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जनवरी - 2019

सतपुड़ा की कायनात

लीलाधर मंडलोई

 

एक ताज़ा डायरी/सतपुड़ा

सतपुड़ा

 

 

 

 

1.

 

गर्मी की शाम। जीप पर सवार चार बचपन के दोस्त। एक उम्र के बाद साथ। मैं सामने वाली सीट पर। मैंने अनुभव किया जीप नहीं सड़क दौड़ रही थी। संग-साथ पेड़ जिनकी अंतहीन कतार थी गति में। हवा की सुगन्ध का इस तरह नथुनों में दौडऩा विरल था जीवन में। पीछे दोस्तों की हँसी लतीफों पर सवार थी। पुरानी जीप डीजल की गन्ध को फेंकती बीच-बीच में सुगन्ध से हाथापाई कर रही थी।

रोशनी कम हो रही थी। शाम के माहौल में खुनक का कोमल अहसास बादल के टुकड़ों पर सवार था। प्रकृति का रंग दिन भर दौड़ते ट्रकों, बसों और जीपों से उठी ग़र्द से कुछ मटमैला हो उठा था। खेत, भागती जीप से कुछ धुँधले दिखाई दे रहे थे। यात्रा के बीच पड़ते गांवों में बत्तियां टिमटिमाने लगी थीं। हम मटकुली पहुंच गये थे।

रास्ते की दुकान में मुंगोड़ों की सुगन्ध ऐसी थी कि आप उसे खा सकते थे। एकाएक झटके से गाड़ी मुंगोड़ों के आकर्षण में रुक गई थी।

पेड़ों के बीच एक छोटी-सी दुकान। और गरम-गरम मुंगोड़े पुकारता एक लड़का सामने हाजिर। हरी-तीखी चटनी की गन्ध ने 5 लोगों के लिए 10 प्लेट मुंगोड़ों के आर्डर को मजबूर किया। गोल-गोल भूरे मुंगाोड़ों ने कढ़ाई में नाचना शुरू किया। और भूख ने कमसिन अंगड़ाई ली। पानी की बोतलों में से एक में फूल रस था। न-न फूल आग थी। दूर-दूर तक कोई खाकी वर्दी वाला न था। मुंगोड़े थे, हरी चटनी थी और फूल आग।

पेड़ पर चिडिय़ों का गान था सुहाना। भावपूर्ण तानों में मानो बागेश्री की विलंबित एक ताल। एक अबूझ राग फूल रस के साथ भीतर आकार ले रहा था। जो तीन साल में सफ़र करने को था। हम चार आवारा बीतचीत में बचपन को मेज पर हाथ से ताल देते गाने की बेसुरी कोशिश में थे।

मैं इस चर्चा में कम शरीक था। मैं शाम के धुंधलके में गाती चिडिय़ाओं को खोज रहा था। उस एक को ख़ासकर जो उनमें सबसे अधिक मधुर थी। मैं उसे ढूँढ़ रहा था कि कुछ और...। मैं कुछ याद कर रहा था और दोस्तों के बीच से ग़ायब हो गया था।

मुझे याद हो आई बड़े गुलाम अली की ठुमरी जैसे उसने इसी समय बजाई हो घर में - 'याद पिया की आएं

मैं उसे घर पर छोड़ आने पर ख़ुद को कोस रहा हूँ। यह जानते हुए कि वह उसके गिरधर का घर नहीं। मैं उसे खट्टी इमली खाते घर छोड़ आया था।

2.

सतपुड़ा, तुम अज़ल से हो और इस होने में हमारा मुख्तलिफ़ होना है। हमारे उम्मीद के मरकज़ से उठती इन हवाओं में ये कायनात है, जो मर रहे शहरों से हमें आवाज़ देती है। इस मुनव्वर सुबह में तुम अपनी दौलत लुटाते मुझे 'कर्णकी तरह लगते हो। कोई भी तुम्हारे दर से खाली हाथ लौटे, ये कभी हो नहीं सकता।

मैं तो इस समय तुम्हारे एक टुकड़े 'अलिकत्तामें हूँ सुबह-सुबह, कि सुबह गुज़र न जाये कहीं। जो ये तिलिस्म है, तिलिस्म का जादू बिखर न जाये कहीं। नज़र में चौतरफ़ इतने हसीन चेहरे हैं, कोई इनमें सरक जाये कहीं।

तू पुरखा है हमारा, तूने हमें मालामाल किया। इतने दुश्मन हैं आज, इतने ब्यौपारी। नज़र किसी की बुरी लग न जाये कहीं। बिन किबाड़ों के तेरे इस घर में, कबाड़ी कोई घुस न जाये कहीं। उजड़े दालान-आँगन पर रोकर यहाँ आया हूँ। तेरा दालान-आंगन उजड़ न जाये कहीं।

वो जो सबसे ऊंचे ओहदे पर है। वो जो 'स्मार्ट सिटीकी सनक में मतवाला। बुरी नज़र उसकी यहां न लग जाये कहीं। काश होता कोई अचूक ढिठौना, एक पल गंवाये बिना, तुझको मैं लगा देता।

3.

