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जनवरी - 2019

कई तरह से कहा जा सकता है सच

प्रियदर्शन

मूल्यांकन

 

कुंवर नारायण

 

 

 

 

 

एक कवि के रूप में कुंवर नारायण की कीर्ति इतनी प्रबल रही है कि अक्सर इस बात पर ध्यान नहीं जाता कि वे एक विलक्षण गद्यकार भी रहे हैं- उन्होंने कहानियां भी लिखी हैं। बेशक, यह दुर्घटना हिंदी के कई और लेखकों के साथ हुई है कि उनकी कोई एक विधा, या कोई एक कृति इतनी इतनी प्रसिद्ध हो गई कि इस प्रसिद्धि के आवरण में उनकी बाकी कृतियां या विधाएं ओझल हो गईं- लेकिन कुंवर नारायण के निकट इस अनदेखी का एक बड़ा मतलब है। हिंदी के जाने-पहचाने कथा-संसार में उनकी कहानियां जो विचलन पैदा करती हैं, उसे ठीक से पढ़े जाने की ज़रूरत है। साल 2018 में आया कुंवर नारायण की कहानियों का नया संग्रह 'बेचैन पत्तों का कोरसयह अवसर सुलभ कराता है।

इस संग्रह से गुज़रते हुए यह समझ में आता है कि कुंवर नारायण ने इस विधा को अपनी तरह से साधा है। हिंदी के कथा-संसार में उनका 'कालतय करने वाले आलोचक संभवत: निराश होंगे, लेकिन वे अप्रतिम ढंग से समकालीन हैं- इतने ज़्यादा कि ये कहानियां बिल्कुल मौजूदा इतिहास और घटना-प्रसंगों तक से जुड़ती प्रतीत होती हैं।

निस्संदेह कुंवरनाराण के कथ्य का जो वैशिष्ट्य है, वह उनके शिल्प के अनूठेपन से भी आता है। हिंदी कहानी मूलत: यथार्थवाद के शिल्प में बंधी कहानी रही है। यह फॉर्म शायद हमें पश्चिमी यूरोप से मिला है जहां कहानियों के लिए यथार्थ को एक कसौटी बना दिया गया। कहने का आशय यह नहीं कि यह कसौटी उचित नहीं है- कहानियां अगर यथार्थ से न बंधी हों तो उनके कहानी रहने का कोई औचित्य नहीं रह जाता- वे कहानियां भी नहीं रह जातीं। अंतत: हर कहानी- चाहे वह परियों, राक्षसों या तिलिस्मी जादूगरों की क्यों न हो- किसी न किसी यथार्थ से जुड़ती हैं और तब हमारी कहानी बन पाती हैं। लेकिन यथार्थवाद को कहानी की इकलौती कसौटी मान कर चलने की आदत हमारे भीतर कुछ इतनी बद्धमूल हो चुकी है कि हम यह भी भूल जाते हैं कि दुनिया में कथा की विरासत का बड़ा हिस्सा ऐसा है जो अयथार्थवादी कथा-धारा से निकला है। यूरोप के समानांतर एशियाई या लातीन अमेरिकी देशों की कहानियां यथार्थवाद के इस पारंपरिक शिल्प को तोड़कर कहीं ज़्यादा यथार्थपरक वृत्तांत रचती नज़र आई हैं। हिंदी के कथा-संसार में भी इस यथार्थवाद से अलग लेखन की एक कुछ हल्की लेकिन मज़बूत धारा रही है।हज़ारी प्रसाद द्विवेदी के उपन्यास इस यथार्थवाद का खांचा तोड़ते रहे हैं। विजयदान देथा की कहानियां राजस्थान के लोक संसार से अपना रंग लेकर इस पूरी यथार्थवादी धारा के समानांतर खड़ी हैं। ऐसे उदाहरण और भी हैं। यथार्थ का अतिक्रमण करके, उसके पार जाकर उसको नए सिरे से देखने का यह कौशल एक बड़े चौकन्नेपन और दृष्टिकोण की मांग करता है।

