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जनवरी - 2019

संशय, डर और अकेले होने का दर्द

सूरज पालीवाल

मूल्यांकन

 

 

 

'जो दिखता नहींचर्चित कथाकार राजेन्द्र दानी का पहला उपन्यास है। इससे पहले उनके कई कहानी संग्रह प्रकाशित हो चुके है, जिन्होंने हिंदी कहानी यात्रा में अपनी पहचान बनाई है। दानी जी के पास वैचारिक दृष्टि है, जिससे वे अपने समाज और आसपास की घटनाओं का आकलन करते हैं। वैचारिकता भावुकता से बचाती है, जो लेखक के लिए बहुत जरूरी है। सवाल यह है कि जिसे हम लेखकीय दृष्टि कहते हैं, वह कहां से आती है? कहना न होगा कि एक ही घटना पर दो कहानीकार अलग-अलग तरह से कहानियां लिख सकते हैं, लिखते रहे हैं पर दोनों कहानियों का अंतर लेखकीय दृष्टि और उसके सरोकार ही तय करते हैं। उपन्यास की चर्चा की जाये तो ग्रामीण जीवन पर प्रेमचंद भी लिखते हैं और स्वाधीनता के बाद रेणु भी 'मैला आंचलजैसा उपन्यास लिखते हैं और उसके दस साल बाद श्रीलाल शुक्ल 'राग दरबारीलिखते हैं। तीनों उपन्यासों की कथा हमारे ही अपने गांवों और उसके किसानों की कथा है पर सरोकार तीनों के अलग हैं। रेणु में प्रेमचंद का विकास देखा जा सकता है पर श्रीलाल शुक्ल में न प्रेमचंद का विकास और न रेणु का। ये जिस व्यंग्यात्मक तरीके से ग्रामीण समस्याओं को उठाते हैं उससे उपन्यास रोचक और पठनीय तो बनता है पर समस्याएं व्यंग्य और उपहास में कहीं ओझल हो जाती हैं। कई बार लेखक शिल्प या भाषा के चमत्कार के चक्कर में विषय की गंभीरता को हल्का कर देता है, जो उचित नहीं कहा जा सकता। अब सवाल यह है कि राजेन्द्र दानी के उपन्यास पर चर्चा करते हुये मैं इन प्रतिष्ठित लेखकों या महत्वपूर्ण कृतियों की चर्चा क्यों कर रहा हूं? चर्चा इसलिये कर रहा हूं कि एक लेखक को अपनी वैचारिकता के आधार पर अपने समय और उसकी समस्याओं का खरा आकलन करना चाहिये, यदि लेखक ऐसा नहीं करता तो वह कहीं न कहीं चूक करता है। राजेन्द्र दानी बार-बार उन स्थितियों को उठाते हैं जो उदारीकरण के बाद समाज में असमानता पैदा कर रही हैं। यह असमानता ही है कि एक ओर नवधनाढ्यों का साम्राज्य है जो दिन रात फैलता और बढ़ता जा रहा है तो दूसरी ओर आम नागरिक है जो लगातार और गरीब होता जा रहा है। दानी जी की युवा अवस्था में टाटा बिड़ला का नाम था, उस समय लोक में टाटा बिड़ला किसी मिथ की तरह विद्यमान थे इसलिये वाम पक्ष नारे लगाता था 'दस करोड़ हैं बेरोजगार, कौन है इसका जिम्मेदार - टाटा बिड़ला की सरकार, टाटा बिड़ला की सरकार।अब इस प्रकार के नारे नहीं लगते, अब टाटा बिड़ला को अंबानी और अड़ानी ने पीछे छोड़ दिया है। अब सरकार के पीछे अंबानी और अड़ानी हैं इसलिए नये आंकड़ों के मुताबिक इस साल बड़े अंबानी यानी मुकेश अंबानी की आय एक साल में एक लाख करोड़ बढ़ गई है तो दूसरी ओर बेरोजगारों और आत्महत्या करने वालों की तादाद भी अनुपात से ज्यादा बढ़ी है। गरीब और ज्यादा गरीब हुये हैं तो छोटी जोत वाले किसानों की जमीन अधिक बिकी हैं इसलिए आत्महत्या करने वाले किसानों की संख्या में भी वृद्धि हुई है।

यह महज संयोग नहीं है कि राजेंद्र दानी के उपन्यास 'जो दिखता नहींका नायक विनय उन परिवर्तनों से दुखी है, जिन्होंने उसके जीवन को बदला है। बड़े परिवर्तन विसंगतियों को लेकर आते हैं, जो धीरे-धीरे अपना प्रभाव छोड़ते हैं। विनय के जीवन में अब दुख नहीं है, लेकिन दुख उसकी स्मृति में अब भी जीवित हैं। बाहरी दुखों के अलावा अंदर के दुखों से वह अधिक परेशान है। उसकी चिंता का कारण अतीत है, बूढ़ा आदमी अतीत में जीता है और अतीत की घटनाओं से आतंकित भी रहता है। यह आतंक बाहर से कम अंदर से अधिक तोड़ता और डराता है। विनय जिन चीजों से दुखी है, वे चीजें उसके बच्चों के लिये जरूरी हैं। मध्यवर्ग के अधिकांश घर इन जरूरी समझी जाने वाली चीजों के गोदाम बन गये हैं, मॉल और नेट सेल के कारण घर कबाडख़ानों में तब्दील होते जा रहे हैं। विनय जैसे लोगों ने इस प्रकार की न तो जिंदगी जी और न इस प्रकार के साधन ही उनके लिए उपलब्ध थे। जो साधन थे वे बहुत कम थे इसलिये जब भी नई वस्तु लाने की आवश्यकता होती तो कुशल दर्जी की तरह कतर-ब्योंत की जाती। इस कतर-ब्योंत में ही आम आदमी की जिंदगी कट जाती थी और वह खुश इस बात से रहता था कि बगैर किसी गलत काम के उसकी जिंदगी कट गई। गलत काम न करना, दूसरों को दुख न देना, दूसरों के काम आना, रिश्वत न लेना, किसी को गलत दृष्टि से न देखना आदि पढ़ाये गये नैतिकता के पाठ नहीं थे बल्कि ये सामाजिक जीवन के अनिवार्य हिस्से थे जो समाज और परिवार में रहते हुये स्वत: जीवन से कहीं मेल नहीं खाता। पांच सितारा होटलों की रातों में अधनंगी लड़कियों के साथ शराब में धुत नृत्य करते ये युवा उन नवधनाढ्यों के परिवारों से हैं जो सत्ता और पैसे की ताकत के बल पर आदमी को आदमी और रुपये को रुपया नहीं समझते। जो जरा-सी बात पर रिवाल्वर से डरा भी सकते हैं और मार भी सकते हैं। उनके लिये किसी की हत्या मामूली-सी बात है, जिसे वे सिगरेट के धुएं की तरह हवा में उड़ा देने में माहिर हैं।

