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सितम्बर - 2018

'हाउल’ और फुटनोट की पवित्रता

कुमार अम्बुज

एलेन गिंसबर्ग (पहल-111) में प्रकाशित

'हाउलपर पूरक सामग्री

 

 

  

'पहल-111’ में देवेन्द्र मोहन के अनुवाद से याद आया कि 'हाउललिखने के कुछ समय बाद 1955 में ही, फुटनोट के रूप में एलेन गिंसबर्ग ने एक कविता लिखी। यह फुटनोट दरअसल 'हाउलका चौथा भाग माना गया। इसके बिना 'हाउलको पढ़ा जाना कुछ अधूरा है। देवेन्द्र मोहन जी ने अनुवाद के साथ प्रस्तुत अपनी संक्षिप्त टीप में कुछ संदर्भ दिए हैं, उसे इन शब्दों के क्रम में एक बार फिर पढ़ लेना चाहिए। यहाँ कविता का भाष्य नहीं है बल्कि उन चीजों, समय और वातावरण को दर्ज करते हुए महत्व के कुछ बिंदु हैं जिनके बीच 'हाउलसंभव हुई और अब तक चर्चा में बनी रही है। इससे कविता के करीब जाने में कुछ मदद मिल सकती है।

अंतत: फुटनोट पर किंचित बात की जाएगी।

 

'हाउलकविता प्रसिद्ध हुई, विवादास्पद भी। 

इस कविता की तमाम मुश्किलों में से एक यह है कि यदि इस कविता को समलैंगिकों, व्यग्र-अंसतुष्ट-स्वप्नदर्शी बेरोजगारों, कल्पनाशील मस्तिष्कों, मेरिजुहाना नशे और यौनजीवन को निर्विवादी स्वतंत्रता की परिधि में रखकर देखनेवाले तत्कालीन युवतर समूहों, नैतिकता को प्रश्नांकित करते हुए, अराजक और बोहिमियन जीवन प्रणाली के लिए दार्शनिक मुठभेड़ करनेवालों की तरफ से नहीं पढ़ा जाएगा तो इसका पाठ विपथगामी हो सकता है। लेकिन सबसे ज्यादा इसे पचास-साठ के दशक में अमेरिकन पूँजीवाद के विरोध में और उस पूँजीवादग्रस्त समाज में अमानवीय प्रभावों के खिलाफ एक नाद की तरह भी देखा जाना चाहिए। और यही आज भी इसकी सबसे बड़ी प्रासंगिकता है। क्योंकि पूँजीवाद की अनेक समस्याएँ अधिक विकराल होकर विकासशील, पिछड़े और मिश्रित समाजों के सामने उपस्थित हो गई हैं।

जो सवाल इस कविता में उठाए गए हैं, यौन प्राथमिकताओं से उपजी चुनावाधिकार सहित अन्य पीड़ाएँ इसमें व्यक्त हैं, जो गुस्सा, असहमति और वर्जनाओं के खिलाफ चीख है, वह न केवल इसके शीर्षक में बल्कि पूरी कविता में विन्यस्त है। कविता की शब्दावली आक्रामक है, नाराज और नंगी है लेकिन तकलीफों से प्रसूत है। इनकी समवेत उपस्थिति ही इसे यातना भरी चीख यानी 'हाउलका औचित्यपूर्ण दर्जा देती है। ये सारे विषय, इसका टेक्स्ट, रूपक, संज्ञाएँ और शब्दाक्रमकता इसे सहज ही विवादग्रस्त करते हैं लेकिन अनुपेक्षणीय रूप से महत्वपूर्ण बनाते हैं। इस कविता के शब्दों को जैसे ही सभ्यता और भाषा की सामाजिक नैतिकता को ध्यान में रखकर अनूदित किया जाएगा तो उनका नुकीलापन, अवसादजनित इच्छाएँ, नशाजन्य रचनाकांक्षी उन्माद, सर्जनात्मक अवसाद, असीमित स्वतंत्रता की भावना, बौद्धिक नैराश्य, विडंबना, युद्ध-परिणामों और लोकतांत्रिक पूँजीवाद के प्रति क्रोध क्षतिग्रस्त हो जाएगा। इसके अनुवाद में हमेशा ही यह मुश्किल पेश होती रही है। हिंदी में तो शायद कुछ ज्यादा ही क्योंकि हिंदी पट्टी में एक उलटी-पट्टी हमेशा सामाजिक वर्चस्व में बनी रहती है जो हर तरह की असुविधाजनक, प्रखर रचनाशीलता को नैतिकता की लाठी से हकालती है। वह शब्दावली में अटक जाती है और अर्थ-संदर्भ-प्रसंग और कलागत अंतरिक्ष में प्रवेश ही नहीं कर पाती। शेष विश्व में भी ऐसी ही ताकतें सक्रिय बनी रही हैं इसलिए इस कविता की मुसीबतें अमेरिका में भी कुछ कम नहीं रहीं। इसका एक पाठ हमेशा ही नैतिकतावादी दृष्टि से होता रहा है और उसका जलजला, उसकी तरफ से उग्र व्याख्या और उस 'नैतिकता का झागभी चर्चा की सतह पर साठ-पैंसठ साल से दिखता चला आ ही रहा है।

