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सितम्बर - 2018

लड़कियों के अपने देस की कथा सुनी है ?

सुजाता

 

अंतिम किश्त

 

 

 

 

सुमन केशरी की कविता

 

जॉन स्टुअर्ट मिल ने अपनी किताब 'स्त्रियों की पराधीनतामें लिखा है कि अगर स्त्रियों का कोई अलग देश होता कि जिसमें उन्होंने कभी पुरुषों द्वारा लिखा साहित्य न पढ़ा होता तो शायद उनके पास 'अपनासाहित्य होता। लिट्रेचर ऑफ देयर ओन! मिल का यह लिखना संदर्भ से हटा कर पढा नहीं जा सकता लेकिन इतना कहा जा सकता है कि स्त्री-लेखन का इलाका इसलिए भी चुनौती पूर्ण है कि अपना लिखने की चुनौतियों में वह सब अनलर्न करना भी शामिल है जो सदियों से लिखे जा रहे साहित्य को पढ़कर उसने आत्मसात कर लिया है । अपनी ही देहयष्टि को कभी रीतिकालीन नज़रिए से तो कभी कलगी बाजरे की तरह के उपमानों में ढलते देखना और प्रेम को भी पुरुष के नज़रिए से समझना। वह अपनी दर्शक रही है। द्रष्टा बनने से पहले उसे कई चश्मे उतारने होंगे। यह तकलीदेह काम है लेकिन बेहद ज़रूरी। ऐसी कई कोशिशें अंग्रेज़ी और फ्रेंच में की गई। मेरी वोल्स्टनक्राफ्ट ने 'स्त्री अधिकारों का औचित्य साधनमें नामी लेखकों, दार्शनिकों के लिखे में स्त्री-द्वेष को रेखांकित किया। सीमोन ने 'स्त्री उपेक्षितामें। केट मिलेट ने 'सेक्शुअल पॉलिटिक्समें। एलेन शोवाल्टर का पीएचडी का काम ही ब्रिटिश स्त्री उपन्यासकारों पर था। इन सबका विश्लेषण करते हुए समाहार किया टॉरिल मॉय ने अपनी किताब 'सेक्शुअल/ टेक्स्चुअल पॉलिटिक्समें।

अब, कविता की बात। इक्कीसवीं सदी की स्त्री कविता का प्रस्थान बिंदु वहाँ होना चाहिए था जहाँ कि वह साहित्य की दुनिया में अपना होना क्लेम करे। वह ड्राइविंग सीट पर आए तो पिछली सीट पर से किसी सत्ता के निर्देश सुनने के लिए नहीं। कभी बहुत व्याकुल होकर, कोई बेहद ज़रूरी चीज़ तलाशने को जैसे हम घर का करीने से लगा सामान उलट-पलट कर देते हैं, ऐसे ही स्त्री-कविता को भी बने-बनाए मानकों और भाषा के साथ करना होता है। फिर जैसे घर से निकलते हुए निर्देश दे जाते हैं कि जो चाहो सा-सुथरा करना, मेरे काज़ों को हाथ मत लगाना ऐसे ही, चलते-फिरते टीका-टिप्पणीकारों से कहे- सबको हाँकिए अपने चाबुक से चाहे जैसे भी, लेकिन स्त्री-कविता को उन मानकों पर मत कसिए जिनसे उसकी आत्मा तक पहुँचा ही नहीं जा सकता। पुरुष-केंद्रित आलोचना से सबसे खराब काम यह हुआ कि जहाँ-जहाँ स्त्री कविता सबसे तातवर होती है कवि उसे पहचान ही नहीं पाता और अन्यान्य इलाकों में भटकते हुए आलोचकों के मापदण्डों पर खरा उतरने की कोशिश करता है क्योंकि स्वीकृति-अस्वीकृति के लिए मुख्यधारा की ओर देखने के लिए बरसों का अनुकूलन रहा। एलेन शोवाल्टर इसी तरे की ओर इशारा करते हुए लिखती हैं कि स्त्री-लेखन अक्सर 'बायटेक्स्चुअलरहा। दोहरी आवाज़ों वाला। जिसमें प्रभुत्वशाली पुरुष-लेखन-परम्परा का असर भी है और दबे हुए स्त्री-स्वरों का भी ।

