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अप्रैल - 2019

गनीमत यानी लूट का माल

उदय भानु पाण्डेय

कहानी

 

 

मैंने एक दम सामने की पहाड़ी को देखा जहाँ कोहरे की चादर को बींधती हुई किरणें बाहर की ओर अग्रसर हो रही थीं। मुझे लगा कि कोई चमत्कार-सा हुआ है। लेकिन, हट! मेरे डैड होते तो कहते, ''उल्लू का पट्ठा, चमत्कार क्या होता है?’’ बहुत दिनों की बात है जब मुझे हमेशा ऐसा लगता रहता कि मेरे दिमाग में धुआँ भर गया है या धुआँ नहीं भी भर रहा है तो भी पहाडिय़ों पर जमी बर्फ और पेड़ों की हरी पत्तियाँ या शाखायें धूप में भी मुझे मुरझाई या धुंधली नज़र आ रही हैं। यह उन दिनों की बातें हैं जब मैं यह महसूस करता कि लोग मेरे खिलाफ़ गहरी साजिश रच रहे हैं और यह साजिश इतनी गहरी है कि किसी दिन मेरे डैड और अम्मा को शूट कर दिया जाएगा। मुझे इससे भी ज़्यादा इस बात की आशंका रहती कि वे लोग मेरे डैड और अम्मा को मार डालेंगे और मुझे पूजा घर में ले जा कर कहेंगे, ''अपने भगवान को छूकर कसम खा कि किसी से भी यह नहीं कहूँगा कि इन्हीं लोगों ने ही इस लुगदी को खत्म कर दिया है।’’ यह लुगदी नाम मेरे डैड ने ही अम्मा को दिया था क्योंकि वे कहते थे कि इसे मानवी मत कहो, यह लुगदी है लुगदी। यह बात जब सुनता तो मेरे दिमाग में और ज़्यादा धुआँ भर जाता और मुझे लगता कि मुझे वही चीज़ बचाएगी जिसे डैड ज़हालत और अंधविश्वास कहते हैं लेकिन मैं उसे चमत्कार समझता था।

एक एक कर दर्जनों डाक्टरों ने मुझे देखा था, समझाया था और दवाइयाँ दी थीं। पूरी ज़िंदगी ही दवाइयों की बैसाखियों के सहारे चलती रही। जहाँ तक मुझे याद है डाक्टरों की फीस और दवाइयों का भुगतान मेरे डैड ही करते रहे लेकिन तब मुझे यह पता नहीं था कि डैड नाम का यह इंसान इंसान है या शैतान। आज यह जानकर विश्वास नहीं होता कि मैं अपने बचपन से तरुणाई तक डैड को शैतान ही समझता रहा। अम्मा के उकसाने से मैं हमेशा डैडी से बहस करता और कभी-कभी तो बेअदबी भी दिखाता। यह बात दीगर है कि कभी मैंने उनसे फिज़िकल बत्तमीज़ी नहीं की। इसका कारण शायद यह था कि मैं स्वर्ग और नरक की धारणा में विश्वास करता था और मेरा पूरा व्यक्तित्व भय से भरा रहता था।

मैं स्वभाव से महा कामचोर रहा हूँ, लेकिन धर्म और ईश्वर में मेरी असीम श्रद्धा रही है। अब भी है लेकिन एक सीमा के अंदर और अंधविश्वास और सच्ची आस्तिकता का फर्क अब मैं समझने लगा हूँ। बचपन से लेकर जब तक डैड जीवित थे उन्हें मैंने जादू-टोने से लेकर ईश्वर, मोक्ष और नास्तिकता से सम्बंधित लाखों प्रश्नों से बींधा था लेकिन केवल एक बार ही मैं पिटा। एक बार मैंने पूछा था कि अगर भगवान सचमुच नहीं है तो लोग क्यों इतना बखेड़ा खड़ा करते हैं? डैड ने उत्तर दिया कि ईश्वर रहे या मर जाए, इन्सान तो हमेशा रहेगा और सब से बड़ा सत्य तो यह है कि हम इन्सान की तरह ही पेश आयेंगे।

