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सत्ता, मीडिया और कार्पोरेट जगत की जुगलबंदी के तीन ताल

सूरज पालीवाल

पुस्तक/संजय कुंदन का उपन्यास 'तीन ताल

 

 

 

 संजय कुंदन का 'तीन तालउपन्यास अपने समय की उन आवाजों को उभारता है, जिन आवाजों को दबाने की कोशिश हर सत्ता अब-तक करती आ रही है। सत्ता न केवल विरोधी की आवाज को दबाती है बल्कि उन आवाजों को दबाने का खेल भी खेलती रहती है। 'तीन तालवैसे तो हिंदुस्तानी संगीत के प्रसिद्ध तालों में से एक है, जो उत्तर भारत में सर्वाधिक प्रचलित है। यह लयबद्ध रचना का समन्वित स्वर के लिए किया जाता है उसी प्रकार उपन्यास में तीन युवाओं के प्रतिरोधी स्वर को भी समन्वित किया गया है। ये तीनों युवा परंपरागत जीवन के विरोधी हैं, इन तीनों को पूरा करते-करते अधिकांश आज्ञाकारी युवा अपना जीवन न्योछावर कर देते हैं। इनका विचार है कि दुनिया को बदलने के लिए किसी को तो आगे आना होगा, जाहिर है कि जो आगे आयेगा उसे अपने प्रतिरोध के लिए बहुत कुछ खोना भी पड़ेगा। मध्यवर्गीय जीवन जीते युवा कुछ खोना नहीं चाहते, वे उन्नति की सीढिय़ां चढ़ते हुए इधर-उधर नहीं देखते बल्कि एक ऐसा निर्बाध रास्ता पकड़ते हैं जो उन्हें अपने अफसर का विश्वासपात्र और सुविधाओं का गुलाम बनाता जाता है। ऐसे युवा वैचारिक दृढ़ता से बचते हैं, वे इस पचड़े में नहीं पडऩा चाहते कि सत्ता क्या कर रही है और उसे क्या करना चाहिए, वे यह सोचना भी नहीं चाहते कि उनकी सामाजिक चिंताएं क्या हैं? वे सिर्फ अपने बारे में सोचते हैं और आगे बढ़ते जाते हैं। 'तीन तालके तीनों युवा आम युवाओं के अलग हैं, उनकी व्यापक सामाजिक चिंताएं हैं तो समाज के बदलने के सपने भी। वे उन सामाजिक चिंताओं को पूरा करने और सपनों को साकार करने के लिए अपनी नौकरी भी दांव पर लगा देते हैं। कहना न होगा कि ऐसे युवा देश में कम हैं लेकिन यह मानकर चलना ठीक नहीं होगा कि प्रतिरोध की प्रजाति समाप्त ही हो गई है।

'तीन तालउपन्यास को पढ़ते हुए यह विश्वास दृढ़ होता जाता है कि युवाओं की सर्वाधिक आबादी वाले भारत में परिवर्तन की इच्छा शक्ति अभी भी युवाओं में ही मौजूद है। सत्ता पैंसठ प्रतिशत युवाओं का नाम लेकर विकास का ढिंढोरा तो पीटती है लेकिन युवाओं के विकास के लिए वृहत्तर योजनाओं की घोषणाओं से बचती है। बहुराष्ट्रीय कंपनियों में मालिकों की अमानवीय शर्तों पर नौकरियां जिन युवाओं को मिल रही हैं, उनकी संख्या बहुत कम है। बाकी युवा, किसान और आम आदमी तो आज भी सामान्य जीवन यापन की सुविधाओं के लिए दर-दर भटक रहा है। सत्ता उसे यह भरोसा देने में भी असमर्थ रही है कि उसकी समस्याओं का निदान जल्दी ही किया जायेगा। दरअसल, सत्ता निदान करती नहीं है बल्कि उसका सपना दिखाती है। सत्ता के पांच साल सपनों के पूरे होने के पांच साल नहीं होते बल्कि सपनों में यथास्थितिवादी बनाये रहने के होते हैं। कई बार यह प्रश्न उठता है कि जिस देश में सत्तर प्रतिशत लोग गरीब और गरीबी की सीमा रेखा के नीचे गुजर करने वाले हों, उस देश में प्रतिरोधी आंदोलन क्यों नहीं होते? प्रतिरोधी आंदोलनों के लिए विरोध, बेचैनी और असहमति के वातावरण की जरूरत होती है, विडंबना है कि सत्ता और उसके दलाल ऐसा वातावरण न बनने देने की लाख कोशिश करते रहते हैं। धर्म, जाति, प्रांत और न जाने ऐसे ही सतही और संकीर्ण मुद्दे उठाकर वे प्रतिरोधी वातावरण को निष्प्रभावी बनाते रहते हैं। इन दिनों मीडिया और सोशल मीडिया सरकार के इन कुत्सित प्रयासों को सफल करने में अपनी जानदार भूमिका निभा रहा है। मुद्दा है किसानों का और टीवी चैनलों पर बहस होगी पांडवों के अवशेष कहां और किस अवस्था में है, बेरोजगारों पर लाठीचार्ज किया जायेगा और बहस होगी सचिन तेंदुलकर को भगवान मानने और मनवाने पर और कुछ नहीं होगा तो हिंदु-मुसलमान तो मीडिया का स्थायी मुद्दा है ही।