इस तरह देखें तो स्त्री-कवि जहाँ-जहाँ मुक्त होती है वह 'लिट्रेचर ऑफ हर ओनरचती है । इसलिए भी स्त्री-लेखन की परम्परा का अध्ययन ज़रूरी है कि इन दोहरी आवाज़ों में से मूल स्त्री-स्वर की खोज की जा सके और वे बिंदु पहचाने और व्याख्यायित किए जा सकें जो स्त्री-साहित्य का नया सौंदर्यशास्त्र तैयार कर सकें । 

 

मैं उड़ती हूँ खिड़की के पार

सुमन केशरी के संग्रह 'याज्ञवलक्य से बहसमें 'एक निश्चित समय परऔर 'मैंने ठान लिया हैशीर्षक से बनाए गए दो खण्डों की कविताएँ सबसे सशक्त हैं । जहाँ कवयित्री अपने मन के साथ बही है, मने यह कि जितना वह 'कॉमनको भूली है, जहाँ-जहाँ सामान्य से विमुख हुई है, वहाँ-वहाँ कविता ने खूब साथ दिया है। स्वाभाविक सी बात है कि जैसे ही कवि को विषयों की चिंता होती है सबसे पहले कविता उसका साथ छोड़ती है अगर उसने भाषा को साधा नहीं है। कविता की भाषा भी एक साधना की मांग करती है ताकि 'कुछ भीकविता में कहा जा सके। 

कोई भी कविता वहाँ सबसे सघन होती है जहाँ वह अपनी निजी अनुभूतियों को लेकर सबसे ईमानदार होती है । यह स्त्री कविता की ताकत भी है । इसी निज से निजेतर के रास्ते खुलते हैं । पर्सनल इज़ पॉलिटिकल! इसलिए भी बेतरतीबी स्त्री-कविता के लिए कोई अवगुण नहीं। यह वही खास टेकनीक है जो उसने अपनी भाषा की ट्रेनिंग में एकदम सहज पा ली है। बात कहाँ शुरू होती है कहाँ चली जाती है। मर्द शिकायत करते हैं, चुटकुले भी बनाते हैं  कि औरतें - बात कहाँ से कहाँ ले जाती हैं! कभी पॉइंट पर नहीं रहती। लेकिन सोचने की बात है कि क्यों चले पॉइण्ट टू पॉइण्ट, जैसे हमेशा स्त्रियों को चलाया जाता रहा! हम आड़े-तिरछे चलेंगे, आँधी-बारिश में खिड़कियाँ-दरवाज़े खोल देंगे, काट-पीट, सीना-पिरोना नहीं करेंगे बल्कि धार भोंथरा कर देने को कैंचियाँ बच्चों को दे देंगे, गुमा देंगे। सुमन जी की एक बेहद सुंदर कविता है और ऐसी ही कविताएँ सुमन केशरी की तात हैं । कविता है- 'मैंने ठान लिया है

इन दिनों मैंने घर की तमाम कैंचियाँ छिपा दी हैं खुद अपने से भी

और भूल जाना चाहती हूँ वे जगहें

जहाँ वे दुबकी पड़ी हैं

कुछ को तो मैंने खुद ही बच्चों को दे दी है

कि वे उनसे खेला करें

उनकी धार भोंथरी कर दें

खेल-खेल में ही उन्हें गुमा दें ।

 

बड़ा मज़ा आता है आँधी-पानी के दिनों में

खिड़कियाँ - दरवाज़े खोल देने में...

 

यहाँ पति से दोस्ती करने की भी चाह है। याज्ञवलक्य से लम्बी बहस में उलझ जाना भी है और साथी से यह सवाल भी कि क्या तुम मेरे साथ इस बहस में उनसे उलझोगे? एक बौद्धिक स्त्री अपने मन की राह चलेगी तो दुनिया पूरी ताने देगी ही, बहस करेगी, गरियाएगी। वह लिखती हुई स्त्री होगी तो विद्वान पुरुष भी बहस को उद्यत स्त्री को उसकी मर्यादा समझाएँगे। ऐसे में वह साथी क्या करेगा जिसे उसने चुना है अपने जीवन के सर के लिए? स्त्री के हाथ लम आएगा, दिमाग चलेगा और ज़बान खुलेगी तो ऐसे दुरूह सवाल वह सबसे पहले अपने सबसे रीबी से पूछेगी। बाहर जो संघर्ष होगा वह भीतर तक आएगा । उसकी जगह 'घरहै यही कहा गया जब पब्लिक मैन/प्राइवेट वूमन के खाँचे बनाए गए। 

