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जनवरी - 2019

एक गोली दिमाग के आर पार चली जाएगी, और कुछ नहीं

अनुवाद - सुनीता डागा

 

साक्षात्कार/मंगेश बनसोड, श्यामल गरुड़

 मराठी नाटककार प्रेमानंद गज्वी से बातचीत

 

 

 

मंगेश बनसोड :  बचपन की स्थितियों के बारे में जानना चाहेंगे। वह समय जातिवाद से प्रभावित था, तो जिस समाज व्यवस्था की हम बात करते हैं, उस पृष्ठभूमि में कैसा था वह माहौल?

प्रेमानंद गज्वी : बचपन हमें अब उतना याद नहीं होता है पर जितनी भी स्मृतियां हैं... मतलब अभी जिस तरह से यह वैश्वीकरण हुआ है और हर चीज आई है... गांव में भी सीमेंट के रास्ते आ गए पर उस समय तो सभी रास्ते धूल से भरे थे... और उस समय महसूस नहीं हुआ पर अब धीरे-धीरे पीछे पीछे पलटकर देखो तो कुछ चीजें महसूस होती है। जिस तरह से चंद्रपुर जिला, नागपुर का पूरा आदिवासी इलाका नक्सलवादी प्रश्नों से जूझ रहा है। उस समय आदिवासी हर भय से मुक्त था। अब स्वतंत्रता के पश्चात सत्तर सालों के कालखंड में बेहद भयावह ऐसे राजकीय, सामाजिक, धार्मिक तनावों को देखते हैं, तो महसूस होता है कि वह समय अच्छा था, सुख-शांति-सुकून से भरा। आखिर जीवन के मायने क्या है? अगर जीवन का आनंद तो इस दृष्टि से वह अच्छा ही था, ऐसा कह सकते हैं। स्कूल की बात करें तो गांव के सभी जाति-धर्म के बच्चे स्कूल जाते थे। और कोई किसी से नहीं कहता था कि तुम फलां जाति को हो या ये हो, वो हो। कम-से-कम मैंने तो इस तरह के अनुभव नहीं किया। कभी-कभी लोग पूछते हैं मुझसे कि हमें तो ऐसी स्थितियों से गुजरना पड़ा। हमारे आसपास का माहौल तो जाति-पांति से घिरा था। फिर तुम्हें ही यह ऐसा सब कैसे नसीब हुआ? मैं अचरज में पड़ जाता हूं। अच्छा, अगर थोड़ा-बहुत होगा भी मित्रों के मन में पर किसी ने नहीं कहा कभी कि तुम इस समाज के हो तो यहां पर आना नहीं है।

मैं जब सात-आठ वर्ष का था, तब धर्मांतरण हुआ। उस वक्त बहुत समझ नहीं थी। अभिभावक जो कहते हैं वहीं हम करते हैं। धर्मांतरण के पश्चात मूर्तियां आदि फेंक देने के बाद बाबासाहब के गीत गानेवाली भीम-भजन मंडली थी। मैं वहां गाने के लिए जाने लगा। मेरे पिता लोक-कलाकार थे। तमाशा और दंढार के शौकीन। पर इस बदलाव के बाद उन्होंने यह सब छोड़ दिया। शायद वे संस्कार मुझमें आये होंगे। मैं तब 12-13 वर्ष का था। सातवीं-आठवीं कक्षा में था, तब सिने-गीतों की धुन पर गीत लिखता था। कव्वालियों के भी कार्यक्रम किये।

श्यामल गरुड़: अभिव्यक्ति का आपका पहला माध्यम क्या था? कहानी, कविता या नाटक?

प्रेमानंद गज्वी : पहले तो गीत ही गुनगुनाना होता है। चाहे इसे अनुनय ही समझिये। किताबी भाषा में कहो तो उसे कविता कह लेंगे। स्कूल के वार्षिकी अंक में मैंने एक कविता लिखी थी। तब चौधरी नाम के एक शिक्षक थे। उन्होंने पूछा, 'किसकी कविता चुराई है?’ इसका मतलब मैंने उस समय अच्छी कविता लिखी थी।

श्यामल गरुड़ : आपके बदले हुए नाम के विषय को लेकर हमारी पीढ़ी को जो लगता है कि एक तरह से 'दलितसंज्ञा से दूर जाने का आपका यह 'आइडेंटिटी क्राइसेसही था, क्या कहना चाहेंगे आप?

प्रेमानंद गज्वी : हां, ऐसा लगा कईयों को और उस बात को लेकर काफी आलोचना भी हुई। पर वह उस तरह से नहीं था यह। मेरे बचपन और आगे के हालात भी काफी समृद्ध थे। जैसा कि मैंने कहा, दलित-विरोधी हालात भी न थे तब तो फिर इस तरह का कोई सवाल ही नहीं उठता है।

श्यामल गरुड़ : आपके शुरुआती लेखन पर समकालीन लेखकों का प्रभाव या प्रेरणाएं आपके सामने थी?

प्रेमानंद गज्वी : बिलकुल नहीं। बल्कि उस समय मैं हिंदी और उर्दू कविता लिखने में ही मशगूल था। मेरी कहानी भी छपकर आई थी। फिर आगे बॉम्बे पोर्ट ट्रस्ट की नौकरी के दौरान भी आसपास कई एकांकी-नाट्य प्रतियोगिताएं, गणेश-उत्सव के कार्यक्रम होते रहते थे। नौकरी की अपेक्षा मेरी दिलचस्पी ऐसे कार्यक्रमों में अधिक रहती थी। उस समय हमने एक नाट्य-संस्था का भी गठन किया था, जिसमें हम तेंडुलकर के नाटक मंचित करते थे। पर यह पता ही नहीं था कि वे इतने बड़े नाटककार है। 1977 का वर्ष था। इमरजेंसी का दौर था। अस्मितादर्श आदि... के विषय में मैं कुछ नहीं जानता था। तब मेरे एक मित्र रणजीत मसुरेकर के कहने पर मैंने पहला नाटक लिखा 'घोटभर पाणी’ (घूंट भर पानी) इस नाटक को मंच पर खेला गया। नाटक को तो पुरस्कार मिला नहीं पर मेरे लेखन को जरुर मिला। इससे एक उत्साह की अनुभूति हुई और आत्मविश्वास भी बढ़ा। मेरे नाट्य-लेखन का सफर शुरू हो गया।

श्यामल गरुड़ : औरंगाबाद से शुरु हुआ दलित-साहित्य आन्दोलन और आपके लिखने की शुरुआत इस समानांतर कालखंड से आपका कोई नाता?

प्रेमानंद गज्वी : नहीं, ऐसा नहीं है। मेरा लिखा हुआ अन्य कई जगहों पर भी छप रहा था। उस समय 'पैंथरकी बैठकें भी चलती थी। पर मैं कभी उस तरफ नहीं गया। उसकी वजह या सफाई अगर आज दूं तो कईयों को झूठ भी लग सकता है। मेरी पहली कहानी छपकर आई तब मेरे मित्र प्रह्लाद चेंदवणकर ने मुझसे पूछा था, ''तुम अपने आपको दलित-साहित्यकार मानते हो या नहीं?’’ मैंने इंकार कर दिया था। इसकी वजह फिर से मेरे बचपन से ही जुड़ी हुई है। धर्मपरिवर्तन के पश्चात बौद्ध संस्कारों ने मुझे काफी प्रभावित किया था। दलित-साहित्य या मैं दलित हूं यह मुझे कतई मंजूर नहीं था। दलित-आंदोलन या किसी विशेष संघटन की और मेरा झुकाव नहीं रहा। हां, एकमात्र 'रिडल्सके मोर्चे में गया था, यह याद आता है।

एक बार राजा ढाले ने ऐसे ही पूछ लिया था था 'नाम क्यों बदला?’ मैंने कहा, 'नाम बदलने से क्या होता है? लोग तो पहचानते है।

डॉ. मंगेश बनसोड : नाटक का एकांकी लेखन का अपना एक शिल्प ढांचा होता है। आपने इसे कहीं से सीखा या किसी से प्रभावित थे आप?