'तीन तालमें यह चिंता कई रूपों में मुखर हुई है कि अखबार देश की गुलामी के विरोध में आग उगलते थे और स्वाधीनता के लिए हर कुर्बानी देने के लिए तैयार रहते थे, वे धीरे-धीरे देश और उसकी समस्याओं से क्यों मुंह फेरने लगे हैं और अब तो कार्पोरेट जगत का एजेंडा ही उनका अपना एजेंडा बन गया है। 'मुझे लगता है कि कार्पोरेट और मीडिया ने हाथ मिला लिया है।... मिलने की बात पुरानी हो गई। कार्पोरेट ही मीडिया है। दोनों में कोई फर्क नहीं है। आज बड़े-बड़े कार्पोरेट हाउसेज ने चैनलों और अखबारों में पैसा लगा रखा है तो मीडिया उन्हीं की बात करेगा न।यह चिंता एक ऐसे युवा की है जो जनसंचार में पीजी डिप्लोमा कर मीडिया में यह सोचकरआया था कि 'उसने अपनी मंजिल पा ली है।  उसे महसूस हुआ कि वह ऐसे बौद्धिक तबके का एक हिस्सा बन गया है जो बुराइयों से लड़ रहा है, जो एक बेहतर समाज बनाने में लगा है।पत्रकारिता में आने के लिए उसने अपने बेहतरीन कैरियल को दांव पर लगाया था, पूरे घर की नाराजगी लेकर उसने पत्रकारिता को चुना था। घर वाले चाहते थे कि वह पढऩे में अच्छा है इसलिए भारतीय प्रशानिक सेवा में जाये लेकिन उसके मन ने प्रशासनिक अधिकारी बनना कभी स्वीकार नहीं किया। जवान होते-होते उसकी समझ में यह बात आ गई थी कि केवल प्रशासनिक अधिकारी देश की समस्याओं को नहीं सुलझा सकते, इसके लिए जिस समझ की जरूरत है, वह समझ अखबार ही पैदा कर सकते हैं। अखबार की पहुंच से वह परिचित था, सवाल केवल यह था कि सही खबर लोगों तक कैसे पहुंचे? इसके लिए उस जैसे कुछ नौजवान तैयार हो जायें तो अपनी बात जनता तक पहुंचा सकेंगे। इसलिए उसने पूरे होशोहवास में पत्रकारिता में आने का निर्णय किया था। लेकिन पत्रकारिता में आकर उसने जो देखा वह तो भयावह था। पर वह हिम्मत नहीं हारा। अखबार में नौकरी करने से पहले वह मानता था कि 'यहां हर समय देश और समाज के जरूरी सवालों पर बात होती होगी। डिस्कशंस होते होंगे। लेकिन यहां तो हर कोई हलकी बात ही करता है। सब इस चिंता में लगे रहते हैं कि दूसरे को कैसे प्रमोशन मिल गया। दूसरा कैसे बॉस के करीब चला गया या उसने एक और मकान कैसे खरीद लिया या गाड़ी कैसे खरीद ली। बहुत लोगों को तो मैंने यह बात करते भी सुना कि अमुक तो टिंडे जैसा है पर उसने इतनी सुंदर लड़की कैसे पटा ली? एक न्यूज एडिटर हैं कृष्णकांत। मैं उन्हें बहुत बड़ा लेफ्टिस्ट इंटेलेक्चुअल समझता था। पर वे अजीब-अजीब बातें करते रहते हैं। मैंने एक बार उनसे लेफ्ट के फ्यूचर को लेकर सवाल किया तो उन्होंने बड़े अजीब ढंग से रियेक्ट किया। बड़े अश्लील उदाहरण देकर समझाने लगे कि देश में वामपंथ भटक गया है। वो जो कह रहे थे वो तो मैं भी समझता हूं। फिर उसमें और मुझमें क्या फर्क रहा। फिर उसमें वल्गर होने की क्या जरूरत थी। उन्होंने एक ऐसी बात कही जिससे मुझे शक हुआ कि इन्हें लेफ्ट मूवमेंट के बारे में वाकई कुछ पता है भी या नहीं। कृष्णकांत जी ने कहा कि एक समय था जब लेफ्ट के लोग बंगाल में दुर्गापूजा पंडालों में कंडोम बांटा करते थे। यह एक नमूना है अखबार के अंदर की दुनिया का। दरअसल, उदारीकरण के बाद लोगों की चिंताओं को उन्होंने गहरे गड्ढे में दबा दिया है। केवल पत्रकारिता ही नहीं बल्कि अकादमिक जगत में भी विचार और उस पर शान धरने के लिए नियमित और निरंतर पढऩा अब प्राध्यापकों के लिए व्यर्थ की बात हो गई है। यही कारण है कि विश्वविद्यालयों में जो प्राध्यापक पढ़ाते हैं वे आम पाठकों से कम पत्रिकाएं और किताबें खरीदते हैं, इसलिए पत्रकारिता हो या अन्य कोई विषय पढ़ाने के लिए उनके पास केवल पुरानी सामग्री है, जिससे वे वर्षों से पढ़ाते आ रहे हैं। तेजी से बदलती दुनिया को देखने और उसके अनुसार अपने ज्ञान में वृद्धि करने की कोई इच्छाशक्ति उनके अंदर नहीं रह गई है।

सुमित खुली आंखों से पत्रकारिता की स्थितियों को भी देख रहा है और अपने समाज के जरूरी सवालों को भी सुन और समझ रहा है पर वह अपने मन को यह समझा पाने में असमर्थ है कि पत्रकारिता अब केवल नौकरी भर रह गई है, तो क्या समाज की गंदगी, अभाव और विसंगतियों से उसे मुंह मोड़ लेना चाहिये? वह ऐसा कर नहीं पा रहा है इसलिए उसे बीट कोई और दी जाती है और खबर वह दूसरी बनाकर ले जाता है। वह चाहता है कि अपनी ही बीट के लिए स्टोरी लिखे पर समाज में जो दिख रहा है, एक सजग पत्रकार के रूप में उससे अनजान कैसे रहे? यह चिंता उसके लिए परेशानी का कारण बनती जा रही है। वह यह समझने में असमर्थ है कि दुनिया जिस तेजी से बदली है उसी तेजी से पत्रकारिता से नैतिकता और सामाजिक सरोकार क्यों गायब हो गये? इसलिए एक दिन संपादक उसे समझाते हुए कहते हैं 'देखिए, अब पचास साल पहले वाली पत्रकारिता नहीं रही। तब मकसद होता था समाज सेवा। पूंजीपति भी समाज के प्रति अपना एक कंसर्न महसूस करते थे। पर अब मालिकों के लिए मुनाफा ही सब कुछ है। उसके लिए अखबार भी एक प्रोडक्ट है। वह अखबार निकालने के लिए अखबार नहीं निकालते। वह विज्ञापन छापने के लिए अखबार निकालते हैं। हमें वही करना है जो मालिक चाहता है। यह प्रोफेशनल्जिम है। अब हम जीवन में कंप्रोमाइज करते हैं कि नहीं।... इसी तरह नौकरी में बहुत कुछ अपनी मरजी के खिलाफ करना होता है।यह उपदेश सुमित को उसका संपादक दे रहा है जो संपादक से मैनेजर बन गया है, विडंबना देखिए कि अखबार से धीरे-धीरे पहले संपादक की गरिमा और बाद में उसका पद भी खत्म कर दिया गया अब वह केवल एक ऐसा मैनेजर बना दिया गया है जो केवल कार्पोरेट हितों के लिए काम करता है।