यह सही है कि विनय का बड़ा बेटा अभिषेक इस तरह का नवधनाढ्य नहीं है, उसके यहां लूट का माल भी नहीं आता, उसकी सोहबत भी बुरी नहीं है पर वह अपने पिता की तरह जीना भी नहीं चाहता। वह अपने माता-पिता का आज्ञाकारी बेटा है, अवज्ञा या उपेक्षा उसके स्वभाव में नहीं है। फिर भी विनय इस प्रकार की जिंदगी से प्रसन्न नहीं है, वह वैभवपूर्ण जीवन उसे अंदर से छीलता रहता है, इस वैभव में उसे अपनी गरीबी याद आती है और वे दिन याद आते हैं जब एक-एक रुपये के लिए जोड़-तोड़ करना पड़ता था। यह सामान्य मनोविज्ञान हैं, गरीबी से ऊपर उठा व्यक्ति या तो दंभी हो जाता है या अपनी गरीबी के दिनों की याद में दयनीय। दानी जी ने विनय को दंभी होने से तो बचाया लेकिन दयनीयता के किनारे पर लाकर खड़ा कर दिया है। अपने ही परिवार में वह अकेला है और पत्नी जो हमेशा उसके साथ कंधे से कंधा मिलाकर संघर्ष करती रही वह अब अपने बच्चों के वैभव में खुश है, वह अपने अतीत को भूल चुकी है और अपनी गरीबी से हमेशा के लिये मुक्त हो चुकी है। विनय के दुख का कारण पत्नी का इस प्रकार से खुश होना भी है। उपन्यास का आरंभ विनय और निर्मला की शादी की चालीसवीं वर्षगांठ मनाने से हुआ हैं, जिसमें उन्हें शादी की तरह मंच पर बैठा दिया जाता है। विनय को यह अच्छा नहीं लगता, उसे इस उम्र में इस तरह बैठते हुए शर्म लग रही है। वह निर्मला से पूछता है तो वह जवाब देती है 'मुझे क्यों शर्म लगेगी। मैं तो बहुत खुश हूं कि हमारे बच्चे देखो, हम लोगों की खुशी के लिये कितना कर रहे हैं।यह विरोधाभास नहीं है बल्कि यह दो दृष्टियों का अंतर है, जो पति और पत्नी को लाकर दो छोरों पर खड़ा कर देता है। वे पति पत्नी जो हमेशा एक दूसरे के दुख सुख में शामिल रहे, जिन्होंने अभाव और उपेक्षा साथ मिलकर झेले वे सुख की दुनिया में आते ही बदल जाते हैं। दोनों के संवादों से ऐसा लगता है मानों वे दोनों अलग हैं, दोनों के विचार अलग हैं और दोनों एक दूसरे से जैसे कभी सहमत नहीं हुये थे। पर यह कहना गलत है। लेकिन आज जो हो रहा है उसमें पत्नी खुश है इसलिए कि बच्चे खुश हैं, पति दुखी है इसलिये कि उसकी गरीबी की भरपाई की जा रही है। वह सोचता है यह धन का प्रदर्शन है, यह अधाये लोगों की दुनिया है, जिसमें उसे अकेले छोड़ दिया गया है। इस तरह के प्रदर्शन में उसका दम घुट रहा है। उसे दुख इस बात का भी है कि ऐसे निर्णायक समय में निर्मला ने उसका साथ नहीं दिया। सालगिरह वह मनाना नहीं चाहता था न कभी इसके पहले मनाया ही था। पर बच्चों के आगे एक न चल सकी। वह उसमें जिसे वह मूर्खता मानता था, आखिरकार फंस ही गया। यहां तक कि इस मूर्खता से निर्मला ने भी उसे नहीं बचाया। वह चाहती तो उसे बचा सकती थी, क्योंकि अगर वह मना कर देती तो बच्चे शायद मान ही जाते।बच्चे मान जाते यानी दोनों के मना करने पर, एक के कहने पर नहीं। पर पत्नी ने साथ नहीं दिया। बुढ़ापे में स्त्रियां ज्यादा समझदार हो जाती हैं, वे अपने नाती-पोतों में इस प्रकार खो जाती हैं कि उनका सब-कुछ परिवार की इच्छाओं में ही सिमटकर रह जाता है इसलिये निर्मला बच्चों का विरोध न कर प्रसन्न भाव से उनका समर्थन कर रही है। वह विनय से नाराज होकर कहती है 'तुम बच्चों के दिये हुये सुख को स्वीकार नहीं कर रहे हो।