मैं किसी यातना से भागकर इस शाम पहाड़ पर एकदम अकेला। मैं सुख की तलाश में यहाँ चला आया। सुख की तरफ़ इस दौड़ में वासना अधिक। पराजित होकर मैं उस सूरज के सामने जो डूबता हुआ इतना सुंदर कि शब्दों से परे। दिनभर की अथक यात्रा के बाद उसकी इतनी दिव्य हँसी। किसी थकान,किसी यातना का कोई चिन्ह नहीं। और मैं...।

सूरज ने डूबते हुए मुझे हँसी का एक खिलौना दिया। मैं मानो किसी कारण रुठा हुआ बच्चा और वह पिता की तरह पुचकारता...।

दूर-दूर तक जब आज कोई जीवन में नहीं। उसने डूबते हुए की हथेली थामी और ले गया अपने साथ।

कल सुबह आपकी मुला$कात मुमकिन है पूरब से उगते एक शरारती कवि से हो...।

4.

उफक पर दूर तक प्रकृति की मुस्कान के बीच, मैं इस समय विस्मत सा ठगा निहार रहा हूं, पहाड़ से उतरते-मचलते जल को। धूप के आगोश में चाँदी अनेक धारों से जगमगाती उतर रही है। बचपन में एक ग़ैरमामूली बालक ने अल्हड़ मस्ती में चाँदी के जिस रंग को स्मृति में बसा लिया था,वो इतने सालों के बाद भी उतना ही जवान है। बिना किसी वस्त्र या छाया के इसके अंग उतने ही भरे-पूरे लग रहे हैं।

प्रियदर्शिनी इसका नाम आज इसलिए मौजू है कि जल की कायनात में पचमढ़ी नाग की तरह लहरों पर झूम रही है। सितारों ने रात भर इसमें अस्नान किया। परिंदे और पशुओं ने इसमें उतरकर जलकेलि की है। उनकी गन्ध पत्थरों पर छितरी पड़ी है। यहां ज़मीन से लेकर आसमान तक एक मासूम इंतज़ार का आलम है। टूटती धाराओं का रजत-चमकीला गुबार है जिसमें ग़र्द नहीं है।

अदा-ए-ख़ास में वनदेवी ने अपनी ज़ुल्फें खोल दी हैं और उसकी हँसी में मेरे कान बजे जाते हैं। एक सनसनाहट मेरी देह में उतरी है और मैं अथाह गुमशुदगी में, जल दर्पण में अपने बचपन का चेहरा निहार रहा हूँ। पानी की इस मीनार के सामने मेरी पलकें झपकने से रुक गयी हैं।

5

महादेवी पहाड़ी की इस गुफ़ामें पूर्वजों के कारनामों को देखता हतप्रभ हूँ। इनका कोई नाम नहीं बस चित्र बोलते हैं। जिन हिरनों को दौड़ते देखने से चूका वो यहाँ कुलांचे भरते सजीव हैं अब तक। उनकी देह गति को पकड़ा होगा जिस पूर्वज चित्रकार ने वाकई कमाल आँख रही होगी उसकी। ये परिंदे की उड़ान। ये उठा हुआ धनुष। ये कमान से छूटता तीर। ये चित्रमात्र नहीं तब के ज़िंदा दृश्य हैं जो चित्रकार ने संजोये। और धूसर हुए रंगों में सदियों के बाद भी बची चमक किस विज्ञान से बनी कि अब तक अमर भाव में चुनौती पेश करती है।

इधर का रंग विज्ञान तो इतना अमर नहीं। बचपन में गेरु से बनाते रेखा-चित्रों को याद करता हूँ और पूर्वजों की कला से जुड़ जाता हूँ।

वो जो इन उजाड़ जगहों को फिजूल मान घरों में दुबके हैं, मैं उन्हें दावत देने की हिम्मत करता हूँ। आओ! देखो पूर्वजों की ख़ाक का इस तरह अब भी चमकना दुनिया का आठवां आश्चर्य है।

6.

ज़िंदगी में बड़ी मशक्कत के बाद कुछ दिन नसीब में और मैं सब्र के लिए यहाँ आया और बेसब्र हुआ जाता हूँ। मैं एक ही व$क्त में इत्मीनान धारता हूं और उसकी ज़द को तोड़ कर उसके रंगों की तरफ़ भागता हूँ। इस बेसब्री में कितना छूटता है और मैं खाली हाथ होता हूँ।

