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अप्रैल - 2019

तितलियाँ बेचैन हैं

सुभाष पंत

कहानी

 

 

डॉक्टर भारती ने मुझे कछुए और तितलियों की एक अफ्रीकी लोककथा सुनाई। मैं वही लोककथा आपको भी सुना रहा। इस लोक कथा में मैंने अपनी ओर से भी कुछ जोड़ दिया। है। शायद कुछ ज्यादा ही। दरअसल, किस्सागो कहानी सुनाते समय अपनी ओर से उसमें कुछ जोड़ या घटा देता है। यह कहानी की अनोखी खूबी है कि उसमें कुछ जोड़कर उसे अपने समय की कहानी बना दिया जाता है। शायद किसी कबीले में पहली कहानी का जन्म हुआ होगा। वह कहानी अलग अलग कबीलों, भाषा, भूगोल और संस्कृतियों में अपना रुप बदलकर एक से अनेक होती गई। उसका मूल स्वर प्रेम और एकाधिकार से मुक्ति की कामना है। अन्य मानवीय समस्यायें और संवेग उसकी पोशाकें हैं, जिन्हें वह समय समय पर पहनती और ओढ़ती रहती है।

तो किस्सा कोताह यूँ है-

एक कछुआ धूप में लेटा हुआ था और तितलियाँ फूलों पर मंडऱाते हुए मधु पी रही थीं और नाजुक उड़ानों से परागकणों को एक से दूसरे फूल में बिखेरते हुए फूलों की संस्कृति को भविष्य के लिए सुरक्षित और सम्वर्धित कर रही थीं। कछुए को धूप में उदास लेटे देखकर एक तितली ने गहरी करुणा से अपनी सहेली से कहा, 'आह! बेचारा कैसे धूप में उदास लेटा है और हम फूलों की सुगंध और रंगों से खेलते हुए मधु का आस्वाद ले रहीं।’

'हाँ मेरी माँ ने भी इसे ऐसे ही धूप में लेटे देखा है। माँ की माँ ने भी और उसकी माँ ने भी और इससे पिछली माँओं ने भी। सुना यह सिलसिला पाँच हजार साल पीछे तक जाता है। यह उस समय से बाहर नहीं निकलना चाहता।’ दूसरी तितली ने कहा।

'हे भगवान पाँच हजार साल... जबकि इस बीच समस्याएं कितने सोपान तय कर चुकीं और विज्ञान और प्रोद्योगिकी ने दुनिया को पूरी तरह बदल दिया। प्रोद्योगिकी और सूचना के इस विस्फोटक युग में भी अतीत के अज्ञानकाल में रहना कितना हास्यास्पद और कारुणिक है। मुझे इस पर बहुत दया आ रही है। हमें मिलजुल कर इसकी मदद करनी चाहिए।’

सभी तितलियां इस बात पर सहमत हो गईं कि पीछे छूट गए को कतार में शामिल करना उनका दायित्व है। वे अपने नाजुक पंखों से हवा में रंग बिखेरती हुए उसके पास आईं और एक सियानी ने नमस्कार करते हुए उससे पूछा, 'सर जी आप इतने उदास क्यों हैं? आपको धूप में उदास लेटे देखकर हमारा मन बहुत काऊ-बाऊ हो रहा। लग रहा जैसे सारे माहौल ने एक उदास चादर लपेट ली...’

'उदास?’ कछुए ने अपने खोल में से सिर बाहर निकालकर खिल्ली सी उड़ाते हुए कहा। फिर सहज होकर बताया कि वह उदास नहीं, आध्यात्म में है और अपने भीतर दिव्य ऊर्जा संचित कर रहा।