मज़ेदार यह कि जब जीवन इस बेतरतीबी के ठीक उलट हो जाता है, निश्चित समय और रूटीन में बंधा तो सबसे अनिश्चित होता है स्त्री को खुद से रू-ब-रू होने का अवकाश मिल पाना। कई बार पूरी उम्र गुज़र जाती है इस सेल्फ-रियलाइज़ेशन के बिना या इससे बचते-बचाते हुए। ऐसी ही कविताएँ हैं 'एक औरत अपने को फिर से सिरज कर’, 'औरत रचती है एक वितान1 और 2’, 'उसके मन में उतरना’,  'बहाने से जीवन जीती औरत’, 'औरत’, 'कहानियों की दुनिया में लड़की’, 'धुंध में औरत’, 'हाँ, वह रोज़ी थी। माँ के जीवन में माँ के अपने लिए स्पेस के नितांत अभाव को याद करते हुए जैसे 'औरों के लिए तपकविता में और फिर अपना एकांत चाहना, अपनी स्पेस जहाँ स्वाधीन, स्वतंत्र बैठा जा सके जैसे 'सुनो भर्तृहरिकविता में । माँ को चाहते हुए भी बेटियाँ माँ का जीवन नहीं जीना चाह सकतीं। अपने स्पेस की यह छ्टपटाहट बीच-बीच में झाँकती है। स्पेस सिर्फ 'अ रूम ऑफ वंस ओनऔर अपनी तनख्वाह ही नहीं। उससे भी ज़्यादा। एक मानसिक स्पेस। अकुंठ और तकादों से मुक्त। एक और कविता है हाल ही में असुविधा ब्लॉग पर प्रकाशित। कवयित्री विदा होती लड़कियों को देखते हुए एक भोली और अर्थवान जिज्ञासा प्रकट करती है- 'लड़कियों के अपने देस की कोई कथा सुनी है क्या तुमने?’ जवाब तो है ही उसके पास कि - नहीं होते लड़कियों के देस। न वह जगह उनकी है जहाँ वे जन्मती हैं और बड़ी होती हैं, न वह जगह जहाँ वे ब्याह के जाती हैं। लेकिन स्पेस का मसला मायके/ससुराल की ज़मीन अपने नाम लिखा लेने का नहीं। यह स्पेस बिना मलाल खिड़की के पार उड़ जाने और अपनी उड़ान पाकर आनंदित होने में है। 

 

सूरज की किरण पर बैठ

यात्राओं की इच्छा के मानी बदल जाते हैं जब स्त्री यह कहती है कि सूरज की किरण पर बैठ मैं यात्रा पर निकल गई। खुद सूरज हो गई। चर-अचर के कोनों-कोनों में झांका। लेकिन शाम हुई। दीवाल से सटे एक पालने में बच्चे का मुँह में पाँव का अँगूठा डालने का खेल देखा और वहाँ बँध कर 'थम गई। यह थम जाना मानो सृष्टि की आदिम स्त्री का थम जाना हुआ। बच्चे के जन्म के साथ, उसकी ज़रूरत में, उसके मोह में, उसकी ज़िम्मेदारी के एहसास के साथ बंध जाना हुआ। यह कौन नहीं जानता कि स्त्री की उन्मुक्त उड़ान और उसकी सम्भावनाएँ तक, सबसे पहले  शिशु के होने से एक चारदीवारी में बदलती है। आवारा लड़के के लिए अगर यह कहा जाता रहा कि शादी करा दो, पाँव में बेडिय़ाँ डाल दो (भले वह बेडिय़ाँ बदले में पत्नी ही के पाँव में डाल के मस्त हो जाए) तो विवाहिता का भी 'बहुत उडऩाबंद कराने के लिए लिए संतान के जन्म का इंतज़ार करने की पारिवारिक संस्कृति रही आई  है ।

'सुनो बिटियाकविता बेहद खूबसूरत हैं । कवयित्री में अपने उडऩे को लेकर कोई गिल्ट नहीं बल्कि अपनी उड़ान को बिटिया के लिए एक नज़ीर भी बना दिया और नज़रिया भी।

 

पंजों को उचकाना

इसी तरह तुम देखा करना

इक चिडिय़ा का बनना

 

सुनो बिटिया

मैं उड़ती हूँ

खिड़की के पार

चिडिय़ा बन

तुम आना...