मुझे इसमें शक है कि जो बात निर्मला की समझ में आ रही है वह विनय की समझ में नहीं आ रही होगी। विनय भी अच्छी तरह समझ रहा है, वह बच्चों की भावना से भी अनभिज्ञ नहीं है और न ही निर्मला के मन से अपरिचित ही। पर उसकी अपनी मन:स्थिति है, उसने जिस प्रकार की जिंदगी जी है, उसमें दिखावे को कभी कोई जगह नहीं रही। कितना भी भ्रष्टाचार अपनी जड़ें जमा ले और कितना भी लोग कहते रहें कि इस देश में भ्रष्टाचार अब मुद्दा नहीं  रहा फिर भी विनय जैसे लोग हैं जिनके लिये वे मुद्दे अब भी जीवित हैं, जिन्हें धन की अंधी दौड़ में लोगों ने उपेक्षित कर दिया है। यदि ये मुद्दे नहीं होते तो अन्ना हजारे द्वारा रामलीला मैदान में किये गए भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन की भेंट कांग्रेस नहीं चढ़ती और न ये सरकार आती जो सामाजिक सहिष्णुता में रोज पलीता लगा रही है। सामाजिक जीवन में कुछ चीजें दब जाती हैं या दबा दी जाती हैं लेकिन उनकी अंत-सलिला बहती रहती है और अवसर पाकर वह स्वत: बाहर आ जाती है। दानी जी ने विनय के चरित्र को इस प्रकार गढ़ा है कि वह नैतिकता पर व्याख्यान नहीं देता बल्कि उसका पालन करता है। अपनी नौकरी के दौरान ऐसे कई अवसर आये जिनमें वह स्थितियों के अनुसार समझौता कर सकता था लेकिन समझौता करना तो दूर उसने ऐसा सोचा भी नहीं। निर्मला अपने ही पड़ौस की एक स्त्री की घटना के बारे में बताती हुई प्रसन्न भाव से कहती है 'आज वह तुम्हारे आफिस गई थी... बल्कि उसने तुमसे ही अपना कोई काम कराया... और आखिर में शायद तुम्हें कुछ देना चाहा तो तुमने साफ इंकार कर दिया... वह बहुत आश्चर्य कर रही थी कि आज के समय में भी लोग ईमानदार हैं।उपन्यास के इस पाठ पर थोड़ा ठहरकर विचार करें तो यह सामान्य घटना नहीं है। एक तो पड़ोस की महिला कह रही है, जिसे विनय नहीं जानते थे, दूसरे, किसी और से नहीं उनकी पत्नी से कह रही थी। पुराने शहरों के मुहल्ले में अपनी छवि पर लोगों का विशेष ध्यान होता था। बड़े से बड़ा गुंडा और लुच्चा भी अपने मुहल्ले में संत की तरह रहता था ताकि उसकी छवि बनी रहे, इसमें दो लाभ होते थे एक तो मुहल्ले के लोग उसका साथ देते थे तथा दूसरे, उसके बच्चे और उसकी पत्नी यह नहीं जान पाती थी कि उनका पिता या उसका पति किस प्रकार की गतिविधियों में शामिल है। दानी जी ने बड़ी समझदारी से पहले ही पत्नी से कहलवा दिया कि उस औरत को विनय नहीं जानता था। इसका मतलब पत्नी, पड़ौस और मुहल्ले में विनय की छवि एक ईमानदार आदमी की निर्मित हो चुकी थी। यह निर्मिति सायास नहीं है, यह स्वभावगत है इसलिये और अधिक महत्वपूर्ण है।

