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सितम्बर - 2018

धुन

महेश दर्पण

कहानी

 

 

 

 

 

लकड़ी की काठी, काठी पे घोड़ा

घोड़े की दुम पे जो मारा हथौड़ा      

दौड़ा दौड़ा दौड़ा घोड़ा

दुम उठा के दौड़ा...

 

पैंसठ पार के गोविंद बाबू अपनी ही धुन में गुनगुनाए जा रहे थे। पूरन दा की दुकान से गुजरते हुए उत्साह में सुर कुछ उंचा क्या हुआ, उन्होंने टोक ही तो दिया- 'क्या हो गोविंद बाबू, ये बच्चों वाला गाना आज खूब छेड़ रखा है तुमने...

गोविंद बाबू की झेंप देखने लायक थी उस वक्त। बात सही भी ठहरी। इस उम्र में 'लकड़ी की काठीकौन गाने वाला हुआ! शर्माकर उन्होंने पिंड छुड़ा लेना ही ठीक समझा- 'अरे पूरन दा, ये जाने कैसे यूं ही जबान पर चढ़ गया। मैं खुद जो क्या गाना चाह रहा था इसे।

खुद भी सोच में पड़ गए थे गोविंद बाबू कि ये मैं लकड़ी की काठी कहां से गाने लगा होउंगा...लेकिन अजीब बात ये हुई कि जैसे ही पूरन दा की दुकान पीछे छूटी, गोविंद बाबू में फिर से वही धुन जोर पकडऩे लगी।

वह करें भी तो क्या करें ! अपने बच्चों के बड़े होने का ऐसे पता जो क्या चला था कहा। जब से अपनी पोती कुछ बड़ी हुई है, हरदम अपनी ही तरफ खींचे रहती है। किसी की क्या मजाल कि उस पर से जरा देर के लिए भी अपना ध्यान हटा तो ले। ध्यान हटाना तो दूर, किसी  वक्त हो जाने वाले उसके प्यार भरे आक्रमण से बचकर रहना भी जरूरी हुआ। जरा भी सावधानी हटी कि मुसीबत आ ही पड़ी समझो।

अपने में कुछ याद कर के मुस्करा दिए हैं गोविंद बाबू। उस रोज कैसे अपने चाचा की गोद में बैठे-बैठे ही उसने प्यार में उसके कंधे पर काट खाया था! कोई पूछे तो भला उससे, ये कैसा प्यार हुआ तेरा। पूछता रहे, वो कौनसा जवाब देने वाली है। उसे तो मनमानी करनी ठहरी। रोकने की कोशिश करो, तो बिगडऩे का हक हुआ उसका। वह छोटी हुई और सब के सब बड़े जो हुए उससे।

गोविंद बाबू को याद आया, आज सुबह से ही तो कहती आ रही थी- 'काठी काठी...यानी उसने कह दिया तो अब सुनाओ उसे। बगैर इसके बचाव का कोई और रास्ता नहीं। गोविंद बाबू ने गाना शुरू किया तो वह फौरन तरंग में आकर नाचने लगी। कभी सिर हिलाए तो कभी कमर डुलाए। ठीक वैसे ही नाच रही थी गुड्डन जैसे उसके चाचा और मम्मी ने यू ट्यूब पर दिखाया था।

सड़क चलते गोविंद बाबू अपनी पोती के खयालों में खोए हैं। गुड्डन की दादी उसे गुड्डन कहने वाली हुई। पर वह खुद अपनी दादी को कहने लगी है गुड्डन। उसकी तोतली जुबान में गुड्डन सुनाई पडऩे वाला हुआ गुदन। लेकिन हर बार एक नए ही उत्साह और वेग के साथ। ऐसा लगता है जैसे कहीं से ये लफ्ज छूटकर भाग ही निकले हों। कभी अपने काम में मगन दादी अगर न सुन पाए तो वह और जोर से कहेगी- 'गुदऽऽन। और जैसे ही सुन लेगी, तो कहेगी- 'काठीऽऽयानी लकड़ी की काठी सुनाओ।

अभी कल ही की तो बात है। उसकी दादी ने लकड़ी की काठी सुनाना शुरू ही तो किया था कि अधबीच में ही उसकी नई फरमाइश सामने हो आई- 'नानी..।यानी अब सुनाओ 'नानी तेरी मोरनी को मोर ले गये...  अब दादी को शुरू करना पड़ा- 'नानी तेरी मोरनी को मोर ले गये, बाकी जो बचा था काला चोर ले गये...।नानी ने तरन्नुम पकड़ लिया है, लेकिन गुड्डन में इतना धीरज कहां कि वह इसी गाने पर अटकी रहे! तुरंत मूड चेंज का संकेत आ गया है- 'तारा...तारा..ऽऽजैसे कहीं पीछे छूट गया कुछ बहुत प्रिय याद आ गया हो। कह दिया उसने, तो अब समझना आपकी ड्यूटी ठहरी। इस बार दादी अपनी धुन में उसकी बात न सुन पाई तो गुड्डन बिगड़ ही तो पड़ी-'अरे ताराऽऽऽ ताराऽऽऽ। अब कहीं दादी की समझ में आया कि गुड्डन तो नए गाने की फिराक में है। बस, फिर क्या था, शुरू हो गया- 'ये तारा...वो तारा... हर तारा...ऽऽऽ। अब गुड्डन कुछ देर के लिए मगन हो गई है। उसे खुशी है कि उसकी दादी, देर से ही सही, उसकी बात समझी ही नहीं, गाने भी लगी है। अब गुड्डन की खुशी का कोई ठिकाना जो क्या ठहरा ! वह बस घूमे जा रही है,झूमे जा रही है।

