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अप्रैल - 2019

मैं कोई राष्ट्राध्यक्ष नहीं

विजय गौड़

 

मैं कोई राष्ट्राध्यक्ष नहीं

 

एक

 

मैं कोई राष्ट्राध्यक्ष नहीं,

हर जगह दर्ज हो, जरूर ही, मेरा बयान

न्यायधीश भी नहीं

कि झूठी दलीलों को सुनने के बाद

लिखना ही पड़े फैसला,

असल अपराधी की पहचान हुई नहीं

 

किसी डॉक्टर ने नहीं दी सलाह,

तुम्हारे स्वास्थ्य के लिए जरूरी है

रोज कम से कम एक बयान

 

मुझे डर नहीं उन बलवाइयों का

हत्या करने से पहले जो कच्छा उतारकर

जाँच कर लेना चाहते हैं

कि मेरी प्रोफाइल पर झाँक-झाँक कर कहने लगें,

उस वक्त देखो मैं कितना-कितना बोला था

इस वक्त देखो कैसा हूँ खामोश

 

मुझे अपने पक्ष, और

दुनिया को बदहाल, बेहाल बनाने वाले

विपक्ष की पहचान के लिए

कई बार खामोश रहकर भी ताकना जरूरी लगता है

फिर मैं कोई राष्ट्राध्यक्ष नहीं,

घटने वाली किसी भी घटना पर

'राष्ट्र की खातिर’

औपचारिकता बरतना मजबूरी हो।

 

दो

 

मैं राष्ट्राध्यक्ष हो भी जाऊँ

विवेक का बण्डल बाँध

महज 'राष्ट्र की खातिर’

क्या औपचारिकता निभाऊँ?

 

तीन

 

अलबत्ता तो वह भी

राष्ट्राध्यक्ष है नहीं

मुगालते में लेकिन रहता है

अभी-अभी दुनिया को अपनी मुट्ठी में माने बैठे

पद्दु ने मारी पाद

देखो कैसे ठट्ठा के बधाई देता है।

 

चार

 

अबे ओ घोंचू

राष्ट्राध्यक्ष, राष्ट्राध्यक्ष ही होता है

किताब लिखना उसका प्राथमिक काम नहीं

वह लिखने वालों को इनाम देता है

तेरी उछल-कूद क्या इसीलिए तो नहीं

 

अभी तू लगा रह कई साल

वह हमेशा पहले वालों पर मेहरबान रहता है।

 

पांच

 

तुम मुझे लाख मनाओ

मैं राष्ट्राध्यक्ष होऊँगा ही नहीं

बस एक बार कह दो, मान ली मेरी जिद्द

देखो मैं तुम्हें कैसे झप्पी लेता हूँ।

 

छ:

 

हर वक्त चिंता में घुले रहने का

कैसा तो करता है नाटक

कि मजबूर किये होता है राष्ट्र को

वह भी घुला रहे चिंता में ही

में तो हर वक्त का हँसोड़ हूँ

तुम्हारे हक में यही है,

बोलो उसे,

आकर मिले मुझसे,

कुछ सीखे एक नागरिक से

 

क्यों खामखां मुगालते में रहे

कि तेरे खातिर लोग जीना छोड़ देंगे

कल मरता है तो आज मर

श्रद्धांजलि की एक पोस्ट

शेयर कर ही देंगे,

कुछ तेरे जैसे भी तो हैं इस दुनिया में

तुझे खुद ही मालूम है अपना रोना

आइने की याद क्यों दिलाऊँ फिर

क्या देख पाएगा तू खुद को

गम का मुखौटा लगाए?