प्रेमानंद गज्वी : मैंने ऐसा कोई प्रयास नहीं किया। बचपन में 'तमाशामें पात्रों की एक-दूसरे से संवाद करने की शैली को देखा था। मैं जब सातवीं कक्षा में पढ़ता था, तब हम गांव के बच्चें रात्रि में पढ़ाई हेतु स्कूल में चले जाते थे। तब एक बार प्रधानाध्यापक और अध्यापकों ने हमसे कहा कि चलो सैर कर आते हैं और हमें तमाशा दिखाने ले गए। उस तमाशा के पात्रों का एक-दूसरे से बातचीत करने का तरीका हमेशा के लिए दिमाग में घर कर गया।

श्यामल गरुड़ : मैं दलित साहित्यकार नहीं हूं, ऐसा कहते हैं। आप और उसी समय पुन:-पुन: दलित, पीडि़त, पस्त हुए लोगों को केंद्र में रखना, लाचार-बेबस लोगों के बारे में लिखना और पुन: कहना मैं दलित-साहित्यकार नहीं हूं। ऐसा कहने के पीछे क्या है आपकी अवधारणा?

प्रेमानंद गज्वी : मैं प्रत्यक्ष रूप से भले ही दलित-आंदोलन से जुड़ा नहीं था फिर भी अखबार और अन्य माध्यमों के जरिये समाज में चल रही गतिविधियों के बारे में पता तो चल ही रहा था। दलित कुंए पर पानी भरने गया है और दूसरे दिन उस कुएं का शुद्धिकरण किया जा रहा है, ऐसी खबरें सुनने में आती थी। दूजी और 1977 में जयप्रकाश नारायण के आन्दोलन के परिणाम भी नजर आ रहे थे। 'घोटभर पाणीमें ऐसे काफी सारे सन्दर्भ आये हुए हैं। एक तरफ मैं अपने आपको दलित आन्दोलन और उस साहित्य से दूर किये हुए था फिर भी समीक्षकों के निशाने पर था। अब आप 'जोशी, कुलकर्णीनहीं होते हैं तब वे आपको एक किनारे कर ही देते हैं। 'घोटभर पाणीनाटक का पहला वाक्य ही सूरज को लक्ष्य करते हुए कहा गया है, ''तपो, तप लो स्साले!’’ तब उस समय के आलोचक गाडगील ने कहा कि मैंने सूरज को गाली दी है। यूं तो उस दौर के दलित-साहित्य में भी सूरज की अनेक प्रतिमाओं और गालियों का समावेश होता रहा था। मैं अपने तरीके से बाबासाहब के पूरे आन्दोलन को समझने की कोशिश कर रहा था। बाबासाहब ने 'व्हू वेअर द शुद्राजमें दलित पूर्ववर्ती क्षत्रिय थे, इस विचार को सामने रखा। पर क्या उस ग्रन्थ को इतिहासकार, समीक्षकों ने स्वीकृति दी? क्योंकि अगर आप स्वीकार करते हैं तो फिर दलितों को क्षत्रिय कहना होगा। बाबासाहब यहां पर नहीं रुके। उन्होंने वर्ष 1935 में धर्मपरिवर्तन की घोषणा की। आगे 1956 में उन्होंने धर्मांतरण किया। पर बीस वर्षों के इस अंतराल में उन्होंने गहन अध्ययन किया और इतिहास को खंगालकर दर्ज किया कि हम नागवंशीय हैं। हालाँकि बाबासाहब का यह विचार मुझे बीसवीं सदी के अंत में समझ में आया और फिर मैं बोधि की तरफ मुड़ा। अब मुझे यह सोचकर तसल्ली ही होती है कि मैं दलित-साहित्य या अन्य साहित्य जो अलग-अलग नामों से जाने जाते हैं, इस पचड़े में नहीं उलझा। इसलिए मैं अपनी निजी अवधारणाओं के साथ आगे बढ़ता गया। शायद मेरे कहे-लिखे हुए को मान्यता मिलती गई। यह एक वजह उसी के साथ सदाशिव पेठ वाले (पुणे का ब्राह्मणीय इलाका) मुझे अपना नहीं समझेंगे और ना ही दलित-साहित्यकार इसका भी अंदेशा हो चुका था। पर मैं इसे कतई भयभीत नहीं था। जो कुछ मैं लिख रहा था उसे पुरस्कारों से सम्मानित किया जा रहा था। स्वीकृति मिल रही थी। मुझे कभी नहीं लगा कि मैं अकेला हूं। मैंने 'घोटभर पाणीके प्रकाशन के लिए तेंडुलकर से फोन पर बात की तो उन्होंने कहा, ''मैंने तुम्हारा नाम सुन रखा है। किताब भिजवा दो। मैं आता हूँ।’’ उस समय के शीर्ष नाटक-आलोचक माधव मनोहर और तेंडुलकर की आपस में कभी नहीं बनी। पर दोनों मेरे अच्छे मित्र बन चुके थे। यद्यपि यह 'घोटभर पाणीकी सफलता थी। इस नाटक के पचासवें मंच के दौरान में तेंडुलकर और माधव मनोहर दोनों को एक ही कार्यक्रम में साथ मेें ले लाया और मेरे कहने पर दोनों आये भी। आगे 'घोटभर पाणीका 500 वां मंचन हुआ तब 'नाट्य-दर्पणसंस्था ने मुझे सम्मानित किया। एक तरह से मुझे स्पेस मिल रही थी। मेरे 'देवनगरी’ (देववधु) और अन्य नाटकों को पुरस्कार मिल रहे थे। इसलिए मेरे भीतर कोई भय नहीं था। एक अर्थ से मैं किसी चौखट में बंधा नहीं रहा। यह अच्छा ही हुआ। डॉ. बाबासाहब अम्बेडकर ने कहा भी था कि 'समाज की समस्याओं को व्यापक नजरों से देखना होगा।इसीलिए मैं 'किरवंत’, 'जय जय रघुवीर समर्थजैसे नाटक लिख पाया। उस दौर की दलित साहित्य-आलोचना ने भी स्वीकार किया कि 'किरवंतके कारण दलित-नाटकों को विस्तार मिला।