मैं लाल रेत से बने रास्तों पर हूँ। पत्थरों को रुककर भरी निगाह देखता हूँ। हवा और मौसमों के थपेड़ों ने उन पर खूबसूरत नक्काशी करते हुए अमूर्त चित्रों की श्रृंखला बना दी है। लाल, भूरा, सफेद और काला रंग इन चित्रों में उभरकर बोलता है, जो सिर्फ शांतचित्त मन तक पहुँचता है। इसमें किसी की उजड़ी हुई नींद है, रात गुजरने के निशान, इसमें वक्त की मुस्कुराहट है अलोनी और दर्द भी। चाँद की गोद में हुमकता ख़्वाब है। एक स्त्री की मोती भरी माँग भी। किसी पिता की बेकल आवाज़ है और मां की नाक की लोंग की चमक भी। किसी हिरनी की डरी-डरी सी छाया है और एक बाघ की अपने शिकार के सामने सहसा उभरी झिझक भी। बिजली के चमकने का अक्स है, बारिश का कोमल अहसास भी। पेड़ की लचकती डाल का एक बिंब और टूटते तारे का इसमें बच जाना।

इसमें प्रकृति का ऐसा रंग सौंदर्य विन्यस्त है कि जो हर पल कुछ रचता है, बदलता और बचाता है। उससे अधिक सृजन में कोई और कामयाब नहीं। जबकि हम आज हम नहीं, न ही ख़ुशी-ख़ुशी रही वैसी। एक अजाना ग़म और अंधेरा है दुनिया को घेरता। हम फैसले करते, हो चुके हैं निराश और सुबकते हैं अपने किये पर रातों में। हम जो अपना ईमान खो चुके और ज़िंदगी को पहचानने में नाकामयाब हैं।

आओ  इस पाठशाला में हमवतन शागिर्द बनकर। फिर एक बार पढ़ो, तालीम लो ये कायनात तुमको आवाज दे रही है। दुनिया को बदलने-बचाने का एक रास्ता यहीं से निकलता है। वो तुम्हारी वनदेवी, तुम्हारे प्यार में ख़फ़ा है। उसका उठा ये हाथ आओ थाम लो।

7

हाँडी खोह,इसमें सदियों से पक रहा है और मिलता है हर राहगीर को पल-छिन। इसके दिव्य स्वाद के लिए सिर्फ आँख-कान नहीं एक सुंदर दीवानगी भरा दिल भी चाहिए। एक हाँडी बहुत गहरी और सौ मीटर में फैली है। इसमें उतरो ये अनूठे स्वाद-गन्ध में न्यौत रही है। न्यौता मस्त साहस को। जितनी तरह की वनस्पतियाँ इसके भीतर हैं, नेमत हैं। नीचे मधुबन सा सजीला रुप लिए यह पुकारों की पुकार है।

जाने कितने आदिम नग़मों को छेड़ती और कितने रागों में। इसकी आवाज़ दिलकश है। इसमें उतरकर एक कोने में बेग़म अख्तर की सी दमदार रूहानी पुकार में आप खो जाएंगें। किसी दूसरे कोने में बड़े गुलाम अली खाँ का मिल जाना हैरत की बात न होगी। चारों तरफ़ कोई न कोई फनकार यहाँ इबादत के रियाज़ में बैठा है। यहाँ बहुत नीचे राग की गहराई के पते-ठिकाने हैं। ये वो राह है जहाँ से कायनात का दरवाज़ा खुलता है।

 यहाँ की सुबह-शाम में जीवन का खोया कुछ मिल जाता है लतीफ़ हवाओं में। पेड़ तरो-ताजा गुफ्तगू से थकते नहीं। चिडिय़ाओं के परों से लिपटकर आप उड़ सकते हैं। बरसने वाले बादलों की आँखों का नेह झरता रहता है दिन-रात।

क्या इसे हांडी खोह की जगह जन्नत न कहना चाहेंगे। देखो... मेरी कलम की जुंबिश में कोई जादू उतरा। मेरे शब्दों में ये क्या कुछ खनखनाया...। ये कैसी रोशनी ज़ेहन में जगर-मगर हुई। ज़मी बदली शहर से पुराने आशियाने में। फ़लक बदला तो ये आलम क्या खूब बदला।

इधर मेरे लिखने का ये अंदाज़ दबे पांव बदला...। हाँडी खोह न आता तो न बदलने में फंसा रहता। इधर आकर न बदला हुआ मैं, इतना बदला कि अपनी पाण्डुलिपि के इन पन्नों पर नया-नया सा हूँ।

मैं इस शाम यहाँ कितना मज़े में, कितना बेपरवाह हूँ। शहर की बिलखती हवाएँ मानो यहां लौटकर ताज़ादम हैं। पेड़ परिन्दों से भरे हैं और उनके कंठ से मौलिक वाद्यवृंद सिरज रहा है। मैं बेखौफ 'बोरीमें घूम रहा हूँ और रास्ते को रोकता कोई ट्रेफ़िक नहीं है। न कोई टोकने वाला सिपाही है न चालान काटता कोई इंस्पेक्टर।

मैं इतरा सकता हूँ और हवा के झोंके के संग उड़ सकता हूँ। मैं न किसी और को, अपने को छोड़ सकता हूँ जी खोलके गाने के लिए। मेरे बेसुरा होने पर शर्मिन्दा करने वाला यहाँ कोई नहीं है। मेरी ठुमक को मिला सकता हूँ बल खाते साँप से बेझिझक। गिलहरी की तरह पेड़ पर चढऩे की हिमाकत कर सकता हूँ।