गोविंद बाबू को लगता है, सुबह, दोपहर, शाम, चौबीसों घंटे घर का हर सदस्य बस गुड्डन की सुनता रहे। जो वह कहे, सो करता रहे। न करे तो हंगामा जो खड़ा कर के रख देगी गुड्डन।

                                                                                     * * *

 

गली से निकल कर अब गोविंद बाबू सड़क के करीब आ पहुंचे हैं। दो-तीन दिन से लगातार इस तरफ आना हो तो रहा था, पर गुड्डन के चक्कर में हर बार वे अपनी दवा ले जाना भूल ही जाते। आज तो हर हाल में लेकर ही जाएंगे, यह सोचकर गोविंद बाबू मेडिकल स्टोर के पास जा पहुंचे। वह कुछ कह पाते, इसके पहले ही मेडिकल स्टोर वाला लड़का बोल पड़ा - 'वो डाइपर मंगाए थे न आपके बेटे ने गुड्डन के लिए...आ गए हैं। और हां,  साल भर के बाद वाला सेरेलेक भी मंगा लिया है। अब तो पोती खटाखट बड़ी हो रही है आपकी...

गोविंद बाबू को लगा जैसे मेडिकल स्टोर वाले ने उन्हें अजीब पशोपेश में डाल दिया है। सोच में पड़ गए हैं वे। ये डाइपर  खूब शुरू हो गए कहा आजकल। पहले जो क्या हुआ करते थे ! दुनिया भर के बच्चे लंगोटी ही तो पहनने वाले हुए। बच्चे के जन्म से पहले ही घर की बुजुर्ग औरतें उसके लिए पुरानी धोतियों की मुलायम लंगोटियां बनाकर रख लेने वाली हुई हुईं। नए कपड़े के लंगोट कौन पहरता था तब! पुराना कपड़ा मुलायम भी हुआ और घर का धुला साफ-सुथरा भी। खाली उड़ा रखी है हो आजकल ये इन्फेक्शन-विनफेक्शन की हवा। ये सब बड़ी कंपनियों के चोंचले ठहरे। अरे, इन्फेक्शन अगर होना ही होगा तो तुम्हारी इन बाजारू चीजों के बावजूद होकर रहेगा। सबसे जरूरी चीज तो ठहरी बच्चे की साफ-सफाई। ये क्या हुआ कि दस-दस बारह-बारह घंटे उसे डाइपर बांध के निसाखातिर हो जाओ। उनका बस चलता तो कभी न ले जाते, लेकिन अब बेटे ने मंगवा ही रखे हैं तो ले जाना ही ठीक रहेगा। डाइपर के साथ मेडिकल स्टोर वाले ने एक छोटा पैकेट और थमा दिया है गोविंद बाबू को। उन्हें उसे उलटता-पुलटता देख, मेडिकल स्टोर वाला लड़का हंस रहा है- 'अब आप ये पूछोगे कि ये क्या बला है... तो पहले ही बता दूं। ये है एक तरह का गीला रूमाल। सफर में हो या घर पर, हर जगह काम आ जाएगा ये। जब जरूरत हो निकालो, पोछो और फेंक दो। न धोने की जरूरत और न बार-बार सुखाने की। यूज एंड थ्रो, यही है नए जमाने का नया ट्रेंड। इसे कहते हैं वाइप्स।

हैरान हैं गोविंद बाबू। परेशान हैं मन ही मन। सोच में पड़ गए हैं, कैसा जमाना जो आ गया है हो ये...देखते-देखते! उन्हें लगता है समय उन्हें हैरान करता हुआ तेजी से जाने किस तरफ भागे जा रहा है और वे हैं कि नई हैरानियों के सामने पीछे और पीछे होते चले जा रहे हैं।

खयालों में खोये, डाइपर और वाइप्स लेकर वह घर की तरफ चल दिए हैं। काफी आगे निकल आने के बाद उन्हें याद आ रहा है कि अपनी दवा लाना तो फिर भूल गए। याद कैसे रहता, गुड्डन जो है। हर जगह गुड्डन, हर तरफ गुड्डन, हर किसी की जुबान पर गुड्डन। लेकिन यह क्या, घर का दरवाजा खुलते ही चौंक गए हैं गोविंद बाबू। दो-दो बच्चों की रुआरांट मची हुई है। कारण पता चलता है कि गुड्डन ने अपने भानु दद्दा को काट लिया है। उसने काट लिया, वह खुश थी। लेकिन भानु को रोते देख फिर वह भी रोने लगी। भानु इतना बड़ा थोड़े ही है कि यह जान सके कि यह तो गुड्डन के प्रेम का प्रसाद है। जिसे वह जितना ज्यादा प्यार  करेगी, उसे उससे उतना ही ज्यादा खतरा बना रहेगा।

गोविंद बाबू समझ रहे हैं, पिछले कुछेक महीने से गुड्डन के दांत आ रहे हैं। दो नीचे और चार उपर तक तो ठीक रहा, लेकिन इसके बाद तो फिर गुड्डन प्यार में हमला ही बोलने लगी है। जब उसके निशाने पर जो चीज लग गई, उसे ही काट खाती है। जो पास बैठा होगा, उसकी शामत तो आई ही समझो, लेकिन जिस पर प्यार कुछ ज्यादा आ गया, उसके लिए तो हरदम रेड अलर्ट ही ठहरा।

