मुखपृष्ठ पिछले अंक कवितायें निम्मी सीरीज़ और कुछ अन्य कविताएं
अप्रैल - 2019

निम्मी सीरीज़ और कुछ अन्य कविताएं

विवेक कुमार

कविताएं

 

 

अनुपस्थिति

 

तुम्हारी अनुपस्थिति को लिखना चाहता हूँ

दु:ख

पर दु:ख लिखते ही

द की मात्रा

मछली के काँटे सी

भीतर गड़ जाती है

दु:ख काटकर

लिखना चाहता हूँ

विषाद

पर षटकोण ष का तीर

सीने के आर पार हो जाता है

भाषा और व्याकरण से

हमारे साथ में

कैसे लिखूँ तुम्हारी अनुपस्थिति

 

प्रतीक्षा

 

प्रतीक्षा

सूरज के उगने की

सूर्यास्त के रंगों की

चाँद के मेरे खिड़की से

झाँकने की

प्रतीक्षा

तुम्हारे गाँव में सप्तर्षि के चमकने की

पर सबसे मुश्किल है

प्रतीक्षा तुम्हारी

सुनो न निम्मी!

 

शब्द उधार हैं

 

मेरी भाषा में

मैं दोहराता हूँ शब्द

शब्द

जिनके अर्थ कुछ भी हो

गूँज में वो हो जाते हैं

प्रेम

मसलन फूल

एक संज्ञा है

पर मेरे लिए वो तुम्हारा विश्लेषण

मेरा हर दूसरा शब्द

किसी गर्मी की शाम

तुम्हारे कानों में बुदबुदाया सा लगता है

प्रेम तो हम नया ढूंढ़ लेते है

पर नए शब्द

मुहावरे

प्रेम के लतीफे

तारीफें

नयी कहाँ से लाये

मेरे शब्द तो लौटा दो निम्मी!

 

प्यार का क्या है

 

प्यार का क्या

वो हो जाएगा

उसकी मुस्कराहट पर

उसकी ढलती झिपती पलकों पर

उसकी उँगलियों पर

जो लट को कान के पीछे रख आती हैं

प्यार का क्या है

वो हो जायेगा

ग़र वो मुस्कुरा दे मुझ पर

पर जो मेरे खर्राटे सह ले

मेरी अफ़लातून बातों पर

आहाँ कह ले

सोती रातों में

मेरा हाथ ख़ुद पर रख ले

मेरे स्वप्न में उगे भय पर

ढ़ाढ़स दे

इतना धीरज

वो कहाँ से लाएगी निम्मी!

 

वो तुम्हारे लिए कविताएं लिखता है क्या?

 

वो तुम्हारे लिए कविताएँ लिखता है क्या?

होने को वो अच्छा आदमी होगा

तुम्हारे लिए गजरे

फूल

लाने वाला

तुम्हारे बच्चों का पिता होगा

बच्चे

जो हमारे हो सकते थे

स्कूल बस से वो उन्हें लाएगा।

उनकी ज़िदों पर भौहें चढ़ाएगा

पर निम्मी

क्या

वर्तमान में धँसे अतीत की तरह

चादर गद्दे में ना दबी होने पर

मोज़े

तौलिए

बिस्तर पर

होने पर

तुम्हारी गुस्सैल आँखो पर

तुम्हारी मुस्कुराहट पर

वो एक कविता लिख सकेगा क्या?

 

कुछ अन्य कविताएं

 

दु:ख

 

ऐसा नहीं कि लिखने से काम हो जाएगा

दु:ख

दु:ख

बचा रहेगा सृष्टि के अंत तक

पीली ट्राम के आख़िरी स्टॉप तक

चाहे सूख जाए गंगा का सारा पानी

दु:ख चिपका रहेगा तटों से

नमी की तरह

मुझे नहीं पता ठीक ठीक

कैसे जन्मी थी सृष्टि

पर शायद गिरी होगी आँसू की एक बूँद

और स्याही के धब्बे सी

फैल गयी होगी सृष्टि

ऐसा नहीं कि लिखने से कम हो जायेगा

दु:ख

पर लिखते रहने से सालता रहेगा

पुराने घाव की तरह

और बताता रहेगा

कि अकेले नहीं तुम!