मनमर्जी का मालिक मैं, लंगूर की तरह बैठकर उसका खाया हुआ फल कुतर सकता हूँ। मैना को सुनने के लिए किसी पेड़ की देह से टिककर इंतज़ार में ऊँघ सकता हूं। नाचते मोर को चट्टान की ओट से नाचते देख सकता हूं। उसके पंख को खोंसकर अपनी बेढंगी टोपी में देर तक नाचना सीख सकता हूँ।

अपने बाकी होने का इससे बड़ा उत्सव कहां होगा? 'बोरीबाकी है तो कितना कुछ बचा है। इस आलम में कठफोड़वा, पीपल, चकदिल, दूधराज, टिटहरी, फा$ख्ता, किलकिला, पपीहा, सारस, तीतर-नामालूम कितने परिंदे बचे हैं। कितने ज़रूरी जानवर यहाँ बे$खौफ छलांग में बचे हैं। ऑक्सीजन और निर्मल-शुद्ध जल बचे हैं।

बचे ये सब हैं तो हम सब बाकी बचे हैं। बचने की उम्मीद जो बिल्कुल नहीं, वह यहां अभी साबुत बची है।

9

साल, तेंदू, आँवला, महुआ, बांस और सागौन से घिरे इस भूखंड में सूरज देर से देता है दस्तक। वह बादलों के सघन आवरण में ढँका भरसक संघर्ष में है कि उतर सके 'तवामें। आज जबकि बारिश उतर रही रुन-झुन पाजेब बजाती, सूरज की किरनें उतर आना चाहती है गोल-मटोल नृत्य करते नन्हे-नन्हे घुंघरुओं में। वे बहना चाहती हैं बारिश की लकीरों में जिन्हें नदी न्यौत रही है। पत्तियों पर टप-चप का नाद गूंज रहा है चारों तरफ़। शाखाओं में बैठी चिडिय़ाओं के पंख फरफरा रहे हैं रह-रहकर और पँखों में भी उतर रही बारिश कितनी खूबसूरत लिए।

जंगल में दूर-दूर बिखरी इक्का-दुक्का झोपडिय़ाँ भीगी-भीगी सी दुबकी हैं। एक से उठ रहा धुआँ और उसके कई आकार भीतर उतर रही रोटियों की तरह गोल हैं। कबेलुओं के बीच नालियों से उतर रही है एक और बारिश... कि वह वहां भी उपस्थित एक और भव्य रुप नमी का लिए।

जंगल के लंगूर, हिरण, खरगोश, नीलगाय, गौर और बादल, बारिश टुकड़े-टुकड़े सूरज के साथ इस हरे-भूरे भूगोल में एक हरा-भरा आख्यान रच रहे हैं। दूर-पास मल्हार की स्वरलिपियां आकार ले रही हैं। और जंगल छोटे-छोटे मठों में जादुई ढंग से बदल गया है। जिसके भीतर-ध्रुपद गायक इबादत में गा रहे हैं। सतपुड़ा अपनी वैभव लीला में इस समय प्रार्थनारत् है।

मैं शहर से भागा अकवि यहाँ कवि हुआ जाता सोचता हूँ कि गनीमत है रिलायंस यहाँ नहीं पहुँचा। जंगल में यहाँ प्राचीन जंगल बचा हुआ है।

10.

'तवाबह रही है। बादल अभी सूखे नहीं हैं। 'मधाईके पेड़ ताकत भर स्वाभिमान में खड़े हैं। उनकी जड़ों ने आस-पास के कई पेड़ों की जड़ों से गलबहियाँ कर रखी हैं। माटी यहाँ की अब भी भींचे हुए है पेड़ों को अट्टू प्रेम में।

पेड़ की शाखाओं पर पक्षी जीवन राग में हैं। पशु निद्र्वंद्व भाव से मस्ती में विचर रहे हैं और शिकारियों की बंदूकों ने इस तरफ़ रुख नहीं किया है। वनवासियों के प्यार में डूबी धरती अभी आशीषों की मुद्राओं में है और पहाड़ उजड़े नहीं है। नदियों का पवित्र नीर दूध की तरह मौजूद है नि:शुल्क। गनीमत है कि कोक या पेप्सी की कोई फेक्ट्री खुली नहीं है। अभी यहाँ का ज़र्रा-ज़र्रा हाथ से हाथ, पीठ से पीठ, पाँव से पाँव और सीने से सीना मिलाए खड़ा है एकजुट-एकराग।

इस अमर दृश्य की कोख में सतपुड़ा में कई पुनर्जन्म बचे हैं अभी... बचा है सतपुड़ा।

11

शहर में बढ़ती तबाही से हारकर, मैं यहाँ करमाझिरी में सुनता हुआ बयार का सितार, जो रग-रग में बहा जाता है। अनोखा निखार है वनस्पतियों पर। मेरी दुनिया में फैली उदासियां, इधर खिलंदड़े सूरज के साथ मद्धिम पड़ती हुई छूमंतर हुई जाती हैं। जुनूं के राग में मेरा भीतर चारों दिशाओं में रुबरु है। एक चौसिंगा है इस सुबह तेज़-तेज़ सूंघता और जहां कुछ बेहद ज़रूरी, बेहद आत्मीय, उसी सिम्त इधर से उधर भागता हुआ। जाने क्या कुछ अबेर लेना चाहता है वह हसीन कायनात से।

