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सितम्बर - 2018

प्रार्थनारत बत्तखें : संघर्ष के सौंदर्य की कविताएं

मणि मोहन

नये प्रकाशन

 

 

 

 

 

समकालीन कविता का परिदृश्य बहुत वैविध्यपूर्ण है। वैविध्यपूर्ण इसलिए कि आज एक साथ तीन पीढिय़ां समकालीन कविता के संसार को समृद्ध कर रही हैं। इन पीढिय़ों में सातवें दशक के महत्वपूर्ण कवियों से लेकर बीसवीं सदी के अंतिम दशक में जन्म लेने वाले युवतम रचनाकार तक अपने-अपने स्तर पर सक्रिय हैं। कविता की यह दुनिया एक से अधिक अर्थों में बेहद चुनौतिपूर्ण भी है। अन्य विधाओं की अपेक्षा यहां सृजनकारों की संख्या बहुत अधिक है, साथ ही प्रचार प्रसार और प्रकाशन के लिए आज रचनाकारों के पास बहुत स्पेस है, बल्कि कहूँ तो स्पेस की अधिकता है। आभासी दुनिया ने अपनी सकारात्मक भूमिका के बावज़ूद रचनाकारों के भीतर यह भरम भी पैदा किया है कि कविता लिखना बहुत आसान काम है और उसे प्रसारित करना तो उससे कहीं ज्यादा आसान। इस विभ्रम के बीच युवा रचनाकारों के लिए रचनाकर्म बेहद चुनौतीपूर्ण काम है।

रचनात्मकता की बहुआयामी चुनौतियों के बीच जब भी किसी नई आवाज़ की आहट सुनाई देती है तो साहित्य संसार बहुत उत्सुकता से इस आहट की दिशा में देखता है। युवा कवयित्री तिथि दानी ढोबले के कविता संग्रह ''प्रार्थनारत बत्तखें’’ की कविताओं से होकर गुजरना कविता के उस बीहड़ में प्रवेश करना है जहां का हर दृश्य हमे जीवन की रागात्मकता से जोड़कर अपनी प्रकृति , परिवेश और मनुष्यता के थोड़ा और निकट ले जाकर छोड़ देता है।

आभासी संसार ने जाने अनजाने रचनात्मक होने का एक भ्रम पैदा किया है जिसकी वजह से कविताओं की बाढ़ सी दिखाई देती है। इन कविताओं में बड़ी संख्या उन कविताओं की दिखाई देती है जो बड़े शातिरपन और शब्दों की जगलरी के साथ बुनी गई होती हैं। मैं इन्हें ''सिंथेटिक कविता’’ कहता हूं जो दूर से देखने पर खूबसूरत और सच्ची होने का भ्रम पैदा करती है पर हकीकत में नकली और स्पंदनहीन होती है। ''प्रार्थनारत बत्तखें’’ पढ़ते हुए पहला अहसास तो इसी अनुकूलन के टूटने का होता है। तिथि की कविताएं, कविता के हैंगोवर को खत्म करती हैं और कविता पर एक सामान्य पाठक के भरोसे को बनाए रखती हैं। यह महज़ संयोग ही कहा जायेगा कि इसी संग्रह की एक कविता ''$र्फ की बारिश’’ में वे आभासी संसार के ''कृतिम और मायावी’’ तिलिस्म से बाहर निकलने का आव्हान करती हैं -

 

बन्द कर दो ये वीडियो रिकार्डिंग

ख़ुहमी में मत आजमाओ फोटोग्राफी                                                

के नए नए एप

* * *

ये सिर्फ झक्क सफेद बादल के टुकड़े

नहीं

स्वर्ग से गिरे हर्फ हैं

आओ, इन्हें इकठ्ठा करें

और बना लें

अपने-अपने लिए भाषा के घर।

 