भानु बेचारा रोज आता है खास गुड्डन को देखने, उसके साथ खेलने के लिए। जिस दिन वह न आए, गुड्डन हल्ला मचा देती है- 'भानू दद्दाऽऽऽ भानू दद्दाऽऽऽ और जब भानु दद्दा आ जाएगा, तब उसे अपनी किसी चीज पर हाथ नहीं लगाने देगी। ये हालत तब है जब वह बेचारा किताबें छोड़, अपनी हर चीज उसके आगे लाकर रख देता है। जब वह उसकी किताबें छीनने लगती है तब वह जरूर नाराज हो जाता है। लेकिन आज तो सीन ही कुछ और है।

कुछ लोग भानु को समझाने में लगे हैं तो कुछ गुड्डन को फुसलाकर अलग ले जाने की कोशिश में हैं। गोविंद बाबू को लगता है यह सब बड़े बेटे की लाई कैलकेरिया फास का कमाल है-'और खिलाओ उसे दांत निकालने की गोली...हमारे जमाने में तो जैसे बच्चों के दांत ही नहीं उगते थे...।

गोविंद बाबू कुछ कह रहे हैं, लेकिन सुन कौन रहा है !

देख रहे हैं गोविंद बाबू, सब समझ रहे हैं गोविंद बाबू।

बड़े बच्चे मुंह दबाकर हंस रहे हैं। कुछ कहना चाह रहे हैं लेकिन कह नहीं रहे...।

खीज रहे हैं गोविंद बाबू, अरे यही तो ठहरे नये जमाने के रंग-ढंग।   

अपने में डूबे, सोच में पड़ गए हैं गोविंद बाबू। उन्हें लग रहा है कि जरूरत से ज्यादा दवा-उवा खिलाने से उलटा ही असर हो जाने वाला ठहरा। लेकिन फिर उनके भीतर से ही कोई कहता लगता है उन्हें कि बच्चे के दांत निकलेंगे तो खुजली तो होगी ही। खुजली होगी तो फिर बच्चा तो, बच्चा ठहरा। जो उसे मिला, उसे काटेगा। चुप हो के एक जगह जो क्या बैठा रहेगा। लेकिन तभी उन्हें बिसूरते भानु की शक्ल याद हो आती है। उसे अभी-अभी गुड्डन की दादी बहलाकर पड़ोस में उसके घर छोडऩे को गई है। दादी के जाते ही गुड्डन के हाथ लग गई है छोटी-सी नई वाटर बॉटल। यह उसका चाचा हाल ही में इसलिए खरीदकर लाया था कि कॉलेज के लिए घर निकलते वक्त साथ ले जाने को ठीक रहेगी। लाया होगा तो लाया होगा, गुड्डन के हाथ लग ही गई है तो अब उसे इस सब की कोई परवाह नहीं। अब तो वह उसका एक खिलौना ही है। और जब खिलौना बन ही गई तो फिर वह तो उसके साथ मनचाहा बर्ताव करके रहेगी। बॉटल हाथ में लिए नाचते-नाचते वह अपने कुलजमा छह दांतों से ही उसका हाल बिगाड़े दे रही है। जिस ओर से बॉटल ने उसके मुंह में जगह पाई, वहीं उसके दांतों के नन्हे निशान गढ़ते गए। अब गुड्डन को कोई दूसरा खिलौना नहीं चाहिए। नए-नवेले खिलौने भी उसके आगे पानी भर रहे हैं। उसकी मम्मी ने राज खोला है- 'असल में ऐसी ही बॉटल तो थी उस दिन भी जब यह रिसेप्शन में डीजे की धुन पर नाच रही थी। इसे लग रहा है, फिर से वही मिल गई है। अब बस फर्क ये है कि डीजे की जगह टीवी ने ले रखी है।

टीवी गुड्डन के लिए एक ऐसी सुविधा है, जिसका इस्तेमाल वह जब चाहे कर सकती है। टीवी को वह टेवी कहती है। कहती है-'टेवी चला दो...चलाओ टेवी...। उसकी बात पर कान न दो तो वह टेवी-टेवी कहकर जान आफत में कर देगी। टीवी चला दिए जाने के बाद भी मुसीबत टलने वाली जो क्या हुई। अब कहेगी- 'गाना लगाओ..।  गाना  उसकी पसंद का होना चाहिए। दादी गाने वाला चैनल लगा देगी, तो कहेगी- 'दूसरा गाना लगाओ।अब ये क्या जरूरी जो क्या है कि हर बखत उसकी पसंद का गाना टीवी पर बजता रहे। वह तो गनीमत ये हुई कि बीच-बीच में टीवी पर विज्ञापन ऐसे आने वाले हुए कि गुड्डन उनके जाल में फंसे बगैर न रह पाए। अभी कुछ रोज पहले तक 'घूमर घूमर...उसे ऐसा पसंद आया कि उसके आगे सब फीका। इसके बाद आईपीएल क्या शुरू हुआ कि उसके विज्ञापन की धुन ही उसकी पसंदीदा बन गई। वह बजी नहीं कि थिरकने लगेगी दोनों हाथ उठाकर। वह थिरकेगी तो फिर आस-पास जो भी बैठा है, उसकी ये पक्की ड्यूटी हो गई कि उसके डांस को देखो, उसकी तारीफ करो और जब वह कहे तो उसके साथ नाचने लगो। वैसे मूड ठीक हुआ और उसके हिसाब से कायदे के विज्ञापन आने लगें तो वह बैठे-बैठे भी कमर मटकाने लगेगी। विज्ञापन बड़े गौर से देखती है गुड्डन। एकटक आंखें, गर्दन सीधी और सधा हुआ सीधा शरीर। गोविंद बाबू सोचते रहते हैं, कोई बताए जरा, बच्चों को ऐसी अक्ल कौन जो देने वाला हुआ! कभी-कभी तो वह गुड्डन की हरकतें देखकर डर ही जाते हैं। बैठे-बैठे कुछ भी करे, चलो ठीक है। लेकिन जोश में आकर तो वह यही भूल जाती है कि जमीन पर नहीं, बेड पर बैठी है। अचानक उत्तेजित हो खड़ी होकर पंजों के बल उचकने लगेगी। गिरे तो गिरे, उसे काहे की परवाह! जिसे देखना हो देखे उसे। गिर गई और चोट-पीट लग  गई तो उसे क्या, वह तो रोने लगेगी। दर्द उससे ज्यादा होगा उन्हें जो उसे गिरते वक्त संभाल न पाएं।

