्य बाद में बहू ने जैबुन को बताया था...(?)

बहू से जैबुन की ख़ूब पटती थी। बहू उसे कोई काम नहीं करने देती - ''नहीं... रहने दो प्याली, तुम पढ़ो और कितने दिन रह गये हैं, तुम्हारे इम्तिहान के... तिस पर - तुम्हारे पास अब किताबें भी नहीं रहीं। काफ़िरों ने कॉपी-किताबें भी नहीं छोड़ी हैं... ये किसका नोट्स लायी हो?’’

इमाम साहब की श्रद्धा में किसी को भेद नहीं था। उनका हुजरा दिनभर तरह-तरह की औरतों से भरा रहता था - किसी का पति छोड़ गया है, तो किसी को गरियाता है, किसी की लड़की की शादी नहीं हो रही है, किसी की छूट गयी है, कोई वशीकरण मंत्र सीख रहा है, किसी को बच्चा नहीं हो रहा है... यानी हर दर्द की दवा थे, इमाम हुसैनी...।

जिस प्रकार होमियोपैथ चिकित्सा में पकी उम्र का डॉक्टर महत्वपूर्ण माना जाता है। उसी प्रकार धर्म में बुजुर्ग पंडित, मौलवी, सिद्ध पुरुष की मान्यता प्राप्त कर लेता है, जिसके सामने सुंदरियाँ भी अपनी गोपनीयता भंग करने में नहीं हिचकतीं...

यह अजीब-सी बात है कि पर्दानशीन औरतें पर्दा केवल अपनों से ही करती हैं, गैरों से नहीं। तभी तो घर से बाहर होते ही नकाब के पट सिर पर चढ़ जाते हैं...!

बेवा बुनंत नानी, पीरू बजाज से अपने नाप का अलीपाका ख़रीदते हुए कहती हैं - ''तौबा-तौबा, क्या ज़माना आ गया है बेशरम हो गयी हैं, आज की छोकरियाँ... एक हमारा ज़माना था? हमने नज़रभर कभी नहीं देखा सगीर के वालिद को, चार-चार बच्चे जने, मगर क्या मजाल जो कोई हमें हँसता हुआ देख ले। अँधेरे में वे आते और अँधेरे में ही चले जाते... और आज है, ये कोई तेलवाला आ जाये, कपड़े वाला आ जाये, फाल खोलने वाला आ जाये टूटे पड़ती हैं, उस पर...’’

जमीला बी नकाब में डूबी हुई पसीने से बोर हुजरे में क़दम रखते ही राहत की साँस लेती हैं और नकाब का तह-तरह खोल फरफराते पंखे में पसर जोरों से साँस लेने लगती हैं, जिससे अंग के फाजिल माँस प्रदर्शित होने लगते हैं... जवानी के अब भी कुछ अवशेष अपनी सौगुनी देह पर लक्षित हो रहे हैं।

इमाम हुसैनी, जैबुन के पिता के भी पीर मुर्शिद थे। प्राय: इमाम के आस्ताने पर वे हाजरी देते... उनका तो मानना था कि ये एक मात्र लड़की, जैबुन, इमाम साहब की घोर तपस्या से ही प्राप्त हुई है। जबकि उसके पैदा होते ही उसकी माँ गुज़र गयी थी। पिता के कहे अनुसार वह इमाम साहब की गोद में ही बड़ी हुई है, बहुत प्यार करते थे, वे जैबुन को...

पहाडिय़ों की गोद में बसा हुआ यह शहर, यद्यपि परतंत्रकालीन विशेषताओं को आज भी अपने दामन में समेटे हुए है... पूरे शहर का अपना एक ख़ास मिजाज़ है, रंग है, रौब है, कारखानों से उठते हुए कसैले, साहले धुएँ तथा बजते हुए साइरन में जैसा पूरा शहर समाहित है।

