मुखपृष्ठ पिछले अंक लंबी कविताएं घोड़े, सौदागर और जनतंत्र
पहल - 114

घोड़े, सौदागर और जनतंत्र

स्वप्निल श्रीवास्तव

लम्बी कविता/दो (काव्यकथा)

 

 

 

 

बचपन में पहली बार

देखे थे घोड़े

घोड़ों पर सवार थे

सौदागर

वे दूर देश से गांव के

फ़्ता बाजार में

आते थे

उन चीजों को साथ

लाते थे - जो उस इलाके में

दुर्लभ थी

वे गांव के बागान में

उतर कर सुस्ताते

घोड़ों को तालाब में पानी

पिलाते थे

गठरी से रोटी निकाल कर

अंगोछें में रखते थे और

इत्मीनान से खाते थे

उनके मुंह से चभर चभर की

आवाज आती थी

उसके बाद वे बाजार का

रुख करते थे

घोड़ों के गले में बजती

थी घंटियां

लोग जान जाते कि

सौदागर आ गये हैं

सौदागरों के चेहरे हम जैसे थे

लेकिन वे भीतर से कांईयाँ थे

 

पिता कहते थे कि सौदागरों के

आंखों में सुअर का बाल

होता है

वे किसी के साथ मुरव्वत

नहीं करते

 

वे ग्राहकों को इस तरह ठगते थे

कि उन्हें अंत तक नहीं

पता चलता था

 

बाजार में उनके सारे माल-असबाब

बिक जाते थे

घोड़ों की पीठ खाली

हो जाती थी

लेकिन सौदागरों की जेंबें

भरी होती थीं

 

रात को वे हमारे दुआर पर

टिकते थे

घोड़ों को पेड़ से बांध

देते थे

और चूल्हे पर भोजन

पकाते थे

उनका भोजन साधारण

होता था लेकिन वे आसाधारण

रूप से खाते थे

खाने के बाद वे लम्बी

डकार लेते थे

जिसे सुनकर घोड़े हिनहिनाते

हमें पता लग जाता था कि

सौदागर सो गये है

 

सौदागरों को जल्दी नींद

आ जाती थी

वें नींद में बड़बड़ाते थे

उनकी बड़बड़ाहट में बाजार के

हिसाब-किताब के सम्वाद

होते थे

 

घोड़े खड़े-खड़े सो जाते थे

उन्हें अच्छी नींद आती थी

अपनी थकान वे धूल में लोट कर

मिटाते थे

 

सौदागर अपने रूपये-पैसे टेंट में

छिपा कर सौते थे

आसपास की चींजे बिखरी हुई

रहती थी

बाजार में लोगों की जेंबें कट

जाती थी लेकिन जेबकतरों की

ऊंगलियां उनकी जेब तक

नहीं पहुंच पाती थी

 

सुबह-सुबह सौदागरों के चेहरों

पर रौनक और घोड़ों की चाल में

फुर्ती होती थी

वे घर पहुंच कर किसी दूसरे

बाजार जाने की तैयारी में

होते थे

* *

 

फिर घोड़े सामंतों के यहां

दिखाई दिये

वे उनके यातायात के साधन थे

उन्हें कहीं भी जाना होता था

वे घोड़ों के साथ जाते थे

वे हफ्ते में दो-तीन दिन

घुड़सवारी का अभ्यास करते थे

और घोड़ों के बारे में सोचते थे

घुड़सवार उन्हें बताते थे कि कैसे

थामी जाय लगाम-कैसे ऐड़

लगाई जाए और रकाब में किस

सावधानी के साथ रखे जाय

पांव

वे बेलगाम घोड़ों को काबू में

रखने की हिकमत बताते थे

 

सामंतों के पास कीमती

घोड़े थे - जिन्हे वे सोनपुर

या राजस्थान से खरीद कर

जमा किये हुए थे

इन घोड़ों को बचपन से

ट्रेनिंग दी जाती थी

फिर मैदान में उतारा जाता था

 

घोड़ों के अयाल बहुत मोहक

होते थे

इन्हें कायदे से संवारा

जाता था

चलते समय अयाल हवा में

हिलते हुए अच्छे लगते थे

 

खाली समय में घोड़ों के दो ही

काम थे-जुगाली करना या हिनहिनाना

 

सुबह-सुबह इन्हें घास के मैदानों में

छोड़ दिया जाता था

जहां वे पेट भर घास खाते थे

और उसे ज्यादा रौंदते थे

 

कई घोड़े घास में गायब

हो जाते थे

यह मुहावरा नहीं सच्चाई है

 

दार्शनिक घोड़ों को घास में

खोजते थे और जीवन की नई

व्याख्या करते थे

 

घास के मैदान से लौटने के बाद

घोड़े तालाब में नहाते थे

ताकि उनकी पीठ चमकदार

बनी रहे

अच्छे घोड़ों की पीठ धूप में

खूब चमकती थी

 

घोड़ों की शक्ल-सूरत प्राय:

एक सी होती थी

वे अपनी नस्ल और कौशल से

पहचाने जाते थे

 