संजय कुंदन ने अन्ना हजारे की तेजस्विता और उसके पीछे की हलचलों को महत्वपूर्ण घटना के रुप में रेखांकित किया है। अन्ना का आंदोलन भ्रष्टाचार के विरुद्ध था पर जिन लोगों ने धीरे-धीरे उस पर कब्जा किया उनकी नैतिकता स्वयं संदिग्ध थी, इसलिए जिस आंदोलन ने पूरे देश में बेचैनी पैदा कर दी थी, जिसकी गूंजों से संसद तक हिल गई थी, वही आंदोलन गलत लोगों की स्वार्थपरता के कारण ध्वस्त हो गया। अन्ना की ईमानदारी में अब भी किसी को कोई शक नहीं है लेकिन यह कहना गलत नहीं होगा कि राजनीतिक दूरदर्शिता की उनमें कमी हैं, इसलिए दूरगामी परिणामों से वे अनजान रहते हैं। इस मामले में गांधी की राजनीतिक परिपक्वता और दूरगामी नतीजों पर दृष्टि महत्वपूर्ण थी, वे जिस भीड़ को घर से निकालकर लाते थे उसे बेचैन कर सकुशल घर भी पहुंचाते थे। सार्वजनिक जीवन में ईमानदारी के साथ सजगता भी जरूरी है। कहना न होगा कि अन्ना गांधी नहीं हैं लेकिन आंदोलन के दौरान उनकी तुलना गांधीजी से की गई थी इसलिए गांधीजी की ताकत को अन्ना के संदर्भ में फिर-फिर समझने की जरूरत है। आजादी के बाद के दो आंदोलनों की चर्चा जरूरी है जिन्होंने देश में हलचल तो पैदा की लेकिन उनका परिणाम अच्छा नहीं निकला। पहला, 1974 का जयप्रकाशनारायण का आंदोलन और दूसरा अन्ना का आंदोलन। दोनों आंदोलनों में लगभग चालीस साल का अंतर है लेकिन दोनों की प्रकृति एक है। दोनों की आंदोलनों में दक्षिणपंथी यथास्थितिवादी ताकतों की भरपूर घुसपैठ थी, जिन्होंने उन्हें असफल ही नहीं, निष्क्रिय भी किया। जेपी आंदोलन के लिए बाबा नागार्जुन ने कहा था कि 'वेश्याओं की गली में चले गये थेऔर अन्ना आंदोलन के बारे में संजय कुंदन ने गहरे दुख के साथ लिखा है कि 'अनशन खत्म होते ही सब कुछ वैसा ही हो गया। दफ्तरों में पैसे का खेल उसी तरह शुरु हो गया है, पुलिस का डंडा वैसे ही चलने लगा। कल भी हिरासत में एक गरीब को मार दिये जाने की खबर आई। सामूहिक बलात्कार, एक आरटीआई एक्टिविस्ट पर माफिया के हमले की खबर आई। मां द्वारा एक बच्चे को बेचने और एक सरकारी अस्पताल में भर्ती न किये जाने पर अस्पताल के बाहर सड़क पर एक गरीब औरत के बच्चा जनने की खबर आई। एक किसान की आत्महत्या की खबर आई। क्या ये चीजें कभी रुकने वाली नहीं हैं? क्या इनके लिए किसी और आंदोलन की जरूरत है? क्या ये सब भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन का एजेंडा नहीं हैं? इनके लिये किसी और आंदोलन का इंतजार करना होगा? किसी और गांधी की प्रतीक्षा करनी होगी?