विनय की ईमानदार छवि एक दिन में निर्मित नहीं हो गई बल्कि यह लगातार ईमानदार बने रहने के कारण हुई है। मध्यवर्ग अपनी आय से अधिक पा लेने की हवस के कारण बेईमान बनता है, उसे मालूम होता है कि उसकी आय बहुत सीमित है इसलिये खर्चे भी उसी अनुपात में होने चाहिए। लेकिन कई बार वह ऐसा करता नहीं। वह चाहता है कि बड़े लोगों की तरह आराम और विलास का जीवन जिये, जो उसके लिये संभव नहीं होता इसलिए वह रिश्वत लेता है और फिर तरह-तरह के गलत कामों में संलिप्त रहता है। विनय शुरु से ऐसा नहीं रहा 'नौकरी के एकदम शुरुआती दौर में उसे पता नहीं चला या संभवत: वह उस दौर में ऐसी सीटों पर बैठकर काम करता रहा जहां ईमानदार बने रहने न रहने से किसी को कोई फर्क नहीं पड़ता। या फिर वे ऐसे काम नहीं थे जिसमें पब्लिक डीलिंग करनी पड़ती है और वहीं पता चलता है कि आपकी नीयत कैसी है? अब तो खैर वह वरिष्ठ कर्मचारियों की गिनती में आता है और पब्लिक डीलिंग जिन सीटों में होती है, उसे अनिवार्य रुप से दी जाती हैं। पर प्रबंधन उससे नाखुश ही रहा आता है इसके अलावा साथ के कर्मचारी भी। प्रबंधन नाखुशी के पीछे छिपे कारणों को जाहिर नहीं करता परंतु साथ के कर्मचारी बड़ी उद्दंडता से यूं जाहिर करते हैं जिसमें यह नहीं दिखता कि तीर किस ओर चला पर जख्म उसे ही लगते हैं।ईमानदार आदमी तीन तरफ से पिसता है- घर, कार्यालय-सहयोगी और प्रबंधन। घर से विनय निश्चिंत है, उसकी पत्नी ने कम आय होने का न कभी उलाहना दिया और न कभी झगड़ा ही किया। वह जानती है कि उसका पति सीधे रास्ते पर चलने वाला आदमी है इसलिये अतिरिक्त साधन जुटाना इसके लिये संभव नहीं है। निर्मला की समझदारी से घर चल रहा है और सीमित आमदनी में चल रहा है। कई बार आर्थिक संकट घर को तबाह कर देते हैं, मध्यवर्ग की पढ़ी-लिखी लड़कियों के स्वप्न इतने रंगीन होते हैं कि उनको पूरा करना विनय जैसे आदमी के लिये संभव नहीं होता। घर के झगड़े न केवल पति को संकट में डालते हैं अपितु परिवार को भी तबाह करते हैं। लेकिन कार्यालय का क्या किया जाये जो ईमानदार सहयोगी को बर्दाश्त नहीं करता। विनय जैसे आदमियों से सबको शिकायत रहती है, जो रिश्वत ले रहा है वह उससे अधिक दुखी रहता है। विनय किसी से कुछ नहीं कहता फिर भी सहयोगी उसकी मजाक उड़ाते हैं 'यहां ईमानदारों की भी कमी नहीं है... राजा हरिश्चंद्र का नाम सुना है आपने?... उनके वंशज भी यहां हैं, उन्हीं से अपना काम करा लो आप।कहना न होगा कि राजा हरिश्चंद्र बनने का दावा विनय नें कभी नहीं किया फिर भी उसकी मजाक उड़ाने के लिये इस प्रकार के वाक्य बोले जाते हैं, जिन्हें वह चुप होकर सहन करता है। कहने को उसके पास बहुत सी बातें हैं लेकिन वह जानता है कि ऐसे लोगों से लड़कर वह यहां नौकरी नहीं कर सकता। अब कार्यालयों में दिक्कत यह होने लगी है कि ईमानदार आदमी को धारा से कटा हुआ मानकर उसे अपनी  जमात से अलग कर दिया जाता है, उसकी उपेक्षा की जाती है, उस पर व्यंग्य किये जाते हैं और यह माना जाने लगता है जैसे वह इस दुनिया का आदमी न होकर किसी और दुनिया से उतरा ऐसा आदमी है जो अपने समय को नहीं पहचानता है। और प्रबंधन इसलिये नाराज है कि अधिकारियों ने अपने भ्रष्टाचार को छुपाने के लिये कर्मचारियों को भी खुली छूट दे रखी है जिसका उपयोग विनय को छोड़कर सारे कर्मचारी कर रहे हैं। ईमानदार आदमी कुछ न भी कहे तब भी उसकी उपस्थिति बेईमानों को खलती है, उनके लिये हमेशा एक खतरा बनी रहती है।

उपन्यास की कथा विनय को ईमानदार सिद्ध करने के लिये नहीं कही कई है बल्कि एक मध्यवर्ग के ऐसे पात्र के जीवन को रेखांकित करने के लिये कथा को बुना गया है, जो पात्र अपने बने बनाये रास्ते पर चलकर तमाम मुसीबतों को पारकर जीवन के अंतिम पड़ाव पर पहुंचता है। विनय जैसे कितने आदमी बहुत ही सामान्य जीवन में विश्वास रखते हुये आगे बढ़ते जाते हैं। यह कहना गलत न होगा कि दुनिया में अच्छे आदमी अधिक हैं, बुरे कम फिर भी बुरे आदमी समाज को अधिक प्रभावित करते हैं और अच्छे चुप रहकर अपना काम करते रहते हैं। यदि बुरे लोगों की तादाद अधिक हो जाये तो दुनिया रहने लायक ही नहीं बचेगी। दुनिया इसलिये रहने लायक है कि इसे अच्छा बनाये रखने की कोशिश करने वालों की संख्या अधिक है। अधिकतर लोग धर्म, नैतिकता या परिवार की इज्जत को बचाये रखने के लिये गलत कामों से बचते हैं। कई बार ऐसे लोगों को भीरु भी कहा जाता है लेकिन यह भीरुता उन्हें अच्छा आदमी बनाये रखने में सहायता करती है। विनय कुछ-कुछ ऐसा ही नैतिक मूल्यों पर विश्वास करने वाला आदमी है, इसलिए चुपचाप अपने जीवन मूल्यों को जीवनचर्या का आधार बनाकर जीता है। इसका उदाहरण देने की आवश्यकता हो तो यह कि उसे अतिरिक्त रुपयों की हमेशा आवश्यकता रहती है लेकिन वह अतिरिक्त आय के सारे गलत साधनों का परित्याग करता है, मन के किसी कोने में कभी भी यह इच्छा नहीं जगती कि कुछ इधर-उधर से रिश्वत लेकर देखा जाये। दानी जी ने तीन जगहों पर उसकी दृढ़ इच्छा शक्ति को रेखांकित किया है। मां उसे समझाते हुए कहती है 'कोई स्वेच्छा से तुम्हें कुछ पैसे यदि दे जाता है तो वह पैसा अवैध नहीं होता... जमाने के संग चलना सीखना चाहिए तुम्हें।यह मां है जो अपने बेटे को जमाने के संग चलना सीखने के लिये कह रही है। जमाने के संग चलने का मतलब विनय जानता है, वह अपने सहयोगियों, अधिकारियों और तमाम मित्रों को जमाने के संग चलते हुये देख रहा है, वह यह भी देख रहा है कि लोग किस तरह गलत कामों से आगे बढ़ रहे हैं पर उसका मन ऐसा करने को तैयार नहीं होता।