तकनीक ने हमारे समकाल को न सिर्फ आत्मकेंद्रित बनाया है वरन मनुष्यता को संवेदनहीनता की तरफ भी धकेला है।  ''बर्फ की बारिश’’ हो या फिर  ''उस चिडिय़ा की आवाज़ सुनो’’ यह युवा कवयित्री लगातार इस संवेदना के ह्रास की तरफ इशारा करती दिखाई देती हैं। उनकी कविता में ''झक्क सफेद बादल के टुकड़े’’ स्वर्ग से गिरे हर्फ में तब्दील हो जाते हैं जिनसे वे भाषा का घर बनाने की बात करती हैं। किसी भी युवा लेखक के आत्मसंघर्ष का एक अहम हिस्सा उसका अपनी काव्य भाषा को प्राप्त करने की जद्दोजहद भी होता है। यह एक सुखद आश्चर्य की बात है कि तिथि अपने पहले ही संकलन में इस संघर्ष को न सिर्फ रेखंकित करती दिखाई देती हैं बल्कि इस उपक्रम में अपनी काव्य भाषा के प्रति सचेत भी हैं। उनकी कविता में अपनी पुरानी और नई पीढ़ी के कवियों की भाषा की प्रेतछायाएं दिखाई नहीं देती हैं ।

किसी भी कविता की समकालीनता को देखने परखने का एक पैमाना यह भी होता है कि किसी कवि का अपने समय के साथ क्या रिश्ता है और वह अपने समय की धड़कन को अपने पाठकों तक किस रंग और ढंग से सम्प्रेषित कर पा रहा है। साथ ही इसी कालखण्ड में जी रहे उसके पाठकों को इस समय के प्रामाणिक यथार्थ से रूबरू कराने की जिम्मेदारी भी कवि की होती है। कहने की जरूरत नहीं कि तिथि की कविता में  इस समय के तमाम जरूरी विमर्श मौजूद हैं। परन्तु मनुष्यता के पक्ष में खड़े ये तमाम विमर्श इन कविताओं में न तो फैशन की तरह आये हैं और न ही किसी घुसपैठ की तरह। ये विमर्श यहां बेहद स्वाभाविक ढंग से आत्मीय संवाद की तरह मौजूद हैं। तमाम असंगतियों और विद्रूपताओं के बावज़ूद अपने समय के साथ कवि का एक आत्मीय रिश्ता है जिसमें अपने परिवेश के प्रति चिंता शामिल है। और यह चिंता कविताओं में मद्धिम स्वर के साथ व्यक्त होती है। अपनी राजनीतिक कविताओं में भी वे इस स्वर को पकड़े रहती हैं। यह बात भी उन्हें अपने समकालीन रचनाकारों से तनिक अलहदा करती है कि वे अपने समय के सामाजिक-राजनीतिक यथार्थ की तरफ जाते हुए काव्य सौंदर्य की अनदेखी नहीं करतीं। वर्चस्ववादी संस्कृति से टकराते अनेक भाव भंगिमाओं वाले स्वरों में तिथि का अपना एक स्वर है जिसे अलग से पहचाना और रेखांकित किया जा सकता है।  उनकी एक छोटी कविता  ''रात, ट्राम और घड़ी’’ में हमारे समय का जो विवरण दर्ज है, यह एक उदाहरण भी है कि बिना लाउड हुए भी हिंसात्मक यथार्थ को सम्प्रेषित किया जा सकता है - ''रात , ट्राम और घड़ी / तीनों हैं सहेलियाँ / तीनों बिल्कुल एक जैसी / तीनों चलती हैं लगातार / बोझ उठाये हुए / अनगिनित अनसुनी चीखों और आँसुओं के बुरादे का / टूटे हुए सपनों और नादान दिलों की किरचों का / अल्ज़ाइमर, डिमेंशिया, सिज़ोफ्रेनिया में लिपटी लाशों का / क्रूरताओं, हत्याओं के लिए बने / मासूमियत, मुलामीयत लिए सु$र्ख लाल चेहरों का।

एक जैसा है

तीनों का इंतज़ार भी....