'सॉरी सर! लेकिन हमने सुना आप एक लम्बे समय तक सुशुप्तावस्था में रहते हैं और इस दौरान जीवन बहुत आगे चला जाता है। जीवन कभी किसी के लिए नहीं ठहरता। सुशुप्तावस्था के लिए तो बिल्कुल भी नहीं। वह निरन्तर आगे बढ़ता रहता है। और जब आप सुशुप्तावस्था से बाहर निकलते हैं तब तक बहुत पीछे छूट जाते हैं। और हमने सुना, आप की अहमन्यता यह कि आप उस छूटे समय को ही परम सत्य मानते हैं और चाहते हैं कि दुनिया उसे ही आदर्श माने और उनका अनुसरण करे, जबकि अतीत की चिंताएँ और मान्यताएं अतीत में ही छोड़ दी जानी चाहिए।’

'तुमने गलत नहीं सुना प्यारी तितलियों। मैं उसी समय का पैरोकार हूं। वह स्वर्ण युग था जिसमें शेर और बकरी एक घाट पानी पीते थे। वर्तमान कितना घिनौना है, यह बताने की मैं कोई आवश्यकता अनुभव नहीं कर रहा। उसे तो तुम देख ही रहे हो। मेरा बस चले तो मैं वर्तमान को अतीत में बदल दूँ। दरअसल मेरी मुख्य चिंता ही यह है।’ कछुए ने आध्यात्मिक दर्प के साथ कहा।

तितलियों ने अनेक बार इसी किस्म के सनातन वक्तव्य सुने थे, जिनका नाभिनाल अतीत में गड़ा होता है। अतीत के प्रति पूरा सम्मानभाव रखने के बावजूद वे इस तरह के वक्तव्यों से ऊब चुकीं थीं। एक प्रगल्भ तितली ने तुरन्त अपना विरोध प्रकट किया, 'इसका मतलब तो यही हुआ सर कि यह ऐसी व्यवस्था थी जहाँ शेर को शिकार करने के लिए भटकना नहीं पड़ता था। वह उसे बिना परिश्रम के उसी घाट पर उपलब्ध हो जाता था, जहाँ वह पानी पीता था। यह तो सर शोषक की आदर्श स्थिति हुई, शोषित की नहीं।’

'बस यही दिक्कत है’, कछुए ने नाराजगी से कहा, 'यह पीढ़ी सवाल बहुत करने लगी।’

'माफ करें सर। हमें ये शंका सिर्फ इसलिए हुई कि शेर घास-वास तो खाता नहीं होगा। उसका भोजन तो मांस ही रहा होगा, स्वर्णकाल में भी और उसके लिए वह शिकार भी करता ही होगा।’

कछुए ने अपनी गरदन को, जो उसके शरीर की तुलना में बेहद कमज़ोर थी लेकिन जिसने उसके मस्तिष्क को थाम रखा था, विद्वता से हवा में हिलाते हुए कहा, 'तुम आस्था की जगह तर्क पर विश्वास कर रहीं।’

'तर्क विज्ञान की आत्मा है सर जी, जिसके द्वारा उसने प्रकृति के रहस्यों और उसकी सच्चाइयों को जाना।’

'तर्क!’ कछुए का चेहरा विद्रूप में कडुवा हो गया, 'मेरी प्यारी तितलियों आस्था हर शंका का समाधान है और तर्क शंकाओं का उद्गम है। आस्था के बाद कोई प्रश्न नहीं। तर्क के बाद फिर तर्क है। वह कभी हमें महान सच्चाई तक नहीं पहुँचने देता। वह छल है। यहाँ तक कि इससे तो उस परम शक्ति को भी खारिज किया जा सकता है, जिसने इस सृष्टि का निर्माण किया और जिसकी इच्छा से इसकी सम्पूर्ण गतिविधियां संचालित हो रहीं।’

'हिरण्यगभ्र्य: समवत्र्तताग्रे भूतस्यजात:परितेक आसीत्

स दाधर पृथ्वीं द्यामुतेमांकस्मै देवाय हविश विघेम।’

'लेकिन कछुएजी सर,’ खगोल विद्या में दिलचस्पी रखनेवाली एक तितली ने कहा, 'जैसा कि खगोल वैज्ञानिक बताते हैं, हमारी सृष्टि का निर्माण किसी दैविक शक्ति ने नहीं किया। यह महाविस्फोट से हुआ।’

'यही संकट है,’ कछुए ने कहा, 'धर्म और आध्यात्म के मामले में तुम तर्क करती हो और विज्ञान को बिना तर्क स्वीकार कर लेती हो। चलिए मैं तुम्हारी बात मान लेता हूँ कि पृथ्वी का जन्म महाविस्फोट से हुआ लेकिन क्या तुम जीवन केंद्रित सिद्धांत के बारे में कुछ जानती हो?’