कुंवर नारायण की कहानियां भी यथार्थवाद के इस शिल्प को तोड़ती हैं। वे हिंदी के कथा आलोचकों के लिए इस लिहाज से एक असुविधाजनक उपस्थिति हैं कि वे किसी कालखंड में नहीं समाते। लेकिन उनका इस शिल्प को तोडऩा- अपना एक नया शिल्प बनाना- इस कथा-धारा से अलग दिखने या रचने की कोशिश नहीं है, उनके लेखन और चिंतन का स्वाभाविक प्रतिफलन है। वे जीवन और समाज और रचनात्मकता के पूरे कार्यव्यापार को लेकर इतने चौकन्ने लेखक हैं कि यह समझते उनको देर नहीं लगती कि जो बात वे कविता में अधूरे ढंग या संकेतों में कह रहे हैं, उसे गद्य में पूरी तरह कहने के लिए भी कहानी का पारंपरिक ढांचा पर्याप्त नहीं होगा। इस संग्रह के प्राक्कथन में वे कहते हैं, 'आज जो कहानी लिखी जा रही है, उसका पारंपरिक रूप बदल रहा है। गद्य की विधाओं का मिला-जुला रूप विभिन्न तरी$कों से कथा-लेखन में शामिल हो रहा है। मुझे गद्य की अधिकांश विधाओं का उद्देश्य अब एक दिशात्मक न होकर बहुआयामी और बहुदिशात्मक होता लग रहा है। जिस रूप में हमारे सामने जानकारियां उपलब्ध हैं उनका एक समावेशी प्रभाव लेखन में आना स्वाभाविक है। गद्य विधा को रूढ़ अर्थों में बरतने का आग्रह मुझमें कभी नहीं रहा।

इस प्राक्कथन में और भी बातें हैं जो कहानी और गद्य की दूसरी विधाओं से उसके रिश्तों या फिर कहानी की अपनी शर्तों को समझने के लिहाज से बेहद महत्वपूर्ण हैं। लेकिन मूल बात यह है कि यह प्राक्कथन बताता है कि कुंवरनारायण कितने सचेत गद्य या कथा-लेखक रहे। वे कभी-कभी हाथ आज़मा लेने या ज़ायका बदल लेने के लिए कहानियां नहीं लिख रहे थे। कुछ था जो उनके लिए कहा जाना ज़रूरी था और जिसके लिए पारंपरिक विधाएं पर्याप्त नहीं लग रही थीं, और उसको कहने के लिए वे गद्य में आते हैं और कहानी को अपनी शर्तों पर बरतते हैं।

लेकिन वह क्या चीज़ है जिसे कुंवर नारायण के विपुल काव्य संसार के बावजूद स्पष्ट ढंग से कहा जाना बाकी है? इस पर नज़र डालें- यानी इस शिल्प की माफ्र्त हासिल कथ्य पर- तो हमें समझ में आता है कि कुंवर नारायण अपनी समग्रता में कितने बड़े कथा-लेखक और चिंतक रहे हैं।

 

इस संग्रह की पहली ही कहानी है  'सीमा रेखाएं। कहानी में कुछ नहीं है- सिवा इसके कि दो देश जब घमासान युद्ध में लगे हुए थे, तभी उनके बीच की सीमा रेखा अचानक खो गई। अब दोनों देश लडऩा छोड़कर इस सीमा रेखा को खोजने में लग जाते हैं। इतिहास-भूगोल-पुरातत्व- वे जहां भी जाते हैं, यही पाते हैं कि कहीं सीमा रेखाएं तो हैं ही नहीं। सीमा रेखा न हो तो दो देशों को अलग-अलग कैसे पहचाना जाए। नागरिक सीमा रेखा खोजने निकले हैं और एक-दूसरे के देशों में पहुंच गए हैं। यह समझ में नहीं आ रहा कि सीमा रेखा न हो तो देश कैसे होंगे, युद्ध कैसे होंगे, विकास कैसे होगा और सभ्यता कैसे आगे बढ़ेगी।