''वह कैसे’’? मैंने सवाल दागा।

''वह इस तरह कि शेर घास नहीं खाता और गाय सामिष नहीं हो सकती।’’

हालाँकि कभी कभी ही मैं ऐसी बात सोचता लेकिन यह बात तो मेरी ज़ेहन में घर कर गई थी कि एक दिन लोगों का हुजूम उमड़ेगा और मेरे परिवार से कहेगा कि तुम सारे लोग बहिरागत हो और हमारा इलाका छोड़ कर वापस वहाँ चले जाओ जहाँ से आए थे। लेकिन जब मैं डाक्टर अंकल से मिलता वे हँस कर कहते, ''बेटे, तुम लोगों को हम लोग बहुत अच्छा पाते हैं और तुम्हारे डैड  पर तो लोग जान छिड़कते हैं। यह तो हो ही नहीं सकता कि उन्हें कोई भी आँख दिखा सके। उन्हें लोग कभी भी बाहरी नहीं समझते; वे तो अपनों से भी ज़्यादा अपने हैं।’’ लेकिन जब मैं जिरह करता कि इसके बावजूद डैड अम्मा से क्यों झगड़ा करते हैं तब वे हँसकर कहते, ''यह तुम्हारा बाप-साला नौटंकी करता है और तुम्हारी अम्मा जी तुम्हें समझा नहीं पातीं।’’

बात उन दिनों की है जब मैं बहुत छोटा था। मेरी ऊंचाई और वजन को लेकर अम्मा बहुत परेशान रहतीं। यह बात बहुत देर में जान सका कि मेरे डैड ही ज़्यादा हैरान-परेशान रहते थे कि मेरी ग्रोथ कैसे हो। लेकिन दुबले-पतले होने के बावजूद मैं काफी फुर्तीला, आक्रामक और ताकतवर होता। मैंने अपने कई मोटे-ताज़े गुरु भाइयों को फाइटिंग में धूल चटा दिया था। बच्चों के डाक्टर ने दिल्ली में डैड को बता दिया था कि बच्चा एक दम ठीकठाक है और इसे दूध और अंडे की ज़रूरत है। के जी तक सब- कुछ जैसे-तैसे चलता रहा था लेकिन जब मैं पहली में पहुँचा मुझे लगने लगा कि होमवर्क मेरे लिए हिमालय पर्वत है जिसे मैं कभी नहीं लांघ पाऊँगा।

मेरे साथ के बच्चे टेबल (पहाड़े) आसानी से याद कर लेते थे लेकिन पहाड़े के नाम पर मेरी रूह काँप उठती थी। अम्मा कहतीं कि ये साला एकदम अपने बाप पर गया है। जोडऩा-गाँठना इसे एकदम रास नहीं आता लेकिन, कहीं ज़िंदगी भी बिना जोड़े-गांठे चलती है? इसी बात को लेकर घर में चख-चख मची रहती थी। लोक कहते दोनों में अहंकार की लड़ाई है और दोनों गज़ब के ज़िद्दी। अगर दोनों में कोई एक कमीना भी हो तब तो मर गये बच्चे। मैं इन फुसफुसाहटों को सुनता और परेशान हो जाता। लगता कि दिमाग में दमघोंटू धुआँ भरता जा रहा है।

मैं भगवान से पूछता कि सच क्या है और मेरे दिमाग में और ज़्यादा धुआँ भरने लगता। तब मैं एकदम असहाय महसूस करता और उधर मेरे ऊपर पहाड़ों का बोझ बढ़ता जाता और रट्टा मारने में उस्ताद गुरु-भाइयों की दादागिरी बढ़ती जा रही थी। ये मनबढुए गाल बजाते और मेरी खिल्ली उड़ाते। मेरे माँ-बाप में यह अंतर था कि अम्मा स्थानीय लोगों के बारे में हमेशा उलटा-पुलटा बोलतीं रहतीं और डैड उसी समय उसका खंडन करते और दोनों के बीच तलवारें खिंच जातीं। खाने के बाद मेरे जन्मदाताओं की ज़ुबानी जंग तब तक चलती रहती जब तक मैं सो न जाता।

