मुखपृष्ठ पिछले अंक उर्दू रजिस्टर माँ
सितम्बर - 2018

माँ

ज़किया मशहदी

उर्दू रजिस्टर / कहानी

 

 

 

ठंडी हवा का झोंका हड्डियों के आर-पार हो गया।

कड़ाके का जाड़ा पड़ रहा था, इस पर महावटें भी बरसने लगीं। पतली साड़ी की शानों के गिर्द कस कर लपेटते हुए मुन्नी को ख्याल आया कि ओसारे में टापे के नीचे उसकी चारों मुिर्गयां जो दुबक कर बैठी होंगी, उन पर टापे के सांकों से फुवार पड़ रही होगी। बीमार पड़ कर मर गईं तो दुबारा रीदना बहुत मुश्किल होगा।

कपकपाते हाथों से उसने टट्टर हटाया और बाहर आ गई। बारिश ने जैसे हर तरफ बारीक मलमल का पर्दा डाल रखा था। सूरज पहले ही कई दिन से नहीं निकला था, इस पर ये चादर। फिर उसने अपनी बेवकूफी का एहसास हुआ। दिन तारी महीने तो वैसे भी उसे कम ही याद रहा करते थे, अब सुबह शाम भी भूल चली थी क्या? उसने ठंडी सांस ली। सूरज निकला भी होता तो क्या अब तक बैठा रहता। रात तो आ ही गई थी। हाँ पहले ही पहर ऐसी अँधेरी और उदास न होती शायद। उसने टापा उठा कर मुर्गीयों को दबोचा। डरे सहमे परिंदों ने कोई सदा-ए-एहतिजाज1 बुलंद नहीं की। बाज़ू में चारों मुिर्गयां और बल में टापा दबा कर वो मुड़ ही रही थी कि अचानक दूर फुवार और अंधेरे के दोहरे पर्दे के पीछे से कोई हयूला उभरता महसूस हुआ। इस के साथ ही एक चिंगारी सी भी चमकी। ज़रा सी देर को उसे लगा, अगियाभुताल है। लेकिन अगियाभुताल हिंदू हुआ तो मरघट में मुस्लमान हुआ तो कब्रिस्तान में, आंखें मटकाता, लोगों को रास्ता भुलाता घूमता है।  ज़िंदों की बस्ती में उसका क्या काम। वहां अपने अगियाभुताल बहुतेरे हैं। मुन्नी डरी नहीं, और डरती वो थी भी नहीं। रात के सन्नाटे में हर हर करती गंगा के दरमियान फैले पड़े दियारा के इस इलाके में वो तन्हा  ज़िंदगी गुज़ार रही थी। और लोग रहते तो थे लेकिन झोंपडिय़ाँ दूर-दूर थीं; दरमियान में खेत थे या सबज़ियों के वसीअ-ओ-अरीज़2 ते। शाम पड़े सियार हूवां हूवां करते। मुर्गीयों के फ़िरा में लोमडिय़ाँ दरवाज़े पर खुसर पुसर करतीं। कभी आँगन में लगे अमरूद के दरत से सलसल करता हरा हरा साँप रस्सी की तरह नीचे लटक आता और गर्दन उठा कर अपनी नन्ही-नन्ही, चमकीली, विष भरी आँखें मुन्नी की आँखों में डालकर उसे घूरता, लेकिन डराने में कामयाब ना होता। वो पास पड़ी लकड़ी उठा कर उसे धमकाती, अरे अब क्या ले जाएगा रे? हरसिया से ज़्यादा ज़हर है क्या तुझमें? मुन्नी के हिसाब से इसका आठ साला पोलीयो ज़दा लड़का और पाँच-पाँच साल की दोनों जुड़वां, मरियल लड़कियां साँप के किसी काम के ना थे। तीनों बच्चों को चूज़ों की तरह परों तले दबा के वो पड़ी तमानियत से अपनी और उसकी रोज़ी रोटी की फ़िक्र में गलतां घूमती रहती।