यही नहीं, यह श्वेत-मानसिकता के विरोध में, अश्वेत-कला और संगीत के पक्ष में अपनी सर्जनात्मकता के साथ खड़ी होती है। इसलिए इसकी काव्य-पंक्तियों को लंबाई अनुसार श्वासाधारित पढ़े जाने का भी प्रस्ताव है। कविता में प्रतिवाद के तौर पर जै का पक्ष इसलिए लिया गया क्योंकि उस बैलोस जीवंत संगीत को श्वेत-मध्यवर्गीय-समाज द्वारा अमान्य किया जा रहा था, उसे दोयम घोषित कर ही दिया गया था। इस तरह यह कविता रंगभेद के खिलाफ जाती है और अल्पसंख्यक-लोक को समर्थन देती है, उसकी त्रासदी समझती है। यह इसका अपना जनवाद है।

 समकालीन अमेरिकी समाज, उस समय के राजनैतिक-सामाजिक-आर्थिक और दूसरे विश्वयुद्ध के बाद पूँजीवादी दुष्प्रभावों के बीच युवा होती पीढ़ी के दृश्यों-पाश्र्वदृश्यों को ध्यान में रखे बिना दरअसल इस कविता का पाठ कुफ्र है। तब इसे समझना भी कुछ कठिन होगा। यह विषयावेग, विचारावेग, प्रतिवाद, अंग-प्रत्यंगों को आदिम भाषा में नामांकित करने की भाषिक, क्रोधित उत्तेजना और जै-संगीतात्मकता का भी उदाहरण है। इसकी भाषा और शिल्प के सीधे प्रभावों से, तन-मन-जीवन के अकथनीय, अशोभनीय, अराजक माने गए कथ्य और अनुभव को कविता में रखने के निसंकोच अंदाज से प्रेरित संसार भर में खूब कविताई हुई, हालाँकि उतनी बात नहीं बनी जो इस कविता में उपस्थित हो सकी। (हिन्दी में राजकमल चौधरी से धूमिल तक इसका प्रभाव रहा है। सर्वज्ञात है कि गिंसबर्ग भारत प्रवास पर रहे। बनारस, पटना, कलकत्ता में अनेक कवियों से मिलने का जिक्र समय-समय पर होता ही रहा है। राजकमल चौधरी से गिंसबर्ग की कलकत्ता में अनेक मुलाकातें और विचार संसर्ग हुए। त्रिलोचन के पुत्र जयप्रकाश सिंह की पिता पर लिखी स्मृतिलेख संबंधी पुस्तक में बताया है कि त्रिलोचन पर उन्होंने सीढिय़ों से उतरते दृश्य को बाँधकर एक कविता भी लिखी। वे बौद्धधर्म के प्रति आकर्षित हुए और फिर उसके अनुयायी रहे। बहरहाल।)

'हाउलकविता के हीलिक्स में ही बीट-आंदोलन के मित्र-लेखकों की उपस्थिति पैवस्त है जो न केवल तमाम तरह के स्नायुरोगों से भरे हुए हैं बल्कि 'मानवाधिकार-विरोधी-आततायी-सरकारी-मानसिकताके गंभीर शिकार भी हैं। दरअसल पूँजीवादी और उत्तर-द्वितीय विश्वयुद्धकालीन पूरा अमेरिकन वक्त ही मानो स्नायुरोग से ग्रस्त था। शक्ति संरचनाएँ तो कुछ ज्यादा ही। नियंत्रणवाद के विरोध में इस कविता की आवाज मुखर है। इसलिए पवित्र-अपवित्र, श्लील-अश्लील, सुर-असुर, अच्छे-बुरे, नैतिक-अनैतिक की बहस को इस कविता ने जैसे बार-बार के लिए हास्यास्पद और समस्याग्रस्त कर दिया। और इन्हीं कारणों से आज के हमारे भारत देश में भी इस कविता की प्रासंगिकता तय होती है। इधर एलजीबीटी (लेस्बियन, गे, बाइसेक्सुअल, ट्रांसजेण्डर) के पक्ष में जो आवाज और आंदोलन किए जा रहे हैं, न्यायालय के सामने गुहार लगाई गई है और समाज की मानसिकता को सही परिप्रेक्ष्य में लाने की कोशिशें हैं, उसकी पृष्ठभूमि में भी इस कविता की पुकार और महत्ता को देखा जा सकता है।