दानी जी इस विसंगति को विशेषरुप से उभारते हैं कि संस्कारगत घरों में मां गलत काम न करने की नसीहत अपने बच्चों को देती है लेकिन यहां उल्टा है। मां अपने बेटे को खुद समझा रही है पर बेटा है कि मानने को तैयार ही नहीं है, उसने अपने पिता को एक टूटी-सी साइकिल पर चलते देखा था, पिता के जाने के बाद मां का संघर्ष और बचपन के अभावों में विनय को गलत मार्ग पर चलने के लिये प्रेरित नहीं किया बल्कि रोका था। कई बार बचपन के अभावों से मुक्ति के लिये लोग ऐसे धंधों में पड़ जाते हैं कि जीवन चकाचौंध से भर जाता है पर विनय ऐसा नहीं करता,नहीं करने के पीछे उसकी अपनी इच्छा शक्ति थी न कि कोई बाहरी दबाव। एक जगह पर दानी जी ने विनय की खुशी के क्षणों को रेखांकित किया है, जिन्हें इसलिये जानना जरूरी है कि इन्हीं क्षणों में उसकी अपनी छोटी-छोटी खुशियों का संसार प्रगट होता है 'उस दिन आफिस का लगभग चार-साढ़े चार किलोमीटर का रास्ता निर्विघ्न कट गया। उसकी लूना एकदम स्मूथ चली उस रोज। धूल धूसरित सड़क और कान फोडू गाडिय़ों और उनके हान्र्स की तेज आवाजों ने उसे बिल्कुल असहज नहीं किया। कोई चिड़चिड़ाहट नहीं हुई उसे। आफिस का टाइम जो हर रोज रेंगता हुआ लगता था उस दिन तेजी से दौड़ा। उसने सहकर्मियों के तंज और व्यंग्यों और मजाकों को बिल्कुल सहजता से लिया। उन पर कोई बहस नहीं हुई। पता नहीं किसी उपभोक्ता ने भी उसे गलत काम के लिये नहीं उकसाया। हर रोज मिलने वाली रिश्वत का प्रस्ताव भी किसी की ओर से नहीं आया जो उसे विचलित कर देता था।उद्धरण की आरंभिक पंक्तियों में दैनंदिन जीवन का वर्णन है, जिनसे वह परेशान हो उठता था। वह इसलिए प्रसन्न है कि आज उसे रिश्वत का कोई प्रस्ताव नहीं मिला, जिससे वह अक्सर विचलित हो उठता था। कहना न होगा कि उन्यासकार इस तथ्य की ओर विशेषरूप से ध्यान आकृष्ट करना चाहते हैं कि जो रिश्वत आंतरिक और बाह्य रूप से सहयोगी कर्मचारियों को प्रसन्न करती है, वही रिश्वत विनय को विचलित करती है, विचलन अंदर से होता है। विचलित आदमी बाहर से कितना ही चुप रहे पर अंदर से वह दुखी होता है। दानी जी ने विनय की ईमानदारी का एक और उदाहरण दिया है जो महत्वपूर्ण है। उसी के साथी उसे समझाते हुए कहते हैं 'सीधी-सी बात है, मकान बनाना है तो खालिस तनखा से काम नहीं चलेगा... कमाई-धमाई शुरू करो।’ 'यानी घूसखोरी? विनय ने किंचित चिढ़ सहित पूछा। 'तैश में आने की जरूरत नहीं है, समय की नजाकत को समझो... इस वक्त खुली छूट है, जैसे भी हो कमाओ-धमाओ। उसकी पीठ थपथपाते हुये उपाध्याय ने कहा और आफिस के अंदर दाखिल हो गया। विनय वहीं ठिठका-सा खड़ा रह गया पर उपाध्याय की कही आखिरी बात ने उसके अंदर एक बेचैनी भर दी। इसमें कोई शक नहीं कि उस वक्त आफिस में घूसखोरी की खुली छूट थी। दो महीने पहले ऐसा अधिकारी आया था जिसकी काफी ऊपर तक राजनीति में पहुंच थी और कहते थे कि वह काफी पैसे देने के बाद इस पद पर आया था। इसलिये उसकी बेईमानी का आत्मविश्वास बेहद बढ़ा हुआ था। परोक्ष रूप से सारे कर्मचारी यह जानते थे कि इस सिलसिले में उन्हें खुली छूट है और सभी खुशी सहित ऊपरी आमदनी में मनोयोग से जुटे हुये थे।