कुछ देर पहले कुंवर नारायण की जिस अप्रतिम समकालीनता की बात कही गई- यह कहानी आज के संदर्भ में जैसे उसका पूरा सुराग देती है। क्या इत्तिफाक है कि ये वे दिन हैं जब भारत और पाकिस्तान के बीच सरहदें सुलग रही हैं, दोनों देशों की राजनीति अपने-अपने ढंग से अपनी सीमाओं की हलचलों का इस्तेमाल कर रही है। कुंवर नारायण होते और यह कहानी आज छपी होती तो बहुत सारे लोग यह कहने वाले निकल जाते कि लेखक ने बिल्कुल ताज़ा राजनीतिक संदर्भ को अपना विषय बनाया है। बेशक, ऐसे सतही और सपाट राजनीतिक आशय कुंवर नारायण के यहां खोजना उनके आशयों को छोटा करना है। वस्तुत: यह कहानी क्षुद्र राष्ट्रवाद या सैन्यवाद की सीमाओं का ही नहीं, उसके मनुष्यता-विरोधी स्वरूप का भी उद्घाटन करती है। याद आता है कि ठीक सौ साल पहले- शायद 1918 में ही- जापान में गुरुवेद रवींद्रनाथ टैगोर ने राष्ट्रवाद पर तीन भाषण दिए थे और कहा था कि राष्ट्रवाद मनुष्य द्वारा बनाया गया सबसे ताकतवर एनिस्थीसिया है।

दरअसल यह कहानियां देशकाल से बंधी होते हुए भी उसके पार जाती हैं। यह स्पष्ट दिखाई पड़ता है कि कुंवर नारायण के सरोकार बिल्कुल सभ्यतामूक सरोकार हैं- वे सभ्यता के बुनियादी प्रश्न उठाते हैं- निस्संदेह वे वायवीय प्रश्न नहीं हैं जो कई बार हम कई दार्शनिक बहसों और विचारों के संदर्भ में पाते हैं- बल्कि वे ठोस ज़मीनी सवाल हैं जिन्हें कविता से ज्यादा कोई गद्य ही इतने स्पष्ट और मुखर ढंग से रख सकता है। इन कहानियों में वे अतीत में जाते हैं- इतिहास को पलटते हैं और अक्सर बहुत अनूठे ढंग से कोई नई व्याख्या, उसका कोई नया पक्ष हमारे सामने ले आते हैं। यहां हम पाते हैं कि उनकी प्रतिबद्धताएं भी बेहद स्पष्ट हैं। यह शायद हमारे समय की वैचारिक मजबूरी है कि हम हर तरह के लेखन में एक जनपक्षीय कसौटी खोजते हैं और जहां वह मिलती है, उसे श्रेष्ठ मान लेते हैं- लेकिन ऐसे किसी फैशन से आक्रांत होकर नहीं, बल्कि अपने अनुभव, अध्ययन और विचार के निचोड़ से निकले निष्कर्ष को सामने रखते हुए कुंवर नारायण जो लिखते हैं, वह अपने बुनियादी रेशों में पूरी तरह जनपक्षीय नज़र आता है। इसकी मिसाल संग्रह की दूसरी कहानी 'वृंदाहै। कहानी में अविनाश नाम के एक पात्र का खजुराहों के एक शिल्पकार से संवाद है। यह संवाद कई चरणों और कई परतों में घटित होता है। यहां बता दूं कि ऐसे संवाद कुंवर नारायण की कहानियों में इफऱात में मिलते हैं और वे इतने दिलचस्प होते हैं- इतने प्रश्न खड़े करते हुए, इतने उत्तर खोजते हुए- कि उनको पलट-पलट कर पढऩे की इच्छा होती है। बहरहाल, अविनाश और इस शिल्पकार की बातचीत में इतिहास और कला का प्रश्न भी आता है और उसकी व्याख्या का भी। शिल्पकार यह दावा करता है कि खजुराहो के एक मंदिर के शिल्प का श्रेय उसके पूर्वज शिल्पकार की जगह तत्कालीन सम्राट को दे दिया गया। उसकी जो स्मारिका पट्टी है, उस पर उसके पूर्वज का नाम लिखा है जिसे राजवंश का बताया जाता है, लेकिन वह शिल्पकार के वंश का है। इतिहास, कथा और कला के कई प्रश्नों से घूमती हुई यह कहानी जहां खत्म होती है, वहां हम इस शिल्पकार को चीखता हुआ पाते हैं- 'मैं उन अज्ञात वृंदाओं को किसी न किसी शताब्दी में स्थापित देखना चाहता हूं जिन्हें कभी एक सुल्तान की गुलामी तो कभी एक राजा की नौकरी ने सदियों से छोटी सी स्मारिका पट्टियों में कैद रखा है।

क्या यह कहने की ज़रूरत है कि इस शिल्पकार की यह घोषणा एक स्तर पर ख़ुद लेखक कुंवर नारायण की घोषणा हो सकती है?- राज्यसत्ता द्वारा स्थापित सत्य को कला के सत्य द्वारा प्रस्तुत व्याख्या से अपदस्थ करने की?