'नहीं। हमें इस सिद्धान्त की कोई जानकारी नहीं।’

कछुए ने मुस्कराते हुए कहा, 'यह तो आधुनिक वैज्ञानिक भी मानते हैं कि अगर महाविस्फोट एक सेकेंड के हजारवें हिस्से पहले या बाद में हुआ होता तो यह सृष्टि वैसी नहीं होती जैसी अब है।’

'हां, ऐसा सम्भव है। महाविस्फोट के साथ ही समय आरम्भ हुआ। इससे पहले समय शून्य था।’

'विस्फोट के समय के बारे में विज्ञान का क्या कहना है?’

'यह सिर्फ एक संयोग है।’

'कारण के स्थान पर संयोग का सहारा लेना ही आज के विज्ञान की सीमा है और इसी सीमा से आस्था की तर्कातीत अजेय यात्रा आरम्भ होती है। विज्ञान तो वैदिक काल में भी आज की तरह उन्नत था लेकिन उसमें तर्क नहीं था, जो आधुनिक विज्ञान की सबसे बड़ी सीमा है। मेरी प्यारी तितलियों, दिव्य शक्ति की इच्छा से ही विस्फोट पूर्व निश्चित समय पर हुआ, जिसमें धरती और उसके जीवधारियों के विकास की योजना तय थी। यही जीवन केन्द्रित सिद्धान्त है। एन्थ्रोपिक प्रिसिंपल ऑव लाइफ।’

'अगर इसका कोई प्रमाण नहीं है तो इसे बस भावनात्मक ही माना जाना चाहिए। हमारा विचार है कि आपको भी इससे असहमत नहीं होना चाहिए।’ तितलियों ने विनम्र प्रतिरोध किया।

'मैं तुम्हारी बात से सहमत हो सकता हूँ, लेकिन आधुनिक वैज्ञानिक की अनेक मान्यताएं हैं, जहां बहुत स्पष्ट दरारें हैं। उन पर तो बात की ही जानी चाहिए। उदाहरण के लिए पौराणिक आधार पर नहीं, विज्ञान के आधार पर ही पृथ्वी के अंतरिक्ष में टिके रहने के मामले पर ही विचार कर लें। यह वैज्ञानिक सत्य है कि पृथ्वी अपनी धुरी पर साढ़े सियासठ अंश झुकी हुई है, जिससे वह अन्तर ग्रहीय आकर्षण के कारण अपने वर्तमान स्थान पर टिकी हुई है। यदि ऐसा न होता तो मैं तुमसे ही पूछ रहा कि क्या होता?

'तो उसे यह सीमाहीन संतुलन न मिलता जो इस अंश पर झुके होने पर मिल रहा और तब सम्भव है कि वह एक जगह न टिक कर अन्य ग्रह से टकराकर चकनाचूर हो जाती।’ खगोल-विद्या की जानकार तितली ने कहा।

'यही आधा अंश ईश्वर की इच्छा है, सृष्टि का निर्माता, संचालक, नियामक और नियन्ता है। पृथ्वी है और जीवन है।’

'लेकिन यह संयोग भी हो सकता है कि पृथ्वी अपनी धुरी पर ऐसे झुक गई कि उस पर आकर्षण भक्तियों का दबाव बना और वह अंतरिक्ष में टिक सकी।’