एक पक्ष यह भी है कि इसकी सारी आलोचनाएँ, इस पर सारे आरोप प्रथम दृष्टया सही लग सकते हैं। इसमें जुगुप्सा, विद्रूपता और अश्लीलता की खोज सहज है। पहले भी और अभी 2007 तक इस कविता का रेडियो-प्रसारण अमेरिका में ही रोका गया अथवा 'वयस्क सामग्रीका दर्जा देकर देर रात में प्रसारण किया गया। यानी एक नैतिक रूप से दंभी समाज में, जो अन्यथा प्रगतिशील, सर्वश्रेष्ठ और विकसित होने का दावा करता है, इसे सर्वस्वीकार्यता नहीं मिल सकी है। इसे लेकर एक संकोच, दूरी और प्रतिक्रिया की घबराहट है। लेकिन विचित्र ढंग से, अपनी अभिव्यक्ति में समाहित मानवीय पीड़ा और आकांक्षा के कारण ही, अभिव्यक्ति की आजादी का परचम लिए यह स्वतंत्रता की देवी की तरह, तुमुल पवित्रता के रुढि़वादी जनारण्य के बीचोबीच तनकर खड़ी हो जाती है। सारे मौसमों को झेलते हुए खड़ी रहती है। अतिश्योक्ति नहीं होगी यदि कहें कि अमेरिकन कविता में इसे 'लेडी ऑव लिबर्टीकी तरह देखा जा सकता है, जो पूँजीवादी लोकशाही को कठघरे में खड़ा करते हुए, तमाम प्रकार के जीवनाधिकार और स्वाधीनता की चीखकर माँग करती है, प्रस्ताव भी देती है। यही है 'लिबर्टी ऐनलाईटनिंग द वल्र्ड। बल्कि काव्य-रूपक में इसका संदेश 'स्टैचू ऑव लिबर्टीसे कहीं अधिक स्पष्ट, तीक्ष्ण और प्रभावी लग सकता है। इसे आप झंडे की तरह उठा सकते हैं या लतिया सकते हैं, गलिया सकते हैं लेकिन यह सब करते हुए भी इसकी उपेक्षा नहीं कर सकते। यह इस कविता की विचारणीय शक्ति है। अकारण नहीं है कि सैन्यवाद, अतिनैतिकतावाद और पूँजीवाद के छद्म के खिलाफ इसका पाठ बार-बार संभव हुआ है।

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अनेक प्रहारों के बावजूद यह कविता छह दशक से अप्रसांगिक नहीं हुई। इसके लिखे जाने के पचास वर्ष पूरे होने के उपलक्ष्य में इस कविता के पाठ, विमर्श और प्रासंगिकता संबंधी कई आयोजन अमेरिका में हुए। इस पर एक महत्वपूर्ण फिल्म 'हाउलनाम से ही बनाई गई जो 2010 में जारी हुई। (आईएमडीबी पर इस फिल्म की रेटिंग 6.6है, लेकिन मेरे जैसे दर्शक इसे 9.6की रेटिंग दे सकते हैं।) इस चतुष्कोणीय फिल्म को देखना 'हाउलकविता और उसकी निर्मिति के वातावरण को समझने में सहायता कर सकती है। चतुष्कोणीय इसलिए कि- (1) इसमें (अभिनेता) गिंसबर्ग से समानांतर साक्षात्कार चलता रहता है। जिसमें वे बीट आंदोलन, अपने अवसाद, समलैंगिकता, काव्य-अभीष्ट और जीवन शैली के पार्थक्य और एकीकरण पर उल्लेखनीय बात करते हैं। (2) गैलरी सिक्स, सेनफ्रांसिस्को में संक्षिप्त समूह के सामने किए गए 'हाउलके पहले पाठ के सत्र बीच-बीच में सुंदरता से फिल्माए हैं। (3) अनंतर क्रम में कविता की कई पंक्तियों, पैराग्राफों को ऐनिमेशन के जरिए दृश्यमान किया गया है। (4) साथ ही, कविता के अश्लील होने संबंधी मुकदमे की बहस है, बौद्धिक, आकुल और विचारोत्तेजक गवाहियाँ हैं। फिर वह निर्णय है जो हमेशा ही इस प्रसंग में, न्याय के लिए मार्गदर्शी और विचारणीय रह सकता है। फिल्म के बारे में, निदेशक, अभिनेता आदि का और ज्यादा विवरण देना यहाँ अभिप्रेत नहीं, लेकिन दो बिंदु बताना शायद उचित हैं।