टीवी का गाना खत्म हो गया तो वह अपनी पसंद का गाना बता देगी- 'रिंगा रिंगा रोजेस...गाओ।  गाओ ही नहीं, उसके साथ गोल घेरा बनाकर सबके सब नाचने लगें। जो दिखाई न देगा, उसे वह आवाज देकर बुलाने लगेगी- 'दादा जीऽऽ। जब तक दादा जी न आकर नाचने लगेंगे, तब तक वह कहां मानने वाली हुई! उसी की वजह से जाने कितने बरस बाद नाचे होंगे गोविंद बाबू। वह नाच रहे थे और उनकी पत्नी ऐसे हंसते हंसते लोटपोट हुई जा रही थीं कि जैसे जाने कौन-सा अजूबा जो हो गया हो।

                                                                                         * * *

 

कुछ दिन पहले की ही तो बात है। गुड्डन के चाचा की आवाज सुनकर घबरा ही तो गए थे गोविंद बाबू-'अरे क्या हो गया? ऐसे क्यों चिल्ला रहा है?’ पूछा था उन्होंने।

जवाब में उसने कहा - 'आप ये क्या कर रहे हैं गुड्डन के सामने? पता नहीं, उसके सामने मोबाइल पर बात करना मना है।

अब ये एक नई मुसीबत हो गई कहा, किसी से आप फोन पर बात भी नहीं कर सकते उसके सामने। झट से कहने लगेगी, 'फून दे दो...फून दे दो न..नहीं दोगे तो पुंगाड़ा पसार के रोने लगेगी। अब कर लो बात। फोन उसके हाथ में थमा दिया तो जहां-तहां दबाकर किसी का नंबर डायल कर देगी या फिर कहेगी- 'आबारा लगा दो..आबारा

इस आबारा की भी अजीब दास्तान है। एक दिन गुड्डन का पापा अपने लैपटॉप पर आफिस का कुछ काम कर रहा था। उसे काम करता देख गुड्डन जिद पकड़ गई। हारकर अपनी जान बचाने के लिए उसने अम्मा के मोबाइल पर एक गाना बजा दिया। संयोग से वह गाना मुकेश का गाया  'आवारा हूं...निकला। उसकी आवाज सुनकर गुड्डन चकित रह गई कि दादा जी तो कहीं नजर नहीं आ रहे, फिर गाना उनकी आवाज में कैसे सुनाई दे रहा है। उसकी हैरानी पल भर की ही निकली। दूसरे ही पल वह मोबाइल अपने कान से लगाए नाचने में मशगूल हो गई। वह दिन है और आज का दिन, जब कभी उसे मोबाइल नजर आ जाता है, वह 'आबारा लगाओकी रट ले बैठती है। कोई उसकी तोतली जबान से निकले शब्द समझ जाए तो ठीक वरना वो 'आबारा ...आबाराकरती न थकेगी। बस तभी से घर का हर सदस्य यह ख्याल रखने लगा कि उसके सामने मोबाइल पर बात न करे।

उस रोज यही तो हुआ। गोविंद बाबू के हाथ में उसने मोबाइल क्या देख लिया, लगी 'आबारा...आबाराकी रट लगाने। गोविंद बाबू का बात करना मुहाल हो गया। एक तो दूसरी तरफ से आने वाली आवाज वैसे ही धीमी  थी, गुड्डन के व्यवधान ने उसे और मुश्किल बना दिया। जैसे-तैसे बात खत्म की गई और गुड्डन के चाचा ने गोविंद बाबू के मोबाइल पर 'आवारा हूं..लगाकर गुड्डन को शांत किया। गुड्डन का क्या था, वह तो मोबाइल हाथ में थामे ये जा और और वो जा। जिसे करनी हो मोबाइल और उसकी हिफाजत, वह कैसे भी करता रहे।

अचानक जाने कैसे गुड्डन को ड्रेसिंग टेबल की याद हो आई। इधर वह ड्रेसिंग टेबल की तरफ दौड़ी, उधर यह देख गोविंद बाबू को घबराहट शुरू हो गई।

वह देख रहे थे कि अम्मा, यानी उसकी दादी ने कुछ देर पहले ही तो पूरी ड्रेसिंग टेबल साफ कर तमाम चीजें करीने से लगाकर रखी थीं। कुछ चीजों को टेबल के बाहर वाली जगह पर  इसलिए रख छोड़ा था कि घड़ी-घड़ी काम आते रहती हैं। इनमें शामिल थीं क्रीम, तेल, नीविया, कंघा, क्लिप, वैसलीन और पाउडर जैसी कई शीशियां और उनके छोटे डब्बे। उसी के साथ लगे ड्रेसिंग टेबल के शीशे से गुड्डन की अच्छी दोस्ती हो चली है। वहां उसे अपनी जैसी एक बच्ची जो नजर आ जाने वाली हुई। उसे देखकर गुड्डन हैरान रह जाने वाली हुई कि ऐसा क्या जो हो जाता होगा कि जैसा वह कर रही है, ठीक वैसा ही शीशे वाली लड़की भी किए जा रही है।