मेरे घर में जो ज़ुबानी जंग चलती उसमें मुद्दों की कोई कमी नहीं रहती। जब मैं एकदम पिद्दी था तो इस बात पर जंग हुई थी कि बच्चा माँ बाप को क्या कहे। माँ की ज़िद थी कि उन्हें माम कहा जाय और बाप को डैड। डैड का कहना था कि अम्मा और बाबूजी या केवल बाबू कहे या बप्पा। जब मैं बड़ा हुआ इन दोनों के गावदीपन पर मुझे गुस्सा आया। कुनबे के दोस्त बताते हैं कि उन्होंने ''दूल्हा-दुल्हन’’ में यह कह कर समझौता कराया कि बाप को डैड और माम को अम्मा कहा जाय। जो मेरे परिवार के इतिहासकार हैं उनका यह कहना है कि मेरी माताश्री ने ज़िंदगी में केवल यही समझौता किया कि किसी एम ए, पी एच डी मां को बेटा बज्र देहातियों की तरह अम्मा-अम्मा रटे। वैसे अम्मा शब्द मुझे बहुत प्रिय लगता था और आज भी लगता है।

तब मेरे अंदर एक विचित्र जज़्बा पैदा हो रहा था। मुझे केवल वे लोग अच्छे लगते जिनकी नाक नुकीली होती और रंग एकदम गोरा। हम जिन लोगों के बीच रह रहे थे उनका रंग या तो काला था या पीला। उनकी चपटी नाक या पीले रंग मुझे दहशत में डाल देते। अम्मा कहतीं, ''ये कम्बख्त चपटी नाकवाले बहुत बनते हैं।’’ मेरे डैड कहते, ''देखो, तुम तो भगवान को मानते हो न! भगवान ने किसी को भी बदसूरत नहीं बनाया। तुम अपने दिल दिमाग को खुला रखो। सब अच्छे लगेंगे।’’ लेकिन मैं धीरे-धीरे भय से घिरता गया। तीस पार करने के बाद ही एक बात मेरी समझ में आई कि हर कोई अच्छा या बुरा हो सकता है।

लेकिन तब तक सब कुछ लुट चुका था। एक दिन हेमारी गुरुभाई ने मुझसे कहा, ''तू जानता है या नहीं? यू आर नाट इन टच विद रिआलटी। अपने बाप के शुक्र गुज़ार रहो कि उन्होंने इतना पैसा खर्च कर तुम्हें एकदम पागल होने से बचा लिया। अब तू भगवान-वगवान के चक्कर से बाहर निकल। मेरे बगल की दुकान भी मेरी ही है। अगले महीने से ही तू उसे ले ले। कैपिटल का इंतज़ाम हो जाएगा। तू बहुत सीधा है। जो लड़का तुझे सबसे ज्यादा बुरा लगता था वही तुझ पर तरस खा रहा है। बगल में मैं हूँ। कोई फिक्र नहीं। जैसे ही दो पैसा कमाएगा तो सारा आत्मविश्वास वापस लौट आएगा।’’ मुझे लगा कि डैड की बात में दम है। ये चपटी नाकवाले इतने बुरे भी नहीं हैं।