पहला, वह निर्णय जो विद्वान न्यायाधीश अश्लीलता के आरोप की सुनवाई के बाद देते हैं: 'हाउलमें उपयोग किए जाने वाले कई शब्दों को हमारे समाज के कुछ हिस्सों में अभद्र और अश्लील माना जाता है, और अन्य कुछ हिस्सों में ऐसे शब्द रोजमर्रा के उपयोग में होते हैं। 'हाउलके लेखक ने उन शब्दों का उपयोग किया है क्योंकि उनका मानना था कि काव्य-चित्रण के लिए उन्ही शब्दों का होना आवश्यक था। सामान्य नजरिए से ऐसे शब्दों का प्रयोग जरूरी नहीं था और बेहतर होता कि उनकी जगह कुछ अधिक स्वीकार्य आस्वाद के शब्द उपयोग किए जा सकते। लेकिन सच्चाई यह है कि जीवन एक व्यवस्था में सीमित नहीं किया जा सकता है कि जिसमें हर कोई किसी विशेष पैटर्न या पूर्वनिर्धारित शैली के अनुरूप व्यवहार करे।

कोई भी दो व्यक्ति एक जैसा नहीं सोचते हैं। हम सभी एक ही साँचे से बनते हैं लेकिन हमारे भीतर हमारी विभिन्नताएँ भी होती हैं। अगर हममें से हर कोई अपनी भाषा में निर्दाष या सौहार्द्रपूर्ण शब्दों को ही इस्तेमाल करने के लिए बाध्य हो जाए तो क्या अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता बचेगी? एक लेखक को अपने विषयानुसार लेखन के लिए, अपने विचार व्यक्त करने हेतु शब्द प्रयोग की, अभिव्यक्ति की स्वाधीन अनुमति दी जाना चाहिए। और यदि कोई किसी लेखन के अश्लील होने का दावा करता है तो उसके लिए इस आदर्श कहावत को याद रखना अच्छा है- ''बुराई सोचने वाले व्यक्ति के लिए बुराई है।’’ (या कहें कि आपके विचार अश्लील हैं इसलिए आप उसे अश्लील और गंदा समझते हैं।)

अभिव्यक्ति और लेखन-प्रकाशन की स्वतंत्रता, मुक्त लोगों के स्वाधीन राष्ट्र में निहित है। यदि हम एक व्यक्ति और एक देश, दोनों तरह से स्वतंत्र रहना चाहते हैं, तो अभिव्यक्ति की इन स्वतंत्रताओं को रक्षित किया जाना चाहिए। इसलिए, मेरा निष्कर्ष है कि ''हाउल और अन्य कविताओं’’ का वह सामाजिक मूल्य है जो समाज को कई रूढिय़ों से मुक्त करता है और इसलिए यह किताब अश्लील नहीं है।

दिमाग पर बहुत जोर डालने की जरूरत नहीं है कि यह निर्णय हमारे अपने देश की दृष्टि से भी कितना प्रासंगिक, न्यायिक और मूल्यवान माना जा सकता है। आज की परिस्थितियों में तो कहीं अधिक।