'अजीब बात है, जहाँ विज्ञान के पास कोई जवाब नहीं होता, वहाँ संयोग मान लिया और इससे इतर जो कुछ भी है, उस पर सभी आयामों पर विचार किए बिना विश्वास कर लिया। उदाहरण के लिए जैसे डार्विन का 'सरवाईवल ऑफ फिटेस्ट’ सिद्धान्त।’

'हाँ, अपने इस छोटे से जीवन में हमने सर्वत्र यही देखा है कि हर प्रजाति जिन्दा रहने के लिए एक-दूसरे स लड़ रही हैं, संघर्ष कर रहीं है और जो बलवान है, वही जीतता है, वही जीवन्त है। डार्विन यही तो कहता है। इसमें संदेह की कहीं कोई गुंजाइश नहीं है सर।’

'क्योंकि विज्ञान तुम्हारा दिमाग़ अनुकूलित कर चुका है,’ कछुए ने कहा, 'तुम उससे बाहर सोच ही नहीं सकती जिसे विज्ञान ने तय कर दिया, जबकि विज्ञान खुद अधूरा है। प्रिंस क्रोपाटकिन की मान्यता डार्विन के संघर्ष के सिद्धान्त के एकदम विपरीत है। उसने खोज की और पाया कि संघर्ष नहीं सहयोग ही जीवन का आधार है। अरबों-खरबों प्रजातियां इस अस्तित्व में एक साथ जी रही हैं और तमाम विविधताओं के बीच विकसित हो रही हैं। उनके बीच ज़रूर कोई सामंजस्य होना चाहिए।’

'लेकिन सर, जन्तुओं के आकार-प्रकार में विकास की प्रक्रिया पर एक प्रसिद्ध वैज्ञानिक के व्याख्यान में मैंने सुना था कि निरन्तर विकास की प्रक्रिया में वनस्पतियां और जानवरों की अनेक जातियां विलुप्त हुई हैं और कई अन्य प्रजातियों ने अपने आप को वातावरण के अनुसार ढाला जिस कारण उनका अस्तित्व आज भी बचा हुआ है। एक उदाहरण के तौर पर जुरासिक काल में डाइनासोर विलुप्त हुए क्योंकि तब उनके लिए उस समय की जलवायु अनुकूल नहीं थी। जीव और जन्तुओं की विलुप्त प्रजातियों के स्थान पर नई प्रजातियां अस्तित्व में आती हैं।’ एक तितली ने प्रतिरोध किया, 'यह क्रोपाटनिक के सामजस्य की मान्यताओं पर प्रश्न है और डार्विन के संघर्ष करने की क्षमता और वातावरण के अनुसार अपने को बदलने की योग्यता के सिद्धान्त का समर्थन है।’

तितली के तर्क से कछुए ने जोरदार ठहाका लगाया, 'लेकिन उस दिव्य शक्ति की इच्छा से जलवायु में परिवर्तन हुआ जिसमें पुराना विलुप्त हुआ और नया अस्तित्व में आया, जिस पर विज्ञान प्रश्नचिन्ह लगा रहा।’

'आप ऐसा दावा कैसे कर रहे कि यह किसी परम शक्ति की इच्छा से हुआ, जबकि आपके पास भी इसका कोई प्रमाण नहीं है।’

कछुए ने गर्व से अपनी गर्दन हवा में लहराई, 'तुम्हे इसलिए विश्वास करना चाहिए क्योंकि मैं उस दिव्य शक्ति के दूसरे अवतार का वंशज हूँ, जिसने ब्रह्मांडीय संतुलन स्थापित किया। जब भगवान विष्णु के आदेश पर देवता और दैत्य मिलकर मंदराचल की मथानी और वासुकी की डोर बनाकर क्षीरसागर का मंथन करने लगे तो मंदराचल रसातल में धंसने लगा तब महाप्रभु ने कच्छप अवतार लेकर उसे अपनी पीठ पर धारण किया जिस पर मंदराचल स्थापित हुआ और समुद्र मंथन संभव हो सका।’