दूसरे जब खाने की मेज़ पर मैंने यह बात चलाई तो अम्मा की प्रतिक्रिया ठीक वैसी ही थी जिसका आशंका मैंने की थी। उन्होंने डैड को मुँह भी खोलने नहीं दिया और गर्दन झटक कर बोलीं, ''इन लोगों की मैं नस-नस जानती हूँ। वे ट्रायबल लोग पंजाबी और मारवाड़ी लोगों से दस दस लाख की पगड़ी लेकर दुकान किराए पर देते हैं और ये उल्लू का पट्ठा हेमारी इतना दरियादिल हो गया कि गुरुभाई पर इतना प्यार उमड़ आया।’’ डैड ने अम्मा पर एक ऐसी नज़र डाली जिसका अर्थ मैं अब समझ पा रहा हूँ। उसमें दुर्दम्य क्रोध, आहत अभिान, बेबसी और हताशा थी। उन्होंने बहुत धीमी आवाज़ में कहा, ''मैं इस प्रस्ताव का अनुमोदन करता हूँ। संकर्षण बेटे, तुम एक हफ्ते या एक महीने में अपना निर्णय बताओ। पैसे का इंतज़ाम मैं करूँगा और अगर बिज़नेस फ्लाप हुआ तो उसकी ज़िम्मेदारी मेरी होगी।’’ मैं जानता था कि इसके आगे ज्वालामुखी फूटनेवाला है। अम्मा उन पत्नियों में थीं जो क़सम खाने के बावजूद चुप नहीं रह सकतीं। वे तमंचे की तरह दगीं, ''लुक ऐट दिस बैंक क्लर्क। ही टाक्स लाइक अनिल अम्बानी।’’ डैड ने खाना छोड़ दिया और छत पर चले गए। काल ने उसी दिन मेरे पराजय की कथा लिख दी। मैं दवाइयाँ निगलता रहा और डैड खरीदते रहे।

एक महीने बाद मेरा उत्तर वही था जो माँ चाहती थीं। मैंने कह दिया, ''डैड, मुझसे यह बनियागिरी नहीं हो पायेगी।’’ और हमेशा की तरह उनके चेहरे पर निगाह टिका दी। कई दशक बीत गए लेकिन उनका वह चेहरा कभी भूल नहीं पाया। ऐसा लगता था कि किसी ने उन्हें मृत्युदंड सुना दिया।

अम्मा मेरे बाप को सायको सोमैटिक बुली कहती थीं। एक दिन सुबह डैड की हालत ठीक नहीं थी। डाक्टर आये और चेकप किया। उन्होंने मुझे बाहर भेज दिया लेकिन मेरे कान डाक्टर की बात पर लगे थे। वह कह रहे थे, ''अगर आप अपने सामी (स्वामी) को जीवित देखना चाहती हैं तो फार गाड्स सेक घर में शांति बनाए रखिये।’’

''व्हाट दी फक डू यू मीन बाई सेइंग शांती बनाए रखिये? क्या मैं ही ज़िम्मेदार हूँ सारी अशांती के लिए?’’ अम्मा की आवाज़ चीख से थोड़ी ऊँची थी।

वह एक ऊँघता-सा छोटा क़सबा था जहाँ लोग एक दूसरे का कच्चा-चिट्ठा अच्छी तरह जानते थे। धीरे-धीरे मेरे सहपाठी लोग मुझसे मिलने पर बड़ी शायस्तगी के साथ मेरे जन्मदाताओं की चर्चा करने लगे थे। कुछ लोग कहते कि डैड केवल आनर्स ग्रैजुएट हैं और मेरी अम्मा थ्रूआउट फस्र्ट क्लास और पी.एच.डी. हैं और इसी लिए वे डामिनेट करती हैं। धीरे धीरे लोग तरह तरह की बातेें बनाने लगे लेकिन इन चर्चाओं में एक भी ऐसी चर्चा नहीं थी कि जिसके मुताबिक मेरे माँ बाप बदचलन थे इसलिए झगड़ते थे। एक दिन जब घर में कोई नहीं था तो डैड की डायरी मिल गई। यह गलत काम था लेकिन मैं पढ़े बिना नहीं रह सका :