 

माँ-बेटी वे चिडिय़ाँ हैं जिनके लिए सिर्फ उडऩा नहीं, खिड़की के पार उड़ जाना ज़रूरी बात है। उस तात और कष्ट को देखना ज़रूरी है जो खिड़की से बाहर जाने के प्रयत्नों में लगता है। उस आनंद को महसूस करना ज़रूरी है जो सब अवरोध मिटा कर खिड़की के पार उड़ जाने में है। बिटिया तुम देखना, ताली बजाती और खिलखिलाती । फिर यह कामना और यह प्रोत्साहन कि 'तुम भी आना खिड़की के पार  ऐसे ही उडऩे के लिए। मेरी नज़र में यह कविता सुमन केशरी की बेहद महत्वपूर्ण कविता है स्त्री-कविता की परम्परा को मज़बूत करती हुई। 

इन कविताओं में वह बेटी और माँ है जो 'जैसे उनके दिन फिरे...का इंतज़ार नहीं करतीं । बेटी कहती है -

 

कहानियाँ सुनती लड़की सवाल करती है माँ से कि

कहानी में भी औरत रोती है

वन को जाती और कोख बंधाती

दिन बीतने को वह तरसती है ।

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अब तुम बैठो बिटिया बनके

और कथा कहूँ मैं कुछ तन के

 

माँ-बेटी के बीच यह संवाद और निरंतरता कई कविताओं में दिखाई देती है। मैं यहाँ मातृसत्ता को देखती हूँ। वह मातृसत्ता जो पितृसत्ता का विलोम नहीं है। स्त्री अपने अनुभवों का पोटला बेटियों को सौपती है। इस पोटले में कई दुख होते हैं, कई राज़ होते हैं, कई कोड्स होते हैं । यही वह ''प्राइवेट प्रॉपर्टी’’  है जो माँ बेटी को देती है तो उसके सुख, खुशी और आज़ादी की कामना के साथ ।

 

मैं अपने हाथों की सारी कलाएँ

और

देह की सारी ऊष्मा

तुम्हें सौंप देना चाहती हूँ

मेरी बिटिया

तुम्हे छाती से लगाकर

अपने मन के तमाम भेद बता देना चाहती हूँ

बिटिया

ताकि तुम जी सको जीवन को कुछ अपनी तरह...                    (सौंपना)

 

चल रही होगी कविता नामालूम-सी

'पेड़ और माँएक ख़ूबसूरत कविता है । स्त्री का जीवन कैसे प्रकृति से हमेशा एक-मेक रहा है इसे स्त्री-कवि बार बार अपने यहाँ अभिव्यक्त करती रही है। प्रकृति की चिंता स्त्री-कविता में एक समानांतर चिंता है। 'जगहकविता में पशु-पक्षियों के प्राकृतिक आवास पेड़ छिनते जाने की चिंता है तो 'बचाना-1 और 2’ में थोड़ी सी जगह, ज़मीन का एक टुकड़ा ऐसा बचा लेने की चिंता है जहाँ आत्मा की आदिम आवाज़ शेष रह गई हो। 'बूंद भर जलमें कामनायुक्त धरती का बिम्ब सुंदर बन पड़ा है।

कविता कविता होते होते रह जाती है कई बार। उम्मीद जगती है लेकिन कविता पिक अप नहीं लेती। यह पींग बढाने की जगह है, यह समझे बिना ही कविता कहीं और रेंग जाती है। टिटहरीवाली कविता में जैसे। कभी एकदम सहज कोई बात कविता हो जाती है। एकदम नामालूम ढंग से वह कविता हो जाती है। लड़की चलती है डुग डुग डुग डुग। तब भी जब तुम सोच रहे होंगे कि वह आराम करने लेटी है। वह चल रही होगी।

 

वह तब भी

डुग डुग डुग डुग

चल रही होगी

नामालूम-सी

पृथ्वी-सी।                                                 (लड़की)

 

या बेबसी पर जीत की तरह कविता आती है कभी जब उस स्त्री की आँखों में देखती है जिसे अपने घर में बात-बेबात मार खानी होती है। जिसकी देह पर कई निशान हैं और वह मुस्कुरा कर उन्हें दिखा रही है यह कहती हुई-

 

बेबस की जीत

आँख की कोर में बने बाँध में होती है

बाँध टूटा नहीं कि बेबस हारा

आँसुओं के नमक में सिंझा कर

मैंने यह मुस्कान पाई है!                               (उसके मन में उतरना)

 