अपने - अपने वक्त के बदलने का।’’

तिथि की कविता का उत्स प्रकृति के साथ उनकी रागात्मकता में खोजा जा सकता है। प्रकृति और उसके विस्तार तक वे एक आदिम मनुष्य की जिज्ञासाओं के साथ जाती हैं और इस सहचर्य के सौंदर्य और आनंद को सघन अनुभूति के साथ कविता में रूपांतरित कर देती हैं। उनकी कविता की भाषा में एक हल्की सी रुमानियत है पर यह रुमानियत आनुपातिक दृष्टि से बेहद सधी हुई है। कहने की जरूरत नहीं कि इस विराट प्रकृति के रंगमंच पर तिथि की कविता हमारे समय की विद्रूपता, क्रूरता, हिंसा और संवेदनहीनता का यथार्थपूर्ण चित्रण पूरी शिद्दत के साथ करती है। इन कविताओं में प्रकृति एक सूत्रधार की तरह अपने समय और समाज की त्रासदी के विवरण के साथ उपस्थित है। युवा कवि और आलोचक अच्युतानंद मिश्र ने भी इस पुस्तक के ब्लर्ब पर इसी बात को रेखांकित करते हुए ठीक ही लिखा है कि, ''इधर की कविता विशेषकर युवा कविता के संदर्भ में ये शिकायत की जाती है कि उसमें मनुष्य और प्रकृति का आदिम राग सुनाई नहीं देता। तिथि की कविताओं में प्रकृति और मनुष्य के संबंधों को वर्तमान के धरातल पर पहचानने की कोशिश नज़र आती है। प्रकृति और मनुष्य के आदिम राग को गाते हुए वह अपने समय और समाज को नहीं भूलतीं। वह अपने भीतर यह ''उम्मीद’’ बचाए रखती है कि ''स्त्रियां जुगनू बन जाएं’’। उम्मीद का यह उत्कर्ष हमे सुकून देता है।’’

यह भी ध्यातव्य है कि इधर की कविता में सपाट बयानी भी बढ़ी है। इसलिए ज्यादातर युवा कवियों की कविताएं  लगभग एक जैसी दिखाई देती हैं। कविता में फैंटेसी का प्रयोग भी न के बराबर दिखाई देता है। इस दृष्टि से तिथि की कविताएं देखें तो हम पाते हैं कि वे पारम्परिक प्रतीकों और बिम्बों पर ज्यादा भरोसा नहीं करतीं। उनकी कविता में अक्सर ही कुछ अनूठे और टटके बिम्ब हमें चौंकाते हैं। अपनी एक कविता ''क्योंकि... हर घर कुछ कहता है’’ की इन पंक्तियों को देखें -

घर को जो परिवार होता है सार्वधिक प्रिय /अपने जीते जी मिटने नहीं देता उसकी कोई निशानी / जैसे / घर ने अपने सीने पर अब भी लटका रखा है / मिट्टी की घण्टियों का मैडल /तूफानी हवाएं , मूसलाधार बारिश और भीषण गर्मी / उसे हौले से छू कर अभिवादन करते हैं ।

या फिर

खुरच कर निकालने की हर कोशिश के बावजूद / बाथरूम के टाइल ने नीली बिंदी को / कस कर लगाए रखा है अपने गले ।

 

संकलन की एक और कविता ''कम्पोस्ट बिन’’ में भी इसी तरह एक ताज़े बिम्ब से हमारा साक्षात्कार होता है जब वे लिखती हैं - वे सभी जान जाते कि/ज़िन्दगी में नाउम्मीदी और तमाम तकलीफों के / किर्र - किर्र कर खुलते बन्द होते / दरवाज़ो की कब्जों पर / पड़ गया है / राहत भरा तेल।