उपन्यास में तीन दोस्त हैं जिन्होंने एक ही विद्यालय में एक साथ अध्ययन किया है पर बड़े होकर तीनों ने अलग-अलग रास्ते चुने। सुमित पत्रकार है, अभिषेक मंगल ग्रुप ऑफ कंपनीज में अधिकारी तथा पारुल नाटक को अपना कैरियर बनाना चाहती है। तीनों पात्र उसी विद्यालय के बाहर खड़े होकर एक दिन कसम खाते हैं कि 'हम शपथ लेते हैं कि हम नहीं सुधरेंगे। हम जो हैं वही रहेंगे। हम समझौते नहीं करेंगे।समझौते न करने के कारण तीनों अपनी-अपनी जगह पर परेशान हैं। वे जानते हैं कि इस प्रकार का जीवन जीकर वे तथाकथित सफलता की सीढिय़ां नहीं चढ़ सकते लेकिन वे रीढ़विहीन और विचारहीन होकर समझौता भी तो नहीं कर सकते। आजकल के सफल लोगों की परिभाषा बताते हुए अभिषेक कहता है 'यही लोग सक्सेजफुल लोग हैं यार। आईआईटी, आईआईएम... मल्टीनेशनल कंपनी, फ्लैट, गाड़ी, एनआरआई लड़की से शादी, चार से रोमांस यही सब सफलता की शर्तें हैं। अभिषेक ने लंबी सांस लेकर कहा, हम लोगों को कुछ नहीं मिलने वाला है।तब सुमित ने अभिषेक के कंधे पर हाथ रखकर कहा, 'कैसे मिलेगा? अब तुम ही सोचो। तुम्हें कहा जा रहा है कि चार लोगों को नौकरी से निकाल दो। तुमसे यह काम हो नहीं रहा है। तुम्हें अपने स्टाफ पर दया आ रही है। तुम क्या खाक तरक्की करोगे। ऑफिस में कहीं इमोशन से काम होता है। तेरी तरह कोई और मैनेजर होता न, नितिन टाइप, तो चार क्या दस को निकाल देता नौकरी से। और तू साला, अपने जूनियर कुलीग्स के लिए लड़ रहा है अपने सीनियर से। मुझे देख कितना बड़ा गधा हूं मैं। मजदूरों की खबर लिखने चला था, उनकी झोंपडिय़ों की बात करता हूं मैं, कितने अनहेल्दी माहौल में रह रहे हैं वे, ये लिखने चला था मैं, लोग मेट्रो का गुणगान करते हैं और मैं बताना चाहता हूं कि उसके मजदूरों की क्या हालत है और तो और मैं इन डाउन मार्केट सब्जेक्ट्स के लिए अपने ब्यूरो चीफ से लड़ गया, अपने एडिटर तक से बहस कर आया। क्या होता, फेंक दिया गया किनारे। बेटा खोजता रह सेक्सी फोटो, लिख उन पर दो कौड़ी की कविता।यह सुन पारुल ने अपना दुख व्यक्त किया 'मैं रोज मां-बाप से लड़ रही हूं कि मुझे थियेटर करना है। पता है मैं कंपीटीटिव एग्जाम्स देने जाती हूं तो पेपर पर फोटो बनाती रहती हूं। या खाली पेपर छोड़कर चली आती हूं। क्यों, इसलिए कि कहीं मैं पास न कर जाऊं। पापा सिफारिश करके कहीं भी किसी भी प्राइवेट कंपनी में जॉब दिलवा सकते हैं। अब वे एक करोड़पति फैमिली में मेरी शादी करवाना चाहते हैं। पर मैं इन सब चीजों से खुद को बचाने के लिए लड़ रही हूं। इसलिए नहीं कि मैं एक हीरोइन बनना चाहती हूं। मैं थियेटर एक्टिविस्ट बनना चाहती हूं। मैं थियेटर की होलटाइमर बनना चाहती हूं ताकि एक नये तरह का पीपल्स थियेटर डिवेलप कर सकंू।तीनों की अपनी विचारधारा है, तीनों बेहद ईमानदार हैं और तीनो कुछ ऐसा करना चाहते हैं जिससे इस देश की अंतहीन समस्याओं का समाधान निकाला जा सके। लेकिन उन तीनों की अपनी सीमाएं भी हैं, वे जिस तरह स्थितियों को बदलना चाहते हैं, उस तरह बदल पाना संभव नहीं है। अब एक बड़े और वैचारिक आंदोलन की जरूरत है, जो जनता के बीच से उभरना चाहिये, जनता का खोया हुआ विश्वास फिर से स्थापित होना चाहिये। अब कुछ नहीं होगा या हम कुछ नहीं कर सकते-यह निराशा का भाव है जो कमजोरी का प्रतीक है।