कविता के अंत तक अगर कवि के पास एक जगह है जिसे सुरक्षित करके चलना उसकी टेक्नीक है तो कविता का पाठ एक बंद पाठ होगा। कविता कहीं की कहीं निकल जाएगी यह खतरा जहाँ-जहाँ मोल ले सकीं हैं सुमन वहीं वहीं कविता ने उड़ान भरी है। सारे अर्थ पहले से तय करके कविता नहीं हो सकती न ही सारे अर्थ प्रचलित मानकों पर कस के उसका पाठ। फिर उसमें कोई खोज नहीं होगी, कुछ नया नहीं होगा। कहने को मन के घोड़े होंगे लेकिन उनका गंतव्य एक क्लीशे होगा। 'घासअच्छी कविता है। इसे पढते हुए किश्वर नाहिद की कविता 'घास बस मेरी तरह हैकी याद आ जाती है। 

बिम्बों का चयन कवि के लिए एक महत्वपूर्ण और मुश्किल काम है। स्त्री-कवि को यहाँ दोगुनी सावधानी से चलना होता है। आसमान की निष्प्राणता, सूखेपन और वीरानी के लिए निपूती विधवा की आँखों के सूनेपन का बिम्ब आए तो पुत्र और पति-विहीन होना स्त्री के जीवन की निस्सारता है यह पितृसत्तात्मक सोच बल ही पाए।

 

स्त्री कविता और मिथक

स्त्री कविता के लिए मिथक एक बड़ी चुनौती है। मिथकों के साथ पंगा लेना स्त्रीवादी साहित्य के लिए एक बड़ा काम है। मेहनत, सब्र और रौशनी मांगने वाला इला$का। कोयले की खदान जैसा! जब स्त्री-कवि मिथकों को कविता के विषय के लिए चुनती है तो उसका मकसद होता है 1) मिथकीय आख्यानों / चरित्रों का स्त्रीवादी आलोक में पुनर्पाठ /पुनराख्यान करना 2) जेण्डर-रूढियों को चुनौती देना 3) एक प्रति-आख्यान रचना। मिथकों की रचना का एक बड़ा प्रयोजन स्त्री-यौनिकता का नियंत्रण और पवित्रता को बचाए रखना है। इस अर्थ में स्त्री-कविता जब मिथकों की ओर देखती है तो आस्थाओं को प्रश्नचिह्नित करती है, डीकोड करती है संकेतों को, भाषा की तहें खोलती है, प्रतीकों को अलटती-पलटती है। यह केवल साहस से ही सम्भव होने वाली बातें नहीं हैं,अंतरपठनीयता इसमें बड़ी मदद है। कविता का कविता होना तो पहली शर्त है ही। जैसे फॉर्म और कथ्य की तमाम तोड़-फोड़ के बावजूद भाषा की परतों का बचा होना और रह-रह कर गूंजना! सवालों में वह विवेक और मानसिक संतुलन बने रहना जो पठन-पाठन-अवगहन से पाया जा सकता है।

इस मानी में सुमन केशरी ने पहली बार हिंदी-स्त्री-कविता में वह काम किया है कि मिथकों से कई पात्र उठाए हैं। द्रौपदी और कृष्ण पर लिखी कविताएँ पुनराख्यान हैं। रीटेलिंग! पुनराख्यान मिथक-कथा के भीतर के 'अन्यको मुखपृष्ठ पर ले आता है या मुख्य दिखने वाले किरदार की 'अन्यताको उजागर करता है। रावण कविता एक तरफ रावण को राम से इस मानी में बेहतर कहती है कि कम से कम वह बहन के अपमान का बदला लेने के लिए एक युद्ध तक के लिए तैयार है। वही रावण शर्म से ढह जाता है कि वह सीता को हर लाया है जिसका कोई अपराध नहीं इसके सिवाय कि वह लक्ष्मण रेखा पार करने में सक्षम है। इस पंक्ति के साथ कविता लक्ष्मण-रेखा का जो अर्थ रचती है वह बेहद काम का है। एक पितृसत्तात्मक समाज-संरचना में लक्ष्मण-रेखा को पार कर 'सकनेमें समर्थ स्त्रियाँ अपने इस साहस के परिणाम अक्सर भोगती हैं। लेकिन कविता 'स्त्री के लिए युद्ध होते हैंइस कॉमन सेंस को चुनौती नहीं दे पाती। कर्ण और अश्वत्थामा की ओर भी कवयित्री का ध्यान गया है हालांकि सिर्फ महाभारत के ही पात्रों कविताएँ नहीं हैं। राम और सीता भी हैं। होने को उर्मिला, मंदोदरी, गांधारी भी हो सकती थीं। उम्मीद है आगे होंगी भी।