जबलपुर (म.प्र.) में जन्मीं तिथि इन दिनों यूके में रहती हैं पर उनकी कविता पढ़ते हुए यह भौगोलिक दूरी तनिक भी नहीं अखरती और यह बात बहुत स्पस्ट रूप से उभर कर आती है कि कवि और कविता की चिंताएं एक जैसी होती हैं। ''कम्पोस्ट बिन’’ कविता में वे एक अकेली स्त्री, मिसेज़ डायना की ज़िंदगी के एक पृष्ठ को अपने पाठकों के सामने प्रस्तुत करती हैं। पूरी कविता पढ़ते हुए बार बार लगता है कि अपनी स्थानिकता के बावज़ूद इस कविता में हमारे देश, समाज और समय का भी मार्मिक चित्रण है जिसे हजारों मील दूर बैठा कोई कवि अपना अनुभव साझा कर रहा है। ''डरे हुए लोग’’ जैसी कविता में तिथि अपने समय की रगों में दौड़ते हुए डर की पड़ताल करती हैं। यह डर किसी एक देश या समाज का नहीं है: यह डर हमारे समय का एक अहम किरदार है जो अब लगभग विश्व नागरिक या ग्लोब ट्रोटर हो चुका है। यह अनायास नहीं कि संग्रह की शीर्षक कविता ''प्रार्थनारत बत्तखें’’ में वे अस्पताल परिसर में घूमती दो बत्तखों की क्रीड़ाओं का वर्णन करते हुए उनके प्रार्थनारत होने पर कविता का अंत करती हैं - ''वे घास के टीलों पर गर्दन पेट में छिपाए, पोटली बन जाती हैं / यही उनका तरीका है विश्व के लिए प्रार्थनारत होने का / इसलिए सो जाती हैं वे बाकी सबसे पहले / ताकि सबके आने वाले दिन हों रुपहले।’’ कहा जा सकता है कि तिथि की कविताओं में स्थानिकता के साथ साथ सार्वभौमिकता का एक मद्धम सा स्वर भी मौजूद रहता है जो उन्हें अपने समकालीन रचनाकारों से अलग पहचान देता दिखाई पड़ता है।

''प्रार्थनारत बत्तखें’’ पढ़ते हुए एक और बात शिद्दत से महसूस की जा सकती है कि तिथि का कवि मन किसी हड़बड़ी और होड़ में शामिल नहीं है। इन दिनों बहुतायत में लिखी जा रही इंस्टेंट कविता के बरक्स वे जीवन के दृश्यों में बहुत आहिस्ता और संजीदगी के साथ प्रवेश करती हैं। उनके कवि मन को जैसे शोर पसन्द नहीं। इसलिए अपनी कविताओं में लाउड हुए बिना वे समकालीन जीवन की पड़ताल करती हैं और अपनी वाज़िब चिंताएं भी मद्धम स्वर में सम्प्रेषित करती हैं। अपनी एक कविता ''दो सहेलियां झूले पर’’ में तिथि इस ग्लोबल समय की क्रूरता और हिंसा को मात्र दो पंक्तियों में रेखंकित करते हुए चौंका देती हैं - वे बातें कर रहीं थीं / पृथ्वी से बाहर किसी ग्रह पर घर बनाने की।

कितनी सादगी के साथ कवयित्री ने अमानवीय होते समय मे साँस लेतीं, अपने लिए स्पेस तलाशती स्त्रियों की मनोदशा का प्रभावी चित्रण किया है। दूसरी तरफ ''पेंसिल हील’’ कविता में वे एक बार फिर बहुत सहजता के साथ इसी अमानवीय समय से मुठभेड़ करती एक पचास साला कार्ला नाम की स्त्री का ज़िक्र करती हैं जिसने धरती की धुरी को पेंसिल हील की तरह पहन रखा है - अब पेंसिल हील / बगैर जुम्बिश / धरती को लिए जा रही है/ असंख्य, अनन्त, अज्ञात आकाशगंगाओं से मिलवाने। तिथि की कविता में यह प्रतिरोध भी अपने पूरे सौंदर्य के साथ आता है ।

इस किताब में अपनी माँ पर लिखी एक बेहद आत्मीय कविता शामिल है। अपनी सृजनात्मकता के लिए शायद यह उऋण होने की एक खूबसूरत कोशिश है - मैंने उससे कहा / वो दे मुझे हथियार / जो दे मुझे काम / उससे दूर रहने पर / दुनिया वालों से लडऩे में / पर उसने मेरे हाथों में थमायी बाँसुरी / और कहा उसे बजाना सीखने के लिए। कविताओं के अतिरिक्त तिथि ने कुछ कहानियां भी लिखी हैं जो देश की प्रतिष्ठित पत्र पत्रिकाओं में प्रकाशित हुई हैं। इस संकलन में ऐसी कई कविताएं हैं जिनके पाश्र्व से झाँकती हुई कोई कथा दिख ही जाती है। इन कविताओं में जो एक पारदर्शी कथात्मकता है वह इन्हें पठनीय बनाती है और सामान्य रूप से इन लम्बी कविताओं से भी पाठक का तादात्म्य अंत तक बना रहता है। ''डस्टबिन’’ शीर्षक की कविता में जहां एक बुजुर्ग व्यक्ति की जीवन के प्रति जीवटता की कथा है तो दूसरी तरफ ''कम्पोस्ट बिन’’ कविता में अपने जीवन के उत्तरार्ध में तमाम नाउम्मीदी और तकलीफों के बावज़ूद अपने जीवन से जूझती एक अकेली स्त्री के जीवन की तस्वीर है। कुछ कविताओं में कथा फैंटेसी के माध्यम से भी व्यक्त होती है। परन्तु ख़ास बात यह है कि कविता नाम के इस रूपबंध से समझौता किये बिना ये कथाएं बहुत स्वाभाविक रूप से कविता में उपस्थित हैं।