जान्ह्वी की एक बात मुझे पागल बना रही है कि इतनी बड़ी डिग्री के बावजूद वह कुतिया की तरह चीज़ों को एक जगह से दूसरी जगह क्यों रखा करती है। समय पर न मुझे रुमाल मिलता है न कलम। नहाने चलता हूँ तो कभी साबुनदानी गायब हो जाती है कभी साबुन। मेरे पास ज़्यादा कपड़े नहीं हैं लेकिन कम भी नहीं। फिर भी कोई चीज़ तलाशने पर मिलती क्यों नहीं? कई बार मुझे ऐसा रुमाल लेकर दफ्तर जाना पड़ता है जिस पर इस्तरी नहीं होती। मेरे तीन-चार स्वेटर और आधा दर्ज़न मोज़े भी गायब हो गये। क्या उन्हें धरती निगल गई या आसमान चबा गया? सायक्रियाट्रिस्ट कहता है कि यह क्लेप्टोमैनिया भी हो सकती है लेकिन घर वैसे ही इतनी बड़ी ट्रैजडी झेल रहा है और एक नया फ्रंट खोल देना ठीक नहीं होगा। मुझे अपनी इकलौती संतान की चिंता है नहीं तो मैं इस पागल और लालची औरत से अब तक जान छुड़ा चुका होता।

और अब मैं सतर्क हो गया। अम्मा का प्यार-दुलार अब मुझे अभिभूत नहीं करता था। मैं धीरे धीरे अपने डैड से मुखातिब होने लगा। उसकी शुरुआत इस तरह हुई कि एक दिन डैड सुबह घूमने निकले तो मैं भी उनके साथ हो लिया। जब लौटा तो अम्मा ने गुगली फेंकी, ''अब तो तुम श्रवणकुमार बनने लगे हो। मेरे बार-बार कहने के बावजूद सुबह नहीं उठे लेकिन आज से मोर्निंग वाक शुरु कर दिया।’’

इसी बात पर तकरार बढ़ गई थी और वह गृहयुद्ध में परिणत हो गई थी। कभी-कभी मन में आता कि घर छोड़ कर चला जाऊँ और कभी वापस न आऊँ, लेकिन मुझे लगता अगर चला गया तो डैड को हार्ट अटैक आ जाएगा।

उस पहाड़ी शहर का हर मौसम सुहावना होता। गर्मियों में भी दिन डूबते ही हलकी खुनकी महसूस की जाती, बारिशों में चेरापूँजी के बादल पूरब की ओर रुख करतो तो पूरा ज़िला हरी वनस्पतियों के खजाने से भर जाता। दशहरा और दुर्गापूजा साल भर की प्रतीक्षा के बाद किसी प्रिय मेहमान की तरह आते और ईसाई आदिवासियों को भी उन त्योहारों में शिरकत करते देखना बड़ा ही सुखद अनुभव होता। सबसे ज़्यादा सुहाना मौसम सर्दियों का होता जब बाज़ार झटिंगा के संतरों और अरुनाचली सेबों से भर जाता। जो हिंदीभाषी कबडि़ए और मुराव लोग 2004 के उपद्रवों के बाद बिहार और यूपी भाग गये थे उन्हें आदिवासी नेताओं ने वापस बुला लिया था। हरी सब्ज़ियाँ बाज़ार की अर्थव्यवस्था को सँभाले रहती थीं। जब पूरा हिंदुस्तान हिंसा और नफरत के उग्र या शीतयुद्ध जैसे वातावरण में झुलसता होता हमारा शहर हँसता-मुसकराता रहता। लेकिन बाहर से घर लौटता तो लगता किसी युद्ध विखंडित स्थल पर पहुँच गया हूँ। हमारे घर की सबसे त्रासद स्थिति वह थी कि हर क्षण अम्मा डैड को युद्ध के लिए ललकारतीं और मेरे पिता मेरी तरफ देख कर  चुप रहते। एक बात तय थी कि ज़्यादा झगड़े इसी बात को लेकर होते थे कि डैड की कोई चीज़ गुम हो गई है।