दूसरा, वह साक्षात्कारी संवाद जिसमें यह पूछने पर कि 'बीट पीढ़ी क्या है’, गिंसबर्ग जवाब देते हैं- 'बीट पीढ़ी कुछ नहीं। यह कुछ उन युवा लेखकों का समूह था जो प्रकाशित होने की कोशिश कर रहे थे।यहाँ से बहस उस दिशा में जाती है जहाँ तमाम तरह के अन्य विरोधाभास और विडंबनाएँ भी इस कविता से और गिंसबर्ग से जुड़ती ही जाती हैं। और यह भी कि बीट पीढ़ी या आंदोलन को सटीक परिभाषित करना आसान नहीं। इसकी कई परिभाषाएँ और व्याख्याएँ होती रही हैं। जैसे एक संक्षेप यह भी- 'हिपस्टर से हिप्पी शब्द निकलकर आता है और इनकी जीवनप्रणाली ही बीट पीढ़ी का कुछ हद तक आदर्श हुई। यानी समकालीन मुख्यधारा और प्रचलित सांस्कृतिक मान्यताओं के खिलाफ रहकर, घुमंतू, मनमाना और प्रतिवादी जीवन बिताना। अमेरिका में दूसरे विश्वयुद्ध के बाद की स्थितियों में नियंत्रणकारी शक्तियों, परिवार एवं सत्तासंरचनाओं के खिलाफ रहते हुए, खास नशे के प्रकारों और यौनप्राथमिकताओं का चुनाव, उसकी बेरोकटोक स्वतंत्रता इसमें शामिल है। जो जीवन जी रहे हैं, उसको वैसा लिखने का उपक्रम एवं रूढिग़्रस्त सांस्कृतिक मान्यताओं का प्रतिरोध साहित्य तक चला आता है। ('विद ए स्माईली’-इसे ऑफ बीट की तरह समझ लें।’)

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गिंसबर्ग से इस कविता को लेकर कई साक्षात्कारों में सख्त सवाल पूछे गए हैं। तार्किक संदेह और आरोप रखे गए हैं। जैसे, 'हाउलकी पहली ही पंक्ति का ही हवाला देकर प्रश्न किया गया कि क्या उन युवा मस्तिष्कों में आप खुद शामिल थे जो पागलपन से बरबाद हुए। (वर्णित, लक्षित और प्रत्यक्ष है कि यह पागलपन, ड्रग एडिक्शन, यौनजनित अतिकल्पनाओं और तत्कालीन उत्तरयुद्धकालीन अमेरिकन पूँजीवादी जीवन की समस्याओं से प्रसूत था। साथ ही गिंसबर्ग की माँ के पागलपन से जोड़कर, आनुवांशिकता से संलग्न करते हुए यह सवाल किया जाता रहा। गिंसबर्ग को भी युवावस्था की शुरुआत से ही काल्पनिक-स्वप्नदर्शी और श्रवण संबंधी न्यूरोटिक अनुभव होते थे जिसका इलाज मानसिक चिकित्सालय में हुआ था। गिंसबर्ग ने अपनी किसी भी मानिसिक बीमारी का, अपनी यौनइच्छाओं की उत्कटता का, गे होने आदि को कभी नहीं छिपाया और हमेशा तर्काधारित बचाव किया। इस सिलसिले में अवसरानुकूल उन्होंने कवि वॉल्ट व्हिटमैन, विलियम ब्लैक का भी आश्रय लिया।) गिंसबर्ग के बचावकारी जवाबों में शामिल है कि उस उत्तरविश्वयुद्धकालीन समाज में, जहाँ कई तरह के विध्वंस हुए, अनेक मर्मांतक, अनसोची चरम पीड़ाओं, सत्ताओं की सनक और नियंत्रण के कारण अप्रतिम निराशा से लोगों को गुजरना पड़ा, उस समय तनावग्रस्त युवा पीढ़ी का किसी न किसी तरह के पागलपन से नष्ट होना स्वाभाविक ही था। वे स्वीकार करते हैं कि वे पूरी तरह से मनोरोगी नही, बस एक औसत न्यूरोटिक थे। ऐसी अस्वस्थताओं को प्रमाण में रखकर भी इस कविता पर एक जटिल, अश्लील, यौनकुंठित, नशेलची, प्रलापी होने सहित दिमागी सडऩ के आरोप लगाए गए। किंतु गिंसबर्ग ने इन आरोपों को ध्वस्त करते हुए एक व्यापक, बौद्धिक सहमति बनाई कि यह कविता पीड़ा, त्रास, अन्याय से गुजरती युवापीढ़ी की मर्मान्तक चीख है। पूँजीवाद, औद्योगिकीकरण और युद्ध के परिणामों का ही यह एक समुच्चय है, प्रतिवाद है, मनुष्य की स्वाधीनता, उसकी स्वतंत्र जीवनप्रणाली के चयन के अधिकारों के लिए याचिका भी है। अंतत: बहुलता में इस कविता को इसी सबका एक शामिल दस्तावेज माना गया।