एक रचनाकार के रूप में तिथि की प्रतिबद्धता को अलग से रेखांकित करने की जरूरत नहीं है। उनकी कविता मनुष्य और मनुष्यता के पक्ष में पूरी ताकत और संघर्ष के सौंदर्य के साथ खड़ी हुई हैं। कविता के नाम पर लगभग गद्य के दुकड़ों वाले इस कविता समय में वे इस समय के पल पल बदलते हुए यथार्थ को पूरे सौंदर्य के साथ काव्यानुभव में रूपांतरित करने की कोशिश करती हैं और संग्रह की अधिसंख्य कविताएं इस बात की गवाह हैं। तेज धूप में किसी दरख़्त के नीचे छाया तलाशते कचरा बीनने वाले बच्चे हों, खानाबदोश स्त्रियां हों, समाज के लिए अनुपयोगी लगते सेवानिवृत्त बुजुर्गवार हों या फिर कोई अदना सा दरबान हो - तिथि की कविता में हाशिये पर धकेल दी गई यह बड़ी आबादी अपने अस्तित्व की सम्पूर्ण मानवीयता और गरिमा के साथ मौज़ूद है।

प्रार्थनारत बत्तखें - तिथि का पहला कविता संकलन है जिसे भारतीय ज्ञानपीठ ने प्रकाशित किया है और यह सुखद है कि इन कविताओं में वे अपना एक काव्य मुहावरा गढऩे की कोशिश में सफल रही हैं। इस संकलन से गुजरते हुए एक और बात जिसने सबसे ज्यादा चौंकाया वो यह कि इस किताब में अड़तालीस छोटी - बड़ी कविताओं के बीच प्रेम कविताएं मौजूद नहीं हैं। अनायास ही यहां जर्मन कवि राइनेर मारिया रिल्के का वह पत्र याद आता है जो उन्होंने कवि बनने का आकांक्षी एक नौजवान फ्रांज़ ज़ेवियर काप्पुस को लिखा था। रिल्के ने इस पत्र में उसे सुझाव देते हुए लिखा था - ''प्रेम कविताएं मत लिखो। उन सब कला रूपों से बचो जो सामान्य और सरल हैं। उन्हें साध पाना कठिनतम काम है। यह सब ''व्यक्तिगत’’ विवरण जिनमे श्रेष्ठ और भव्य परम्पराएं बहुलता से समाई हों, बहुत ऊंची और परिपक्व दर्जे की रचना क्षमता मांगती हैं : अत: अपने को इन सामान्य विषय वस्तुओं से बचाओ। उन चीज़ों के बारे में लिखो जिन्हें तुम्हारा रोज़ का जीवन हर समय प्रस्तुत करने को तैयार रहता है। अपने दु:खों और आकांक्षाओं का, उन सब विचारों का जो हर समय तुम्हारे मन में से होकर गुजरते हैं; सौंदर्य के प्रति आसक्त अपने विश्वासों का वर्णन करो।’’  तिथि की कविता भी अपने आसपास के सामान्य जनजीवन की आत्मीय अभिव्यक्ति है। वे बहुत मामूली चीजों को अपने स्पर्श से असाधारण बनाने की कोशिश करती हैं और लगभग सफल होती हैं। ''रोटी जैसी गोलाई’’ कविता में वे ''रोटी के जैसी गोलाई’’ ढूंढने का उपक्रम करते हुए स्कूल के ग्लोब से लेकर सितारों तक कि यात्रा करती हैं और अंतत: उनकी तलाश उसी रोटी पर जाकर खत्म होती है -  अंतत: मुझे मिली घर की रोटी में एक निरहंकार और आत्मीय गोलाई।