बहुराष्ट्रीय कंपनियों ने नौकरियां तो दीं लेकिन जो युवा इन कंपनियों में काम करते हैं वे जानते हैं कि दिन का चैन और रात की नींद भी उनसे छीन ली गई है। अब रात-दिन कंप्यूटर का स्क्रीन सामने हैं और दिमाग में मैनेजर द्वारा आवंटित लक्ष्य। अभिषेक अपनी योग्यता के बल पर इस दुनिया में आ तो गया है लेकिन उसकी प्रकृति अन्य युवाओं से भिन्न है, उसके मन ने पूंजी के इस खेल को अभी स्वीकार नहीं किया है, उसकी आत्मा अभी मरी नहीं है, इस बेपेंदी के लोटे वाली दुनिया में वह बाहरी व्यक्ति की तरह रह रहा है, अंदर के आदमी की तरह उसने समझौता करना सीखा नहीं है, उसकी बेचैनी का कारण यही है इसलिए अन्याय तथा अत्याचार देखकर उसका मन उबल पड़ता है। कंपनी में प्रश्न करना मना है लेकिन प्रश्न उसके अंदर अभी तक मरे नहीं हैं बल्कि और ज्यादा उभर-उभरकर बाहर आ रहे हैं। मध्यवर्गीय आदमी अपनी प्रश्नाकुलता को दबाकर नौकरी करता है लेकिन अभिषेक उनमें से नहीं है। वह जिस कंपनी में काम करता है, वह कंपनी किन्हीं मंगलमूर्ति की है। जिनके बारे में अभिषेक का बॉस तनेजा उसे समझाते हुए कहता है - 'भैयाजी यानी कंपनी के मालिक मंगलमूर्ति। मंगलमूर्ति जी ने अपने दम पर मंगल ग्रुप ऑफ कंपनीज का बड़ा साम्राज्य खड़ा किया था। सॉफ्टवेयर, रिटेल और रीयल स्टेट में एक साथ यह ग्रुप तेजी से उभर रहा था। ...भैयाजी को लेकर तरह-तरह के किस्से प्रचलित थे। वे एक किंवदंती में बदल गये थे। कहा जाता था कि भैया जी मैट्रिक में फेल हो गये थे क्योंकि उन्हें गणित जरा भी पसंद नहीं था पर उनके मां-बाप उन्हें इंजीनियर बनाना चाहते थे। भैया जी ने किसी तरह अगली बार मैट्रिक की परीक्षा पास की। हटकर कुछ करना चाहते हैं। उन्होंने अपने पिता से पचीस हजार रुपये मांगे और कहा कि वे इन्हें बतौर उधार ले रहे हैं। बाद में चुका देंगे। पचीस हजार रुपये से उन्होंने स्टेशनरी के कुछ सामान खरीदे और अपनी सभी दोस्तों के घर जाकर उन्हें बेच आये। फिर कुछ स्कूलों से संपर्क साधा और उन्हें नियमित रुप से सप्लाई करने लगे। कुछ ही दिनों में एक स्कूल ने उन्हें यूनिफॉर्म सप्लाई का भी ऑर्डर दे दिया। उन्होंने अपने मोहल्ले के दो दर्जियों से संपर्क साधा। उन्हें अपने घर के बरामदे में बिठा दिया और कपड़े लाकर दे दिये। फिर भैया जी ने पीछे मुड़कर नहीं देखा। पचीस हजार से कारोबार शुरु करने वाले भैया जी का आज का व्यवसाय पच्चीस हजार करोड़ पर पहुंचने वाला था।किंवदंती में बदले भैया जी का यह परिचय उनके कुछ चहेतों ने कराया है, ऐसे लोग अब हर जगह पाये जाते हैं जो नकारा, बेईमान और अमानवीय आदमी को भी महान सिद्ध करते रहते हैं। ऐसे लोग किसी बड़ी कंपनी में ही नहीं बल्कि छोटे से छोटे कार्यालय से लेकर विश्वविद्यालय तक में जड़े जमा चुके हैं।  महाविद्यालयों और विश्वविद्यालयों में इन्हें केवल आचार्य नहीं बल्कि कृपाचार्य कहा जाता है, ये किसी पर कृपा करते नहीं हैं बिल्क दूसरों की कृपा पर जीवित रहते हैं। भैयाजी की कंपनी में ऐसे कुछ कृपाचार्य उनका स्तुतिगान कर उन्हें महान सिद्ध कर उनकी बदमाशियों पर पर्दा डालने का काम करते रहते हैं। कंपनी में नमस्कार की जगह 'मंगल होकहने का रिवाज है, यह सुनने में अजीब और बेतुका लगता है लेकिन अपने नाम का डंका बजवाने का यह नायाब तरीका है, जब भी किसी मिलो भैया जी का नाम लो। यह पाखंड का एक नमूना है। संजय कुंदन भैया जी के पाखंड को तार-तार करने के लिए एक और उदाहरण प्रस्तुत करते हैं। भैया जी कंपनी के ऑडीटोरियम में अपने कर्मचारियों से मिलने आये हैं, उनके मिलने का तरीका सामान्य नहीं है। कुंदन लिखते हैं 'मंगल हो कहने के बाद अभिषेक संभला ही था कि भैया जी सावधान की मुद्रा में खड़े हो गये। फिर शांति पाठ शुरु हो गया - गौ शांति, अंतरिक्ष शांति...। शांति पाठ के बाद अभिषेक ने सोचा कि अब बैठना है। लेकिन तभी भैया जी ने जोर से कहा - मंगल नृत्य आरंभ हो। अचानक स्टेज पर रंगीन बत्तियां जलीं और म्यूजिक बजा। भैया जी थिरकने लगे। उनके ऐसा करते ही कुछ सीनियर्स नाचने लगे। उन्होंने इशारे से नये कर्मचारियों को भी नाचने को कहा। अभिषेक के लिये यह कल्पना से परे था। वह कुछ क्षण के लिये दुविधा में रहा। फिर एक अधिकारी ने उससे कहा - कम ऑन, कम ऑन। इस पर अभिषेक भी कमर हिलाने लगा। म्यूजिक तेज हो रहा था। पहले तो कोई होली का गाना बज रहा था। बाद में 'जुमा चुम्मा दे दे चुम्माशुरु हो गया। मंच पर भैया जी के साथ कई लड़कियां नाच रहीं थीं। सारे सीनियर्स मंच पर चढ़ गये थे। केवल नये वर्कर्स नीचे नाच रहे थे।ये कंपनी है कि नाचघर। यह परे दर्जे की धूर्तता है जिसे छिपाने के लिये कंपनी इस प्रकार के आयोजन कर मूल समस्याओं पर परदा डालने का काम करती है। भैया जी अपनी इन करतूतों से संकेत देते हैं कि वे बहुत सामान्य हैं और सबके अपने हैं। अपनत्व का भरोसा दिलाने के बाद वे कर्मचारियों को संबोधित करते हुए कहते हैं 'मेरा कारोबार क्यों आगे बढ़ा क्योंकि मैंने उसे बिजनेस की तरह नहीं, एक ईश्वरीय उपक्रम की तरह देखा। मुझे लगता कि मैं वह कर रहा हूं जो ईश्वरीय शक्तियां मुझसे चाहती हैं। मैं लोक कल्याण के एक बड़े कार्य का हिस्सा हूं।