तितलियों ने सम्मिलित ठहाका लगाते हुए कहा, 'सदियों से चली आ रही ये महान गप्प। सदियों इस पर विश्वास भी किया गया। लेकिन अब दुनिया की चेतना विकसित हो गई और उसने ऐसी कपोल कथाओं पर विश्वास करना छोड़ दिया। वाह क्या कमाल! कक्षप की पीठ पर अवस्थित मंदराचल पर्वत की मथानी और वासुकी नाग की रस्सी बनाकर देवता-दानवों द्वारा समुद्र का मंथन। आपसे विनम्र क्षमा याचना के साथ निवेदन हैं कि यह पौराणिक आख्यान चालाक दिमाग के द्वारा गढ़ा गया एक रूपक है, जिसमें तत्कालीन समाज में व्याप्त जातीय पक्षपात और श्रममूल्य के अन्यायपूर्ण वितरण और उसके प्रतिपक्ष को धार्मिक मिथकीय आवरण में छुपाया गया है।’

'तुम्हारा आशय मेरी समझ में नहीं आ रहा कि यह जातीय पक्षपात और श्रममूल्य का अन्यायपूर्ण वितरण कैसे हुआ?’

'अगर 'सबाल्टर्न’ नजरिए से इसकी व्याख्या की जाए तो सब कुछ स्पष्ट होता चला जाएगा। पहली बात तो यह कि मंथन के लिए देवताओं को वासुकी नाग की पूंछ और राक्षसों को उसका मुंह पकड़ाया गया। यह जातीय पक्षपात था कि प्रभुवर्ग को कम और प्रजातियों को अधिक जोखिम का काम दिया गया। दूसरी बात यह कि मंथन से जो भी मूल्यवान प्राप्त हुआ उसे प्रभुवर्ग ने बांट लिया और जो भी मूल्यहीन था उसे प्रजातियों को दिया गया, जिन्होंने अधिक जोखिम का कार्य किया था। श्रम के मूल्य का उचित बंटवारा न होने पर ही असहमति, प्रतिरोध और संघर्ष जन्म लेते हैं।’

'बचो, बचो मार्क्स से बचो। मार्क्स ने ईश्वरीय सत्ता और उसके विधान का विरोध किया। ईश्वरीय सत्ता और विधान स्थापित है और मार्क्सवाद सत्ता से बाहर इतिहास हो गया। अब बस वह एक फैशन की तरह साहित्य और बौद्धिक विमर्श में रह गया जबकि बौद्धिक देश के शत्रु हैं, और साहित्य, आत्ममुग्धता का मनोरोग है, जिसे पढऩेवाली प्रजाति लुप्त होने के कगार पर है। याद रहे सृष्टि की जितनी भी सत्ताएँ हैं, वे सब परमपुरुष के अधीन हैं। जीवों में जो गति है, उसका स्रोत परमपुरुष है। विज्ञान में मृत्यु जीवन का अंत है लेकिन ईश्वरीय सत्ता में यह नए जीवन की यात्रा है। अगले जन्म में उसे अपने पिछले जन्मों के कर्मों के अनुसार प्राप्त होता है। मुझे विश्वास है कि श्रम विभाजन और उसके मूल्य के बंटवारे को लेकर तुमने जो सवाल उठाया तुम्हें उसका उत्तर मिल गया है, हालांकि ईश्वरीय न्याय पर प्रश्न नहीं उठाना चाहिए। जैसे ही जीवन तर्क से आस्था के वैदिक काल में लौटेगा, उसके सारे संताप समाप्त हो जाएंगे। यही मेरा उद्देश्य है।’

'ठीक है भई’ एक तितली ने व्यंग्य से मुस्कुराते हुए कहा, 'आप को कौन रोक रहा लौट जाइए अपने आदर्श संसार में।’

'मैं तो उसी संसार में हूं। मेरा दु:ख यह है कि सभी को वहां लौटा सकने में मैं अक्षम हूँ।’