पर, क्या यह आश्चर्य नहीं कि एक अल्पसंख्यक संप्रदाय द्वारा स्थापित यह शहर आज बहुसंख्यक संप्रदायों की सांप्रदायिकता का शिकार है। आज शहर मंदिर और मस्जिद से भर गया है। लेकिन शायद ही ढूँढऩे पर कोई पारसी मंदिर मिले। नौशेर वांजी टाटा की श्रद्धामयी प्रतिमा आज भी जैसे ग्लानि से सिर झुकाये कहती हुई प्रतीत होती है... ''ये क्या कर रहे हो तुम लोग, ख़ून रेंजीची माने दारम...’’ मेरे ख़ून-पसीने से तैयार की हुई ज़मीन पर, कहीं राजनैतिक गुंडागर्दी तो कहीं सांप्रदायिक मुठभेड़... महावीर झंडा अथवा मुहर्रम में लोग अंतरजातीय मय बोध से त्रस्त हो उठते हैं।

भयातुर, अक्रांत लोग घरों और जहाँ-तहाँ खेमों में पड़े, सिमटे हुए अपनी-अपनी बर्बादी से सिसक रहे थे। गोल पहाड़ी की ऊँचाई पर कपि ध्वज लहरा रहा था। सेंट स्टेफेन चर्च का घंटा बज रहा था और मुअज्जन अजान की तैयारी कर रहे थे। इमाम हुसैनी...? इमाम आग से खेलने की कोशिश में लगे हुए थे...!

अध्ययनरत जैबुन को परीक्षा में सफल होने की ताबीज़ देने के बहाने बुलाया था इमाम ने और वासनापूर्ण ढंग से उसकी कलाई पकड़ ली थी... (?)

लड़कियाँ चाहे वेद, उपनिषद्, गीता, कुरआन, बाँचने में देर करें, परंतु वासना की दृष्टि को पढऩे में देर नहीं करतीं....

इमाम हाँफने लगे थे, जैसे वे दौड़कर कहीं से आये हों, उनका पूरा शरीर ज्वर से तपने लगा था। पवित्र परिसर में पाप का झंझावत चल रहा था।

जैबुन बेतहाशा काँप रही थी, जैसे किसी ने ख़ामोश झील में पत्थर मारकर अशांत कर दिया हो...!

जैबुन ने हाथ छुड़ाते हुए जोर से इमाम को लात मारी। लात खा इमाम तख्त पर जा गिरे थे। जैबुन भागकर सीधा बहू के कमरे में जा दुबकी थी और सारा हाल कह सुनाया...

हुसैनी के पुत्र ने जैबुन के पैर पर गिरते हुए कहा - ''जैबुन तू बोल तो मैं उस कमीने को लाकर यहाँ जिबह कर दूँ, मैं जानता था कि वह अपनी कमीनगी से बाज़ नहीं आयेगा।’’

... तुझसे मैं भीख माँगता हूँ, बहिन कि आज तेरे हाथ में इस्लाम, मस्जिद और इमाम की आबरू है, बचा ले इसे... हुसैनी केवल मेरा बाप होता तो ख़ुदा की क़सम मैं तेरे सामने इस तरह न गिड़गिड़ता...।

हफ्तों तक इमाम मस्जिद से ग़ायब रहे। पर किसी को कानोंकान ख़बर न हुई। मस्जिद की पवित्रता, इस्लाम और इमाम यथावत् पवित्र, अनुकरणीय एवं श्रद्धेय बने रहे। सच एक औरत कितनी महान् होती है...?

लेकिन शाहिद ताक पर रखे कुरान से धूल झाड़ते हुए कहता है - ''अल्लाह का फर्मान है कि - तुम्हारी बीवियाँ, तुम्हारी खेतियाँ हैं, तुम्हें अधिकार है कि..., मर्द के ब$गैर सच में औरत का कोई वजूद नहीं... (?) इस्लामी रूह से औरत, मर्द के ज़रिये वजूद में आयी है...’’

''आदम तन्हा थे, बागे फिर्दौस में, फिर बारीये रहमत ने हजरत आदम की एक नाज़ुक पसली की हड्डी से हव्वा को ज़िंदगी दी...’’