भैया जी के इन प्रवचनों और उनके घुल-मिलकर बातें करने से कोई भी प्रभावित हो सकता है, अभिषेक भी प्रभावित हुआ। शुरु में तो वह चमत्कृत था कि ऐसा भी कोई मालिक हो सकता है जो अपने कर्मचारियों को अपने परिवार की तरह रखता है। उसके बॉस तनेजा के मेल ने तुरंत उसका मोहभंग किया 'चूंकि कंपनी लगातार नुकसान झेल रही हैं, इसलिए वह कॉस्ट कटिंग के लिए मजबूर है। वह 40 फीसदी कर्मचारियों की छंटनी करना चाहती है। सभी यूनिट इंचार्जों से कहा गया था कि वे अपने यहां के डेड हेड्स की सूची पेश करें।ये भैयाजी का परिवारवाद है! वे कंपनी से बीस हजार कर्मचारियों को निकालना चाहते हैं। कुछ दिनों पहले तक जो अभिषेक कंपनी और भैयाजी के प्रति भावुक था, इस मेल को पढ़ते ही उसके होश उड़ गये। तनेजा के सामने उसने अपनी परेशानी रखी तो उन्होंने कहा 'मैनेजर को इमोशनल दिखना चाहिये, होना नहीं चाहिये।यानी उससे कहा जा रहा था कि वह दुहरा जीवन जिये। जिस प्रकार का जीवन जीने का वह आदी नहीं है, उसे नौकरी के लिए उस प्रकार का जीवन जीना पड़ेगा, वह निर्ममता के साथा, बिना भावुक हुये अपने अधीन दस लोगों में से चार का नाम भेज दे। पर यह सब करना उसके लिए संभव नहीं है। वह अपने अधीनस्थ कर्मचारियों की पारिवारिक जिम्मेदारियों और आर्थिक स्थितियों से परिचित है, वह उन सबकी मजबूरियों से खेल नहीं सकता। उसकी समझ में नहीं आ रहा है कि जो कंपनी ब्यूटी हंट पर लाखों रुपये खर्च करने जा रही है, वह कंपनी अपने ही कर्मचारियों को जबरन क्यों निकाल रही है? उदारीकरण के बाद कार्पोरेट जगत में जिस प्रकार की यांत्रिकता आई है उसने न केवल लगातार कर्मचारियों की छंटनी की है अपितु मानवीय संबंधों को भी यांत्रिक और जड़ बना दिया है। अब नौकरी से निकालने के लिये नोटिस नहीं देना पड़ता। वे जिस माहौल में रह रहे हैं उसमें रात-दिन बढ़ता मुनाफा और गलाकाट प्रतिस्पर्धा ही प्रमुख लक्ष्य रह गई है। कर्मचारियों ने काम का दबाव और नौकरी की अस्थिरता ने उन्हें कुंठित और अवसादग्रस्त कर दिया है। इन स्थितियों में अभिषेक का नौकरी कर पाना मुश्किल है, वह अपने कर्मचारियों के हितों के लिए किसी से भी बहस करने को तैयार रहता है, जो भैया जी तक से अपनी असहमति दर्ज करा चुका हो, उसके लिए कंपनी में जगहा कहां है? इसलिए एक साल के अंदर ही उसे वापस लौटना पड़ा। लौटते समय एच.आर. डिपार्टमेंट का मेल याद आ रहा है जिसमें बड़े दुख के साथ यह जानकारी दी गई थी कि 'मंगल ग्रुप ्ऑफ कंपनीज के साथ उसका रिश्ता यहीं समाप्त होता है।कारण बताया गया था कि उसकी मानसिक हालत कंपनी के मानदंडों के अनुरुप नहीं है। कंपनी के मनोचिकित्सक की रिपोर्ट उसके खिलाफ थी। मनोचिकित्सक ने अपनी रिपोर्ट में बताया था कि 'अभिषेक एक खास तरह के डिसऑर्डर का शिकार है। वह अपने काम पर एकाग्र नहीं होता बल्कि वह दूसरों के मामले में दखल देता है। वह अपने से ज्यादा और लोगों में रुचि रखता है क्योंकि उसे दूसरे की वाहवाही की अपेक्षा रहती है।

इस दमघोटू वातावरण में अभिषेक जैसे युवाओं की जरूरत बढ़ती जा रही है जो नौकरी को दांव पर लगाकर अपने विचारों और सपनों के साथ जीना चाहते हैं। यह सही है कि व्यवस्था ऐसे युवाओं को पचा पाने में हमेशा असमर्थ रही है, ये युवा इन लोगों की आंखों की किरकिरी बन जाते हैं जो सारे लाभ लेने के लिए तरह-तरह से बिछना पसंद करते हैं। कार्पोरेट जगत ने करोड़ों युवाओं का इस्तेमाल कैसे किया यह अभिषेक के माध्यम से विस्तार से बताया गया है। सवाल यह है कि विदेशों में युवाओं की जिस संख्या का गुणगान किया जाता है, उन युवाओं को कार्पोरेट जगत जिस प्रकार इस्तेमाल कर रहा है, वह स्थिति युवाओं के लिये तो ठीक है ही नहीं, परिवार और समाज के लिये भी ठीक नहीं है। रात-दिन कोल्हू के बैल की तरह युवाओं से काम लिया जा रहा है पर उनकी जीवन स्थितियों और उनके सामाजिक सरोकारों पर बातें करने वालों को नौकरियो से निकाला जा रहा है। इस समय जिस प्रतिरोध की आवश्यकता है, उसे सत्ता, कार्पोरेट जगत और मीडिया की जुगलबंदी से दबाया जा रहा है, अन्ना इसके शिकार हो चुके हैं और भी कई अन्ना जैसे लोग इसके शिकार होंगे, इसके प्रतिरोध के लिए जिस वैचारिक आंदोलन की जरूरत है, उसकी जमीन तैयार करने के लिये कितने ही अभिषेकों को अपनी नौकरियों से हाथ धोना पड़ेगा। कहना न होगा कि संजय कुंदन ने अभिषेक के माध्यम से युवाओं की समस्याओं को जिस रुप में उभारा है, उस पर ध्यान दिया जाना जरूरी है। इन समस्याओं के कारण ही अभिषेक दुबारा नौकरी करने की इच्छा को तिलांजलि देकर मंगल ग्रुप ऑफ कंपनीज के विरुद्ध बड़ा आंदोलन खड़ा करता है, वह कहता है 'मैं मुंबई आया था कंपनी ज्वाइन करने लेकिन कर नहीं पाया। मुझसे रहा नहीं गया। मेरे एक पुराने कुलीग मिल गये। उन्होंने अपनी जो हालत बताई उससे मुझे लगा कि मुझे इन सबके लिये कुछ करना चाहिए।अभिषेक की तरह हम सबको सामाजिक चिंताओं को दूर करने के लिए कुछ न कुछ करना चाहिए पर मध्यवर्गीय मन सुविधाओं का इतना आदी हो जाता है कि जीवन में सारे अपमान और विभीषिका देखकर भी कुछ करने से डरता है। इसी डर ने लूट के अवसर प्रदान किये हैं, जिन पर मंगलमूर्ति जैसे लोगों का कब्जा है।