 

प्रतीक्षा

 

प्रतीक्षा तब मेरे लिए चमत्कार

की पूर्व सूचना थी

अक्सर दम सादे आकाश देखते रहने से

उसका रंग बदल जाता था

या अचानक कोई तारा मरते सूर्य

के माथे पर उग आता था

पूर्णमासी की रात मेरे नाना

दूध से भरे थाल में चाँद देखते थे

मैं प्रतीक्षा करता था

चाँद के अलसाने की

कि अचानक परछाई को हाथ लगा

चाँद ग़ायब कर दूंगा

प्रतीक्षा फिर शक्लें बदलती रही

मेरे जीवन में पहला टेपरिकार्डर

जिसमें मेरी कैद आवाज़

घरघराती बाहर आती थी

बारह वर्षों की प्रतीक्षा

मेरी गुल्लक

और मेरी माँ के गहनों से

उपजा चमत्कार था

फिर एक दिन मैंने पाया

प्रतीक्षा की शक्ल प्रेम की पूर्वसूचना थी

मैं शहर की पुलिया पर बैठा प्रतीक्षा करता था

कि चाँद और उसमें

मंदिर पहले कौन पहुंचेगा

प्रतीक्षा अब भी करता हूँ

पर अब वो निरी प्रतीक्षा है

जिसके परे कोई चमत्कार नहीं घटता

घटता है, तो सिर्फ समय

आता है तो सिर्फ

पश्चाताप!

 

बीता हुआ प्रेम

 

बीता हुआ प्रेम असल में

पुराने बुखार की तरह लौटता है

शरीर के भूगोल में उलझे इतिहास की तरह

किसी पुरानी किताब के पिछले पन्नों पर

उकेरे गए दस्तखत की तरह

काँधे के तिल की तरह

स्वप्न में उगी प्यास की तरह लौटता है

प्रेम

शहर की तरह लौटता है

थोड़ा लौटाने

थोड़ा

अहसास दिलाने की

तुम

तुम नहीं रहे!!

 

शहर, दोस्त और फेसबुक तस्वीरें

 

हम उन तस्वीरों को देखते थे

और मिलाते थे उन चेहरों से जो हमने सालों पहले देखे थे

जो स्मृति के ताखे पर कटोरदान से रखे थे

हम सोचते थे कि वो शक्लें कभी न बदलेंगी

समय की बर्फ में जमी हुयी

और आज भी वैसी की वैसी होंगी

 

मेरे ज़माने का गायक

जिसकी नक़ल में मैंने बढ़ाने चाहे थे बाल

बदल गया था एक सफेद बालों वाले अधेड़ में

और मैं सोच रहा था की वो अब अपना गोल

चश्मा क्यों नहीं लगाता

 

माँ की सहेली जो तबला बजाने से लेकर

शेक्सपियर तक जानती थी

अचानक पाया कि समय की लकीरों ने लिख दी है उसके चेहरे पर

इबारत एक अबूझ सी लिपि में

 

मेरा भाई जो हमारा हीरो हुआ करता था

जो लम्बी डायरियों में लिखा करता था कविताएं

और निर्मल वर्मा और शरत चन्द्र की सतरें

अपनी तोंद संभालते हुए हांफ रहा है अपनी एक नयी तस्वीर में

हम जानते थे की समय हमें छुएगा

और बदल देगा

समय के रेगमाल से बदल जायेंगे रंग

पर हम उम्मीद करते रहते थे कि

सब कुछ रुका होगा मेरे शहर में

 

हम लौट सकेंगे छुट्टियों में अपने शहरों को

बतिया सकेंगे पुराने दोस्त से

पुरानी शरारतों

पुराने असफल प्यारों के बारे में

दोहरा सकेंगे पुराने जुमलों, किस्सों को बैठे नए ओवरब्रिज पर

 

ये जानते हुए की वो दोस्त भी वैसा का वैसा न रहा

उसके बच्चे स्कूल जा रहे थे

उसकी बातें हमारी नौकरियों

कुंवारे दोस्तों की शादियों के गिर्द थी

पर उसकी महीन हंसी के एक अनजाने क्षण में

उभर आती थी उसकी पुरानी शकल

 

हम जानते थे कि सब कुछ बदल जायेगा

या बदल गया होगा

जानते और बूझते

मन ही मन हम करते थे प्रार्थना

कि कुछ न बदला हो

दुनिया मेरे घर के आंवले के पेड़ की तरह

वैसी की वैसी हो

हमारे इंतज़ार में

 

तथ्य और उम्मीद के इस दुचिते में

उम्मीद का जीते रहना चमत्कार सा था

और आधुनिक युधिष्ठिर का सबसे बड़ा आश्चर्य!