अम्मा उससे कहती है, 'हलो करो।तो वह फौरन उसे हलो करते हुए शीशे की तरफ हाथ बढ़ा देगी। इधर उसने हाथ बढ़ाया तो उधर शीशे वाली लड़की भी हाथ बढ़ा देगी। उसके ऐसा करते ही गुड्डन खिलखिलाने लगती है। ऐसा प्यार उमड़ आता है कि गुड्डन शीशे वाली लड़की को जोर से पुच्ची करने लगती है। इस वक्त उसका लाड़ देखते ही बनता है। उसे ऐसा करता देखने वाला ही घबरा जाए कि अब आ गई शीशे की कजा। लेकिन इस सबसे गुड्डन को क्या! जितना उसे हटाने की कोशिश करोगे, उतना ही वह जिद पकड़ती चली जाएगी। और अगर बिगड़ गई तो फिर संभालना ही मुश्किल हो जाएगा। पंजों के बल उचक कर ऐसी दौड़ लगाने लगेगी कि उसे खुद यह ध्यान ही न रहेगा कि किस चीज से टकरा गई... मुश्किल तो ये है कि ऐसे में वह अपने दोनों हाथ उपर की तरफ उठा लेती है। डर उसे नहीं, देखने वालों को लगता रहता है। कभी वह दौड़ कर किचन में जा पहुंचती है तो कभी फायदा उठा लेती है बाथरूम का दरवाजा खुला रह जाने का। वहां नीले रंग की चमकदार टाइल्स उसके लिए एक अलग ही आकर्षण बनी हुई हैं। और वहां अगर बाल्टी भरी मिल गई तो फिर पानी में छप-छप करना उसका सबसे पसंदीदा खेल ठहरा। 

                                                                                    * * *

शाम ढलने लगी है और गोविंद बाबू सोच रहे हैं, उसके खेलों का कोई अंत भी है कि नहीं!  वह सोच ही रहे हैं और गुड्डन ने एक नया ही मनोरंजन ईजाद कर लिया है। दादी की तबीयत कुछ ढीली थी, लिहाजा उनकी खाट जरा जल्दी लगा दी गई। खाट लगी और रंगीन धारीदार दरी क्या बिछाई गई, गुड्डन की तो जैसे मौज ही हो गई। पहले तो उसने जी भर कर दरी पर लोट लगाई और फिर दादी को उठाकर बोली, ''चादर लाओ।’’

दादी को याद आया, एक दिन उसने उसे अपनी ओढऩे वाली चादर उसे उढ़ा दी थी। चादर ओढ़कर ऐसी खुश हो गई थी गुड्डन कि जैसे उसे कोई अनोखी चीज मिल गई हो। चादर ओढ़े-ओढ़े वह अपनी दादी को बुलाने लगी थी- ''अम्मा आओ...अम्मा आओ...’’ उसे दादी को भी वही चादर अपने साथ उढ़ाने का मन था। दादी ने उसके साथ उस रोज चादर क्या ओढ़ ली, अब यह उसके लिए एक खेल ही बन गया। वह चादर को अपना घर समझने लगी है। कहती है, ''अब चाय बनाओ।’’

अम्मा उसके लिए झूठमूठ की चाय बना रही है। बना ही नहीं रही, उसे पिला भी रही है। अब महज अम्मा से काम नहीं चलने वाला गुड्डन का। वह एक-एक कर चाचा, मम्मी और दादा को भी बुला रही है। अब वे सब चादर के भीतर झांकेंगे, गुड्डन खुश होकर उन्हें आदेश देगी। वे झूठमूठ का खाना बनाएंगे और गुड्डन को खिलाएंगे। गुड्डन प्रफुल्लित होकर खाना खाएगी और मन हुआ तो जोरों से चीखने लगेगी। ऐसे में उसकी चीख गली के दूसरे छोर तक जा पहुंचेगी। आप उसे रोकने की कोशिश करेंगे तो ताली बजाते हुए वह अब तक आई अपनी पूरी दंतावली दिखा देगी। यह उसकी खुशी का एक अलग ही रंग है। उसे इस बात की कोई परवाह नहीं कि उसका पापा थका हारा अभी-अभी ऑफिस से घर पहुंचा है और अगले दिन सुबह आठ बजे से पहले ही फिर उसे घर छोड़ देना होगा। वह अपने फुल मूड है। उसे बस मस्ती करनी है। इस मस्ती में हर किसी को साथ देना होगा। यह तब तक चलता रहेगा, जब तक नींद उस पर पूरी तरह से छा नहीं जाएगी। उसकी कोशिश तो यही लग रही है कि नींद को पास ही न फटकने दिया जाए। जब सब थक जाएंगे तो गुड्डन का नया खेल यह शुरू हो जाएगा कि अब वह बनाएगी खाना और बाकी सब के सब खाएंगे एक-एक कर चादर के भीतर झांक कर। अगर बड़ों ने अपनी समझदारी इस रूप में दिखानी शुरू कर दी कि वे सब के सब एक साथ झांकने लगे तो वह नाराज हो जाएगी। वही पहुंचे, जिसे गुड्डन बुलाए। 