तिथि की कविताओं को पढ़ते हुए एक सुखद आश्चर्य यह भी होता है कि अपने पहले ही संकलन में कुछ ऐसी कविताएं भी शामिल हैं जो कथ्य की दृष्टि से अछूते विषयों पर लिखी गई हैं। प्राय: युवा अथवा युवतम रचनाकारों में, ख़ासकर समकालीन हिंदी कविता की बात करें तो यह प्रवत्ति बहुत कम दिखाई देती है। यह एक चुनौती है, न सिर्फ नए रचनाकारों के लिए बल्कि स्थापित रचनाकारों के लिए भी। एक समय के बाद स्थापित और बहुपठित रचनाकारों की नई या ताज़ी कविताओं की पड़ताल करो तो इनमें उनके पुराने रचनाकर्म की ध्वनि और प्रतिध्वनि सुनी जा सकती है। कई बार तो यह उपक्रम पुरानी कविताओं का पुनर्लेखन सा जान पड़ता है जैसे एक जमाने मे अपने घरों में पुराने स्वेटर उधेड़कर नए बनाये जाते थे।

''प्रार्थनारत बत्तखें’’ संग्रह में कुछ कविताएं उन विषयों को केंद्र में रखकर रची गई हैं जो समकालीन हिंदी कविता की परंपरा के लिहाज़ से नए या लीक से हटकर कहे जा सकते हैं। पहले उदाहरण के रूप में यहां ''बाइपोलर’’ कविता का ज़िक्र करना चाहूंगा :

हाँ ..अब अपने पूरे होशो हवास में

एक क्षण के लिए उसने कहा,

वह बाइपोलर डिसऑर्डर का मरीज था।

बाइपोलर डिसऑर्डर को मैनिक डिप्रेशन भी कहा जाता है।  इस साइक्लिक डिसऑर्डर में अक्सर मूड स्विंग होता रहता है और उदासी और अवसाद से ग्रसित होना बहुत सामान्य सी बात है।  इस कविता में तिथि विश्व प्रसिद्ध चित्रकार विन्सेंट वॉन गॉग, विख्यात ब्रिटिश लेखिका वर्जीनिया वुल्, महान संगीतज्ञ बीथोवन तथा विश्व विख्यात इतालवी मूर्तिकार, चित्रकार, वास्तुकार माइकल एंजलो जैसी हस्तियों के सृजन को रेखांकित करती हैं। यहां यह भी उल्लेखनीय है कि विन्सेंट वॉन गॉग और वर्जीनिया वुल् दोनो ही बाइपोलर डिसऑर्डर से ग्रस्त थे और दोनो ने ही आत्महत्या कर अपनी जान दी थी। बावज़ूद इस तथ्य के यहां कवयित्री इन महान कलाकारों की मिसाल देते हुए मनुष्य जीवन मे परम सृजन की संभावनाओं को खारिज़ नहीं करती - ये सब मुमकिन था उसके लिए / अगर सही समय पर रोक लिया गया होता उसे /हर खतरे और खतरे की सुगबुगाहट के आगे / कछुआ बनने से।

ठीक इसी तरह तिथि अपनी एक अन्य कविता  ''ऑटिस्टिक’’ में भी एक अलग तरह के विषय का स्पर्श करती है। इस कविता में वे  ''ऑटिज़्म’’  जिसे हिंदी में  आत्मविमोह या स्वलीनता कहते हैं, नाम के मानसिक विकार पर एक सुंदर कविता रचती हैं। ऑटिज़्म के शिकार बच्चों में एक रिपिटिटिव बिहेवियर देखने को मिलता है और ये बच्चे बाहरी दुनिया से अनजान अपने ही संसार मे खोए रहते हैं। तिथि इस अनूठी कविता में ऑटिज़्म का शिकार एक ऐसे ही बच्चे को इस बीमारी से संघर्ष करते और इससे उबरते हुए दिखाती हैं। इस बीमारी से लड़ते और बाहर निकलते इस बच्चे की यह यात्रा इस कविता को उदात्त बना देती है - ''फिर अंधेरी की यारी में सम्भल कर रखा है कदम / और उजालों से मिला है पाखी की तरह / ऐसे पड़ावों के साथ वह करता रहा है रोज़ सर / नहीं मिल सकी थी उसे हमउम्रों की तरह एक आसान मंज़िल/सब कुछ समझते ही उसने देखा/उसके भीतर बह रहा है एक झरना  / वह जाता है / रसोई में काम करती / अपनी माँ का हाथ पकड़ कर उसे खींच लाता है / फिर से बैठ जाता है आईने के सामने / अपनी उंगली घुमा देता है अपने चेहरे की तरफ।’’