लेकिन गिंसबर्ग के समकालीन, खासतौर पर बीट आंदोलन से जुड़े लेखक (लेखक कॉर्ल सॉलोमन, जैक केरोएक, नील कैसेडी, ग्रेगोरि कोरसो, विलियम बरोज, पीटर ओरलोव्स्की, ल्युसिएन आदि) और खुद गिंसबर्ग, क्या अपने समय के सचुमुच उत्कृष्टतम मस्तिष्क थे? गिंसबर्ग का एक दिलचस्प जवाब यह भी है कि 'यह प्रथम पंक्ति दरअसल एक अतिश्योक्ति है और रूपक है।इस कविता में कई चीजें दो टूक ढंग से, उन्हें काले या सफेद खानों में रखकर पेश की गईं हैं लेकिन गिंसबर्ग बातचीत में मानते हैं कि जीवन में कुछ भी सीधे-सीधे काला या सफेद नहीं होता। इसलिए कविता में आई पंक्तियों को व्यंजना और काव्यशक्ति के उपकरणों से ही समझना उचित होगा। ऐसे कई तरह के उलझे-सुलझे सूत्र हैं, उन्हें 50-60 के दशक के अमेरिकन समय में जाकर समझा जा सकता है, तब पाएँगें कि हर सूत्र इसकी महत्ता को रेखांकित करता है और कुछ भी इतना उलझा हुआ नहीं है। हालांकि, यह एक श्रमसाध्यता की मांग करती है। (ज्यादा दिलचस्पी हो तो एक प्रमुख बीट लेखक जैक केरोएक के यात्रिक उपन्यास 'ऑन द रोडको भी इस क्रम में पढ़ा जा सकता है जिससे गिंसबर्ग प्रेरित हुए।)

इस कविता की लोकप्रियता और स्वीकार को फ्रायड के उन सिद्धांतों की आभा में भी देखा जा सकता है, जिनके अनुसार- 'जैसे ही आप दमित यौनइच्छाओं या गोपन की सार्वजनिक अभिव्यक्ति करते हैं तो वह व्यापक रूप से स्वीकृत हो सकती है क्योंकि लगभग हर आदमी इन कुंठाओं-अव्यक्त इच्छाओं के भार से ग्रस्त है, इसलिए इसके सार्वजनिक प्रकटीकरण से वह आकर्षित, संतुष्ट और वशीभूत होता है।प्रचलित नैतिकताओं के खिलाफ उत्सुकता और मन में दबे आग्रह कई तरह की विचित्रताओं, स्वीकार्यताओं और तार्किकतओं को जन्म देते हैं। यदि यह सब किसी कला माध्यम, विज्ञापन (जिसका उपयोग फ्रायड के भतीजे और जनसंपर्क के पितामह एडवर्ड बर्नेस ने किया) या सामूहिक उद्बोधन से व्यक्तहो तो फिर व्यापक वर्ग को 'हिप्नोटाइजकरने में समर्थ है। लेकिन सिर्फ इतना कारण ही पर्याप्त नहीं हो सकता। समझना चाहिए कि यह कविता नैतिक रूप से एक पतित, पाखंडी होते समाज को दृश्यमान करती हुई और उसमें उत्पीडऩ, संकुचन का शिकार होती व्यथित युवतर पीढ़ी, जिसे अकारण ही शॉक थैरेपी ट्रीटमेंट तक से गुजरना पड़ा, की कविता भी है, युद्ध की विभीषका से निकलकर आई सरमायेदारी के खिलाफ एक चीख है, अनाभिव्यक्त की अभिव्यक्ति भी है, इसलिए ही इसे बहुत उत्सुकता से, प्रतिनिधि स्वर की तरह देखा गया।

कविता में शिशु-बलि-प्रेमी 'मोलोकएक मिथकीय देव के रूप में, तत्कालीन अमेरिकन सत्ता के रूपक में प्रयुक्त हुआ है और उसे बुद्धिजीवियों को नष्ट करने, सीमेंट और अल्यूमीनियम की सभ्यता को रोपित करने, खतरे के हड्डी निशान, दुखों के जनक, युद्धोन्मादी, उपभोक्तावादी, स्वतंत्रता और प्रसन्नता को निगलनेवाले दैत्य के रूपक में प्रस्तुत किया गया है जो दरअसल सरकार है। इस मोलोक को पिछले साठ वर्षों में, तमाम पूँजीवादी-लोकतांत्रिक और तानाशाही के साये में रहे देशों में, समय-समय पर चिन्हित किया जा सकता है। शायद, इस समय हमारे देश में भी। यहाँ याद कर सकते हैं कि गिंसबर्ग अर्ध-यहूदी थे इसलिए नाजीवाद की भयावहता भी उनके मन में है।

 

हाउल का फुटनोट: पूरक कविता

एक पवित्र बीटनिक कमण्डल

 

