बसंत त्रिपाठी की कविताएँ
बसंत त्रिपाठी
कविता
बादल के भीतर
बादलों से लिपटे हुए पहाड़ रुई के ढेर की तरह लगते हैं भारहीन उड़ते हुए
और बादल के भीतर चलना जैसे टिप-टिप बारिश में देर तक भीगना
बस एक धुआँ धुआँ सा होता है दृश्य आँखों से नदारत और मन भीगता चला जाए है चुपचाप
पंछी भीगे पंख लिए छुप गए हैं मैं सपाट मैदानों का वासी भीगे पंख लिए बादलों के भीतर उड़ रहा हूँ
बादल दृश्य को मुलायम बना देते हैं.
मैं तुमसे प्यार करता हूँ मैं तुमसे प्यार करता हूँ जैसे समुद्र अपनी मछलियों और शैवालों से करता है जैसे आकाश अपने पंछियों की उन्मुक्त उड़ानों से और पृथ्वी तितलियों की मखमली छुअन से
मैं तुमसे प्यार करता हूँ लेकिन वैसे नहीं जैसे मछुआरा मछलियों से करता है और फेंकता है जाल
जैसे बहेलिया चिडिय़ों से करता है
मैं तुमसे प्यार करता हूँ जैसे एक आज़ादी दूसरी आज़ादी से करती है जैसे एक देह दूसरी देह से जैसे एक दिल की उष्मा दूसरे दिल में खलबली पैदा करती है
मैं तुमसे प्यार करता हूँ और केवल इसी शब्द को जी पाने की कोशिश करता हूँ
बस मैं तुमसे प्यार करता हूँ।
खुद से दूर
बहुत दूर से समुद्री लहरों की तरह आ रहा हूँ मैं मुझे सँवलाए पत्थर से टकराकर बिखर जाने दो
निर्जन तट के नमकीन सागरी शोर में झुंड से सायास बिछुड़ी मछली सा भटक रहा हूँ अनमना और निरुद्देश्य
तुम मुझे दिखा दो मेरा पथ पथ जो ले जाए मुझे अपने में दबाए कहीं दूर
मैं खुद को पाने के लिए खुद से दूर जाना चाहता हूँ
तुम्हारी उदासी
तुम्हारी उदासी की मुरझाई कलियाँ मेरी आत्मा में झड़ती हैं
तुम्हारी आँखों में ठहरी बूँद मेरी नसों में उतरती है
कभी कभी खामोशी जब वाचाल शब्दों की दरारों से रिसने लगती है मैं रख देता हूँ वहाँ अपनी नींद का बर्तन
सच है कि दुनिया में अनगिनत जख्म हैं गान के भीतर अनकहे टीस हैं हर वक्त किसी कबाड़ के उजाड़ में फँस जाने का भ्रम घेरे रहता है
पर कभी कभी जब तुम्हारी आँखों की गहराई में झाँकता हूँ तो लगता है किसी गहरे कुएँ के ठहरे जल में देख रहा हूँ अपनी ही निर्मल धुली परछाई
और यह मेरी काया की निर्मलता नहीं है यह तुम्हारी आँखों की पवित्रता है
जाती हुई ज़िंदगी के लिए एक शोकगीत
मैं वहीं खड़ा था बस यही मुश्किल थी और यह मेरे अकेले की मुश्किल नहीं थी एक औसतपने की विराट भारतीय मुश्किल थी
जबकि ज़िंदगी अपने साजो-सामान समेत बहुत गुस्साई हुई जा रही थी
क्या उसे थाम लूँ आवाज़ दूँ कहूँ - रुक जाओ, थोड़ी देर के लिए ही सही ! क्या मेरी पुकार से वह थमेगी पलभर भी?
क्या एक औसत आपदग्रस्त नागरिकता से बीहड़ जि़ंदगी को रोका जा सकता है एक पल के लिए भी? मैं वहीं खड़ा था - वहीं खड़ा रह गया था जबकि ज़िंदगी ने कहा - अलविदा, अपना खयाल रखना
हालाँकि उसके जाने के बाद जितनी भी बची थी वह भी ज़िंदगी ही थी गर्म, नमकीन और मुकम्मल ज़िंदगी !
घड़ी दो घड़ी
घड़ी दो घड़ी और बैठो इसी तरह सब कुछ भूलकर
कोलाहल के इसी घेरे के भीतर हम चुन लें अपना एक अदृश्य कोना फिर डूब जाएँ उसमें और पत्तियों के झरने की आवाज़ अपने कानों से पिएँ
तुम बैठो थोड़ी देर और पेड़ की परछाई को पूरब की ओर थोड़ा और बढऩे दो बच्चों को शिक्षा की जेल से शोर मचाकर निकलने तो दो
पंछी जब अपने घोंसलों की ओर लौटने की हड़बड़ी में दिखें तब तुम भी लौट जाना
लेकिन अभी तो बैठो घड़ी दो घड़ी और ।
कवि, आलोचक बसंत त्रिपाठी छत्तीसगढ़ से आते है, वर्तमान में इलाहाबाद विश्वविद्यालय में हिन्दी के प्रोफेसर हैं। संपर्क - मो. 9850313062
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