यहां सुबह का धुंआ-धुंआ सा ऊदा मौसम है और शहर की चिमनी से उठते ज़हरीले धुंए ने मुझे मानो मुस्त$कबिल की याद से बेहद दुखी किया है। मुझे ख़्वाबों की बनती ताबीर में एक करंट सा लगता है। इधर एकाएक बादलों को मैंने घुमड़ते देखा और पक्षियों की कतार को आसमान नापते। इधर पास में जंगल की वफ़ा की आवाज़ें हैं जो पशुओं में बेहिचक गूंज रही हैं।

इधर वफ़ा की उम्मीद में, मैं असहाय और पराजित होता जाता हूँ। मैं किस सरकार के पास जाऊँ, क्या बोलूँ, कैसा लिखूँ कि वे कलयुग के फ़ायदों को छोड़़कर अक्ल के मैदान में, इस नेमत को बचाने का एक बहाना करें।

ये एक स्कूल है और इसमें जाने कितने पाठ्यक्रम चल रहे हैं। मैं पेड़ों को पढूँ कि पक्षियों को, मैं पशुओं को पढूँ कि पहाडिय़ों को, नदियों को पढ़ूँ कि घास के मैदानों को, यह तय करना मुश्किल। अभी तो नर्सरी के लायक हूं। अभी तो देखने और बस देखते रहने के पहले पाठ में हूँ... अभी तो दाख़िले की सिर्फ अर्जी लगी है...। अभी तो जंगल के काबिल होने का इम्तहान देना बाकी है। अभी तो... अभी तो!!

12

बरसात में घास यहाँ आसमान का रुख़ किये है। कुतूहल चौतरफ़ पसरा है इस कदर कि आँखें झपकतीं नहीं। यह 'बोरीकी मेरे वास्ते देर जागी सुबह कि मैं आलस में  डूबा कंबल में दुबका रहा। तिस पर ये आलम अपनी मस्ती में जवान है।

घास के वन से सांभर का एक जोड़ा नहाकर चुहल में डूबा है। सींगों पर घास का हरा मुकुट सोह रहा है। ख़ुदा अपनी बनाइयों पर जैसे फ़िदा है। उन्हें इस समय रोक सकता है भला कौन जबकि एक-दूसरे को सूंघते हुए बेताब हैं वे।

दो पाँव भी चलने के लिए भी कहीं, वे ठिठके-झिझके से हैं। पाप-अपराध बांचने वाला कोई नहीं, 'लवज़ेहादचीखने वाला भी यहाँ कोई नहीं है। बस एक मन से दूसरे मन तक फैलती सिहरन है। सुबह की नवेली धूप उनके अंगों में उतर रही है। और उनकी इस अंगड़ाई में देह का कोई साज़ बज उठा है। वे आख़िरी हद पर छाए बादलों में डूब रहे हैं। शोख़, सजीला, मदभरा उनके इश्$क का गाना, जंगल डूबकर गा रहा है।

13

इस समय जबकि गर्मी से बेहाल रहा तो भाग आया 'रातापानी। कितना सुकून हैं यहां। जैसे जलते हुए दिन पर ख़ुनक भरी शीतल हवाओं ने ताप को हर लिया है। शहर में बेबात के तनाव में एक शोर भीतर होता है वजह-बेवजह उद्विग्न करता। किसी के तंज को बरदाश्त करना कठिन। शहर यातना के जंगल हैं यानि कांक्रीट के भीतर की निचाट यातनाओं के केंद्र। वहाँ भी भेडिय़े। सांप हैं। गिरगिट हैं। गिद्ध हैं। लोमड़ी हैं। सियार हैं। सुअर है। और बिच्छू हैं।

उनके बीच जीवन, जीने में कम उसे बचाने के रियाज़ में ज्यादा बीतता है। अनमनी-सनसनी का माहौल बना रहता है। अवसाद और संताप की गहरी जुगलबंदी में हर दिन को बाप-बाप करते जीत लेने का आश्चर्य होता है। कोई न कोई पड़ोसी रोज़ अपने तटबंध तोडऩे को अभिशप्त होता है। संबंधों का इतना ठंडापन, इतनी अनदेखी कि एक ढर्रे में बीतता समय और कोई नयापन, कोई रोमांच नहीं। जल बिन मीन जैसा दृश्य रोज़-ब-रोज़।