विनय के लिये यह निर्णायक समय था, रुपयों की उसे सख्त जरूरत थी, उसे मकान खरीदना था, पर जीवन भर की नैतिकता उसका पीछा नहीं छोड़ रही थी। हर आदमी के जीवन में वह क्षण महत्वपूर्ण होता है जब उसके पतन के दरवाजे खुले हों और वह अपने निर्णय पर दृढ़ रहते हुये उन दरवाजों के अंदर जाने से मना कर दे। विनय भी वही करता है 'वह आफिस में अपनी टेबिल पर जाकर बैठने के बाद भी बहुत देर तक विचार करता रहा। उसका उद्वेलन शांत नहीं हो रहा था। उसने द्वंद्व के दोनों पलड़ों को किसी तरह अवसरवादी नजरिये से संतुलित करने की भी कोशिश की पर उससे सधा नहीं और वह ईमानदारी और नैतिकता की ओर ही झुक गया। उसने सोचा छोटा-मोटा ही सही पर अपना मकान बेईमानी की कमाई से नहीं बनायेगा।यह उसका दृढ़ निश्चय था, जो किसी भी परिस्थिति में झुकने को तैयार नहीं था। उपन्यास में दानी जी ने इसी विडंबना को लगभग सौ पृष्ठों में व्याख्यायित किया है। डेढ़ सौ पृष्ठ के उपन्यास में सौ पृष्ठ विनय की इस दृढ़ता से उपजे हालात और उसके दैनंदिन परिणामों को उजागर करते हैं। यह न छोटी-सी बात है और न संयोग ही कि जो विनय धर्म और उसके पाखंडों से कोसों दूर हो, वही ओझा जी की इस बात को स्वीकार कर लेता है कि यह पुश्तैनी घर उनके लिये शुभ नहीं है, इसमें उनकी बरकत नहीं है। धर्म को न मानने वाले आदमी अंदर से बहुत मजबूत होते हैं, यह मजबूती उन्हें उनका दृढ़ विचार देता है, विनय भी ऐसे ही हैं पर लगातार के अभावों ने उन्हें विचलित कर दिया है। इसी विचलन में वे नयी लाई टेबल में खर्र-खर्र की आवाज सुनते हैं और पत्नी  उन्हें समझाते हुए कहती  है 'अपने कमरे में बर्रइया ने दीवार पर अपना मिट्टी का घर बनाया है... और आंगन की दीवार पर पीपल उग आया है... तुमने देखा नहीं।ये सब टेबल की खर्र खर्र की आवाज से अतिरिक्त चीजें हैं, जो पत्नी को डरा रही हैं। पत्नी यह मानकर डर रही हैं कि ये सब संकेत घर उजडऩे के हैं। पत्नी की हताशा विनय को अंदर तक झकझोरती है और वह महसूस करता है 'यह अकसर होता है उसके साथ कि जीवन में एक छोटी-मोटी खुशी आती है और वह उसे जी भरकर महसूस करना ही चाहता है कि ठीक उसी वक्त एक नया तनाव जन्म ले लेता है और खुशी का एहसास विलुप्त हो जाता है। वह कभी नहीं समझ पाता कि यह परिस्थित उसकी मानसिक कमजोरियों की वजह से पैदा होती है या सभी के साथ ऐसा होता है। शायद नहीं होता क्योंकि उसके समक्ष लोग शिकायत नहीं करते। शिकायतें उनके चेहरों में दिखती भी नहीं। पर उसके साथ जो भी होता है वह अभूतपूर्व और विलक्षण होता है। यह खर्र खर्र खर्र भी विलक्षण है। वह इसलिये कि इस आवाज का कारण पता नहीं चल सका। बहुत कोशिशों के बाद भी नहीं। इस बीच उसने कई बार सोचा कि उस टेबिल को फेंक दे। लेकिन अगर उसे फेंक दे तो फिर निर्मला अपना काम कैसे करेगी? फिर बड़ी मेहनत और ईमानदारी के पैसे से खरीदी वह टेबिल उन लोगों के लिए कितनी महत्वपूर्ण है इसे सब नहीं समझ सकते। महत्वपूर्ण इसलिये थी कि उसके आने से इस घर की आमदनी में दो-तीन रुपये प्रतिदिन ही सही पर वृद्धि तो हुई है। उसे कैसे फेंक दे या नष्ट कर दे। काफी सोचने के बाद भी कुछ निष्कर्ष नहीं निकाल सका विनय। सायास निष्कर्ष निकालने के लिये क्षमता की जरूरत होती है और क्षमताएं कई तरह की होती हैं जिनसे निष्कर्ष निकल सकते हैं। वे क्षमताएं क्या हैं यह समझना अनेक तरह की मुसीबतों से घिरे विनय जैसे किसी व्यक्ति के लिए तत्काल संभव नहीं होता।

टेबिल घर में अतिरिक्त आय का साधन है और मन ने मान लिया है कि वही परेशानियों की जड़ है। अतिरिक्त आय भौतिक है, जो न केवल दिखाई दे रही है अपितु घर की छोटी-मोटी खरीददारियों में काम भी आ रही है पर टेबिल पर पीकू मशीन रखी जाती है उसे परेशानियों की जड़ मान लेना तो काल्पनिक है, जो रूढिय़ों के प्रभाव में जल्दी आ जाता है। लेकिन विनय जैसा आदमी जो अपने दृढ़ निश्चय के बल पर कार्यालय में रिश्वत नहीं लेता तथा किसी धार्मिक पाखंड में विश्वास नहीं करता वही आदमी परिस्थितियों से घिर कर अपनी क्षमताओं का आकलन करने लगता है और खुद को क्षमताहीन तो नहीं पर कमजोर मानकर निर्मला के कथन को सही मान लेता है। यह ऊहापोह की स्थिति है, जिसमें समझदार व्यक्ति भी अनिर्णय का शिकार होते हैं। मजेदार बात यह है कि जब-तक घर में अतिरिक्त आय के लिये निर्मला ने पीकू का काम करने और कुछ आय बढ़ाने के लिये टेबिल नहीं मंगवाई थी, तब-तक घर में सब कुछ शांत था न बर्रइया ने दीवार पर घर बनाया था और न आंगन की दीवार पर पीपल उगा था। यह परिवर्तन घर में टेबिल आने और अतिरिक्त आय का ईमानदार साधन होने के बाद ही हुआ था। यदि यह सब नहीं हुआ होता तो संभव है घर को अशुभ भी नहीं माना जाता और नये घर की तलाश भी नहीं होती। इन सब परिवर्तनों के मूल में मध्यवर्गीय मन है जो अपनी यथास्थिति से ऊबकर कुछ नया करना चाहता है और समय आने पर या किसी के कहने पर उसकी हिम्मत और बढ़ जाती है। पुराने और पुश्तैनी घर को मां के रहते हुये इस प्रकार बेचना सामान्य घटना नहीं है, मां के अंदर का असुरक्षा बोध उसमें लगातार बाधा बनता रहा, तीनों बहनों, बहनोइयों और मामा इत्यादि सभी निकट के रिश्तेदारों ने नये मकान की योजना को रोकना भी चाहा, मां भी कई बार भावुक हुईं, रोईं लेकिन निर्मला और विनय ने यह मान लिया था कि यह घर अशुभ है इसलिए बदलना जरूरी है। पुराने घर की अनगिनत परेशानियां तो पहले भी थीं और बनी भी रहतीं लेकिन अशुभ को मध्यवर्गीय मन पचा नहीं पाता, उसे लगने लगता है कि उसके विकास और गरीबी के मूल में मकान का अशुभ होना ही है इसलिये सारी बाधाओं को जिद के साथ पूरा किया गया।