सुबह चार बजे, तड़के, जब सूरज निकला भी ना होता और गरमीयों में सरकती रात के मलगिजे अंधेरे या जाड़ों में कोहरे की दबीज़ चादर में लिपटी गंगा सोई हुई होती, मछुवारे अपना अपना जाल निकालते थे और उनकी नावें तड़पती मछलियों से भर जाया करती थीं। तब और लोगों के साथ मुन्नी भी अपना टोकरा लिए पहुँचती और मछलियाँ भर कर हिसाब चुकता करते, आठ बजते बजते पार जाने वाली नाव पकड़ कर शहर पहुंच जाती थी। सर पर टोकरा उठाए मुहल्ले मुहल्ले मछली बेच कर कोई दो ढाई बजे तक लौट आती। रास्ते में ज़रूरत का सौदा सुल् भी उठा लेती। कभी-कभार एक-आध मछली बच जाया करती थी। मुनाफ़ा हो ना हो, जमा निकल आए, ये सोच कर वो अक्सर बची हुई मछली बहुत कम दामों में हरसिया को बेच दिया करती थी। घाट से उतरते ही हरसिया का चाय का खोखा था। वो आते-जाते उसे छेड़ता, मुफ़्त की चाय ऑर करता, लेकिन मछली के दाम उसने कभी पूरे नहीं लगाए। चाय के खोखे की आड़ में कच्ची शराब के साथ तली मछली बेचने वाला वो अनपढ़ किसी मल्टीनेशनल कंपनी के बिज़नेस ऐगज़ीक्यूटिव से कम सियाना नहीं था।

मुन्नी ज़ात की मल्लाह नहीं थी लेकिन पिछले बारह तेरह साल से दियारा में अपनी इसी झोपड़ी में रहने और शौहर के मोटरबोट चलाने के पेशे की वजह से वो गंगा और गंगा में बसी मछलीयों के अलावा और किसी चीज़ को नहीं जानती थी। पन्द्रहवें बरस में वो ब्याह कर यहां आई थी। उसे गंगा माँ से पहले ही बड़ी अक़ीदत और मुहब्बत थी। उनके आँचल में रहने को मिलेगा, ये तो उसने सोचा भी नहीं था। और अब तो रोज़ी रोटी का ज़रिया भी गंगा माँ ही थी। उधर उसने बड़ी मुश्किल से कुछ पैसे बचा कर मुिर्गयां रीदी थीं, कि बच्चों को अंडे खिला सके। इस का पहलौठी का लड़का सिर्फ इसलिए मर गया था कि उसे दवा के साथ अच्छी िगज़ा भी चाहिए थी। इसकी याद आती तो कलेजे में हूक उठती। शादी के पहले साल ही पैदा हो गया था।  ज़िंदा होता तो आज कितना बड़ा सहारा होता ग्यारह बारह बरस का वो बेटा।

सर्द हवा के बरमे ने हड्डियों में छेद बनाए। मुन्नी को महसूस हुआ जैसे उसे बुख़ार चढ़ रहा हो लेकिन तजस्सुस3 ठंड पर हावी हो गया। इस सन सन करते दियारा में, जहां गंगा को छू कर आती य-बस्ता हवाओं के बीच सियार भी हुवां हुवां भूल कर मांदों में दुबक गए थे, ये कौन था जो लंबे लंबे डग भरता चला आ रहा था?

एक चिंगारी फिर छूटी। मुन्नी, ओ मुन्नी! रीब आती रोशनी ने उसका नाम लेकर पुकारा।

वो हड़बड़ा गई। सर्दी, ल में दबे टापे और दूसरे बाज़ू में सिमटी मु$र्गीयों को यकसर भूल कर वो बाहर निकल आई और उन्हेें देखकर हक्का बका रह गई।

आप? इस वक़्त यहां? अन्दर आ जाईए मालिक, बड़ी ठंड है।

लंबे  द और दुबले पुतले जिस्म पर इन्होंने हसब-ए-दस्तूर धोती लपेट रखी थी। हाँ पतले कुर्ते की जगह गाढ़े की मोटी पूरी आस्तीनों वाली मीज़ थी और सर पर अँगोछा लिपटा था। बस यही उनकी जड़ावल थी (और गांव में इससे ज़्यादा जड़ावल बहुत से लोगों के पास थी भी नहीं)।

ओसारे में रात काटने की इजाज़त चाहिए, मुन्नी। सुबह निकल लूँगा। वो मुस्कुराए लेकिन आवाज़ में मुस्कुराहट की नहीं बल्कि बजते दाँतों की आहट थी।

अन्दर आ जाईए, मालिक।

अंदर? वो ज़रा सा हिचकिचाए।

हाँ, मालिक। यहाँ ओसारे में तो बड़ी हवा है।

वो पीछे पीछे चल पड़े तो मुन्नी को महसूस हुआ, उसके घर में रिश्तों के दम उतरे हैं या गंगा माँ एक इन्सान की शक्ल इतियार करके उसकी झोंपड़ी में आन उतरी हैं। ज़हे नसीब4। उसने टापा एक कोने में रखकर मुर्गीयों को जल्दी जल्दी उसके नीचे धकेला और बोरी के अमरूद की खुशक टहनियां, पत्ते और कुछ उपले निकालने लगी।