यहां मैं कितना समय ले रहा हूँ सहज होने में। स्मृतियाँ कितनी क्रूर हैं। इस $कदर जानलेवा कि पीछा नहीं छोड़तीं। बचपन की जंगल स्मृतियों में एक है जिससे छूटना न हुआ। एक भय स्मृति। निर्मम-निष्ठुर हिंसक लकड़बग्घा। गाँव के लोग उसका नाम लेकर डराते। लकड़बग्घा सचमुच सुकुमार बच्चों को उठा ले जाता। बकरियों का शिकार आम बात। दूसरों के हिस्से का भोजन छीन लेने की आदत। कब्र से लाश तक खोदकर ले जाने में कुशल। गर्मियों के मौसम में लकड़बग्घे सक्रिय हो जाते। खुले में बच्चों को लेकर सोने में भय।

बच्चे माँओं के साथ भीतर सोते चाहे कितनी भी अधिक गर्मी हो...। यह भी गर्मी का समय और मैं शहरी जानवरों से बचा, कुछ दिन यहाँ। यह भी एक आलम है। यहाँ अनंत तक पसरा आश्चर्य है जिसमें अपनी परेशानी बेहाली को भूलना मुमकिन। यहाँ दिल की कली खिलने को है। हर तरफ़ पुरसुकून लुत्फ़ का सामान सजा है।

एक निगाह लाज़िमी, एक दिल ज़रूरी है कि यहाँ कोई पर्दा नहीं है न कोई बंदिश हुस्न ही हुस्न बिखरा है जिधर देखो। अब हुस्न के इस जलसे में जो पीछे का जितना अधिक भूल सके, इसे यहाँ पा लेगा।

मैं भी एक बार फिर इस तरह भागकर यहाँ हूँ। यहाँ ज़र्रा-ज़र्रा जगमगाता है। यहाँ शोख नज़ारों में भीतर पिघलता है कुछ। मेरे कुछ दुख, कुछ तन्हाइयां, कुछ रुलाइयाँ, यहाँ खो जाएँ तो अच्छा...। मैं जहाँ हूँ, वहाँ का ख़्वाब होके, ख़ुद अपनी नज़र से गायब हो जाऊँ, तो कितना सुखद।

14

जबकि शहर में स्वागत के दरवाज़े बंद है, मैं लौटता हूँ तुम्हारी छाँव में। मुझे शहर में रहते हुए, ये क्यूं लगता है बार-बार कि मैं शहर का नहीं किसी स्मार्ट सिटी का वाशिंदा हूँ। दुनियादार बहोत। मैं न अपने पंख खोलता हूं न किसी के वास्ते दरवाज़ा। कोई और भी नहीं जीवन में तिस पर दूसरों से बेवजह नाराज। लंबी सड़कों पर दौड़़ती धूप के पीछे भागता हूं। वह इमारतों से टकराकर शाम गये चूर-चूर होकर गलियों में सिसकती गुम हो जाती है। एक दरिया है जिससे मिलना भी ऊब का सबब कि इसका हर किनारा शोर में डूबा। हर रास्ते पर हमारे ही कारण ग़र्द और गंदगी। यहां तक घर के शीशों पर चढ़ी ग़र्द से धूप का साफ-सुथरा टुकड़ा भीतर आने से रूठता रोज़।

गुज़रता जिस राह से पीपल, नीम, बरगद इतने उदासी में कि उसे भैंस, गाय, बकरियाँ और कुत्तों में उतरते देखता हूँ। बच्चों की पीठ बस्तों के बोझ से इतनी झुकी कि उनके मुस्कुराते चेहरे ग़ायब। हर श$ख्स घर के बाहर डरते-डरते पांव रखता हुआ रात गये चमकती रोशनी के बीच मैं घर के दरवाज़े को खोलता अंधेरे में और खो जाता।

15

झिझक, घबराहट और शहर की शर्म से उबरने को, मैं आज फिर चला आया भागकर 'रातापानी। मैं किसी उठाईगिरे की तरह चुराने आया थोड़ी सी शांति, थोड़ा सा प्यार जो पसरा है यहाँ ओर-छोर। यहां पानी है, हवा है, पेड़-पौधे हैं, साहिल है जो बुद्ध सा शांत चित्त। चमकती रेत में बैठा हूँ और वह कितनी मुलायम है। एक पत्थर उछालने का मन नहीं। न ज़ोर से बोलने-चिल्लाने की इच्छा।

मैं वो सुन रहा जो सुना नहीं अब तक। ये ख़ामोशी भीतर कि कितनी खूबसूरत है। मेरे भीतर का चोर और दुश्मन ज़माने का, यहाँ दुबका और डरा हुआ इतना कि उसकी आंखों में शर्म का पानी। यहां सूरज से दोस्ती मुमकिन। बाघ से भय नहीं लगता। रेत पर चलता हुआ यह सांप मेरे पास से गुज़रता है फुफकार बिना।

मेरे कंधे पर चिडिय़ा का बैठना, बालों में पत्तियों का उतरना, हवा का कुर्ते की जेब में अहसास, फ़लक का मेरी झोली में अपने-आप आना और सतपुड़ा का इस तरह बतियाना, ये सब जो यहाँ भरपूर जिंदा है, वहाँ क्यूँ नहीं। मैं जो वहाँ हो जाता हूँ गुनहगार यहाँ क्यूँ नहीं?