अपने लेख 'लाफ ऑफ मेड्यूसामें हेलेन सिक्सू कहती ही हैं कि 'विमेन शुड स्पीक देयर बॉडीज़उन्हें अपनी देह से निर्वासित कर दिया गया है और लेखन में भी वह दिखाई देता है। इसलिए उन्हें लेखन में अपनी देह को क्लेम करना होगा। 'मेड्यूसाखुद एक ग्रीक मिथक है। एक ऐसी स्त्री जिसके बालों की जगह ज़हरीले सर्प हैं, जिसकी तरफ देखने वाला पत्थर हो जाता है। अपनी यौनिकता को लेकर जो अकुँठ है ऐसी उनमुक्त स्त्री को डायन की तरह देखना समाज के अवचेतन में गहरे पैठा हुआ है। इसलिए, मिथक इसके लिए सबसे काम की जगह है। वे प्रतीक या प्रतीक शृंखलाएँ जिनसे व्यवहार-सरणियाँ प्रभावित होती हैं, वहाँ लगातार काम किया जाना ज़रूरी है। 'महाभारतके एक अवांतर प्रसंग के रूप में आई माधवी की कथा स्त्री-यौनिकता के मसले पर कई सवाल खड़े करती है। चक्रवर्ती पुत्र को जन्म देने और हर बार शिशु के जन्म के पश्चात अनुष्ठान करके  चिर-यौवना बने रहने का वरदान मिला था माधवी को। पिता ने अपने अहंकार के लिए उसे दान कर दिया विश्वामित्र-शिष्य गालव को। तीन राजाओं ने उससे संसर्ग किया और चक्रवर्ती होने वाली पुत्र संतान प्राप्त की। गालव और विश्वामित्र ने उसे इस्तेमाल किया। आखिर एक समय में इस देश को कितने चक्रवर्ती सम्राट चाहिए थे? चक्रवर्ती सम्राट बने ऐसा पुत्र पाने की इच्छा क्या पूरे पितृसत्तात्मक संरचना में एंगेल्स के 'परिवार निजी सम्पत्ति और राज्य की उतपत्तिकी याद नहीं दिलाती? स्त्री-देह क्या सिर्फ कोख, योनि और श्रम उपलब्ध कराने के लिए है? माधवी के बहाने स्त्री की इस संरचना में पोज़ीशन पर सवाल करते हुए सुमन केशरी लिखती हैं -

 

क्या कभी किसी ने धरती से पूछा

वह किसके बीज को धारण करेगी?

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कर्ता है पुरुष सच्चिदानंद स्वरूप

उसी का सत्य है स्त्री का सत्य

उसी की चेतना स्त्री की चेतना है

और उसी के आनंद में है स्त्री का आनंद

 

द्रौपदी पर बात करते हुए भी स्त्री यौनिकता तक बात ले जाना ज़रूरी है । इस मानी में द्रौपदी एक बेहद प्रखर चरित्र है अनेक सम्भावनाओं वाला, इसके लिए दुस्साहस और दृष्टि चाहिए । इधर के कुछ उपन्यासों में द्रौपदी के चरित्र को लेकर कई तरह से लेखकों ने प्रतिआख्यान रचे भी हैं । उडिय़ा में प्रतिभा रे का उपन्यास 'याज्ञसेनीमहत्वपूर्ण है। सुमन भी कृष्णा, द्रौपदी और याज्ञसेनी तीन शीर्षकों से तीन कविताएँ लिखती हैं । कृष्ण द्रौपदी के प्रति अपराध-बोध से ग्रस्त हैं । सुमन जी की कविता में कृष्ण स्त्री के प्रति सबसे सम्वेदनशील हैं । द्रौपदी को पाँच भाइयों से साझा किया जाना और चीर-हरण की घटनाएँ याद करते हैं, कृष्ण अर्जुन से मुखातिब हैं - 'क्या माँ भी बेटों की ज़बान बोलने लगती है/ कहो तो पार्थ?’ यहाँ कृष्ण खुद को कटघरे में खड़ा करते हैं- 'मिटा दिए हैं असुविधाजनक सवाल/ या फिर उनकी धार मोड़ दी है अपने हित में।राम-सीता का चरित्र सबसे पावन है। सवाल वहाँ सबसे ज़्यादा असुविधा श्रद्धा के कारण पैदा करते हैं। द्रौपदी या कृष्ण से अपनी बात कहलवाने में जो छूट है, वह राम-सीता में नहीं।