ये दोनों ही कविताएं अपने कथ्य, भाव और शिल्पगत विशिष्टता के कारण ख़ास बन पड़ी हैं।

तिथि की कविता की भाषा में ताज़गी है। सघन अर्थवत्ता और एक अन्तर्लय भी, जो इन कविताओं की जान है। तिथि के पास एक आत्मीय भाषा है जो इतने बरस विदेश में रहने के बाद भी अपने लोक की चेतना से जुड़ी हुई है। उनकी कुछ कविताओं में अंग्रेजी भाषा के शब्दों की खूब आवाजाही है, परन्तु ये शब्द जबरन ठूँसे हुए नहीं लगते। अपने समय से संवाद करते हुए, यथार्थ को उसी वेवलैंथ पर पकडऩे की चेस्टा में इन शब्दों का आना बहुत स्वाभाविक है। यहाँ भी शब्दों से अधिक महत्वपूर्ण भाषिक संरचना है। तिथि भी इसी भाषिक संरचना के सहारे अपनी कविता में अर्थवत्ता के नए शेड्स भरती हैं।

''प्रार्थनारत बत्तखें’’ में संकलित एक कविता ''मृत्यु से आत्मीय संवाद’’ में उनकी भाषिक संरचना का जादू महसूस किया जा सकता है।

इस कविता में - थिरकते हुए रंगों का प्लाज़्मा; आकाशगंगाओं की चादरें; अभिज्ञ आवृत्तियों के जलीय बादल; रंगों की प्यालियों से छलकते-पिघलते रंग जैसी अनेक खूबसूरत काव्य पंक्तियाँ या पद हैं जो इस कविता के कथ्य के समानांतर यात्रा करते हुए पाठक को विस्मृत कर देते हैं। यह कवि की भाषा की ही ताकत है जो मृत्यु जैसे दार्शनिक और गूढ़ समझे जाने वाले विषय को भी एक नए अंदाज में प्रस्तुत करते हुए अविस्मरणीय बना देती है :

''असंख्य तितलियों की अगुआई में गुरुत्वाकर्षण की सीमा को लाँघना / घास के हरे मैदानों के बीच बहती नदी के ऊपर से उडऩा / फिर इस कायनात से बिल्कुल अलग एक तारामयी आकाश में पहुँचना / एक स्वर्गिक आनंद था।’’

अंत मे एक बार फिर कवि रिल्के के ही शब्दों का सहारा लेते हुए यह कहने में कोई संकोच नहीं कि तिथि दानी ढोबले ''एक हार्दिक, खामोश विनीत निष्ठा के साथ’’ सृजनरत हैं और ''प्रार्थनारत बत्तखें’’ तो उनकी इस यात्रा का एक छोटा सा पड़ाव भर है।

 

 

मणि मोहन- कवि, अनुवादक। संपर्क - मो. 9425150346, विदिशा

 

तिथिदानी ड़ोबले- भारत छोडऩे और वैवाहिक जीवन शुरू करने से पहले तिथि की रचनाएं महत्वपूर्ण साहित्यिक पत्रिकाओं में छप चुकी थीं। न्यूज चैनल से भी सम्बद्ध रही और पत्रकारिता से भी। प्रार्थनारत बत्तखें तिथि का पहला कविता संग्रह है जिसे भारतीय उच्चायोग (नंदन) द्वारा साहित्यिक उपलब्धि के रूप में सराहा, मानपत्र दिया गया और प्रकाशन हेतु अनुदान भी दिया गया।

संपर्क - +447440315754, रेडिंग (यूके)

 


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