16

लहरों का वेग नीचे उतरकर भंवर की तरह अपने मद में वृत्ताकार घूम रहा है। उसमें से छिटकते कणों को सहवास के दृश्यों की तरह याद करता हूँ। जैसा एक खिला वह रुप स्त्री का तब हो उठता है, वह यहाँ मानो जल में साक्षात है... मैं जल सुहाग की छवियों को कैद करने में चूक रहा हूँ। एक अधूरे प्रयत्न में, मैं जो लिखने की चेष्टा में हूँ वो इतना ना$काफी है कि लगभग सिफ़र।

इस शाश्वत स$फेद कंवल की हया को, मौज को, काम मद को लिखना नामुमकिन। एक कवि के सीने में इतना ख़्वाब भी पलना मुश्किल की सि रसीले मंज़र को बयान कर सके। इस धुआँ-धुआँ चाँदी के जल हुस्न के किसी एक लम्हे को पकड़कर रोशन करने वाले अल्फाज़ कहाँ।

मैं तो नीम बेहोशी में बढ़ती बेख़ुदी के बीच कुछ सतरें यहाँ के आलम-ए-हुस्न पर लिखने की अब भी अजनबी हिमाकत कर रहा हूँ...।

17

रातभर उसकी सुरीली सरगोशियाँ शाखों पर लेटकर उसकी वो दिलकश गायकी। कभी परिंदा, कभी हवा तो कभी चाँद सा। ऊदी-ऊदी फ़िज़ा में उसका राग दरबारी। कभी बैजू तो कभी तानसेन। बरसते मेह में संगीत में बेख़बर डूबा। धुला-धुला सा राग का मखमली चिलमन। इत्ती सी इल्तजा, बस इत्ती ही चाह। इस रेशमी आवाज़ में जी लूं। मैं इसके राग का आलाप हो जाऊँ।

18

गरम शाल में लिपटी दिसंबर की दिगंबर। सुबह सूरज, पेड़ों और उन पर फैली सघन हरीतिमा में उलझ गया था और रोशनी की इक्का-दुक्का लकीरें घास तक पहुँच रही थीं। जल की बर्फ सतह पर उसके होने की आस में, मैं वहाँ ठिठुरता पहुँचा। उसे छुआ और सिहर गया।

यहां मोगली निर्वस्त्र भेडिय़ों के साथ घूमता रहा होगा। शीत ने भी अपने बच्चे की तरह उसे गर्म रखा होगा, मैंने सोचा। उसके लिए पेड़ों से गर्म हवाएँ निकलती होंगी इस समय।

नदी के किनारे दो-तीन मील टहलते हुए, मैं काँप-काँप गया जबकि इर्द-गिर्द गर्म कपड़े थे और जुराबों के साथ ग्लोब्स और कनटोप ऊनी। हवाएँ बरछी की तरह चेहरे पर गिर रही थीं और आंख से पानी बह रहा था, जो गर्म। यह मुझे भला लगा।

जंगल की यह सुबह दीखने में मनोहारी थी लेकिन घूमना मजाक न था। मैंने स$फेद चित्ते वाली हिरन देखी। बत्तख और बगुलों से मिला। नीलगाय पहली बार इतनी नजदीक थी। गौर का एक मस्त झुंड था। रंग-बिरंगी चिडिय़ाँ थी भैरवी के साथ।

सुबह-सुबह नदी के किनारे शहर से आया एक मोगली देखा जो गर्म कपड़ों में नंगा काँप रहा था।

19

मैं जो यहां हूं 'करेरामें तेंदू के पेड़ के नीचे, ये पेड़ पैसे में बदल जाता है अपने हरे पत्तों को सौंपता। ऊपर देखता हूं उसकी देह सघन शाखाओं से भरी। उसका भी सुख-दुख होगा हरे पत्तों में। गाहे-बगाहे टपकता है उसका दुख आँसू बनकर, जो मेरे चेहरे पर है अभी।

बचश्मे-नम है तेंदू। इस पेड़ से जो पत्ते उतारे जाते हैं, किसी ठेकेदार की तिजोरी में खो जाते हैं। बहुत कम उसका मिलता है यहां के रहवासियों को। वे अब भी अपनी झोपड़ी में, उतने ही मजबूर और लाचार अंधेरों में हैं। उनके चेहरों पर घनी, गहरी, काली नकाबें हैं दुखों को ढाँपती बमुश्किल। तेंदू के पेड़ लुटाकर अपनी बरकत, जब रोते हैं तो बस रोते हैं रहवासियों की फैलती जाती उदासी पर। ये रास्ता किसी अंजान तबाही की सिम्त है और वह ग़मजदा तो इन्हीं के वास्ते है...।