उपन्यास की तीसरी पात्र पारुल है, जो नाटक एक्टिविस्ट बनना चाहती है। उसे परंपरागत जीवन से चिढ़ है, वह अन्य लड़कियों की तरह जीना नहीं चाहती पर समाज तो बदला नहीं, परिवार तो वैसे के वैसे ही हैं फिर पारुल जैसी लड़कियों के लिये सहज भाव से कुछ भी अलग कर पाना कठिन है। उसके दोनों दोस्त-अभिषेक और सुमित, उसका साथ देेते हैं, वे चाहते हैं कि वह अपनी तरह स्वतंत्र जिंदगी जिये लेकिन यह काम इतना आसान नहीं है। भारतीय परिवारों की संरचना में आमूल परिवर्तन एकदम संभव नहीं हैं इसलिए सुमित उसे समझाते हुए कहता है 'देखो, जिद या ईगो से कोई लड़ाई नहीं लड़ी जाती। लड़ाई सूझबूझ से लड़ी जाती है। इसमें एक दो कदम पीछे भी हटना पड़े तो कोई हर्ज नहीं है। यह स्वाभिमान की लड़ाई है। यह तुम्हारे जीने के अधिकार की लड़ाई है। और दुश्मन हमारे अपने हैं लेकिन इसलिये हम हथियार नहीं डाल देंगे कि वे हमारे अपने हैं। हम उनसे लड़ेंगे।सवाल ईगो का नहीं है, सवाल उसकी अपनी रुचि का है वह नाटक के क्षेत्र में जाना चाहती है तो इसमें उसके परिवार को दिक्कत क्यों होती है? बहुत पहले अच्छे घरों की लड़कियां नाटकों में नहीं जाती थीं, यह बात 19वीं सदी तक तो ठीक थी जब पुरुष पात्र ही स्त्रियों के अभिनय किया करते थे पर अब तो बड़े से बड़े खानदान की लड़कियां भी नाटकों और फिल्मों में काम मिलने पर प्रसन्न होती हैं। अब वह पर्दे वाला सामंती समाज नहीं रह गया है, अब समाज बदला है इसलिये लड़कियां भी अपने आत्मबल से आगे आ रही हैं, उनका सामंती संकोच अब गायब होता जा रहा है। लेकिन पारुल के पापा ऐसा नहीं सोचते, वे उसे समझाते हुये अपने परिवार का इतिहास बताते हैं 'तुम्हारे दादा आईसीएस रहे हैं और उनके ससुर यानी मेरे नाना रायबहादुर रहे हैं। तुम इतने बड़े परिवार से ताल्लुक रखती हो। ठीक है कि हम लोग शायद अपना लेवल मेंटेन नहीं कर पाये हैं पर हम बहुत नीचे नहीं गिर सकते। अब इस परिवार की लड़की नाटक करेगी। गली-गली घूमती फिरेगी आवारा की तरह। रात में ग्यारह-बारह बजे तक लौटेगी रिहर्सल करके, कभी इस लड़के के साथ को कभी उस लड़के के साथ। फिर एक दिन मिडिल क्लास के किसी दाढ़ी वाले लड़के के साथ लव मैरिज कर लेगी। रहेगी जमनापार इलाके के किसी जनता या एलआईजी फ्लैट में... यह होती है न एक थियेटर करने वाली लड़की की जिंदगी। बहुत होगा तो एक-दो सीरियल में काम मिल जायेगा या एकाध फिल्म में एक्स्ट्रा का रोल मिल जायेगा।वे आगे और कहते हैं 'मुझे सब पता है इसमें किस तरह के लोग हैं। अरे उन लोगों का कोई कैरेक्टर होता है। देखो... ऐसा कोई काम मत करो जिससे तुम्हें आगे चलकर पछताना पड़े। तुम अपने फैमिली ट्रैडिशन को देखो।पारुल को अपने ऊंचे खानदान के बारे में बताते हुए पापा यह भूल जाते हैं कि इक्कीसवीं सदी में भी वे लड़का और लड़की में अंतर कर रहे हैं। बेटे के बारे में वे उदार हैं लेकिन बेटी के मामले में उतने ही कट्टर। बेटा जो करे सो ठीक पर बेटी को ऐसा नहीं करना चाहिए क्योंकि सामंती समाज में इज्जत का पूरा ठेका बेटियों के जिम्मे होता था। ये सामंती संस्कारों की ठसक है जो कई पीढिय़ों तक जारी रहती है। पिता ही नहीं मां भी परिवार की इज्जत के नाम पर अपने पति का साथ देती हैं। एक दिन पारुल मां और मौसी की बातों को सुनती है जिसमें मां कह रही है 'पारुल का भाई लव मैरिज करने वाला है किसी बैकवर्ड क्लास की लड़की से। अब उसकी शादी का असर पारुल की शादी पर न पड़े इसलिये जल्दी से जल्दी उसकी शादी कर देना जरूरी है। संयोग से पारुल के पापा के एक दोस्त मिल गये हैं, एनआरआई हैं। वो भी अपने बेटे की शादी जल्दी करना देना चाहते हैं।सवाल पारुल की शादी से अधिक भैया की शादी का है। लड़का अपनी मर्जी से शादी करे तो उसे रोकने वाला कोई नहीं है क्योंकि वह खानदान का नाम चलायेगा, वह घर का चिराग है पर लड़की तो पराये घर की अमानत है इसलिए एक दिन उसे जाना ही है।