उपन्यास में यह कथा एक सामान्य व्यक्ति के जीवन की सहज गति के साथ आई है, जो एक परिवार का सघन चित्र बनाती हैं। कोई यह भी कह सकता है कि हजारों-लाखों घरों में इससे अधिक संघर्ष और संकट होते हैं फिर यह कथा महत्वपूर्ण क्यों है? कोई कथा महत्वपूर्ण नहीं होती, महत्वपूर्ण यह होता है कि उस कथा का घनत्व कितना है, वह कितने लोगों को प्रभावित करती है और कितने लोगों को विनय जैसे पात्र के दुख में दुखी करती है? यह किसी फिल्म की कथा नहीं बल्कि उपन्यास की कथा है, जिसमें चमत्कार नहीं है बल्कि सहज गति है। हमारे सामाजिक जीवन में अधिकांश परिवारों में ऐसा कुछ घटित नहीं होता कि लोग चौंक जायें। चौंक जाने वाली घटनाएं या तो फिल्मों में होती हैं या उन लोगों के यहां जो सारी नैतिकताओं को ताक पर रखकर चमत्कारिक जीवन जीते हैं। होने को तो कोई गेरुए कपड़े पहनने वाला या वाली कोई साधु या साध्वी मुख्यमंत्री या मंत्री बन जाता है और तड़ीपार लोग देश के भाग्य विधाता बनकर दूसरों का भाग्य बदलने का भरोसा देते हुए घूमते रहते हैं। लेकिन इस प्रकार की घटनाएं अपवाद हैं और अपवाद जीवन संघर्षों की कथा के उदाहरण नहीं बन सकते। इसलिये दानी जी ने विनय जैसे ईमानदार पात्र के जीवन संघर्षों को जिस प्रकार बुना है, उसे पढ़कर विनय के प्रति पाठक के मन में सहानुभूति उपजती है। विनय की पीड़ा गरीबी नहीं है, गरीबी के दिनों को तो पति और पत्नी ने बड़ी आत्मीयता के साथ जिया था। पीड़ा इस परिवर्तन में है, जिसका स्वप्न वह बहुत दिनों से देखा करता था। उपन्यास के प्रारंभ में ही उसकी इस मन:स्थिति का चित्रण इस प्रकार किया गया है 'वह अपने घर की पोर्च के आगे खुली जगह में गुनगुनी धूप में नहा रहा है। धूप वैसी ही है जैसे चालीस साल पहले थी। पर उसका आनंद पता नहीं कहां चला गया है? क्या किसी भी चीज के आस्वाद से वह अघा गया है? पोर्च में दो कारें खड़ी हैं जिन्हें खुद कभी नहीं चलाता। उन्हें ड्राइवर चलाते हैं। पीछे लौटकर नहीं देखो तो पीछे का कुछ दिखता नहीं है। पर अब के समय की रफ्तार इतनी अधिक है कि हर समय डगमगा जाने का खतरा सर पर मंडराता रहता है। जीवन खतरे में क्योंकर है? जबकि जीवन को बचाने के लिये सब कुछ है। वह सोचता है कि क्यों इस उम्र में किसी भी तरह की आध्यात्मिकता उसे आकर्षित नहीं करती, शायद वह जीने का सहारा बन जाती। बेचैनियां उसका पीछा नहीं छोड़तीं। आध्यात्मिकता में डूबने से किनारा नहीं मिलता। बेचैनियां न हों तो जीवन खारिज हो जाता है। अब वह इसी तरह के द्वंद्वों में जी रहा है। उसके इस समय के परिदृश्य में खाली जगह नहीं है, नीरवता नहीं है। शोर है और इन कारणों से एकचित्त हो पाना कठिन है। पिछले अनेकानेक वर्षों में सब कुछ इतनी तेजी से पास आता चला गया कि उन्हें देखते-देखते दूर का कुछ दिखाई देना बंद हो गया है। सब कुछ को पास देखने के लिए बहुत-बहुत साल पहले एक दूर दृष्टि थी जो अब जाने कहां खो गई। अब कैसे आगे देखें समझ नहीं आता। वह समझ नहीं पाता कि यह अभाव केवल उसके भीतर है या सब लोग इससे ग्रस्त हैं। निगाहें सब तरह डाले तो सब कुछ भरा-भरा है, कोई अभाव नहीं है लेकिन कोई तो रिक्तता है जो चैन नहीं लेने देती। क्या है? जो दिखता नहीं।