वह एक ऐसा ही मनहूस दिन था जब डैड की नई तौलिया गुम हो गई। उन दिनों कई दिनों से मैं उनके चेहरे को लाल देखता था। जब एक दम, नई तौलिया गुम गई मेरी इच्छा हुई कि डैड ज़ोर से चीखें और अम्मा अगर जवाब दें तो उन्हें एक करारा तमाचा जड़ें लेकिन उन्होंने अपने बिस्तर से साफ, धुली चद्दर निकाली और गुसल्खाने में घुस गये। मैंने उनके चेहरे को देखा और मेरे तन-बदन में आग लग गई। अम्मा ने अपने पूरे कपड़े पहिन लिए थे और कालेज जाने के पहले साड़ी से मैच करने वाला पर्स तलाश रही थीं कि मैं डुडुवाता हुआ उन पर पिल पड़ा।

''अम्मा, आखिर तुम्हारा इरादा क्या है? तुम क्यों मेरे डेड को टार्चर कर रही हो? पता है कि वे आज अपनी बेडशीट को तौलिया की तरह इस्तेमाल कर रहे हैं?’’

''क्या तेरा हरामज़ादा बाप कोई बादशाह सलामत है कि मैं उसकी बाँदी की तरह उसकी तौलिया लिए खड़ी रहूँगी? लुक ऐट दिस ब्रैट्स फेस! हाऊ डू यू डेर टु शो मी योर टेम्पर? यू ब्लडी बूबी!’’ अम्मा इस तरह चीखीं कि पड़ोसी लोग हमारे घर की ओर घूर घूर कर देखने लगे।

आज पहली बार मैंने अपनी माँ के खिलाफ मोर्चा खोला था। मैंने जवाब दिया, ''अम्मा अब बहुत हो गया। आप मेरे बाप को गाली मत दीजिए। मैं उतना बुद्धू भी नहीं जितना आप समझती हैं।’’

''कब समझोगे इस दुनिया को? ये चपटी नाक वाले हमारी जैसे लोग करोड़ों कमाने लगे और अब तक तुम अपने पिता श्री के साथ केवल मार्निंग वाक कर रहे हो। एक पैसा कमा नहीं सकते और आये हो अपने बाप की वकालत करने और ज़बान-दराज़ी करने!’’

मैं कुछ बोलने वाला था कि मेरे डैड गुसलखाने से निकल आये। उनका बदन ठीक से पुछा भी नहीं था। उन्होंने वही बेडशीट अपनी कमर के गिर्द लपेट रखी थी जिसे नहाने के पहले उन्होंने उठाई थी। उनका चेहरा एक दम अरुणाचली सेब की तरह लाल दिख रहा था। उन्हें देखते ही अम्मा ने अपने तेज़ नाखून बाहर निकाले। क्षणभर में एक चमत्कार सा हुआ और लगा माँ मादा भेडिय़ा में परिणत हो चुकी हैं।

''तू, दो पैसे का क्लर्क क्या हेकड़ी दिखाता है? तेरा यह हिजड़ा बेटा मुझे आँख दिखा रहा है! और ये चपटी नाक वाले पड़ोसी घर में घुस कर तमाशा देख रहे हैं।’’

डैड ने अपना हाथ उठाया और मैं बीच में आ गया। मेरा दाहिना गाल दर्द से छटपटाने लगा। वे कुछ बोलना चाहते थे लेकिन बोल न सके। फिर वे धम्म से बिस्तर पर गिर पड़े। उन्होंने एक बार बिस्तर पकड़ा तो फिर उठ नहीं पाए।

आननफानन में बैंक के अफसरों ने रुपए पैसों का इंतज़ाम किया और मेरी ज़िंदगी का सबसे त्रासद दिन प्रेरणा बन कर आया। आज मुझे इस बात पर आश्चर्य हो रहा था कि मेरे डैड जैसे साधारण कर्मचारी के मरने पर लोगों का इतना बड़ा हुजूम कैसे उमड़ पड़ा था। आज मुझमें अचानक एक चमत्कार सा हुआ। आज मुझे कुछ भी धुँधला नहीं दिखाई पड़ा। हर चीज़ चटक थी लेकिन मुझे यह अहसास हो रहा था जैसे उदासी के साथ कोई सुंदर लड़की और उदास हो जाय। श्मशान से लौटने के बाद डाक्टर अंकल ने मेरे लिए कोई दवा भिजवा दी जिसके बाद मन शांत रहा और नींद ज़्यादा गहरी थी।