मेरी अपनी अवधारणा है कि दलित साहित्य, अम्बेडकर-साहित्य ऐसा विभाजन उचित नहीं है। बाबा साहब ने ऐसा कभी नहीं कहा कि आप दलित-साहित्य लिखिए। आप किन बाबासाहब को स्वीकार करेंगे। 13 अक्टूबर के पूर्व के या 14 अक्टूबर के पश्चात् के? बाबासाहब की व्यापकता बहुत बड़ी है। 'दलित-साहित्यकहना यानीं बाबासाहब को 50-60 वर्ष पीछे ले जाना है। सही शुरुआत 14 अक्टूबर 1956 से ही करनी होगी। हम बुद्धिस्ट हैं। यह देश बुद्धिस्ट लोगों का था। सम्राट अशोक इस देश के महान राज्यकर्ता थे। उसके पश्चात् स्वयं बुद्ध, उनके दादा उन्होंने महादेव के मंदिर का निर्माण किया था हिमालय में। महादेव कौन हैं? मेरा ऐसा मानना है कि मूल धर्म के महादेव को हिन्दुओं ने भगाया हुआ है। ये पशुपतिनाथ सिंधु सभ्यता से आये हुए हैं और सिंधु सभ्यता के जनक नागवंशीय हैं। हम नागवंशियों के वारिस हैं। बुद्ध से भी पूर्व ढाई हजार वर्ष पीछे का यह इतिहास है। अंग्रेजों ने 1922 में बुद्ध से जुड़ी जानकारी जमा करने हेतु उत्खनन किया था, तब बुद्ध से भी पूर्व की पांच हजार वर्षों के पहले की चीजें मिली। नर्तकी मिली। नर्तकी का मिलना मतलब संगीत था, काव्य था। दो-मंजिला हवेलियां थी। बाबासाहब ने लिख रखा है कि भारत का इतिहास आठ हजार वर्ष पुराना है। इसलिए जब मैं अम्बेडकर-वाद को परिप्रेक्ष्य में रखता हूं तब आठ हजार वर्षों का स्पैन पकड़ता हूं। आसपास का बदला हुआ माहौल देखते है, तो यह सुरक्षा-कवच और अधिक महत्वपूर्ण हो जाता है। बाबासाहब ने अपनी सभ्यता और इतिहास को आपके हाथों में सौंपा है। आजकल मुझे तीव्रता से महसूस होता है कि अच्छा ही हुआ मैं किसी भंवर में फंसा नहीं। इसी से 'बोधिसंकल्पना को अधिक महत्वपूर्ण हो जाता है। बाबासाहब ने अपकी सभ्यता और इतिहास को आपके हाथों में सौंपा है। आजकल मुझे तीव्रता से महसूस होता है कि अच्छा ही हुआ मैं किसी भंवर में फंसा नहीं। इसी से 'बोधिसंकल्पना को अधिक व्यापक धरातल पर सामने लाना जरुरी हो गया।

डॉ. मंगेश बनसोड: एक तरफ 'दलितशब्द और साहित्य का सैद्धांतिक विरोध और दूसरी तरफ नाट्य-सम्मेलन के अध्यक्ष और 'अस्मितादर्शसम्मेलन के भी अध्यक्ष बनते हैं आप? इसे कैसे समझें?

प्रेमानंद गज्वी : मैं दलित-नाट्य-सम्मेलन का अध्यक्ष बना इसके पीछे दत्ता भगत थे। उस समय 'तनमाजोरीका मंचन लंदन और अन्य जगहों पर हो रहा था। इसी के साथ-साथ 'देवनवरी’ (देववधु) और अन्य नाटकों ने मुझे एक नाम दिया हुआ था। मैं सम्मेलन का अध्यक्ष वर्ष 1988 में बना। इस सम्मेलन के शुरुआती अध्यक्षीय भाषण में ही मैंने सा कर दिया था, ''दलित-साहित्य यह कुछ समय के लिए लिया हुआ विराम है।’’ तब मेरे दिमाग में 'बोधिको लेकर कोई कल्पना नहीं थी। यही बात मैंने 'अस्मिता दर्श दलित-साहित्य-सम्मेलनके अध्यक्षीय भाषण के दौरान भी रखी थी - ''जब 'अस्मिता दर्शइस नाम में ही सब कुछ समाया है तो फिर उसे दलित शब्द की पूंछ लगाने में क्या तुक है?’’ मेरी यह राय थी कि उसी मंच पर जाकर अपनी यह बात रखनी होगी।

डॉ. मंगेश बनसोड : इन दोनों सम्मेलनों की अध्यक्षता स्वीकारने पर काफी आलोचना भी हुई थी आपकी। गज्वी ये सब नकारते हैं फिर पद का मोह किसलिए?

प्रेमानंद गज्वी : सच्चा कलाकार हर बंधन से मुक्त होता है। हर कलाकार सर्वसाधारण मनुष्य के दु:ख में समरस होने के उत्तरदायित्व से बंधा होता है। मैं 'किरवंतलिखता हूं। इसी के साथ मैं 'तनमाजोरीभी लिखता हूं। और 'जय जय रघवीर समर्थभी। जो कोई अपने आपको सर्वश्रेष्ठ समझते हैं, वे असल में वैसे होते नहीं है। मुझे लगता है दुनिया की हर बात मेरी अपनी है, इसलिए व्यापकता के साथ मैं सभी सवालों से जा भिड़ा। बुद्ध और बाबासाहब को जिस व्यापकता की प्रत्याशा थी मैं उसकी तह तक गया।

डॉ. मंगेश बनसोड : 'दलित-साहित्यको फिर से पर्यायी 'अम्बेडकर-साहित्यकहा गया और अब दुबारा आप 'बोधिसंकल्पना को सामने रखते हैं। क्या इससे आनेवाले समय में और अधिक भ्रम फैलने की संभावना नहीं है?

प्रेमानंद गजवी : ज्ञान पर किसी भी समाज की मिल्कियत नहीं होती है। इस सोच से अमरीका का लेखक भी बोधि हो सकता है। मणिपुर के रतन थियाम का, जिनसे मेरा कभी कोई परिचय नहीं रहा सम्राट अशोक के जीवन पर आधारित नाटक 'उत्तर प्रियदर्शीमैंने देखा। वह भी 'बोधिनाटक ही है। दुनिया का कोई भी मनुष्य जो मानवीय जीवन के प्रति संवेदनाओं को अभिव्यक्त करनेवाला होगा वह 'बोधिसे ही जुड़ा होगा। यह नाटक गज्वी, मंगेश बनसोड, कुलकर्णी-जोशी कोई भी लिख सकता है। जो कोई ज्ञान की बात करता है, इस सृष्टि के अंतिम मनुष्य तक ज्ञान पहुंचाने की बात करता है वह 'बोधिहै। मैं सिर्फ एक माध्यम हूं। 'बोधिकला-संस्कृति का जो कुछ इतिहास है वह मेरा लिखा हुआ तो नहीं है। वह पहले से ही सामने रखा हुआ है।

डॉ. मंगेश बनसोड : आपने पारम्परिक दायरों को भेदकर नाटक लिखे पर जब वे नाटक व्यवसायिक रंगमंच पर आये तब क्या अनुभव किया आपने?