कुंवर नारायण शायद लेखक के लिए ऐसी स्पष्ट घोषणाओं को गैरज़रूरी मानते रहे हों, लेकिन उनके लेखन से छन-छन कर यह बात बार-बार आती है। अचानक यह खयाल आता है कि उनकी जिस भद्रता का ज़िक्र करने की हमें आदत हो गई है, वह एक शरीफ़ आदमी का 'मैनरभर नहीं है, वह पूरी सभ्यता को मार्मिकता के साथ देख पा रहे और उसके बीच अपनी मनुष्यता का संधान कर रहे एक व्यक्ति की सहज मुद्रा है।

संग्रह की लगभग सारी कहानियां आपको विचार करने और प्रश्न करने पर मजबूर करती हैं। इनमें कुछ ऐसी कहानियां भी हैं जो आपको लग सकता है कि कुंवर जी ने बस इस विचार या प्रश्नाकुलता को पकड़ने के लिए लिख भर दी हैं। लेकिन इनका कुल प्रभाव इतना गहन है कि आप इससे अपने-आप को आसानी से अलग नहीं कर सकते।

कई कहानियां आपको मारखेज के जादुई यथार्थवाद की याद दिला सकती हैं। 'कूछा में हुएन त्सांग प्रसंगऐसी ही कहानी है। यहां लेखक बोर्हेस की कहानियां पढ़ते-पढ़ते हुएन-त्सांग की दुनिया में पहुंच जाता है। मध्य एशिया के किसी मध्यकालीन समय में खच्चर या याच पर बैठा हुआ यह हुएन त्सांग एक गोष्ठी में हिस्सा लेने जा रहा है। यह सातवीं सदी का कूछा शहर है जहां मोक्षगुप्त से शास्त्रार्थ होना है। इस शास्त्रार्थ में मोक्षगुप्त कोश के प्रारंभिक अंश ठीक से सुना नहीं पाता। वह लज्जित हो जाता है, अपनी हार स्वीकार कर लेता है। इसके बाद लेखक या सातवीं सदी में बैठे उस पात्र की टिप्पणी है- 'बुद्ध के वचन-उपदेश ग्रंथों को याद हैं, शिलाओं को याद हैं, ताम्रपत्रों को याद हैं, समय को याद हैं- पर एक भिक्षु को याद नहीं हैं। इससे बढ़ कर दुख का कारण और क्या हो सकता है? स्मृति में बाधा पडऩे से मति विभ्रम होता है और सही मार्ग पाने में कठिनाई होती है। यह पराजय हर पराजय की भूमिका है। विद्वान मोक्षगुप्त पराजित।

कोई संवेदनशील पाठक इस आखिरी वाक्य तक आते-आते सहम सा जा सकता है। कथा स्मृतिभंग को हर पराजय की भूमिका मानती है, जबकि हम ऐसे समय में रह रहे हैं जिसमें स्मृति बार-बार खंडित होती है, वह बनने से पहले बिखर जाती है, एक दृश्य ठीक से घटित होता नहीं कि दूसरा चला आता है, एक वाक्य का मर्म ठीक से समझ पाते नहीं कि दूसरे पर चले आते हैं। बिना कुछ कहे कुंवर नारायण हमारे एक बड़े संकट पर उंगली रख देते हैं।

संग्रह में ऐसी कहानियां और भी हैं। इतिहास और पुराकथाओं तक जाती हुई- उनके आधुनिक भाष्य की सतही कोशिशों से नहीं, बल्कि उनके बीच के समकालीन मर्म को खोजती हुई और अंतत: एक करुणा सिंचित विचार हमें दे जाती हुई कहानियां। 'भविष्य के वाल्मीकि से पत्नी का प्रतिवादऐसी ही कहानी है।

लेकिन इन कहानियों की सबसे खूबसूरत बात उनके भीतर चल रही बहस और विचार की प्रक्रियाएं हैं। 'उसका अहाता; कितने चेहरेनाम की कहानी में एक घर से अलग-अलग लोग निकलते हैं लेकिन कथावाचक को लगता है कि वे सब एक हैं। कहानी की शुरुआत ही इस तरह होती है, 'वह आदमी शायद अकेला नहीं था, एक पूरा घर था, जिसमें कई तरह के आदमी रहते थे, बल्कि यों समझिए कि वह कई तरह के आदमियों से मिलकर बना था। मजा यह कि इतने सबके बावजूद वे एक साथ मिलकर कभी बाहर नहीं आए, एक-एक करके ही बाहर निकलते थे।यह कहानी हमारे भीतर और हमारे बाहर छुपे हए संशयों और भयों की बहुत मानवीय और मनोरंजक शिनाख्त करती है।