'तुम असमर्थ क्यों हो?’ तितली ने पूछा, 'हौसला हो तो क्या नहीं किया जा सकता। तुम्हारी पीठ ने तो समुद्र मंथन में ब्रह्मांडीय संतुलन स्थापित किया था। ईसाइयों की बाइबिल में भी ऐसा उल्लेख है कि यह पृथ्वी कछुए की पीठ पर टिकी है, हालांकि वह इस बात पर मौन है कि वो कछुआ जिस पर पृथ्वी टिकी है खुद कहाँ टिका हुआ है।’

'पीठ की बात तो ठीक है, लेकिन मेरे पैर बहुत कमज़ोर हैं। धरती पर मैं बहुत धीमे चल सकता हूँ। जबकि परिवर्तन के लिए सम्पूर्ण गतियाँ ज़रूरी हैं।’ कछुए ने रुआँसे स्वर में कहा।

'सुना कि कछुए और खरगोश की दौड़ में तुम जीते थे। इसके अलावा तुम जल में भी तैर सकते हो।’

'यह बात तो ठीक है कि मैं उस दौड़ में जीता लेकिन ऐसा मेरी दक्षता से नहीं, खरगोश के आलस्य की वजह से हुआ। यह ज़रूरी नहीं कि हर बार ऐसा होता रहे। और फिर आकाश? आकाश तो मेरे पास नहीं है। तुम कितनी भाग्यशाली हो। तुम्हारे पास पंख हैं और आकाश है।’

'लेकिन हमारे पंख बहुत नाज़ुक हैं। और एक छोटा-सा आसमान ही हमारा है। हम बड़ी उड़ाने नहीं भर सकतीं। वहां हमारे अनेक दुश्मन हैं... और मधु एकत्रित करने के लिए हमें फूलों की खोज में उड़ाने तो भरनी ही पड़ती हैं।’

कछुए ने हताश सांस छोड़ी। 'काश! मेरे पंख हुए होते...’

'काश! तुम्हारे पंख हुए होते तो...’ तितली ने हमदर्दी से कहा।

'तो मैं आकाश में उड़ता और तुम्हारे दुश्मनों को नष्ट करके तुम्हें निद्र्वन्द्व, मुक्त और अनन्त आसमान देता। अफ़सोस मेरे पास पंख नहीं है।’

'तुम सच्चे मन से कह रहे?’ तितलियों ने पूछा।

'यह सच्चे मन का वायदा है। इतना ही नहीं बल्कि अपनी वांछित सत्ता में मैं हर तितली के लिए सहस्त्रों सहस्त्र फूल उगाऊँ जिससे उसे मधु के लिए भटकना न पड़े। लेकिन मेरी इस सदेच्छा का अर्थ ही क्या है? जब मेरे पास पंख ही नहीं...।’

'हम अपने देवता की प्रार्थना करके तुम्हारे लिए पंख मांगेंगी,’ तितलियों ने कहा, 'हमने कभी किसी का बुरा नहीं किया। हमारा मन सच्चा है। विश्वास है, देवता हमारी प्रार्थना अस्वीकार नहीं करेगा।’

कछुए ने आभार में अपना सिर झुकाया, 'वैसे भी मैं पंख अपने लिए नहीं, धर्म के राज की स्थापना के लिए मांग रहा जिसमें सबका सुख निहित है... ऊँ सर्वे भवन्तु सुखिन: सर्वे सन्तु निरामया:।’

तितलियो ने अपने देवता की प्रार्थना की। सच्चे मन से ही पवित्र प्रार्थना से उनका देवता प्रसन्न हो गया। वह प्रकट हुआ और उसने तितलियों से पूछा कि उन्हें क्या वरदान चाहिए।

'अपने लिए कुछ नहीं मांग रही,’ तितलियों ने कहा, 'हमने कछुए के लिए प्रार्थना की। उसने हमें भयमुक्त आकाश देने और ऐसे संकट के दौर में धरती पादपहीन होकर सीमेंट-कांक्रीट के जंगल में बदलती जा रही है, हर तितली के लिए सहस्त्रों सहस्त्र फूल उगाने का वायदा किया है। पंख न होने के कारण वह असमर्थ है और इसलिए उदास है। उसे पंख देने की कृपा करें।’