प्रेमानंद गज्वी : मराठी रंगभूमि के बारे में कहा जाता है कि कुछ हटकर लिखा जाता है उसे तुरंत उठा लिया जाता है। निर्माता नाटक को लेकर कहता है मैंने जो इन्वेस्ट किया वह फिर से मिलेगा या नहीं? मराठी नाट्य-जगत में इस परिपाटी पर नाटक किये जाते हैं। मेरे नाटकों के विषय इस तरह के थे कि उनमें श्रीराम लागू, नाना पाटेकर, शरद पोंक्षे, भक्ति बर्वे, गिरीश ओक इनके साथ-साथ कई कलाकारों ने अभिनय किया। मेरे नाटक चले भी। अगर नहीं चले तो मेरी वजह से नहीं। कलाकार और निर्माता के झगड़ों की बदौलत नहीं चले। दूसरी तरफ मेरे नाटक और एकांकी कई प्रतियोगिताओं के लिए मंचित हो रहे थे। पुरस्कार भी मिल रहे थे। इसलिए जो नाटक बंद पड़े उनको लेकर मुझे कोई परेशानी नहीं थी। कुछ नाटक-एकांकी प्रतियोगिताओं के लिए लिखे। पर मित्रों को पसंद नहीं आये। मसलन मेरा 'देवनवरीनाटक कईयों को पसंद नहीं आया। तेंडुलकर ने पूछा, '' 'घोटभर पाणीके बाद कुछ लिखा हो तो पढऩा चाहूंगा।’’ मैंने जाकर उन्हें दिया वह नाटक। पढ़कर उन्होंने कहा, ''बहुत अच्छा नाटक है। तुम तुरंत वा.वि.भट से जाकर मिलो। इसकी किताब छपनी चाहिए।’’ फिर उन्होंने यह भी कहा- ''प्रेमानंद, क्या तुम जानते हो? तुमने मराठी साहित्य को एक नए शब्द से परिचित करवाया है।’’ यह मेरे लिए कितनी कौतुक की बात थी। यह 1980-81 के दौर की बात है, जब मैं कुछ भी न था। इसे मैं आज पहली बार साझा कर रहा हूं।

श्यामल गरुड़ : आपके समकालीन या अन्य पसंदीदा नाटककार?

प्रेमानंद गज्वी : सच कहूं तो मुझे कोई नाटककार पसंद नहीं है। इस अर्थ से ना लेना कि मैं जन्मजात हूं। ऐसा कोई दंभ नहीं है। मुझे 'महानिर्वाण’, 'घाशीराम कोतवाल’, 'वाडा चिरेबंदीनाटक पसंद आ रहे थे। पर मैं इनसे अलग क्या लिख सकता हूं? मेरे भीतर यह ईष्र्या थी। एक बार कोई नाटककार पसंद आ गया तो समझिये कि उसके प्रभाव को स्वीकारना होगा। मैं इससे दूर रहा। 'घाशीरामके आगे कोई भी कुछ नहीं लिख पाया है। श$फाआत खान, जयंत पवार, मकरंद साठे ये भी केवल ब्लैक कॉमेडी के तहत लिखते रहे। पर उनसे भी बहुत दमखम वाला ऐसा कुछ लिखा नहीं गया। अभी तक किसी ने 'इमरजेंसीपर नाटक लिखा नहीं है।

डॉ. मंगेश बनसोड : मतलब जो इमरजेंसी के शिकार हुए उनसे प्रत्याशा है आपको?

प्रेमानंद गज्वी : उनसे या अन्य किसी से भी इस विषय पर नहीं लिखा गया है नाटक में। 'रथयात्रापर अभी तक किसी ने लिखा नहीं है। शायद ये विषय गज्वी के लिए होंगे।

डॉ. मंगेश बनसोड : आप बतौर चिन्तनशील नाटककार प्रसिद्ध है। निरन्तर नए प्रयोगों में संलग्न रहते हैं इसी के चलते आपके 'अजिंठा नाट्यलेणी’ (अजंता नाट्य-गुफाएँ) नाम से पाँच नाटककारों को लेकर एक प्रयोग किया था। वह सब किस तरह से था?

प्रेमानंद गज्वी : वास्तव में यह 'बोधि-नाट्य-परिषदकी ही देन है। भारत में 'अजंताकी बौद्ध लेणियों का अपना एक वैभव है। जिस पर अधिक कुछ नहीं लिखा गया है। इस विचार के साथ फिर राकेश शिर्के, भगवान हिरे, स्वप्निल गांगुर्डे, अरुण मिरजकर और मैं... बाद में अशोक हंडोरे भी शामिल हो गए थे, हमने दो दिन घूमकर सारी गुफाएं देखी। इन गुफाओं का वैभव और इनमें बौद्ध भिक्षुओं के द्वारा तराशा हुआ हमारा इतिहास, हमारे पुरखों का इतिहास है। और इसी पर फिर चार नाटकों को 'अजिंठा नाट्यलेणीके रूप में प्रकाशित किया। एक ही विषयवस्तु को लेकर चार नाटक लिखे जा सकते हैं इस तरह से यह प्रयोग था। ऐसा ही प्रयोग बोध गया जाकर भी कर सकते हैं। एक अनोखा प्रयोग 'बोधिके माध्यम से किया गया और एक संकल्पना पर चार-अलग-अलग नाटक लिखे जा सकते हैं, 'अजिंठा नाट्यलेणीप्रकल्प से इस विचार को बल मिला।

डॉ. मंगेश बनसोड : आपके नाटक के विषय बेहद अभिनव रहे हैं। 'किरवंतहो या 'गांधी-अम्बेडकरलीजिये 'छावणीजैसा नाटक या 'घोटभर पाणीऔर भी अन्य नाटकों का जिक्र किया जा सकता है। 'किरवंतया अन्य कुछ नाटकों की जन्मकथा के बारे में बताएंगे?

प्रेमानंद गज्वी : एक बार मेरी 'कुणाचे ओझे’ (किसका बोझ) की रिहर्सल चल रही थी। कोई सुहास व्यवहारे इस एकांकी को कर रहा था। मैं रिहर्सल देखने उसके घर गया। मुझे देखकर वह चकित हो गया। सुहास ने बातचीत के दौरान कहा कि 'मुझे समय ही नहीं मिलता है। श्मशान में जाना पड़ता है। पिता चले गए। बाद में लोग मुझे ले गए। पहला विधि-संस्कार मैंने किताब में देखकर ही किया था। पर मुझे यह करना नहीं था।मैंने उससे और भी कुछ जानना चाहा तो कहने लगा, ''दो दिन पश्चात् बताता हूँ।’’ मैं दो दिन बाद उसे मिलने गया तो वह पलट गया। कहने लगा, ''मैंने कब कहा कि मैं श्मशान में जाता हूं?’’ बात को वहीं पर विराम लग गया। फिर मैं दो-चार दिनों के पश्चात् मलाड के श्मशानघाट पर अशोक जोशी से मिला। उसने काफी जानकारी दी। फिर बातों-बातों में कह गया, ''अस्पृश्य का जो स्थान समाज में होता है वही स्थान हमारा ब्राह्मणों में होता है।’’ सच कहो तो वहीं पर नाटक मिल गया था। फिर हम सावंतवाड़ी गए। पर वहां पर कोई भी कुछ बताने के लिए राजी नहीं था। सबकुछ छिपाने की चेष्टा चल रही थी। तभी लगा, अच्छा! यह प्रश्न है और इस पर लिखना होगा। फिर कई किताबों पढ़ी। 'धर्मसिंधु’, 'विवेकसिंधु’ 'गरुड़पुराणजैसे ग्रन्थों को ढूंढकर पढ़ा और यह नाटक लिखा। पर इस नाटक को लेकर मैं संतुष्ट नहीं हो पा रहा था। अंत में 1981 में लिखे हुए नाटक का 1991में पुनर्लेखन किया और उस लड़के की वह प्रतिक्रिया कौंध गई दिमाग में, ''मैं नहीं चाहता हूं पर जबरदस्ती मुझे जाना पड़ता है श्मशान में काम करने के लिए’’। उसे समाविष्ट किया नाटक में तब जाकर मुझे संतोष की अनुभूति हुई। फिर जब इस नाटक को श्रीराम लागू ने पढ़ा तो बेचैन हो गए। कहने लगे, ''इस नाटक को किसी को करना होगा।’’ और तुरंत उन्होंने कहा, ''क्या मैं इसे कर सकता हूं?’’ इतना बड़ा कलाकार कहता है तो और क्या चाहिए था? फिर उसे किया उन्होंने और बेहद सराहा गया नाटक। ''मैं श्मशान में जाता हूं’’ और ''मैं श्मशान में नहीं जाता हूं’’ इनके बीच के खाली स्थान का स्पंदन है 'किरवंतनाटक। इस नाटक में मराठा समाज, ब्राह्मण समाज के दो गुट- एक 'किरवंतऔर दूसरा 'गो-सेवा संघचलानेवाला, और तीसरा गुट 'राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघआये हुए हैं। उस माने में, मैं राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को ठेठ वहां पर ले आया और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ किसी भी अर्थ में समानता के पक्ष में नहीं है, इस बात को सामने रखा। लोग कहते थे कि आपने झूठ लिखा है। नाटक की आलोचना भी हुई। एक लम्बे अन्तराल के पश्चात, पचीस वर्षों के बाद दुबारा मलाड की श्मशान भूमि पर जाकर मैं 20-22वर्ष के किरंवत से जाकर मिला और 'महाराष्ट्र टाइम्सके लिए उसका साक्षात्कार लेकर कहा कि देखिये, आज भी यह प्रश्न कितना ज्वलंत है। मैं अपनी लड़ाई अकेले ही लड़ता रहा।