संजय कुंदन ने इक्कीसवीं सदी में इस मानसिकता पर जिस प्रकार कुठाराघात किया है, उससे एक बार यह प्रश्न फिर मौजूं होता है कि कब तक हम अपनी परंपराओं के नाम पर बेटियों के सपनों का गला घोटते रहेंगे? संजय कुंदन ने पारुल के लड़कों की तरह रहने के मुद्दे को जिस तरह उठाया है, उसमें बड़ी चूक यह है कि लड़कों की तरह रहने और लड़का होने के फर्क को लड़कियां बचपन से ही समझ जाती हैं, वे अपने शारीरिक अवयव और मासिक क्रियाओं को अपने परिवार और परिवेश से सीखती है, इसके लिए किसी बाहरी शिक्षा की जरुरत उन्हें नहीं पड़ती। लेकिन पारुल क्यों नहीं समझ पाई, यह असामान्य स्थिति है। संजय कुंदन पारुल के दोस्त नितिन के घर घटी घटना के बारे में जिस प्रकार बताते हैं, उस पर भी सहसा विश्वास नहीं होता। जो पारुल लड़कों की तरह रहकर अपने अंदर अलग प्रकार का आत्मविश्वास विकसित करती है, वह नितिन के छेडऩे के बाद केवल यह सोचकर क्यों रह जाती है कि 'यह पार्टी-वार्टी की बात सब झूठी थी। वह क्यों पिघल गई? क्यों मान गई? पुलिस को फोन करना चाहिए था। मारना चाहिए था उसे। उसके लिंग पर लात जमानी चाहिये थी। ...इतना अकेलापन कभी नहीं महसूस हुआ था उसे। क्या करे.... खत्म कर दे इस जीवन को। ...कल ही अखबार में पढ़ा था उसने, एक लड़की ने मेट्रो स्टेशन से छलांग लगा दी थी।यह पश्चाताप और आत्महत्या की मन:स्थिति तो कमजोर लोगों की निशानी है, फिर वह ऐसा क्यों सोचती है? जो लड़की अपने परिवार की चिंता नहीं करती, हर विरोध में वह और ताकतवर होकर निकलती है, तब नितिन के यहां घटी दुर्घटना के समय वह इतनी असहाय क्यों अनुभव कर रही थी? उसे पुलिस में तुरंत सूचना देकर अपने ऊपर हुये बलाघात का विरोध करना चाहिये था। समय गुजरने के बाद सोचने से कुछ नहीं होता, तब कोई क्रांतिकारी बने या दब्बू कोई फर्क नहीं पड़ता। दूसरी घटना उसके बचपन के दोस्त अभिषेक से जुड़ी हुई है। अभिषेक, सुमित और पारुल तीनों एक दूसरे पर अत्यधिक भरोसा करते हैं लेकिन एक दिन अभिषेक ने जब यह कहा कि 'औरत-मर्द केवल दोस्त बनकर कैसे रह सकते हैं? नेचर ने हमें कुछ और कामों के लिए भी बनाया है। उसने हमें अलग-अलग बनाया है। हमारी फीलिंग्स अलग हैं। हमारे अंग अलग हैं और जेनिटल्स...।तब पारुल का क्रोध असमझनीय लगता है। वह बड़बड़ाते हुये कहती है 'नेचर ने हमें सिर्फ इसलिए बनाया है न...। यह कहकर पारुल ने अपनी टीशर्ट उतार फेंकी। फिर तेजी से उसने दोनों हाथ करके अपनी ब्रेसियर का हुक ढीला किया और उसे भी नीचे फेंक दिया। अभिषेक को लगा जैसे उन दोनों के बीच बिजली-सी कड़की हो। पारुल ऊपर से पूरी तरह नग्न थी। पिर उसने झुककर अपनी जींस का बटन भी खोलना शुरु किया। अगले ही पल जींस नीचे खिसकी। पारुल उसके दोनों किनारों को पकड़ उसे नीचे की ओर खिसकाने लगी।यह विरोध का तरीका नहीं है, वह छोटी बच्ची भी नहीं है जो यशपाल की मशहूर कहानी 'फूलों का कुर्ताकी तरह अपने संस्कारों को बचाये रखने के लिए अपना कुर्ता ही ऊपर कर दे, पारुल फूलों की तरह छोटी बच्ची नहीं है, वह समझदार है, उसने दुनिया देखी है, वह दुनिया के पाखंड को जानती है, वह पढ़ी-लिखी है, उसने जितना दुनिया को देखा है उससे अधिक पढ़ा है, वह नाटक करती ही नहीं है बल्कि लिखती भी है, जो सृजन करता है वह नासमझ नहीं हो सकता। फिर पारुल ऐसा क्यों करती है? वह अभिषेक को क्यों नहीं समझा पाई? इन कारणों का उपन्यास में कोई जिक्र नहीं है, जबकि उन स्थितियों को बताना चाहिये था जिसमें पारुल असामान्य हरकतें करती है। सामान्य पात्र की असामान्य प्रतिक्रियाओं का जवाब तो उपन्यासकार को ही देना चाहिये।

उपन्यास के अंत में 'तीनों दोस्त सड़क पर थे। उनके हाथ फिर से खाली थे।फिर भी एक विश्वास मन में था कि अभी भी सब कुछ खत्म नहीं हुआ है,’ हम सोचते हैं सब कुछ हमारी तरह हो जाये। लोग हमारी तरह हो जायें। वे हमारे मन लायक बातें करें। वे हमारे मनमुताबिक काम करें। ऐसा होता नही हैं। टाइम लगेगा बदलने में यार। यह पत्रकार सुमित था, जो समय का इंतजार करने की बात करता है। वह उदाहरण देता है कि 'चीन के महान नेता तंग शियाओ फिंग से 1989 में किसी ने पूछा कि फ्रांसिसी क्रांति के बारे में आपके क्या विचार हैं? इस पर उन्होंने कहा कि अभी इस पर कुछ कहना जल्दबाजी होगी। फ्रांसिसी क्रांति 1789 में हुई थी। उसके दो सौ साल बाद भी फिंग ने कहा कि अभी उसके मूल्यांकन का वक्त नहीं आया। यानी उसके जो मूल्य थे स्वतंत्रता, समानता और भ्रातृत्व, उन्हें स्थापित होने के लिए वे दो सौ साल भी कम मान रहे थे। हमारी आजादी के तो सत्तर साल भी नहीं हुए। इतना जल्दी नहीं बदलेगा सब कुछ। हां, कोशिशें होती रहेंगी। यह भरोसा भविष्य के प्रति विश्वास उत्पन्न करता है।

 

सूरज पालीवाल हिन्दी विश्वविद्यालय वर्धा में प्रोफेसर है और पहल के लिए लगभग धारावाहिक रूप से हिन्दी के नए उपन्यासों पर लिख रहे हैं।

संपर्क- मो. 09421101128, 8668898600, वर्धा

 


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