 

छोटे शहर की लड़की

 

एक छोटे शहर की लड़की

जो अपनी उम्मीदों और आशाओं में बड़ी थी

चाहती थी थोड़ा सा प्रेम

कि बसंत छू सके उसे

उसने चाहा था कि कोई करे प्रेम

कम से कम समझ सके उसे

लड़का साल बीतते ही कहने लगा था गुस्से में

उसे, YOU WHORE

अक्सर नशें में पूछ था उसका दाम

लड़की ने कहा, ''शादी?’’

लड़के ने कहा, ''परिवार’’

लड़के के पास था परिवार जिसकी ओट में वो भाग सकता था

अपनी जाति के जंगल में

लड़की के पास थी देह

और नासमझ लड़की देह के साथ जीना चाहती थी

इसे दर्ज करने वाले विवेक कुमार भोजपुरी में चूतिया थे

ये बात दीगर है कि अंग्रेजी में उन्हें Feminist कहा जाता था

लड़का हर भाषा में, ''बॉन्ड था बॉस!’’

और लड़की

हर कहानी, भाषा, मुहावरे में

छिनाल!

 

मेरी भाषा

 

मैं उस भाषा का बाशिंदा हूँ

जिसे बोलने पर

तुम पीटे जा सकते हो

धकेले जा सकते हो

किसी राज्य की सीमा के बाहर

रातोंरात

भाषा

जिसे जल्द से जल्द भूल जाना

मेरे प्रदेश में बड़े हो जाना है

भाषा

जिसमें पैदा हुए

पले बढ़े

बक्कयाँ खींचे

कहते हैं

गर्व मिश्रित दु:ख से

कि उसकी भाषा ख़राब है

भाषा

जिसके अध्यापक दूर रखते है

अपने बच्चों को

इस भाषा से

 

भाषा

जिसमें मैं लिखता हूँ

अपना दु:ख

लालटेन के शीशे पर

भाषा

जिसकी परछाईं में

रचता हूँ

अपना सुख

बुनता हूँ

दोनों में

उलझा ताना बाना

 

पर सुनो

मेरी भाषा में शब्दों

के मतलब नहीं बदलते

मृत्यु एक अनंत अनुपस्थिति है

अभी भी मेरी भाषा में

पिता का मतलब

अभी भी घर हो जाना है

रसोई का अर्थ है

जूते बाहर छोडऩा

आँवला है अभी भी

सोंधी खटास

 

पर तुम जो ये लिखते बोलते हो

वो कौन सी भाषा है?

जहाँ दाढ़ी टोपी का मतलब दहशतगर्द है

त्रिशूल ले किसी के पीछे भागती

पागल भीड़ का मतलब

रक्षक है

सन 92 में बनाने का मतलब तोडऩा था

लेमुरिया से बिछड़े बैगा का नाम

नक्सल है

स्त्री का मतलब योनि है

 

तुम कहते रहो

ये मेरी भाषा है

पर मैं चीख़ छीख़ कर कहता हूँ

ये मेरी भाषा नहीं है

ये क्रूरता से उपजी तुम्हारी निजी भाषा है

उन्माद के व्याकरण में लिथड़ी

विध्वंस की लिपि में लिखी जाती

ये एक हत्यारे की भाषा है

तुम कहते रहो इसे मेरी भाषा

मैं

भाषा का अध्यापक

मंसूख करता हूँ

तुम्हारी भाषा को

दुनिया के हर

भाषा परिवार से

 

विवेक कुमार की कविताएं कहीं भी पहली बार प्रकाशित हो रही हैं। देवरिया उत्तर प्रदेश में जन्मे कवि ने जेएनयू से अनुवाद में उच्चतर शोध किया और इन दिनों डेनमार्क के एक विश्वविद्यालय में अध्ययन कर रहे है। संपर्क : +4550300698

 


Login