डॉ. मंगेश बनसोड : इसी तरह का एक प्रयोग आपने 'गांधी-अम्बेडकरनाटक में भी किया था। उसमें आप विदूषक को ले आये हैं। इसके पीछे क्या अवधारणा थी? यह विदूषक का खयाल कैसे मन में आया?

प्रेमानंद गज्वी : भारत में स्वतंत्रता के पूर्व से लेकर स्वतंत्रता के पश्चात् और आज भी गांधी और अम्बेडकर इन दो इंसानों का प्रचंड प्रभाव रहा है, सभी स्तरों पर। 'येकितना भी कह ले कि बाबासाहब का और हमारा कोई सम्बन्ध नहीं है, बिना बाबासाहब को पढ़े इनका एक कदम भी आगे नहीं बढ़ सकता है। 'परिवार-कल्याणविषय हो 'पानी-इरिगेशनका प्रश्न हो... बाबासाहब ब्रिटिशों के समय ही इन पर बात कर चुके थे। गांधी ने भी यहीं कार्य किया। एक को चाहिए थी मातृभूमि की स्वतंत्रता और दूसरे को मनुष्यता-मानव-मुक्ति। और देश की स्वतंत्रता की अपेक्षा मानव-मुक्ति की स्वतंत्रता कभी भी बेहद अहम् है। यह कार्य वैश्विक स्तर का था। गांधी-अम्बेडकर लिखने की इच्छा मेरे मन में क्यों जागृत हुई? स्वतंत्रता मिलकर पचास वर्ष बीच चुके थे। एक बार 'धर्मयुगमें गांधी के बारे में एक आलेख छपकर आया था। उसमें लिखा था कि गांधी की बदौलत हिन्दुस्तान का विभाजन हुआ। हम बचपन में 'गांधीजी की जयजयकारकरते थे। यहां मुंबई में आने के बाद विरोधाभास नजर आने लगा। हमें अच्छी तरह से पता है, गांधी को गालियां देने वाले कौन हैं। सच कहो, तो नाटक लिखने का कोई विचार नहीं आया था दिमाग में। पर इस पर पढऩे, मंथन करने की बात जरुर जेहन में थी। अब बाबासाहब तो मेरे घर की ही खेती थी। इस वजह से वे कम-अधिक सही पर ज्ञात थे। लेकिन गांधी को समझने के लिए उनके 'सत्य के प्रयोगसे शुरुआत की। गांधी को धीरे-धीरे समझने का यह प्रयोग था। गांधी और अम्बेडकर को अलग-अलग जानना यह एक बात और इन दोनों को साथ में रखकर जानना यह उसके आगे की बात थी। एक कोई विधान करता था तब दूसरा बिलकुल उसके विपरीत अपनी बात रखता था। गांधी कहते थे, ''बिना स्कूल गए भी हर बच्चा मानवता की दृष्टि से किसी से कम नहीं है।’’ इसके विरुद्ध बाबासाहब कहते थे, ''शिक्षा ही मानव-मुक्ति का पथ है।’’ यह जो 'कॉन्फ्लिक्ट था यह सब जोडऩे के लिए मैंने सूत्रधार का प्रयोग किया। पर बाद में लगा कि इसमें भी भाषा की मर्यादाएं है। मेरे दिमाग में इन दोनों को पूछने के लिए कई सवाल भरे पड़े थे। फिर मैंने 'संकासुरका प्रयोग किया। मुझे संकासुर, उसका काला पेहराव, लाल जिव्हा सब दिखाई दे रहे थे। नाटक में व्हिजुअल्स नजर आ रहे थे। यह सब प्रादेशिकता की सीमाओं के कारण हुआ। फिर यूं ही लगा कि अगर विदूषक का प्रयोग किया जाए तो? पर विदूषक को बतौर मनोरंजन न बताते हुए उसकी प्रतिमा को तोडऩे का ख्याल मन में आया। इसीलिए फिर नाटक की शुरुआत में ही, ''आ गए हो खेल देखने। किसलिए करुं मैं आपका मनोरंजन?’’ इस पर वाक्य से ही विदूषक की प्रतिमा ब्रेक हो जाती है।

डॉ. मंगेश बनसोड : नाटक के मंचन के दौरान बजाय पुरुष के भक्ति बर्वे को विदूषक बनाकर एक स्त्री को सामने लाना यह भी एक प्रयोग हुआ।

प्रेमानंद गज्वी : यह अलग किस्सा था। 'किरवंतकी वजह से डॉ. लागू से नजदीकी सम्बन्ध बन चुके थे। एक बार बातचीत के दौरान उनसे 'गांधी-अम्बेडकरका जिक्र किया। उस समय दीपा लागू भी मौजूद थी। उन्होंने कहा, ''क्या जरुरी है कि विदूषक पुरुष ही करे?’’ मैंने कहा, ''कोई भी कर सकता है।’’

कला वैभव के ऑफिस में इसे पढ़ा गया। वामन ने कहा, ''अच्छा है। हम इसे करते हैं।’’ उसके पश्चात दो वर्ष बीच गए। पर कोई हलचल नहीं दिखी। मैंने पूछताछ की तो भनक लगी कि मेरे ही नजदीकी समाजवादी मित्रों ने इसके मंचन का विरोध किया हुआ है। मुझे बेहद हैरानी हुई।