तितलियों के देवता को घोर आश्चर्य हुआ। उसने कहा, 'तुम्हारी प्रार्थना अब तक की गई सभी प्रार्थनाओं से पवित्र है। पिछली सारी प्रार्थनाएँ अपने लिए कुछ मांगने के लिए की जाती रहीं। यह प्रार्थना अपने लिए नहीं दूसरे के लिए की गई है। दूसरों के लिए की गई प्रार्थना सर्वश्रेष्ठ प्रार्थनाओं के इतिहास में अमर रहेगी। मैं इससे बहुत प्रसन्न हूं, पर खेद है कि इसे स्वीकार नहीं किया जा सकता। प्रकृति ने कछुए को पंख नहीं दिए। मैं प्रकृति के नियमों के विरुद्ध जाकर उसे पंख नहीं दे सकता।’

तितलियाँ उदास हो गई। 'हमने तो बहुत आस्था और विश्वास के साथ प्रार्थना की थी... और हम कछुए से वायदा भी कर चुकीं... अब भविष्य में कोई भी तितलियों पर विश्वास नहीं करेगा...  और विश्वास पूरा न करने की आत्मग्लानि से तितलियों के सिर सदा सदा के लिए झुके रहेंगे...

तितलियों को आहत और उदास देखकर देवता ने क्षणभर सोचते रहने के बाद कहा, 'तुम्हें इतना निराश होने की आवश्यकता नहीं है। अभी भी एक रास्ता बचा हुआ है। तुम सब अपना एक-एक पंख-आधी दायाँ, आधी बायाँ उसे दे सकती हो। सारे पंख मिलकर बड़े आकार के दो डैने बन जाएंगे। तुम्हारे पंख भले ही बहुत कोमल और दुर्बल हों, लेकिन उनसे मिलकर बने डैने बहुत मज़बूत होंगे और उनकी उड़ान ताक़तवर होगी। मैं तुम्हे उन डैनों को कछुए की पीठ के दोनों ओर जोड़ देने का वरदान दे सकता हूँ। तुम्हारे पंखों से बने डैनों से उसे उड़ान मिल जाएगी। लेकिन तुम्हे यह वरदान सिर्फ एक बार ही दिया जा सकता है। वरदान मांगने से पहले तुम्हें अच्छी सोच लेना चाहिए।

तितलियाँ दुविधा में फंस गईं। वे आत्मा की गहराई से यह तो चाहती थीं कि कछुए को पंख प्राप्त हों लेकिन उसके लिए अपना एक एक पंख खोना उन्हें मंजूर नहीं था। 'अपना पंख खोकर हम उड़ान नहीं भर सकेंगी’, उन्होंने कहा, 'हमारा जीवन सिर्फ हमारी उड़ान है। चाहे वह कितनी ही छोटी और कोमल उड़ान हो...’

'हाँ, मैं जानता हूँ। लेकिन इसके लिए तुम्हें चिंता करने की जरूरत नहीं है। तुम्हारे वे पंख, जो तुम कछुए को दोगी, फिर से उग जाएंगे। उड़ान तुम्हारा सच है। मैं तुम्हें वरदान देता हूँ प्रकृति तुम्हें तुम्हारा सच लौटा देगी।’

तितलियाँ खुश हो गईं। वे अब अपने उस वायदे को निभा सकती थीं, जो उन्होंने कछुए से किया था। उन्होंने सिर नवांकर अपने देवता का आभार प्रकट किया। उसने उन्हें इतिहास में कलंकित होने से बचा लिया था।

उन्होंने अपना एक एक पंख दिया और कछुवे को दो डैने मिल गए। वे इतने विशाल डैने थे जितने विशाल डैने किसी नभचर के नहीं थे। और इतने अनोखे भी कि उनमें प्रकृति के सभी रंग थे। कछुए ने डैने पसारकर आकाश में उड़ान भरी तो हवा बौखला गई और नभचर व्याकुल हो गए। यह एक खौफनाक उड़ान थी। लेकिन तितलियों ने कछुए की इस उड़ान में स्वागत गान गाया।