यह फुटनोट 'हाउलकविता को कुछ कैफियत देने, खासकर कविता के दूसरे भाग के स्पष्टीकरण हेतु, मनोरोगी समझे जानेवाले बौद्धिकों या उनके पागलपन के पीछे छिपी पवित्रता को सिद्ध करने के लिए भी लिखा गया। प्रतिवाद यह कि साधारण समाज या तथाकथित सही औसत दिमाग, दुनिया में विद्यमान वास्तविक सुंदरताओं और पवित्रताओं को संपूर्णता में नहीं समझ सकेंगे। इस तरह धार्मिक पवित्रताओं को, उनकी सीमाओं और नैतिक आवरणों को भी विमर्श में लाया गया। यह 'पवित्रताको बीट आंदोलन के दायरे में परिभाषित करने का प्रयास भी है।

कि आप किसी भी पतनशील आधुनिक समाज या देश की विसंगतियों, मुश्किलों और परिणामों से बचकर नहीं रह सकते, आप कितनी भी व्यक्तिगत कोशिश कर लें। पवित्रतावादी आभामंडल के नीचे जिन चीजों को अपवित्र मान लिया गया है, दरअसल वे सब पवित्र हैं और इस पवित्रतावाद ने जीवन की संपूर्णता को, उसकी अन्य सुंदरताओं को कठिन बना दिया है, संदेहग्रस्त कर दिया है। इस 'नियत पवित्रात्मक अवधारणाका भंडाभोड़ एक आवश्यकता है और निसंकोच, पूर्णाभिव्यक्ति के साथ कविता-कर्म जितना खुद को स्वतंत्र करता है, उतना ही हमारे समाज को भी।

मनुष्य जीवन के सामने प्रस्तुत सच्चाइयों और समाज की अपनी सच्चाइयों में गहरा द्वैत है। हर विद्वान इसे देखता है, अनुभव करता है, इसका अपनी सर्जनात्मकता के जरिये विरोध करता है इसलिए पागल समझा जाता है लेकिन इस पागलपन के पीछे कहीं अधिक सच्ची, बड़ी और नैतिकता से परे किस्म की पवित्रताएँ काम करती हैं। जैसे कहीं कोई एक तलघर है जिसमें कुछ पवित्रताओं को सदियों से अपवित्र कहकर पटक दिया गया है और गिंसबर्ग उस तलघर में पड़ी इन पवित्रताओं को, अपने अजैण्डे के तहत उजागर करना चाहते हैं। जिसमें वे जै के साथ, नशे को, बोहिमियन जीवन, समलैंगिकता आदि सभी को पवित्र दृष्टिकोण से, मनुष्य की आजादी से जोड़कर देख रहे हैं। यहाँ तक कि 'मोलोकमें कुछ पवित्रता की आशा करते हैं।

यह फुटनोट पवित्रता का अपना क्रम और प्रबंधन प्रस्तावित करता है। प्रारंभ में ही 15 बार 'पवित्रशब्द लिखा गया है इसका अपना मंत्रोच्चारण जैसा संगीत और धार्मिक मंत्रबिद्धता है। इससे वह प्रभाव, गूँज और स्वराघात पैदा होता है जो पवित्रता की बहस को बीटनिक पवित्रता के दायरे में लाकर खड़ा करने के लिए जरूरी है। (एक शब्द के दोहराव के शिल्प को भी बाद में कई कवियों ने अनुसरण किया है, हिंदी में भी।) पवित्रता का साँचा तोडऩे की यह एक प्रविधि भी है। जैसे कण-कण में ईश्वर की कल्पना है, उसी तरह मानो गिंसबर्ग यहाँ कण-कण में पवित्रता को देख रहे हैं। जिन शहरों, लोगों, स्थानों के नाम- संज्ञाएँ यहाँ हैं, ये ही वे लोग और जगहें रही हैं जिन्होंने उन्माद और पागलपन को जज्ब किया, उसे दुत्कारा नहीं। इसलिए वे कहीं अधिक पवित्र हैं। तथाकथित पवित्रता का मखौल इसमें विन्यस्त है ही। पवित्र का यह रैटरिक 'हाउलके तीसरे हिस्से में बार-बार आए 'मैं रॉकलैण्ड में तुम्हारे साथ हूँके समानांतर है और बीट लेखकों को भी पवित्रता की श्रेणी में रखने की काव्यात्मक कार्यवाही है। जिससे आप सहमत-असहमत हो सकते हैं लेकिन उस जिरह में शामिल होने से इन्कार नहीं कर सकते।