'संधिनाम की कहानी में नायक यह सोच कर जाता है कि इस बार वह अपने बाबा से बहस नहीं करेगा। लेकिन दमालु के उच्चारण से यह बहस शुरू हो ही जाती है और बड़े सवालों तक पहुंच जाती है। 'अलग-अलग शक्लों में’, 'वे एक फैंटेसी’, 'एक यात्रा का छोटा सा संस्मरण’,  मोनालीसा की डायरी, भुवन का सोचना, जैसी कहानियां आपको आनंदित भी करती हैं और लगभग उत्फुल्ल ढंग से कुछ ऐसा नया दे जाती हैं जिसके सहारे आप ख़ुद को भी नया कर सकते हैं। मिसाल के तौर पर भुवन का सोचना कहानी की शुरुआती पंक्तियां देखें- 'भुवन सोचता बहुत है। यही उसकी सब मुसीबतों की जड़ है। उसके लिए लोग अक्सर ऐसा सोचते हैं। उसके बहुत सोचने पर लोगों की लानत मिलती है। बहुत सोचना गलत है या कि न सोचना गलत है?  सोचना उसकी आदत है, शायद इसीलिए वह दूसरों के बारे में भी बिना सोचे नहीं रह पाता। वह पाता है कि हर आदमी सोचता है। जो नहीं सोच पाता, उसके सोचने को वह ख़तरनाक पाता है। उसने अक्सर पाया है कि ख़तरा उठाने वाले और खतरा पहुंचाने वाले लोग अक्सर कम सोचते हैं। जो नहीं सोचते वे दूसरों के लिए भी नहीं सोचते। कम सोचने का सबसे बड़ा लाभ यह है कि उससे किसी भी ज़्यादा सोचने वाले को आसानी से हराया जा सकता है।

इस लंबी चर्चा के बीच एक और कहानी का ज़िक्र ज़रूरी लग रहा है- 'वॉरसा में ओल्गा। यह अदभुत प्रेम कहानी है। दस दिन के प्रवास में इतिहास की यातनाओं, एक शहर के विध्वंस और उसकी बहुत सारी स्मृतियों के बीच हुआ यह निश्छल रिश्ता नए सिरे से याद दिलाता है कि तमाम लड़ाइयों, युद्धों से बड़ी दो लोगों की साधारणता होती है। कुंवर नारायण का बहुलार्थी गद्य अचानक कितना कोमल हो उठता है, इसकी कई मिसालें इस कहानी में हैं-

'एक छाते के नीचे दो गर्म निकटताएं। धरती पर नहीं, बादलों में। बांहों पर कोमल उंगलियों का स्नेह स्पर्श। एक निकटता जिसमें फूलों की महक है, एक दृष्टि, जिसमें तारे।

यह वर्षा जाने कब थमे? एक चिंतित स्वर।

यह वर्षा न जाने कब थम जाए? दूसरा चिंतित स्वर। एक सम्मिलित हंसी। सहसा मैं उसके मुस्कुराते हुए गीले ओठों को चूम लेता हूं। वह एकदम गंभीर हो जाती है।

निश्चय ही संग्रह में कुछ कहानियां आपको अधबनी लग सकती हैं, कुछ के शिल्प में पर्याप्त कसाव न होने की शिकायत आप कर सकते हैं। कुछ को लेकर कुछ वैचारिक आलोचना भी संभव है। लेकिन हमारे समय में ज़्यादातर जो कहानियां लिखी जा रही हैं, उनसे अलग कुंवर नारायण का यह संग्रह पढऩा अपने-आप को अनुभव और संवेदना की ज़मीन पर नए ढंग से चलने का अवसर देना है। दरअसल यह संग्रह याद दिलाता है कि सच को कई तरह से कहा जा सकता है, कुंवर नारायण ने अपना एक तरीका विकसित किया है।

 

बेचैन पत्तों का कोरस:  कुंवर नारायण; राजकमल प्रकाशन, 152पृष्ठ; 295रुपये

 


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