डॉ. मंगेश बनसोड : यह तो बेहद हैरान करनेवाली बात थी।

प्रेमानंद गज्वी : हां... था ऐसा ही। बीच के समय में यह नाटक सत्यदेव दुबे के पास गया। चेतन दातार ने इसे उसके सामने पढ़ा था। दुबे ने कहा, ''बहुत बढिय़ा लिखा है। इसके आगे नाटक लिखना नहीं। तू हमेशा के लिए अमर हो गया।’’ मैंने पूछा, ''आप क्यों नहीं करते हैं?’’ कहने लगे, ''मैं नहीं करूंगा।’’ फिर कहने लगे, ''ऐसा क्यों लिखा है... इस नाटक में एक प्रसंग इस तरह से हैं कि स्वतन्त्रता से पूर्व पूना समझौता हुआ जिसके बाद गांधी एक जगह कहते हैं कि 'हे ईश्वर, मुझे अगले जनम में भंगी के घर में पैदा करना।और स्वतंत्रता के पश्चात जब सरदार पटेल और नेहरु से गांधीजी की किसी भी बात पर नहीं बनती हैं तब ये ही गांधी कहते हैं कि ''कांग्रेस में मेरी भंगी जितनी भी कीमत नहीं है।’’ दुबे ने पूछा, ''यह क्यों लिखा है?’’ मैंने कहा, ''यह गांधी ने कहा है। मेरे पास इसके सबूत हैं। मैंने वे कहां से लिए हैं यह भी बता सकता हूं।’’ तब यकायक वे भड़क गए और कहने लगे, ''तुम्हें क्या लगता है कि मैं हर बार तुम्हारी तारीफ ही करता रहूं? मुझे नहीं बोलना है इस नाटक पर।’’ मैंने कहा, ''मत बोलिए।’’ ये विधान कोई मेरे अपने तो नहीं थे। ये गांधी-अम्बेडकर के थे। इसमें एक ही स्टेटमेंट मेरा नहीं है। हां, कदाचित इसमें जो विदूषक है वह मैं हो सकता हूं। विदूषक की वजह से भाषा की शैली और लहजा मुझे उस तरह से रखना जरूरी हो गया। उसके बाद नाटक आया। मंचन हुआ पर चेतन दातार के लिए उसे निभा पाना सम्भव न हुआ। क्योंकि नाटक का विदूषक अगर स्त्री है तो भी उसे मूंछे क्यों लगानी होगी? उसे कोई चार्ली चैपलिन बनाने का प्रयोजन नहीं था। सच कहो तो इस नाटक की पूरी रचना पूर्व-निर्धारित थी।

डॉ. मंगेश बनसोड : आपके कई प्रयोगशील नाटकों में से एक 'छावणी’ (छावनी) नाटक बहुत अलग साबित हुआ है। पर उस नाटक से खलबली भी बहुत मची। सेंसर बोर्ड ने उस पर आक्षेप उठाए। उस नाटक के विषय में कुछ साझा करेंगे? और आज उस नाटक को लेकर क्या सोचते हैं आप?

प्रेमानंद गज्वी : 'छावणीकी कल्पना कई दिनों से जेहन में थी। एक तरफ मैं अपने बचपन को खुशहाल कहता हूं, पर इन दिनों विदर्भ के गड़चिरौली, सिरोंचा और उसके आस-पास के इलाके से आये दिन नक्सली गतिविधियों के बारे में सुनने-पढऩे में आ रहा था। बीच के समय में खैरलांजी भी घट चुका था। सिनेमा-नाटक और अन्य माध्यमों के द्वारा भी इस समस्या को उठाया जा सकता था। फिर यह सवाल था कि इसमें लिखने के लिए और अलग क्या बचा है? फिर भी मैं नोट्स निकाल रहा था। आदिवासियों के शोषण पर पढ़ रहा था। एक बार कश्मीर समस्या पर एक आलेख पढऩे में आया। वैसे इस लेेख का सीधा सम्बन्ध न था पर उसमें  एक मुद्दा था जिसने मेरा ध्यान आकर्षित किया। 1960 में चीन और पाकिस्तान के बीच एक समझौता हुआ था। इस समझौते में यह दर्ज किया हुआ है कि चीन कहें कि कश्मीर पाकिस्तान का हिस्सा और पाकिस्तान कहें कि हिमाचल और आसपास का इलाका चीन का है।  वाम विचारधारा से जुड़े हुए। रशिया का मार्क्सवाद उधर से वह कनेक्ट होकर माओवाद में तब्दील हुआ और चीन... यह पूरी पाश्र्वभूमि नजर आने लगी। बाबासाहब ने कहा ही था कि मार्क्सवाद का जवाब बुद्ध ही है। आजकल जो मार्क्सवाद को लेकर अम्बेडकर-वाद पनप रहा है या प्रकाश अम्बेडकर जिस मार्क्सवाद को साथ ले आते हैं उसकी आवश्यकता नहीं है। क्योंकि अम्बेडकरवाद पर्याप्त है। उसे और पैबंद लगाने की जरुरत नहीं है। मुझे मार्क्सवाद ने कभी आकर्षित नहीं किया। अंत में इस विचार के साथ मैंने 'छावनीको लिखा। वामपंथ का अध्ययन किया। मार्क्सवाद से लेकर माओवाद तक का सफर गहराई से छाना। साथ-साथ इस अंग से मुझे जातिव्यवस्था के निर्माण की बुनियाद भी सामने रखनी थी। सच कहो तो ऐसा नहीं है कि लेखक हर मुद्दे पर अपनी बात रखे। पर मुझे लगा, यह बताना चाहिए। इस देश में सबसे प्रथम मनुष्य का विभाजन हुआ, वेद-पुरुषसूक्त में। इसी ग्रन्थ का उत्तरार्ध गीता है और उसके आगे का पार्ट है ज्ञानेश्वरी। अगर जातिव्यवस्था को नष्ट करना हो तो आपको ये सभी ग्रन्थ नष्ट करने होंगे। लेकिन ये ग्रन्थ किस तरह से नष्ट किये जा सकते हैं? इस नाटक में शंकराचार्य को भी लाया गया है। क्यूंकि अब ये चारों पीठ शंकराचार्य सम्भाले हुए हैं। एक तरफ इस नाटक के किरदार नक्सलवादी... वे शंकराचार्य को बंगले पर बुलाते हैं। यह एम.एम. ही ले आता है। शंकराचार्य को समझाया जाता है कि इस देश में अगर शान्ति लानी है तो ये ग्रन्थ नष्ट करने होंगे। शंकराचार्य विरोध करते हैं, 'धर्म में आप हस्तक्षेप मत कीजिए।फिर इस शंकराचार्य को छावनी में लाया जाता है और मार देने का आदेश दिया जाता है।

श्यामल गरुड़ : आज की पृष्ठभूमि में यह तो बेहद बागी विचार है।

प्रेमानंद गज्वी : नहीं, मुझे ऐसा नहीं लगता है। मैंने लॉजिकली सोचा था। ब्राह्मणवादी व्यवस्था में इंसान को विभाजित किया क्या, यह विद्रोह नहीं है? आर्य बाहर से आये और विभाजन हुआ। सिंधु सभ्यता में यह भेदभाव नहीं था। इसे धर्म की आड़ में लाया गया है तो इस धर्म को नष्ट करना ही होगा। यह लॉजिक है इसके पीछे।

श्यामल गरुड़ : क्या आज के सांस्कृतिक आतंकवाद की पाश्र्वभूमि पर ऐसा नाटक लिखने में कोई भय नहीं महसूस होता है? क्योंकि एक सनातन खाका तैयार किया जा रहा है, अगर आप हमारे धर्म के बारे में बात करते हैं तो आपको दोभालकर, पानसरे, कलबुर्गी बनने में देर नहीं लगेगी।