इस तरह यह फुटनोट 'हाउलका चौथा हिस्सा बन जाता है। कहने को पाद-टिप्पणी है लेकिन यह उसका अनिवार्य अनुसंलग्नक है और कई प्रश्नों का समाधान करता है। यह कविता प्रताडि़त लेखकों का पक्ष लेते हुए अधिक दृढ़ रुख के साथ पेश आती है। सबसे महत्वपूर्ण और उल्लेखनीय यह कि कवि यहाँ अपना एक 'पवित्रता का बीट-कमंडलबनाता है और उसमें सब कुछ इस तरह डालता चला जाता है कि तमाम अपवित्रताएँ, अनैतिकताएँ या रूढिग़त परिभाषाएँ पवित्र होने के लिए बाध्य हों, तथाकथित पवित्रताएँ भी इस कमंडल में समा जाएँ, इसके आगे नतमस्तक हो जाएँ।

इस एक पैराग्राफ के समक्ष।

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'हाउलके लिए पाद टिप्पणी

एलेन गिंसबर्ग

 

पवित्र! पवित्र! पवित्र! पवित्र! पवित्र! पवित्र! पवित्र! पवित्र! पवित्र!

पवित्र! पवित्र! पवित्र! पवित्र! पवित्र! पवित्र!

दुनिया पवित्र है! आत्मा पवित्र है! त्वचा पवित्र है!

नाक पवित्र है! जीभ और शिश्नि और हाथ

और गुदाद्वार पवित्र!

सब कुछ पवित्र है! हर एक व्यक्ति पवित्र है! हर तरफ है

पवित्र! हर रोज अपनी अनंतता में! हर आदमी है एक

देवदूत!

नितंब उतना ही पवित्र है जितना कोई फरिश्ता! एक पागल

पवित्र है जितना तुम हो मेरी आत्मा पवित्र!

टाइपराइटर पवित्र है कविता पवित्र है आवा•ा है

पवित्र श्रोता पवित्र हैं चरमानंद पवित्र है!

पवित्र पीटर पवित्र एलेन पवित्र सोलोमॉन पवित्र ल्यूमसिएन पवित्र

केरोएक पवित्र हंकी पवित्र बरोज पवित्र

कैसेडी पवित्र अज्ञात गँडमरा और तकलीफजदा

भिखारी पवित्र आदमी में छिपे स्वर्गदूत पवित्र!

पागलखाने में मेरी मां पवित्र! पवित्र शिश्न   

केन्सस के पितामहों के!

पवित्र कराहता हुआ सैक्सोफोन! पवित्र 'बोप

एपोकेलिप्सह’! पवित्र जैबैंड्स मारिजुआना

हिप्स्टर शांति और हीरोइन और ड्रम्सि!

पवित्र गगनचुंबी इमारतों और गलियारों का अकेलापन! पवित्र

लाखों लोगों से अटे कैफेटेरिया! पवित्र

गलियों के नीचे बहती आँसुओं की रहस्यमय नदियॉं!

पवित्र एकाकी विशाल रथ! पवित्र विशाल मेमना

मध्य-वर्ग! पवित्र सनकी चरवाहे

विपल्वीए! लॉस एंजिल्स खोदकर निकालता है जो लॉस एंजिल्स!

पवित्र न्यूयॉर्क पवित्र सैन फ्रांसिस्को पवित्र पेओरिया और

सिएटल पवित्र पेरिस पवित्र टेंजियर पवित्र मास्को

पवित्र इस्तांबुल!

पवित्र अनन्तकाल में समय पवित्र समय में अनंतकाल पवित्र

अंतरिक्ष में घडिय़ाँ पवित्र चौथे आयाम पवित्र

पांचवां इंटरनेशनल पवित्र मोलोक के भीतर देवदूत!

पवित्र समुद्र पवित्र रेगिस्तान पवित्र रेलमार्ग पवित्र

लोकोमोटिव पवित्र दृष्टियाँ पवित्र दृष्टिभ्रम

पवित्र चमत्कार पवित्र नेत्र-गोलक पवित्र

रसातल!

पवित्र क्षमा! दया! दान-पुण्य! आस्था! पवित्र! हमारी!

देह! पीड़ाएं! उदारता!

पवित्र अलौकिक अतीव शानदार मेधावी

आत्मा की दयालुता!

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'बोप एपोकेलिप्स’- जै का एक प्रकार। बाकी संदर्भ लेख में यत्र-तत्र दर्ज हैं ही।

 

 

कुमार अंबुज हिन्दी कविता का एक सुनाम है। उनके इस लेख से 'हाउलप्रसंग सम्पूर्ण हुआ। संपर्क - भोपाल

 


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