इस तमाम कवायद के बीच अम्मा का मन है कि कि गुड्डन कुछ खा लेती तो रात को इत्मीनान से सो तो पाती। सेरेलेक, खिचड़ी, दूध-रोटी,  बस्कुट...वह उससे एक-एक कर सब पूछे जा रही है। पर गुड्डन है कि उसकी सुई अटकी पड़ी है बूंदी पर। उसे तो बस बूंदी चाहिए, जो रायते के लिए आती है। एक दिन अचानक रायता बनाने के लिए आई बूंदी में से उसकी दादी ने उसे दो-चार दाने बूंदी के क्या खिला दिए, अब वह उसका प्रिय खाद्य ही बन गई। अब इससे उसे कोई मतलब नहीं कि उसका पेट भर भी पाएगा या नहीं। आज फिर उसने यही जिद पकड़ ली है। और वह एक बार जिद पकड़ ले तो पूरी महाकाली बन जाती है। कोई उसे चुप नहीं करा सकता। ऐसे में उसका चाचा छेड़ता है अपनी मां को, ''और कर अम्मा, कात्यायनी की पूजा कि हमारे घर लड़की ही जन्म ले। बता तो जरा, मैंने किया कभी तुझे इतना तंग भला!’’

बात सही भी थी। जब गुड्डन होने वाली थी, तब उसकी दादी हमेशा यही प्रार्थना करती रहती थी कि 'मां कात्यायनी, तू मुझे पोती ही देना बस। बरसों से हमारे घर में कन्या की किलकारी नहीं गूंजी है।’’

मां ने लगता है, अम्मा की बात  सुन ही ली। अब गुड्डन आई तो ऐसी कि उसे संभालने  वालों की सिट्टी-पिट्टी गुम हुई जा रही है। 24&7 का जॉब है यह। क्यों न हो? गुड्डन का आलम तो देखो, जो चीज उसे नजर आ जाएगी, उसे ही उठाने को दौड़ पड़ेगी। छोटी हो या बड़ी, इससे उसे कोई मतलब नहीं। उठा पाए न उठा पाए, पैर पर ही गिर जाए...चोट ही लग जाए... उसे कोई परवाह नहीं। आपकी ड्यूटी है, दौड़ते रहिए उसके चारों तरफ। जब जिस तरफ हो फील्डिंग की दरकार, खुद समझिए। कब उसे पलंग के नीचे से झांकती झाडू नजर आ जाएगी, कोई नहीं जानता। वह तो बस हाथ में झाडू ले, इस तरह बुहारने चल देगी जैसे रोजाना सारा घर वही साफ करती हो। दीगर बात है कि उसके नन्हे हाथों से झाडू  तरीके से उठ भी न पा रही हो। कभी अचानक तेल की प्लास्टिक बॉटल लेकर चल देगी- 'कीम लगानी है..वह उसे क्रीम की शीशी समझती है। कोई छीन कर रख दे तो चिल्लाएगी,'अले मेली कीम देदो न..कोई लाड़ में आकर हाथ में थमा दे तो फिर दोनों हाथों में पकड़कर 'मेली कीम...मेली कीमकहती ऐसे दौड़ेगी कि अब जरा छुड़ाकर तो दिखाए कोई।

                                                                                    * * *

गोविंद बाबू आजकल एकदम गुड्डनमय हो गए हैं। उनके लिए उसकी एक-एक हरकत जैसे चमत्कार की तरह है। वह उसे होते हुए तो देखते हैं पर कर कुछ नहीं पाते। उन्हें याद है उस रोज कैसे वह पूजा की जगह जा पहुंची थी। घंटी हाथ लग गई तो वही उठाकर चल दी। हाथ में लेते ही घंटी बज उठी तो वह खुश होकर उछलने लगी। अब गोविंद बाबू हैरानी से उसे देख रहे हैं कि कहीं घंटी उसके पैरों पर ही न गिर जाए। उनके मुंह से निकला अचानक, ''अरे भई, इस गुड्डन से अब जरा चीजों को छिपाकर रखा करो।’’  जवाब में गुड्डन की दादी किचन से ही बोल पड़ी थी, 'क्या-क्या छिपाकर रखोगे तुम उससे...देखूंगी मैं भी।’’

दादी का तो पता नहीं, हां गोविंद बाबू जरूर देख रहे हैं तभी से पल-पल उसकी नायाब करतूतें।

उस रोज ही गुड्डन का चाचा खिलौना कार लेकर क्या आ गया, वह उसे देख फूली न समायी। चाचा ने कार चलाकर दिखाई तो वह उससे संतुष्ट न हुई। उसे तो कार में बैठना है। जैसे एक बार मामा के संग घूमने जाते समय बैठे थे। अब अगर इस कार में वह अंदर नहीं बैठ सकती तो उपर ही बैठ जाएगी। नजर बचाकर अपना पैर कार के उपर रख ही तो दिया था गुड्डन ने। तभी धड़ाम से खुद भी गिरी और कार भी पलट कर कहीं से कहीं पहुंच गई। चोट भले न लगी हो, रोना तो बनता है गुड्डन का। अब वह रोए जा रही है...उसे चुप कराना है तो उसका मनपसंद गाना बजाकर दिखाओ।

गोविंद बाबू खुश हैं कि गुड्डन की मम्मी लगा रही है मोबाइल पर गाना। उसने एक गाना लगा दिया है, लेकिन उसकी पसंद कहीं स्थिर भी तो हो। पल-पल बदल रही है वह अपनी पसंद। रोते हुए उसकी लटपटाती जबान में उसकी पसंद को समझ लेना कोई आसान  काम थोड़े ही है। बड़ी मुश्किल से उसकी मम्मी समझ पाई है कि वह कह रही है, ''दूछला वाला..’’ बस, अब बदलते रहो और बजाते रहो।

गुड्डन का पापा अक्सर नाराज रहता है कि बच्चे को टीवी और मोबाइल की खराब आदत डाले दे रहे हैं। गोविंद बाबू उससे इस मामले में सहमत नहीं हैं। दिन भर आफिस में रहने वाला हुआ उसका पापा। वह भला क्या जाने कि दिनभर कैसे जो संभाला जाता है गुड्डन को। जिस वक्त वह थका हारा घर लौटता है, गुड्डन दोपहर की नींद पूरी कर लेने के बाद शाम की सैर अपने चाचा के संग कर चुकी होती है। उस वक्त वह खूब फ्रेश और चहकती हुई नजर आती है। दिन भर कोई ऐसी थोड़े ही रहती है वह। पापा की ऐसी की तैसी। अरे गुड्डन को काहे का डर? पापा के आते ही अब वह नई फरमाइश कर बैठी है, ''रेन रेन गो अवे...लगाओ...’’