'जो दिखता नहींकेवल उपन्यास का शीर्षक ही नहीं है बल्कि यह एक प्रश्न है जो पूरे उपन्यास को उद्वेलित करता रहता है कि क्या है जो दिखता नहीं फिर भी हर जगह उपस्थित है। यह विनय की मानसिकता से जुड़ा प्रश्न है। इसे दानी जी ने पूरे उपन्यास में समझाने की कोशिश की है कि एक व्यक्ति जो अभावों में पलकर बड़ा हुआ है, जिसने दस वर्ष की कम उम्र में पिता को खो दिया, जिसने मां को अकेले संघर्ष करते हुए देखा है, जो अपनी सीमित आय में कतर-ब्योंत करके जीवन जीता रहा है, उस आदमी के बच्चे पैसे वाले हो जायें तो कोई बात नहीं पर वे सारी नैतिकताएं भूल कर असामान्य और असामाजिक जीवन जीने लगें तो यह ऊपरी दिखावे की दुनिया का कोई मायने नहीं रह जाता? वह टूटी-सी साइकिल फिर पुरानी लूना और पुराने मकान को भूला नहीं है, पर दुनिया की नजर में वह बच्चों के कारण बड़ा आदमी बन गया है। उसका छोटा बेटा अमिताभ और बेटी प्रियंका लिव इन में हैं, जिनका अब ब्रेक हो गया है और वे नशे की शरण में चल गये हैं, वे दोनों न शादी कर रहे हैं और न विनय की आशाओं के अनुरूप जीवन जी रहे हैं। और सबसे बड़ी पीड़ा कि वह उनसे कुछ कह सकने की स्थिति में नहीं है, चुप होकर सब कुछ सह सकने की पीड़ा विनय के लिए असह्य है। दानी जी लिखते हैं 'एक पल के लिये वह आत्मदयाग्रस्त भी हो गया कि हम मां बाप की तरह अपने बच्चों को आदेश क्यों नहीं दे सकते और हमारे बच्चे हमारी तरह उन आदेशों का पालन क्यों नहीं कर सकते? हमारी अहमियत इस समय में क्या कुछ नहीं रही है?ये कैसा समय है कि बच्चों में भविष्य का सोचने की क्षमता नहीं है। या फिर हम लोग ही इतने कम समय में बहुत पुराने हो गये हैं? क्या हमारे पास कोई दूरदृष्टि बची नहीं। हमारे अस्तित्व को इस तरह क्यों नकारा जा रहा है? और क्या हो गया है हमें कि टकराने की हिम्मत नहीं बची या फिर इच्छा नहीं रही।कहना न होगा कि इससे पहले विनय आत्मदयाग्रस्त कभी नहीं हुआ, कभी उसके मन में यह विचार नहीं आया कि उसके अंदर टकराने की हिम्मत समाप्त हो गई है, वह अब-तक विपरीत परिस्थितियों में भी हिम्मत के साथ खड़ा रहा, घुटने टेकना उसकी फितरत में ही नहीं था। पर लोक में कहा जाता है कि अपने बच्चों से हर पिता हारता है, इस हारने के पीछे लोकलाज मुख्य कारण है। घर में हारकर भी कोशिश की जाती है कि बाहर इज्जत बची रहे, यह इज्जत या लोकलाज विनय जैसे व्यक्ति को मथती रहती है, वह किसे बताये कि सब कुछ होने के बाद भी ऐसा लगता है जैसे कुछ नहीं है पर जो नहीं है वह किसी को दिखता भी तो नहीं है।

विनय की अपनी जीवन स्थितियों ने उसे जो समझाया था, वह सब अब गलत लगने लगता है, बुढ़ापे में अंग ही शिथिल नहीं होते बल्कि मन भी आशंकाग्रस्त होकर कमजोर हो जाता है। निर्मला सोचती है 'उसने या विनय ने खुद को अपने आपको इतना कमजोर क्यों कर लिया है कि हर वक्त आशंकाओं में जीना पड़ रहा है।वह पति को समझाती है जैसे हर पत्नी कठिन और विपरीत समय में पति की हिम्मत बनती हैं। स्त्रियां भविष्य के आगत को भांप लेती हैं इसलिए ऐसे समय में वे अधिक उचित निर्णय लेती हैं, भावुक होते हुए भी कठिन समय में उनकी भावुकता दूर हो जाती है और साहसी व्यक्ति अधिक भावुक हो जाता है। विनय की भावुकता उसे उत्तेजित करती है, उसे लगता है वह एक पिता है, उसने अपनी सारी जिम्मेदारियां जिस ईमानदारी से निभाई हैं, उनके बच्चे उनका सम्मान करें पर निर्मला उसे समझाते हुये कहती है 'तुम्हारी इस तरह की प्रतिक्रिया से बच्चे हमसे दूर हो जायेंगे... वो हम पर आश्रित नहीं हैं कि तुम उन पर अपनी चला सको।संबंधों की यह नयी व्याख्या थी, जो विनय ने इससे पहले नहीं सुनी थी इसलिये वह पूछता है 'क्या आर्थिक निर्भरता ही रिश्तों को कायम रख सकती है? जीवन में नैसर्गिक प्रेम और उसकी नमी या उसकी गर्मी का क्या अब महत्व नहीं रह गया है। क्या है जो इन्हें खारिज कर रहा है? गलत आचरणों को कौन लोग संरक्षित कर रहे हैं?’ सवाल अमिताभ या प्रियंका का नहीं है बल्कि यह सवाल हर मध्यवर्गीय परिवार को अंदर से झिंझोड़ रहा है कि गलत आचरण जीवन के मानक कब से बन गये और यही हमारे जीवन के मानक हैं तो विनय जैसे लोगों ने जो जीवन जिया है उसके तो अब कोई मायने ही नहीं रह गये। यह व्यर्थता बोध उपन्यास के नायक विनय को कमजोर करता है। जो आदमी अपनी गरीबी से कभी नहीं हारा, वह आर्थिक समृद्धि और अनैतिक आचरणों के सामने असहाय महसूस कर रहा है।

जो दिख नहीं रहा वह यही दुख है जिसका निराकरण अब इस चकाचौंध में विनय के बस का नहीं है।

  

संपर्क:- मो. 09421101128, 08668898600, वर्धा

 


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