'बधाई, तुम्हें पंख मिल गए। अब हम भयमुक्त उड़ानें भर सकेंगी। तुम शत्रुओं से हमारी रक्षा करोगे। और हमारे लिए फूल उगाओगे।

कछुआ अहंकारी हंसी हंसा, 'हां, मैं तुम्हें शत्रुओं से सुरक्षा दूंगा, लेकिन अब तुम्हारी उड़ान पर मेरा कब्जा होगा। तुम उतनी ही उड़ान भर सकोगी जितनी की मैं इजाजत दूंगा और उसके लिए तुम्हें वह कीमत चुकानी पड़ेगी तो मैं तय करूंगा। और जहाँ तक हर तितली के लिए फूल उगाने की बात है तो इस उत्तर सत्यकाल में तुम्हें मान लेना चाहिए कि वे उगाए जा चुके हैं।’

'नाजुक और कमज़ोर होने के बावजूद हम कभी किसी की गुलाम नहीं रहीं। उनकी भी जो हमारे शत्रु हैं। तुम्हारे और हमारे बीच ऐसा कोई समझौता नहीं हुआ था कि शत्रुओं से रक्षा करने की एवज में हमें तुम्हारी आधीनता स्वीकार करनी होगी।’

'माना ऐसा कोई समझौता नहीं हुआ। लेकिन जब तुमने मुझे अपने पंख दिए तो तुम्हें यह बात खुद ही समझ लेनी थी कि पंखों के साथ तुम अपनी उड़ान भी मुझे दे रही...’

राहत और बेचैन तितलियों ने फिर अपने देवता की प्रार्थना की। इस बार उनकी प्रार्थना पिछली प्रार्थना की तरह सच्चे दिल से की गई प्रार्थना ही नहीं थी बल्कि वह आंसुओं से भी नम थी। उनका देवता फिर प्रकट हुआ और उसने पूछा कि वे अब क्या चाहती है?

'हम यह चाहती हैं कि आप कछुए से उसके डैने वापस ले लें। डैनों की ताक़त से उसने हमारी उड़ानों पर कब्जा करके हमें अपना गुलाम बना लिया।’

'लेकिन अब मैं कुछए से उसके डैने वापस नहीं ले सकता। मैंने उसी समय बता दिया था कि वरदान मांगने से पहले अच्छी तरह विचार कर लो। वरदान सिर्फ एक बार ही दिया जा सकता है और वह तुम्हें दिया जा चुका है।’

'हम उसकी चिकनी-चुपड़ी बातों में आ गईं और ठगी गई।’

'अफ़सोस तुमने इतिहास से सबक नहीं लिया कि ऐसे वायदे कौन करता है?’

'तो क्या अब हम जीवनभर इसी तरह उसके अधीन रहेंगी? मुक्ति की कोई राह नहीं?’ तितलियों ने पूछा।

'हालांकि अब मैं तुम्हारी कोई सहायता नहीं कर सकता,’ तितलियों के देवता ने कहा, 'फिर भी हताश और निराश होने की ज़रूरत नहीं है। अगर तुम कछुए को अपने पंख दे सकती हो तो विश्वास रखो, उससे अपने पंख वापस भी ले सकती हो।’

 

 

 

 

सुभाष पंत की कई यादगार कहानियां पहल में छपी हैं। वे पहल के प्रिय कथाकार है और हिन्दी में उन जैसा दूसरा नहीं। पहल में प्रकाशित उनकी कहानी 'सिगिंग बेल’ का लेखक विजय गौड़ ने नाट्य रूपांतरण भी किया है और उसका मंचन प्रस्तावित है। देहरादून में रहते है। देहरादून को हम उनको और रस्किन बांड की वजह से भी जानते है।

संपर्क - मो. 07983552837

 


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