बस अब क्या है, पापा चुपचाप उसके आदेश का पालन करने में ही अपनी खैर समझ रहा है। गाना लगाकर वह उसके पास ही अधलेटा हुआ जा रहा है। दिन भर का थका तो है ही, रात के लिए भी उसे अपनी उर्जा बचाकर जो रखनी है। गोविंद बाबू समझ रहे हैं। रात के बखत भी उसे गुड्डन के साथ खेलना पड़ेगा। बारह, एक, दो, ढाई... कुछ भी बज सकता है गुड्डन के सोने में। जब तक वह सो नहीं जाएगी, पापा और मम्मी को आंख तक नहीं झपकने देगी। साथ में उसका चाचा भी आ जाए तो फिर उसके चहकने के कहने ही क्या! सोता रहे सारा मुहल्ला, वह तो खुशी में जितना चाहेगी चीखती रहेगी। कभी तो गोविंद बाबू अपने पलंग पर पड़े-पड़े ही घबरा उठते हैं कि इस कदर चीखने से कहीं उसके गले को ही कुछ न हो जाए।

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रिटायर होने के बाद भीतर ही भीतर घबराए हुए थे गोविंद बाबू कि अब घर पर बैठे-बैठे कैसे जो कटा करेगा सारा दिन! लेकिन गुड्डन ने आकर उनकी सारी परेशानी हल कर दी है। उनकी ही क्या, वह साफ देख रहे हैं कि गुड्डन की दादी, जिसे चलने फिरने में खासी दिक्कत रहने लगी थी, अब कैसे अपनी पोती की एक आवाज पर कूद कर सामने आ जाती है। जब देखो, उसका मनचाहा डांस करने लगती है और कितनी भी थकी क्यों न हो, गुड्डन के कहने पर उसे गोद में ले घुमाने को चल देती है।

आज सुबह से ही दूध पीने के बाद से गुड्डन गोविंद बाबू को 'लकड़ी की काठी...गाते हुए घोड़ा बन जाने के लिए कहे जा रही थी। उसके पापा की बात और ठहरी। वह तो झट से दोनों हाथों और पैरों के बल घोड़ा बन जाने वाला हुआ। उसकी पीठ पर बैठी गुड्डन उसके सर के बाल खींचते हुए ऐसे हांकने लगती जैसे सचमुच घुड़सवारी का आनंद ले रही हो। लेकिन गोविंद बाबू पैंसठ पार करने के बाद घोड़ा बनने में डर रहे थे। घोड़ा बनना भर हो, तो चलो थोड़ी देर के लिए बन भी जाएं, लेकिन यहां तो गुड्डन चाहती है कि पापा की तरह दादा जी उसे अपनी पीठ पर सवारी कराएं। सब कुछ भूल कर जैसे ही गोविंद बाबू ऐसा करने लगते हैं, तभी गुड्डन की दादी चेता देती हैं,'' अब ये सब करने की उमर थोड़े ही है तुम्हारी...बच्चों के संग एकदम बच्चे हुए जा रहे हो...’’

गुड्डन की दादी उनकी फिक्र किए रहती हैं और वे उनकी। जब से हार्ट का आपरेशन हुआ है, उन्हें अपने से कहीं ज्यादा फिक्र पत्नी की हो चली है। जब देखो, यह ख्याल उन्हें परेशान कर जाता है कि उनके बाद उनकी पत्नी का जाने क्या होगा। वह अपनी आदतन ठसक के साथ जी भी पाएगी या नहीं! कभी तो उन्हें लगता है कि उसकी ठसक के भीतर ही कहीं उनका सम्मान भी जिंदा है। जब से अपने पिता के सामने मां की बेचारगी भरी हालत को देखकर गोविंद बाबू को ठेस पहुंची थी, तभी से उन्होंने यह तय कर लिया था कि वे अपनी पत्नी के साथ ऐसा बर्ताव कभी नहीं होने देंगे। बाबू भी तो कितने जल्लाद जैसे  हुए कहा। जरा-जरा सी बात पर इजा पर हाथ उठाने देना उनके लिए एकदम आम बात ठहरी। परोसा-परसाया खाना अगर उनके मन का न हुआ, तो थाली उठाकर फेंक देने में जरा भी देर जो क्या लगाते थे। इधर उन्होंने थाली फेंकी और उधर इजा ने आंसू रोकते हुए पल्लू से मुंह ढांप कर रसोई छोड़ दी।

ऐसे माहौल में खाना खाने का मन किसका होगा भला! बाबू तो कारखाना बाजार जाकर कुछ न कुछ खा ही आने वाले हुए, लेकिन इजा का तो बेमतलब का व्रत ही हो जाने वाला ठहरा ऐसे में।