सामंतों के पास दिखाने के लिये

हाथी होते है लेकिन वे घोड़ों पर

ज्यादा भरोसा करते थे

बस ऐड़ लगाने की देर होती थी

वे सरपट दौडऩे लगते थे

यदा-कदा धौंस जमाने के लिये

हाथी की सवारी करते है और जवार में

अपना रूतवां दिखाने की कवायद

करते थे

जैसे महावत अंकुश लगाता

हाथी चिग्घाडऩे लगता था

लोग चौंक उठते थे

इस उद्घोष के साथ सामंतों का अहं

शांत हो जाता था

वे खुश हो जाते थे

 

हाथी का उपयोग सीमित होता था

घोड़े सम्भावना से भरे होते थे

उनके पास नहीं होता आलस्य

कोई रास्ता नहीं होता दुर्गम

 

ऐसे भी बदनसीब घोड़े होते थे

जो तांगे में जुतने के लिये

पैदा होते थे

उन्हें खाने के लिये दाने कम

चाबुक ज्यादा मिलते थे

 

वे प्रतिरोध में तांगों को उलार

कर देते थे - फिर मान-मनव्वल के बाद

तांगों में नंधते थे

उनकी कहानियों में दुख और अफसाने

बहुत थे

 

सबसे बुरी गत तो मिलेटरी के रिटायर

घोड़ों की होती थी

उनका अतीत स्वर्णिम और वर्तमान

अत्यंत दुखदायी होता था

जिन शान से वे फौज में रहते थे वह

सेवानिवृत्त के बाद हवा हो जाती थी

 

वे रात में चुपके चुपके अच्छे दिन

याद करके रोते थे

 

दूसरी तरफ हार्स रेस के घोड़े थे

जिस पर बड़े-दांव लगाये जाते थे

 

जो घोड़ा जीतता था वह

बाजार की मुख्य खबर बनता था

जो हार जाता था उसे गोली

मार दी जाती थी

 

घोड़ा हो या आदमी-दोनों का वक्त

एक जैसा नहीं होता

परिस्थितियां नियति का निर्धारण

करती है

 

विरले घोड़े बाबा भारती का

सुल्तान बन कर इतिहास में

अमर हो पाते हैं

 

घोड़ों का जिक्र हो तो राणाप्रताप

और लक्ष्मीबाई के घोड़ों को

नहीं भूलना चाहिये

ये युद्ध के निर्णायक घोड़े थे

राजतंत्र में घोड़े बादशाह की बग्घी में

नधते थे और रियासत की सैर

करते थे

इनकी पीठ पर बैठ कर

राजा शिकार पर जाता था और

बाघ मार कर लौटता था

यह बात अलग है कि शेर को

धोखे से मारा जाता था लेकिन

मुसाहिब उसे बड़े शिकारी के

रूतबे से नवाजते थे

 

ये विशिष्ट घोड़े अस्तबल में नहीं

महल में रहते थे

उनके पांव में सोने की नाल

ठुकी रहती थी

सिर पर लहराती थी

कीमती कंलगी

महारानियां उन्हें उनके नाम से

पुकारती थी

उनके अयाल सहलाती थी

घोड़े प्रेम में निमग्न हो जाते थे

वे दुलार प्रकट करने के लिये

धीमें से हिनहिनाते थे

उनकी हिनहिनाहट में लय और ध्वनि

होती थी

 

आख्यानों में उडऩेवाले और अश्वमेध

के घोड़ों का उल्लेख मिलता है

वे जादुई घोड़े थे

देवताओं का रथ सजाते थे

उन पर परियां बैठती थी

वे जिस रास्ते से जाते थे

वह आलोकित हो उठता था

घोड़ों के बिना रथ की कथा

अधूरी है

रथ में एक साथ कई घोड़े

नंधते है- जिसे सारथी हांकता है

और जंग जीतता है

लेकिन घोड़ों की भूमिका पर

इतिहास विचार नहीं करता

यह घोड़ों का अवमूल्यन है

 

यातायात के साधनों के विकास के बाद

घोड़ों का महत्व कम नहीं हुआ है

उन्हें जनतंत्र के निर्माता के रूप में

जाना जाता है

वे राजनेताओं का भाग्य बदल

देते हैं

उनके बगैर नहीं हासिल होता

विश्वास मत

 

जनतंत्र के वे घोड़े अपना पक्ष

चुनने के लिए स्वतंत्र होते हैं

इसलिए बाजार में उनकी कीमत

अचानक बढ़ जाती है

 

जनतंत्र का इतिहास यह भी

बताता है कि घोड़े अब विश्वनीय

नहीं रह गये हैं

वे कभी भी दुलती मार सकते है

और विपक्ष में पहुंच कर बाजी

पलट देते हैं

 

जो बाजीगर घोड़ों पर दांव लगाते हैं

वे जानते हैं कि घोड़े आदमी से ज्यादा

चालाक होते है

उनके बिना जनतंत्र की कल्पना

नहीं की जा सकती

 

 

 सम्पर्क मो 9415332326   फैज़ाबाद


Login