20

पानियों में तैरतीं जलमुर्गियाँ। कितनी झक्क सुफेद। कितनी हसीन। खूब फबती हैं सिवारी कंपकपी में। तैरते-तैरते किस अदा में झटकती हैं सिर। पंख नाचते हैं बूंदों में सजे-धजे। और उनका बोलना किरिक रेक-रेक। किस आसमानी पानी की पुकार में डूबा। ऊंची गरदन किये ये जलपरियाँ मुख़ातिब हैं। और देखो! किस लगन में आसमान बाँचती हैं।

21

जब अधखुली नींद में था। हवा का जल भरा झोंका बिछौने पर तैर उठा। खिड़की से बाहर सूरज अस्नान कर रहा था। मैंने झांक कर बाहर देखा स्पंदित नर्मदा अपने आलसी बच्चे को पुकार रही थी। यह मां की पुकार थी। मैं लगभग भागता, तुरत कौंधे खयाल में घास की सीढिय़ाँ उतर रहा था।

 

फूल की ख़ुशबू में डूबे आरती के शब्द जल से बतिया रहे थे। एक गाय थी वहाँ, पानी में प्यास से गुपचुप बात करती। जल उसे दुलार रहा था। सालों से घर से लापता एक साधु था सूर्य नमस्कार करता। कुछ परिंदे थे पानियों से अठखेलियाँ करते।

कवि इस अमर दृश्य से सालों बाद भेंट रहा था। मैं माँ की गोद में उतर गया। मैं कितना आज़ाद हो उठा अचानक। मैं एक साधारण बच्चा नींद पूरी करने के लिए पानी में लेट गया। मैं इतना उनींदा था कि मां के आंचल में नींद आ गई। पुरसुकून ऐसी नींद जीवन में इसके पहले कभी न थी।

मेरा कवि नदी के साथ कहाँ गया, मालूम नहीं। बस मेरी नींद कोई सपना लिए एक मासूम बच्चे की तरह सो रही थी।

नर्मदा अलस्सुबह से मेरे लिये लोरी गा रही थी। मैं कितने हज़ार उनींदे बच्चों में एक था, फिर भी यह लोरी सि$र्फ मेरे लिए गायी गयी, ये मछली ने बताया झिझकते हुए।

22

लोक अक्सर कहा करते थे क्या तुझे सुर्खाब के पर लगे हैं? इस ताने को सुनता हुआ मैं उसे खोज रहा था। नदी के किनारे रेतीले-कंकड़ीले इलाकों में उसके पते-ठिकाने थे। मैं उससे मिलने के फेर में दूर जंगल में निकल आया।

अआँग...अआँग की बोली से उसे पहचान लिया। पानी से बहोत दूर वह रेत में बैठा था नारंगी भूरे रंग की आब मैं चमकता। एक चित्र में उसके पंखों से सजी टोपी, मैंने एक किताब में देख रखी थी। यानि वो रईस के सिर पर ही पूरी शान में विराजता था। उसके गले में हल्के काले रंग का हार दिखाई पड़ा। पूछ श्याम रंग लिए डोल रही थी, नारंगी पंखों में गजब की चमक थी। वह पानी की सिम्त आ रहा था, उसकी चाल में राजहंस जैसा अनोखा गौरव था। उन पंखों में अपना होना देखने के लिए मैं बेताब था। मैं आंखें मूंदकर अआँग... अआँग बोलता मानो उसके पंख मांग रहा था। मैंने उसके पंखों को अनुभव किया अपने बाजुओं पर। और बोला ज़माने से, लो अब देक लो सुर्खाब के $खूबसूरत पंख।

23

बारिश के दिन थे। आठ मील दूर स्कूल। पाँव-पाँव यात्रा। बीच में पेंच नदी। वह उफान पर थी। हमेशा की तरह एक संकरे रास्ते से फलांगने के लिए मैं कूदा और फिसलकर लहर के साथ।

मैं डूबता बह रहा था। मैं नदी से जीवन की भीख माँग रहा था। अकुशल तैराक मृत्यु के एकदम सामने नदी के आवेग से जूझ रहा था। यह जीवन था या उसका अंधेरा, चेतना से बाहर। बारिश की उमड़-घुमड़ इतनी डरावनी कि सांसें दूभर।

मैं चीखा उसमें रुलाई इतनी अधिक थी कि बचा सकने वाले शब्दों के वाक्य हलक में अटके।

लहर का तेज़ एक झटका था या फिर कोई अचीन्ही ताकत जिसने उछाल दिया किनारे पर। झाड़ी की एक शाखा अदृश्य हाथ की तरह मुझे संभाल रही थी।

मैं बाहर होकर भी नदी के भय से कांप रहा था। मैं धन्यवाद जैसा शब्द भूल गया। मेरे हाथ प्रणाम की मुद्रा में अकस्मात जुड़े। मेरी आंखें जो बंद हो उठी थीं। देर तक खुली नहीं।

 

जाने माने लेखक लीलाधर मंडलोई हाल ही में भारतीय ज्ञानपीठ के निदेशक पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। वे आकाशवाणी, दूरदर्शन के बड़े पदों पर काम कर चुके हैं। संपर्क - मो. 9818291188

 

 


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