बचपन के ऐसे जाने कितने किस्से उनकी यादों में बस गए थे। इनमें रोती हुई मां और सीना ताने गुस्साए बाबू का घर से निकल जाना उनके जेहन में खुब कर रह गया था। युवा होते-होते उन्होंने तय किया था कि या तो शादी करेंगे ही नहीं, और अगर की तो पत्नी का मतलब सेविका नहीं, घर की मालकिन होगा। मालकिन, जो रुपये पैसे संभालने वाली भले न हो, लेकिन घर को चलाने वाली सबसे मजबूत कड़ी वही बनी रहे। गुड्डन तो अब आई है, जब उसका पापा भी नहीं हुआ था, तब से  गोविंद बाबू ने इस बात की खुशी महसूस की थी कि उनकी पत्नी, मां की तरह घड़ी-घड़ी ताने सुनने के लिए ससुराल नहीं आई है। सबसे अच्छी बात तो ये थी कि इसके लिए गोविंद बाबू को अपनी तरफ से कोई खास मेहनत भी नहीं करनी पड़ी थी। नई ब्याहता होने के बावजूद, पत्नी ने शुरू में ही यह अहसास करा दिया था कि वह अब तक आई बहुओं की तरह मरियल गाय-सी नहीं है। उसके प्रतिरोध करने का तरीका ही ऐसा नायाब था कि घर का घर हैरान रह जाता। वह किसी से कुछ न कहती, लेकिन यह संकेत कर देती कि अगर आइंदा किसी ने उसके अस्तित्व को ही नकारने की कोशिश की तो वह चुप न रहेगी। एक बार तो बातों-बातों में उसने भी यह कह भी दिया कि होता आया होगा अब तक जो कुछ  इस घर में, लेकिन अब न होगा। जिसे सहनी हो मर्दों की बेहूदगी, वो सहे। न मेरा पति इस मिजाज का है और न मुझसे यह सब बर्दाश्त होता है।

अजीब बात तो यह थी कि जब-जब ऐसे अवसर आए, बात तो पत्नी कर रही होती, लेकिन गर्व से सीना गोविंद बाबू का चौड़ा हो जाता। उन्हें लगने लगता कि वह पत्नी की नजर में उस किस्म के इंसान नहीं जैसे इजा की नजर में बाबू रहे होंगे। पता नहीं कैसे गुड्डन को भी यह अहसास हो चला था कि दादी को पटाए रहो तो अपनी सारी मनमानी चलती रह सकती है। कोई उससे कुछ कह भर दे, वह फौरन दादी के पास शिकायत करने जा पहुंचेगी। उसका लहजा ही बता देगा कि वह शिकायत कर रही है। संकेतों वाली उसकी भाषा दादी समझ भी तो झट से जाती है। वह गुड्डन से कहेगी- 'डांट दे चाचा को’, तो वह जोर से उंगली दिखाकर कह देगी- 'डांट। जवाब में चाचा को बाकायदा रोने का अभिनय करना पड़ेगा। नहीं करेगा तो शिकायत फिर से हो जाएगी।

गोविंद बाबू गुड्डन लीला में इस कदर खो जाते हैं कि उन्हें और किसी चीज का भान ही नहीं रहता। कभी गलती से वह अपने किसी काम में उलझ कर रह भी जाएं तो खुद गुड्डन उन्हें यह अहसास कराना नहीं भूलती कि उनकी पहली ड्यूटी है गुड्डन...बाकी सब बाद की बातें हैं।

छोटे बेटे ने उन्हें मेल करना पिछले हफ्ते क्या सिखाया, वे अपने दो-चार जिगरी दोस्तों और रिश्तेदारों को वक्त मिलते ही मेल करने लगे थे। उन्हें यह बड़ा अच्छा लगता कि मेल का जवाब  जल्द आ जाता और पैसे भी खर्च नहीं होते। दिक्कत बस ये होती कि मेल टाइप करने में कोई बटन गलत दब जाता तो गोविंद बाबू को आवाज लगाकर छोटे बेटे को बुलाना पड़ता।

आज सुबह की ही तो बात है कि गोविंद बाबू गुड्डन के सोए रहने का फायदा उठाकर लैपटॉप खुलवाकर बैठ गए थे। अभी उन्होंने एक ही मेल टाइप किया होगा कि अपनी मम्मी की गोद में सवार गुड्डन साढिय़ां उतरती चली आई। चली क्या आई, गोविंद बाबू की तो आफत ही हो गई। अचानक गुड्डन की नजर लैपटॉप पर पड़ी तो वह खुशी से चिल्ला उठी - 'काठी दिखाओ... काठी दिखाओ दादा जी...

अब दादा जी कहां से दिखाएं काठी! बुलाओ चाचा को। वही लगाएगा 'लकड़ी की काठी...

चाचा के आने में जरा देर हुई नहीं कि गुड्डन आसमान सर पर उठाने लगी - 'काठी लगाओ न अम्मा... दादा जी काठी... काठी लगाओ न...

चाचा आ गया है। उसने जरा भी देर किए बगैर यूट्यूब पर 'लकड़ी की काठीलगा दिया है। लैपटॉप के स्क्रीन पर रंगीन घोड़ा दौड़ रहा है और गुड्डन उसकी चाल के साथ झूम रही है। अब उसे किसी चीज की कोई परवाह नहीं। घोड़ा है और वह। वह है और घोड़ा। गाना है और उसकी धुन। धुन है और उसमें खोई गुड्डन। जब गुड्डन खोई है तो दादा जी भला कैसे न गुनगुनाएं - 'लकड़ी की काठी काठी पे घोड़ा, घोड़े की दुम पे जो मारा हथौड़ा, दौड़ा दौड़ा दौड़ा घोड़ा दुम उठा के दौड़ा...।

 

 

 

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