छुट्टी के बाद जिस दिन अम्मा अपने काम पर वापस गईं मैं यूं ही उनके कमरे में चला आया। दरवाज़े के पास एक ऐसी चाभी मिली जिसे मैंने शायद ही कभी देखा था। लगभग एक साल से वह कमरा बंद पड़ा था जिसमें नौकर रहा करता था। मेरे दिमाग का जाला धीरे-धीरे साफ होता जा रहा था। मैंने सीधी वह चाबी उस कमरे के ताले में लगा दी और ताला खुल गया। अब मैं उस गंदे कमरे में कारू का खज़ाना देख रहा था। नौकर के चौकीनुमा पलंग पर मैंने 41 रुमालें, 7 पाजामे, 20 चद्दरें, 10 तकियों के गिलाफ, 51 टीस्पून, 11 तौलियाँ, 25 अंडरवियर, 4 टाइयाँ, 7 बेल्टें और मिट्टी के बने 5 गुल्लक देखे। मेरी जिज्ञासा अब दुर्दममनीय हो चुकी थी। मैंने न केवल गुल्लक तोड़ दिये बल्कि उनमें रखे सिक्के भी गिन डाले। उनमें मुझे 95 हज़ार की रेजगारी मिली। मैंने अपने आप को धिक्कारा कि मैंने किसी कुपात्र व्यक्ति को जीवन भर पूजा। जब मैं चौथी जमात में था डैड ने पूछने पर बताया था ग़नीमत का मतलब है लूट का माल। मैंने डैड की डायरी फिर देखी। एक पृष्ठ पर लिखा था, ''सायकियाट्रिस्ट ने कहा कि ऐसा स्किज़ोफ्रेनिया चालीस के बाद या तो पूरी तरह ठीक हो जाता है या माइल्ड हो जाता है। माथुर साहब, थोड़ा सब्र से काम लीजिए।’’

मैं अब बयालिस का हो चुका हूँ।

शाम को वापस आते ही अम्मा की निगाह उस कमरे पर पड़ी जिसमें लूट का माल रखा था।

''संकर्षण, सर्वेंट रूम में यह नया ताला किसने लगाया?’’ मेरी आँखों से चिनगारी फूटी पड़ रही थी। लगभग आधा मिनट के बाद मैं बोला, ''इस गनीमत का अधिकार मुझे मिला है। अब जो इस कमरे में कदम रखेगा उसकी दोनों टाँगें में तोड़ दूँगा। मेरे क्लर्क बाप से जो कुछ लूटा गया था उसका मालिक मैं हूँ।’’

मैं फिर रुका। पूरे एक मिनट के बाद फिर बोला, ''कल मैं हेमारी के साथ व्यापार का पहला दिन शुरु करने जा रहा हूँ। आपका जो रूप देखा वह मुझे किसी नारी को विश्वनीय नहीं मानने देता। लेकिन केवल तुम्हें जलाने के लिए मैं एक ऐसी लड़की से शादी करूँगा जिसकी नाक चपटी हो। प्रिय प्राण हंतिनी!’’

अम्मा अपने कुतर्कों से मेरे डैड को प्राय: निरुत्तर कर देती थीं। लेकिन आज वे स्वयं निरुत्तर थीं। आज अपने सामने मुझे प्रकाश ही प्रकाश दिख रहा था। धुँधलापन छँट चुका था।

 

 

कहानीकार उत्तर पूर्व में लंबे समय से बसे हैं। वहां की जनजातीय संस्कृति पर विपुल लेखन किया है।

 


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