संध्या हो चली थी। इमाम हुसैनी की अर्थी की तैयारियाँ- समापन दौर में थीं। पूरा शहर उमड़ रहा था। बिहार के जिला सिंहभूमि के इस छोटे से शहर के लोग वास्तव में मौलाना हुसैनी की अचानक मौत से ग़म में डूब गये थे।

अब कुछ ही देर में इमाम का जनाज़ा बहुत ही श्रद्धापूर्वक नमाजियों और शहर के मशहूर मुसलमानों द्वारा कंधा बदलते हुए गुज़रेगा। आज एक अस्सी वर्षीय मुसलमान, जिसने दुनिया के सामने सारा जीवन इबादत और रियाजत में गुज़ारा है, मिट्टी के हवाले कर दिया जायेगा।

.... मगर यह कितने लोग जानते हैं कि इमाम हुसैनी का चरित्र कैसा था? जन्नती की उपाधि देने वाले लोग यह क्यों भूल जाते हैं कि जन्नत उनकी जागीर नहीं, अल्लाह की नेमत है, जिसे चाहे वह अता करे और अगर वह अता न भी करे तो भला इमाम हुसैनी को कैन दोज़खी कह सकता है? ...डाल दे ख़ुदा, उन्हें जहन्नुम की आग में लेकिन वे तो कयामत तक जन्नती ही रहेंगे, अपने मजार की फैज से लोगों की मन्नतें पूरी करते रहेंगे... निठल्ले उनकी हड्डियों पर सदियों तक ऐश करेंगे...!

...अगर जैबुन का बस चलता तो वह पुरुषों का कैरेक्टर सर्टिफिकेट उनकी पड़ौसी युवतियों के अधिकृत कर देती!

...धार्मिक श्लोकों, क़लमों में भुनभुनाता काफ़िल-ए-जनाजा हौले-हौले बढ़ा आ रहा है। जैसे आम की आबादी एक ख़ास मुर्दे में सिमट कर आ गयी हो!

जैबुन बरामदे में आ गयी है। उसके बग़ल में शाहिद भी आ खड़ा हुआ है। वह जनाज़े की भीड़ और जुमेरात का पवित्र दिन को ध्यान कर बुदबुदाता है - ''लग रहा है मर्हूत बहुत ही अल्लाह वाले थे... जैबुन ख़ामोश रही।’’

भौतिक दृष्टि से भीड़ की प्रतिष्ठा की सनद रही है। चाहे भोला शाह का मज़ार हो या कंपाउंडर से डॉक्टर में तब्दील हुए गुलाम अंबिया का डॉक्टरखाना या फिर हकीम नियामत अली का मतब, चाहे चीलर शाह का हुजरा...

तस्कर कसमा की अर्थी में भी तो भीड़ उमड़ पड़ी थी, सोलह आना मस्जिद में और साथ-साथ पुलिस वाले भी थे।

जैबुन सोच के समुंदर से गोता लगाकर निकली ही थी कि इमाम हुसैनी की अर्थी को भीड़ दस्ते के सम्मान के साथ सामने रोड से गुज़रने लगी।

शाहिद अल्लाह के इस बरगुजिदा नेक बंदे की वापसी की शान देख आत्मविभोर हो होठों में बोल उठा- ''इन्ना लिल्लाहे ओ इन्ना इलैहे राज़ेऊन... ऐ ख़ाक़ के पुतले तुझे आज ख़ाक़ के हवाले किया जा रहा है...!’’

फिर भी जैबुन ख़ामोश रही।

मगर शाहिद की निगाह की गुज़ारिश को पढ़ते हुए, उसके कंठ में बैठे मानो 'जिब्रील अमीन’ बोल उठे - ''फ़िन्नार-ए-ज़हन्नुमा खालेदीना... तुम नरक की आग के भागीदार हो अर्थात् तुम पातकी हो, नारकी हो...!!!’’

 

 

 

सेराज खान बातिश कोलकाता दूरदर्शन से काफी समय तक सम्बद्ध रहे। पहल में पहली बार। कहानियों में इस्लाम की कुरीतियों को लेकर विद्रोही तेवर हैं।

संपर्क- मो. 9339847198, कोलकाता

 


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