 

सात

 

अरे चल हट

जो तुझ जैसे ही हो जाएं

सारे के सारे राष्ट्राध्यक्ष

तो कोई शक नहीं

दुनिया को करनी ही होगी नई शुरूआत

 

आदिम मारकाट से

जमीनों की लूट-खसोट तक करने वाले

उन अय्याशों को फिर से

उखाड़ कर फेंकना होगा

 

इसमें कोई दो राय नहीं

फिर वही होगा क्रम,

तुम जैसों को पैदा करने वाला तंत्र

एक पड़ाव फिर भी होगा, जिसे

यूँ भी मरना है अपनी मौत,

वह घिरा होगा अपने ही संकट से

और मेरे संगी साथियों कर रहे होंगे तीखी चोट

खुद के ढहने का डर ही तो उसे

तुझ जैसों को पैदा करने को उकसाता है

 

दुनिया जान चुकी उसकी करतूत

और तेरी भी

तू अपनी खैर मना।

 

आठ

 

नागरिक परेशानियों में हो

संभावनाओं की तलाश में हो

कोई मिले सचमुच का,

वह भी क्या राष्ट्राध्यक्ष

खुद के विकल्प न होने का हल्ला करे

 

इटली की बर्फ

पनामा शहर वाया स्वेज नहर

जापानी गुडिय़ा

चीनी दवाखाना

जहाँ जो भी है,

चाहे कहीं खूबसूरत पाखाना

दौड़-दौड़ कर देख लिए सारे,

फिर भी हाजत-फरागत से

मन भरे नहीं

 

छोड़ो-छोड़ो

क्या कहना जी

थोड़ा सलीका ही सीख ले

चार लोगों के बीच उठने बैठने का

थोड़ा अदब से भेंटने का

फेंकने का।

 

नौ

 

अगर वह रोज-रोज फ्लीट चलाने लगा

जैसे चलाते हैं मकदूम के अब्बू

चारपाई को सड़क में औंधा कर

तो कौन कहेगा उसे राष्ट्राध्यक्ष

मकदूम के अब्बू को ही न बना दो तब

वे तो यूँ भी भले इंसान हैं

खटमल, पिस्सू और मच्छरों के बीच

रहते हुए भी कोई बहुत दिक्कत नहीं उन्हें

दिक्कत एक ही है उनके साथ

कम्पनी के विज्ञापनी झाँसे में आकर

मच्छर, मक्खी, खटमल, पिस्सू

पनपने देने के हालात पैदा करने वालों को

पहचान नहीं पाते हैं

जब-तब सड़क के बीच

खट-खट झाड़ते हैं चारपाई

और पट-पट मारते हैं खटमल

 

दस

 

किसी नाटक में प्रहसन करता कलाकार

सचमुच में राष्ट्राध्यक्ष से

इस मामले में ज्यादा ईमानदार होता है

कि पात्र परिचय के वक्त

होता ही है अपने असली वेश में

और सारी अकड़ भूल कर

सिर नवा कर पेश आता है।

 

ग्यारह

 

मेरे घर में एक महरी आती है कपड़ा धोने

दूसरी आती है झाडऩे-बुहारने

एक तीसरी भी आती है

चाय, नाश्ते से लेकर डीनर, लंच

 

दूधवाला आता है

जब जो भा गया दिहाड़ी के हिसाब से

सब्जीवाला ले आता है

अखबारवाला भी रोज ही डाल देता

पानीवाला रोज के रोज

हिसाब से दे जाता है

 

जरूरत होती है तो

प्लम्बर को बुलवा लेता हूँ

बिजली मिस्त्री नखरे दिखाता है

 

पर बुलाने पर आ ही जाता है कम्बख्त

रंगाई-पुताई वालों को तो ढूंढना ही पड़ता है

मानो किसी तीसरी दुनिया के वासी हो

कभी कहीं बहुमंजिला बिल्डिंग पर लटके हुए

दिख जाते हैं दीवार को दुरुस्त करते

पर उस वक्त तो कैसे किया जाए सम्पर्क

मैं सबको उनका

वाजिब मेहनताना देता हूँ,

अब जिसने जब-जब छुट्टी की

तो मैं खैरात बाँटने के लिए

थोड़े ही बैठा हूँ

 

राष्ट्रनिर्माण में इस तरह

मैं अपनी सारी कमाई लगा देता हूँ

तेरे गणित का क्या कहने

जीडीपी में उसकी भी

होने लगी नपाई।

संपर्क - मो. 9474095290, देहरादून

 


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