इन मुख्यधाराई मिथकों के अलावा स्त्री-मिथकों का एक बेहद समृद्ध क्षेत्र है जिनका न पौराणिक आधार मिलता है और जिनका न मठ है। सुमन राजे इस ओर इशारा करती हैं। इन मिथकों को स्पष्ट करने के लिए किसी टीका या पुराण कथन की भी आवश्यकता नहीं होती। न पण्डित, व्यास, कथावाचक की। स्त्रियाँ यह कार्य स्वयम ही कर लेती हैं उन उत्सव कथाओं के माध्यम से जिन्हें कहकर इन मिथकों की पूजा की जाती है। अहोई आठे, सकट देवता, गज्ज बीबी, दिवारीओट पर चित्रित आस मैया,प्यास मैया, नींद मैया,भूख मैया। (सुमन राजे, इतिहास में स्त्री, पृ.122-123) मिथकों का यह पूरा इला$का स्त्री-कविता के लिए अनन्वेषित नहीं छूटना चाहिए। फोकलोर या ऐसे मिथकों को खंगालना और लोक-मानस में गहरे पैठी आस्थाओं का अध्ययन एक ज़रूरी काम है। चुनौती भी। यहाँ मुझे याद आता है एक पत्र जिसे निर्मल वर्मा का एक पत्र। ज्योत्सना मिलन को लिखते हुए वे कहते हैं कि कुछ शब्द ईश्वर या आत्मा जैसे, हमारे बहुत निकट और मूल्यवान होते हैं। इसलिए उनका नाम लिए बिना उनके पीछे की अर्थवत्ता को उजाकर करना चाहिए। कला की यह अजीब विडम्बना है कि जहाँ वह अज्ञान, अनाम चीज़ों को 'नामदेती है, वहाँ दूसरी तरफ नाम दी हुई चीज़ों (ईश्वर, आत्मा, प्रेम) को हमारे लिए फिर एक अज्ञात रहस्य में 'अनामकर देती है। वे लिखते हैं- ''किसी पवित्र तक पहुँचने के लिए कविता कोई तीर्थयात्रा नहीं है बल्कि पवित्र की देहरी के परे उन चीज़ों की खोज है जिन्हे उकेरा नहीं जा सका है, जो अपनी दयनीयता में नग्न, पापयुक्त है।’’ (चिठ्ठियों के दिन, सं- गगन गिल,पृ.151)

पुराणों ने स्त्री-मिथकों को पवित्रता ओढाई है। लेकिन साहित्य उन्हें चेस्टिटी बेल्ट पहनाने का काम नहीं कर सकता। मुझे पूरी उम्मीद है कि भविष्य में सुमन केशरी मुख्यधारा के मिथकों के पार इन मिथकों तक भी पहुँचेंगी और  मानीखेज़ बिम्ब रचेंगी जिसमें वे समर्थ हैं।

 

लड़कियों का अपना देस

एलीन मार्गन अपनी किताब 'नारी का अवतरणके एक अध्याय- 'स्त्री क्या चाहती है?’ में लिखती हैं - ''बहुत सारे लोगों के अवचेतन में यह विचार होता है कि स्त्री कुल-मिलाकर उतनी जटिल प्राणी नहीं है, वह न्यूनाधिक सदाबहार झाडिय़ों या फलियों या लताओं जैसी सहज है, हमारे पास सीधा-सादा उत्तर है ही कि उन्हें बहुत सारी फास्फेट खाद ही चाहिए, और एक बार यह रहस्य समझ आ जाता है तो जि़ंदगी सरल हो जाएगी । स्त्री को वह दिया जा सकेगा जो वह चाहती थी और फिर वह खामोश बनी रहेंगी, और तब वास्तविक मनुष्यों (यानी कि पुरुषों) को इतना समय मिल सकेगा कि वह अन्य वास्तविक मनुष्यों से अपने महत्वपूर्ण और कठिन व्यवहार की उलझने सुलझाने पर अपना ध्यान केंद्रित कर सकें’’  (एलीन मार्गन, नारी का अवतरण, पृ.192)

