राजेश सकलानी की कविताएं
राजेश सकलानी
कविता
इत्ता सा मंत्री
पुलिसजनों तुम खिलौनों की तरह लगते हो इत्ते से मंत्री की चौकसी में जैसे वह लोकहित में जोखिम उठाता है जैसे वह पुरानी सदी का बादशाह है जैसे वह महान अभियान का पुरोधा है जैसे वह दूसरे ग्रह से आया है जैसे उसका घर कोई किला है जैसे हम दूसरी रियासत के जासूस हैं जैसे वह क्रान्तिदर्शी है जैसे वह हमें नहीं जानता जैसे हम उसे नहीं जानते।
नई सरकार
ये मुख्यमंत्री हँसता हुआ सा है ख़बरों में यह छाया हुआ सा है लार मुँह में भरा हुआ सा है कौन मानेगा यह नया सा है।
मुख्यमंत्री से मुलाकात
आप मुख्यमंत्री हैं! अरे मैंने समझा आप सन्यासी हैं। मुझे लगा आप एक नगर बसायेंगे परम अति सुन्दर, हम पत्तों की तरह हिलते हुए लीन हो जायेंगे रिक्शे वालों से क्षमा माँगेंगे पाँव पकड़कर किसान जनों से प्रसाद के लिए थोड़ा सा आटा ले लेंगे। आप मानेंगे सभी बच्चे समान इज़्जत के हकदार हैं और कभी बांसुरी को हाथ नहीं लगायेंगे। आपके वस्त्र बहुत मैले हो चुके है। हम उन्हें बदलेंगे तो ज्यादा खरोचें आयेंगी। क्षमा कीजियेगा, मैं बहक गया हूँ। आप मुख्यमंत्री कैसे हो सकते हैं और सन्यासी तो कोई और तबियत के लोग होते हैं।
ये धूप की लौ हमारी है
ये धूप की लौ हमारी है और बारिशें भी
इन्होंने बनाया है हमें इन्होंने सताया है हमें इन्होंने जिलाया है हमें इन्होंने मिलाया है हमें
पूरब से पश्चिम तक मैदानों में उत्तर से दक्षिण तक मैदानों में खूब तपाया है हमें हरे-भरे पेड़ों की छाया ने बाँह पकड़ कर सुलाया है हमें
ये सारे बन्दे अपने हैं जिन पर पानी की बूँद पड़ी ये तेरा भी धरम है ये मेरा भी धरम है।
पानी का खेल
पानी है तो मचलेगा
हाथ छुड़ा कर भागेगा हँसते-हँसते थक जायेगा रो जायेगा सो जायेगा
जागेगा तो उछलेगा पानी है तो फूटेगा।
मेरीकॉम तुम हिन्दी बोलो
बोलो बोलो हिन्दी बोलो मेरीकॉम तुम हिन्दी बोलो
मैं तेरी भाषा में आउँगा खिड़की से जो तुम खोल रही हो
मुझको पूरब जाना है मुझको पश्चिम जाना है इस जनपद में आते-जाते उस जनपद में खो जाना है
बोली बानी को बल दो, हाँ ऐसे शब्दों को उजला दो ऐसे इस स्वर वन को एक नया पथ दो
ऐसे ही बोलो भूली भटकी अटकी जुबान को नए रूप गुण दो।
मैं और वेटर
मैं और वेटर दोनों कामयाब अभिनेता हैं
जैसे वह उदासी से डूब गया है जैसे मैं दुश्मनों को पछाड़ कर पानी पीता हूँ
जैसे हम एक दूसरे को नहीं पहचानते हैं जैसे हम प्लेटों और चम्मचों की आवाज़ों से डर गये हैं
जैसे वह मेरे सामने झुक गया है जैसे मैं उसे ऑर्डर देता हूँ
जैसे उसका कोई घर नहीं है जैसे मैं अपने बच्चों को यहाँ हँसाने के लिए लाया हूँ
जैसे मैंने सुकून हासिल कर लिया है जैसे उसे खुशियों की ज़रूरत नहीं है
जैसे वह पराजय का एक नमूना है।
सोने की गेंद
पांडव खेलें कौरव खेलें सोने की गेंदे से मिलजुल खेलें
नभ खेले झिलमिल परबत पर उछल मचल जलधारें खेलें चिडिय़ा के पंखों से खेले हवाएँ डाल-डाल पर डालें खेलें
चाँदी की हँसिया नदिया जैसी भेड़ों के संग बाला खेले
तीखे पाथर मृदल भये अकुलाए बादल किलक पुलक कर खेले
हिन्दू खेले मुस्लिम खेले धूप की किरणें मुख पर खेलें।
देहरादून में रहते हैं। इसके पूर्व भी पहल में कविताएं प्रकाशित हुई हैं। नये विन्यास और विषय को लेकर ही रचते हैं।
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