प्रेमानंद गज्वी : नहीं! बिलकुल नहीं लगता है। इस देश में 127 पूंजीपति पैदा हुए और यह देश उन्हीं के इशारों पर चलता है। स्वतंत्रता मिलकर सत्तर वर्ष हो चुके। पर क्या देश सुखी-संतुष्ट हो पाया है? संविधान क्या कहता है? समता-स्वतंत्रता-विश्वबंधुत्व और आर्थिक सुव्यवस्था। पर ऐसा नहीं हो पाया है। यह असंतोष का भाव भी है इस नाटक को लाने के पीछे। इस देश को बर्बाद किया हुआ है पूंजीपतियों ने। इसलिए इस नाटक का एम.एम. कहता है, ''इस देश का भला किसी ने नहीं किया है। मैं देश का भला करूंगा।’’ फिर यह कैसे सम्भव होगा? तो... ''दिल्ली में हमारी सरकार बननी चाहिए।’’ इस विचार के साथ दूसरा अंक आता है। अब इस सत्ता को कैसे हासिल करना होगा? क्योंकि देश की छावनी में पूरे मिलाकर केवल पांच-छह लाख ही सैनिक हैं। दिल्ली की सत्ता हासिल करना वामपंथियों के बूते की बात नहीं। फिर बतौर लेखक मैं क्या करता हूं। इसकी थाह दूसरे अंक में मिलती है। हत्या बन्दूक से होती है। यह तो एम.एम. (मार्क्स माओ) है। दूसरे अंक में वह वाम-आंदोलन के सूत्र को थामकर मदद के लिए चीन को साथ में लेता है। 1960 का धागा... हिमाचल प्रदेश चीन का... और दक्षिण भारत को हमने कभी अपना माना नहीं... द्रविड़ और उसके अभियानों को हर वक्त हाशिये पर धकेला है हमने। इसलिए कश्मीर का एक हिस्सा, हिमाचल का एक और दक्षिण का एक ऐसे तीन हिस्से। और महाराष्ट्र से दिल्ली यह एक हिस्सा। इसलिए एम.एम. कहता है, ''इस देश के चार टुकड़े करने होंगे।’’

डॉ. मंगेश बनसोड : एक नाटककार होने के नाते यह बेहदे विद्रोही स्टेटमेंट है।

प्रेमानंद गज्वी : सही है। पर यह मेरा अपना बयान नहीं। समझौते मेंं ही कहा गया है कि पूरा कश्मीर आपका है और इन्होंने उनसे (पाकिस्तान ने चीन को) कहा कि पूरा हिमाचल आपका है। यह समझौता इसकी जड़ है। गज्वी की वजह से थोड़े ही यह है।

श्यामल गरुड़ : कल को प्रेमानंद गज्वी इस नाटककार को देशद्रोही करार दिया जा सकता है।

प्रेमानंद गज्वी : हां, देशद्रोही ठहराया जा सकता है। पर मुझे इसकी चिंता नहीं है। मेरे एक नजदीकी मित्र ने भी यही बात कही थी। मैंने कहा उसे, ''क्या होगा? एक गोली दिमाग के आरपार चली जाएगी। और कुछ नहीं  पर इस पर बात न करें क्या ऐसी स्थिति वास्तव में है?’’ कई लोगों ने कहा कि तुम संविधान के खिलाफ जा रहे हो। ऐसी बात नहीं। बल्कि इस देश के संविधान को किस तरह से बचाया जा सकता है इसलिए यह सब लिखा गया है। यहां पर हर एक का अपना-अपना संविधान है। समाजवादियों का है, मार्क्सवादियों का है, संघवालों का अलग है। सावरकरवादियों का अपना एक है। भारतीय संविधान कोई नहीं मानता, यह सच्चाई है। इसलिए भविष्य में इस संविधान का क्या हश्र हो सकता है? या यह देश चार टुकड़ों में कैसे बंट सकता है? इसकी टोह लेते हुए देश को जागृत करने के लिए यह नाटक लिखा गया है। और यही मेरी भूमिका है।

इस नाटक को अलग-अलग करते हुए देखोगे तो इसमें देशद्रोह नजर आएगा पर आप चीन और पाकिस्तान को कैसे सबक सिखाओगे? इसके जवाब इस नाटक में हैं। वे तो आप ढूंढेंगे नहीं। और मुझे देशद्रोही कहते हैं तो बेशक कहिये। मैं तैयार हूं। मैं अदालत में जाने को तैयार हूं। मैं पूछूंगा कोर्ट से कि यह सब करेंगे आप?

श्यामल गरुड़ : आपकी बातें इसकी ओर संकेत करती हैं कि बतौर लेखक प्रेमानंद गज्वी एक भूमिका के साथ सामने आते हैं पर आसपास के लेखक-बुद्धिजीवी-कलाकार चुप्पी साधे बैठे हुए हैं। सभी ओर से एक अजीब-सी दहशतगर्दी की लपटें महसूस होने के बावजूद एक सामूहिक आवाज उठती हुई नजर नहीं आती है। क्या कहना चाहेंगे आप?

प्रेमानंद गज्वी : हमारे यहां कई तरह के इजम हैं। देशीय-वाद से लेकर पन्द्रह-बीस। इन सभी के अलग-अलग समर्थक लेखक-कलाकार सभी जगह है। निरंतर अपनी बात रखने की पेशकश कौन करते हैं? इने गिने लोग ही। मैं तो यहां तक कहता हूं कि अम्बेडकरवादियों के अलावा कोई इस बात को लेकर सामने आया ही नहीं है, कि कलाकार की अपनी भूमिका होनी चाहिए। मजे की बात यह है कि बाबासाहब का अनुयायी किसी भी प्रश्न को लेकर रास्ते पर उतर आता है। मसलन वह दक्षिण का शबरीमाला मंदिर में स्त्रियों के प्रवेश का प्रश्न हो या शनि के चबूतरे पर स्त्रियों के प्रवेश की अनुमति का प्रश्न। ये भले ही स्त्रियों के प्रश्न हो पर हम इसे मानवता का प्रश्न मानकर चलते हैं। तब ये लोग निरंतर कहते नजर आते हैं कि कलाकार का अपना अभिमत होना चाहिए। मुझे स्वयं यह नजर आता है कि हर कलाकार की अपनी एक भूमिका होती ही है। मैं अगर संघवादी होता तो मेरी राय भी संघ के पक्ष में होती। वह अगर मेरे विरोध में जाती है तो मैं क्या कहूंगा कि इसकी अपनी कोई भूमिका नहीं है। नेमाड़े भी देशीयवाद को लेकर अपनी भूमिका सामने रखते हैं। हालांकि क्या ऐसा कह सकते है कि हर एक की भूमिका उसकी सुविधा के अनुसार होती है? तो हां। क्योंकि मुझे जीना होता है, किताब छपवानी होती है, पुरस्कार लेने होते हैं, पद्मश्री लेनी होती है... हर एक की सुप्त भूमिका होती ही है। और दक्षिणपंथीय शक्तिशाली है। सभी दृष्टि से, धर्म की दृष्टि से, राजकीय दृष्टि से, जाति की दृष्टि से, आर्थिकी दृष्टि से! सदाशिव पेठ की व्यक्ति की भूमिका को लेकर सीधे-सीधे कोई मंशा नजर आती नहीं है लेकिन वह निस्संदेह भीतर से वैदिक परंपरा से नाता रखती है। इसके ठेठ परिणाम नागपुर की दीक्षाभूमि तक नहीं जाते है और ना ही संघ के रेशीमबा तक। वे पृथक-पृथक रहते हैं। और ये लोग इतने चालाक है कि उन्हें पता है किसे कितना बड़ा करना है। तो कलाकार की अपनी कोई भूमिका नहीं होती है। यह लाउड अर्थ से हुआ और यह वामपंथियों और अम्बेडकरवादियों का स्टेटमेंट है। कल अगर वैदिक परम्परा को लाना है तो वे 'वैदिक परम्पराइस शब्द का इस्तेमाल नहीं करेंगे। 'हिंदुत्वकहेंगे। हिंदुत्व इस तरह से चुपड़ा-मुलायम! मराठों से लेकर सभी जातियों को 'हिंदुत्वके नाम पर एक साथ लाकर उसके सामने 'मुसलमानइस शत्रु को खड़ा करते हैं। और मराठा के साथ-साथ सभी जातियाँ मुसलमानों के विरोध में जाकर अप्रत्यक्ष रूप से संघ का ही काम करती हैं। यह एक तय की हुई संरचना है। ये 'वैदिकही है। 'हिंदूनहीं है। इस भूमिका को अभी कोई साबित नहीं कर पाया है। मतलब जो कहते हैं कि 'समाज में समानता लानी होगीउनके अध्ययन पर ही सवाल उठते हैं। फिर भारत का इतिहास, भारत की जड़ें, हिंदुइज्म कब आया? वैदिक धर्म कब आया? मुस्लिम धर्म कब आया। जैन-बुद्धिज्म कब आया? ये जो ब्यौरों के भाग है उसकी जड़ें इतिहास में छुपी है। यह सब एक बार जांचना होगा। तभी हर एक ही भूमिका उजागर होती जाएगी।