यह आसान सवाल नहीं है कि स्त्री क्या चाहती है! तब और भी मुश्किल है जब इसका जवाब स्त्री को ही देना हो। जब कविता में जवाब दिया जाता है तो बेहतरीन जवाब होता है - मैं उड़ती हूँ खिड़की के पार/ बिटिया तू भी आना/ चिडिय़ा बन। लेकिन अपनी ही कोई और कविता जक्सटापोज़ीशन में खड़ी हो सकती है क्योंकि प्रभुत्वशाली-पुरुष-लेखन-परम्परा का प्रभाव भी अपना काम कर रहा है। स्त्री-कविता अपने ही पाले में गोल कर लेती है जब 'एक औरत को क्या चाहिएकविता कहती हैं -

 

एक औरत को क्या चाहिए

पात भर भात

और अनुराग अपने प्रिय का

 

औरत को क्या चाहिए

एक सच होता सपना प्रेम का

और चुटकी भर विश्वास

नमक सा...

 

मैंने बात शुरु की थी 'लिट्रेचर ऑफ देयर ओनसे। साहित्य पढते हुअ स्त्री अब तक अपनी दर्शक रही आई थी। द्रष्टा बनने से पहले उसे कई चश्मे उतारने होंगे। यह बेहद ज़रूरी है । मैं उस 'बायटेक्स्चुअलविमर्श की बात करूंगी जो स्त्री-लेखन में कभी-कभी खड़ा हो जाता है। 'कबीर-अबीरकविता है एक। यहाँ  कवि बचपन में जिस कबीर को पढी हुई है, बड़े होकर उसे कई टुकड़ों में विभक्त देखा। यानी, कबीर के अलग-अलग पाठ। ज़ाहिर है अस्मितावादी विमर्शों ने अपने-अपने पाठ किए कबीर के जिनमें एक पाठ स्त्री-पाठ भी है जिसकी ओर कवयित्री का इशारा है। इन सब पाठों से कबीर कराह उठे जबकि शिष्य सब मदमस्त हैं। सारे अस्मितावादी विमर्श पूर्ण मनुष्य की कल्पना में जैसे बाधा हैं। लेकिन जो पूर्ण है वह ढेर सारे अपूर्णों का समुच्चय भी तो है, जो ग्रैंड नैरेटिव है वह मार्जीन के अनंत नैरेटिव्स की सामूहिक सहजीविता है। कबीर धरती की कोख भी है, आकाश का बीज भी, प्रेमी भी विरहिनी भी, मस्त भी और चिड़-चिड़ा भी, ज्ञानी भी, भ्रमित भी...और कविता में अंतत: कबीर खुद मिथक में बदल गया।

ऐसे ही एक कविता है 'यह कैसा समय है ?’ इस कविता में भी अस्मितावादी विमर्शों पर सवालिया निशान है।  कुछ कविताएँ जिन्हें प्रत्यक्षत: पॉलिटिकल कहा जा सकता है वहाँ आम-आदमी की कॉमन-सेंस से बनता हुआ पाठ है। 'आज कुँवर की सवारी निकल रही हैया 'फौजीकविता। फौजी एक लम्बी कविता है। एक अनावश्यक विस्तार के बाद जो पाठ बनता है वह मुख्यधाराई कॉमन सेंस तक जाता है। कॉमन सेंस का फायदा यह कि जन-मन के सहज-बोध के पास होगी कविता। नुकसान यह कि केवल स्वीकार्य सच होंगे, पुनरावृत्तियाँ होंगी, क्लीशे अभिव्यक्तियाँ होंगी यानी किसी न किसी तरह का यथास्थितिवादी अभिप्राय। स्टुअर्ट मिल भी जानते थे और कवयित्री भी जानती है यह सच कि लड़कियों के अपने कोई देस नहीं होंगे। इसी देस में तलाशनी होगी अपनी ज़मीन, अपने पैरों तले भी और अपने भाव-बोध में भी। इसलिए केवल स्त्री कविता को ही नहीं बल्कि हमारे समय की हर कविता को मुख्यधारा के इस सहज बोध से बार बार टकराना होगा, प्रश्नांकित करना होगा और इसके पार जाकर वैकल्पिक सहजबोध के निर्माण की प्रक्रिया में खुद को, पाठक को शामिल करना होगा - क्योंकि बकौल मुक्तिबोध 'जो है उससे बेहतर चाहिए।

 

 

 

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