 

 

 

परिचय

प्रेमानंद गज्वी

प्रेमानंद गज्वी मराठी तथा भारतीय रंगमंच के जाने माने वरिष्ठ प्रयोगशील रचनाकार है। महाराष्ट्र के विदर्भ के एक छोटे से कस्बे पिंपलगांव में जन्मे प्रेमानंद गज्वी ने अपनी नाट्यरचनाओं से भारतीय रंगमंच में महत्वपूर्ण योगदान दिया है। उन्होंने अब तक बारह एकांकी और चौदह नाटक लिखे हैं, जिनमें 'देवनवरी’, 'किरवंत’, 'तन-माजोरी’, 'गांधी-आंबेडकर’, 'नूर मोहम्मद साठे’, 'व्याकरण’, 'छावणीइनके बेहद महत्वपूर्ण एवं चर्चित नाटकों में माने जाते हैं। राष्ट्रीय स्तर पर इनके नाटक लगातार मंचित होते आए हैं और तेलगु, तमिल, बंगाली, छत्तीसगढ़ी तथा अंग्रेजी में कई नाटकों का अनुवाद हो चुका है। महाराष्ट्र के सभी महाविद्यालयों में स्नातक तथा स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम के अंतर्गत इनके नाटकों को शामिल किया गया है। 'तन-मजोरीका मंचन 1985 में लंदन के थियेटर में हो चुका है। नाटक के अलावा 'एकतारी’ (कविता), 'लागणऔर 'ढीबर डोंगा’ (कहानी-संग्रह तथा 'जागरऔर 'हवे पंख नवे’ (उपन्यास) इन अलग-अलग विधाओं में किया गया लेखन मराठी गद्य लेखन में अपना एक योगदान रखता है। नाट्य-लेखन के लिए अभी तक 40 पुस्कारों से प्रेमानंद गज्वी को सम्मानित किया जा चुका है। हाल ही में विवेचना जबलपुर द्वारा किया हुआ इनका नाटक 'महाब्राह्मण’ (मूल मराठी किरवंत) भारत का रंगमहोत्सव 2019 के लिए चयनित हुआ है। नवम्बर 2018 में प्रेमानंद गज्वी अखिल भारतीय मराठी नाट्य सभा के अध्यक्ष चुने गए।

डॉ. मंगेश बनसोड - यूजीसी फेलोशिप से 'मराठी लोक-कला तमाशाविषय में पीएचडी। कई वर्षों तक महाराष्ट्र के विभिन्न महाविद्यालयों में अध्यापन करनेवाले डॉ. मंगेश बनसोड एक लम्बी अवधि से फिल्म तथा थिएटर की गतिविधियों से जुड़े हुए हैं। एकेडमी आफ थिएटर आटर््स, मुम्बई विश्वविद्यालय के महत्वपूर्ण कामकाज को सम्भाला और फिलहाल वहां के प्रभारी निदेशक का कार्य देख रहे है। पिछले दस वर्षों की रचनात्मक सृजनयात्रा में कई मराठी-हिंदी नाटक, धारावाहिक, फिल्म तथा डाक्यूमेंटरी के लिए अभिनय तथा निर्देशन के क्षेत्र में अपना अहम् योगदान दे चुके हैं। साथ ही कविता, शोध-प्रबंध, आलेख, समीक्षा, अनुवाद इन विधाओं में किया गया उनका मौलिक लेखन मराठी साहित्य में अपना एक अलग महत्व रखता है। कुछ प्रमुख कृतियाँ - 'मी येणान्या पिढीची दिशा घेऊन फिरतोय’ (मैं आने वाली पीढ़ी की दिशा लिये घूम रहा हूं), कविता संग्रह - 'लोकवाङ्यम गृहमुंबई से प्रकाशित, 'तमाशा-रूप आणि परम्परा’ (शोध-प्रबंध), 'उष्टं’- (ओमप्रकाश वाल्मिकी के 'जूठनइस प्रसिद्ध आत्मचरित्र का मराठी अनुवाद), हिन्दी, अंग्रेजी और गुजराती भाषाओं में कविताएं अनुदित तथा साहित्य अकादमी दिल्ली द्वारा प्रकाशित थिएटर तथा लेखन के लिए कई महत्वपूर्ण पुरस्कारों से सम्मानित। संपर्क मो. 9920420388

डॉ. श्यामल गरुड़ - मराठी साहित्य के साथ-साथ पत्रकारिता में स्नातकोत्तर उपाधि प्राप्त कर चुकी श्यामल गरुड़ मुंबई विद्यापीठ में अध्यापन के साथ लेखन से भी जुड़ी हुई हंै। चरित्र तथा आत्मचरित्र के अध्ययन में रुचि रखनेवाली श्यामल ने महाराष्ट्र के गांव-कस्बों में घूमकर कई उपेक्षित कलाकारों को ढूंढ निकाला और उनकी चरित्रगत जानकारी को इकट्ठा किया। फिलहाल वे महाराष्ट्र साहित्य संस्कृति-मंडल के अनुदान में '1901-2015 के कालखंड के 'तमाशाइस लोककला में बहुजन कलाकारों का योगदान - 'एक ऐतिहासिक, सांस्कृतिक अध्ययनप्रकल्प पर काम कर रही है। प्रकाशित किताबें - 'दलित स्त्री आत्मकथने’ (दलित स्त्रियों की आत्मकथाएं), 'कलाजीवन 'तीच्या अंत:स्थाचं’ ('कालजीवन-उसके अन्तस्थ का’ - : कलाकार स्त्रियों की आत्मकथाएं), 'तमाशातील मुस्लिम कलावंतांची इबादत’ (तमाशा के मुस्लिम कलाकारों की इबादत) प्रकाशित होने जा रही है। संपर्क - मो. 919920423179

 

अनुवादक - सुनीता डागा, एम.ए. (हिंदी), पिछले तीन वर्षों से मराठी-हिंदी-राजस्थानी परस्पर अनुवाद में कार्यरत। कई महत्वपूर्ण हिंदी-मराठी पत्रिकाओं के लिए निरंतर अनुवाद में संलग्न। संपर्क – 8149176638

 

 


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