कुछ और मत करो, मुन्नी। बस रात के लिए छत चाहिए थी। अब और नहीं चला जा रहा था। वो बेहद थके हुए लग रहे थे। उन्होंने कंधे से लटका हुआ झोला उतारा, टार्च उसमें रखी और वहीं मिट्टी के फर्श पर कटे दरख्त से धप्प से बैठ गए।

आप कुछ मत बोलिए। मुन्नी का जी भर आया। हमारे पास जो है वही तो दे सकेंगे,  ना उससे कम, ना उससे ज़्यादा, उसने इतनी सादगी से कहा कि वो खामोश हो गए।

मालिक, कपड़े भीग गए हैं, कुछ ढूंडते ढूंडते ही उसने कहा। उसकी पुश्त उनकी तरफ थी।

मुन्नी के पास कपड़े कहाँ होंगे जो वो बदल सकें, इसलिए इन्होंने उसकी बात अन-सुनी कर दी। हालाँकि उस वक़्तख़ुशक कपड़ों, ख़ुशक जिस्म और हवा से मह$फूज़ ख़ुशक जगह से ज़्यादा ऐसा कुछ ना था जिसे जन्नत का नाम दिया जा सके। (हर शख़्स की जन्नत उसकी अपनी होती है, और मौ$का महल के एतबार से होती है शायद।)

मेरे पास मेरे पति की एक धोती रखी हुई है, उसकी ख़ामोशी का मतलब भाँप कर उसने कहा। तब तो ठीक है। सुबह तक मेरे कपड़े सूख गए तो उसे छोड़ जाऊंगा, उन्होंने रज़ामंदी ज़ाहिर की। मुन्नी ख़ुश हो गई। उसने घर के वाहिद कमरे की कारनिस पर रखा टीन का बक्सा उतारा। यह बक्सा उसका शौहर पटना के सोमवारी मेले से लाया था, और इसमें रखकर लाया था उसके लिए लाल फूलों वाली साड़ी। मुन्नी अब लाल फूलों वाली साड़ी नहीं पहनती थी। उसे शौहर की वाहिद धोती के साथ संभाल कर रख दिया था। उसे तो वही पहनेगी... लंगड़े से शादी करने की हिम्मत करने वाली उसकी बहू। वही उसकी असल हदार होगी।

उसने जल्दी से धोती निकाली, मुबादा वो अपना इरादा बदल दें। धोती उन्हें थमा कर वो फिर अन्दर चली गई। गीले कपड़े उतार कर इन्होंने अलग रखे। ख़ुशक धोती आधी बांध कर, आधी को ऊपर के जिस्म पर ओढ़ लिया। अब वो एक बौध भिक्षु जैसे नज़र आ रहे होंगे, सोच कर उनके लबों पर ख़फ़ीफ़ सी मुस्कुराहट उभर आई।

गाढ़े की धोती ने बड़ी राहत पहुंचाई। गीले कपड़ों से नजात पाकर इसे पहनने का सुख अलफ़ाज़ से परे था। ख़ुद उस नेक दिल औरत का भला करे, इन्होंने दिल ही दिल में दुआ की।

दुआ तो उनके झोले में सब के लिए थी, और मुहब्बत भी, लेकिन ना सब का पेट भर पाता, ना बीमारियां दूर होतीं; ना मुन्नी के शौहर की वापसी हो पाती जिसे पुलिस पकड़ कर ले गई थी किसी की इस मुिख्बरी पर कि वो नेपाल से कत्थे की स्मगलिंग में शामिल है। वापसी तो बड़ी बात, साढ़े पाँच साल का तवील वक़फ़ा गुज़र जाने के बाद ये तक पता नहीं चला कि वो कहाँ है, किस हाल में है, है भी या नहीं। मुन्नी कभी भूल सकती है क्या कि इन्होंने किस तरह साल डेढ़ साल तक उसके शौहर का पता लगाने और उसे छुड़वाने के लिए दिन को दिन और रात को रात नहीं समझा था। आख़िर मुन्नी ने ही उनसे हाथजोड़ कर कहा था, भगवन, अब हमने सब्र कर लिया, आप भी छोड़ दीजीए। हमारे भाग्य में सुहाग होगा तो वो ख़ुद आजायेंगे। कहीं जो विधाता ने हमारा सिंदूर पोंछ दिया होगा तो कोई क्या करेगा।

शौहर की गिरफ्तारी के पहले से ही इसका पहलौठी का बेटा बीमार रहा करता था। बाप के जाने के बाद घर पर जो मुसीबत आई, उसमें उसकी बीमारी कहीं ज़्यादा बढ़ गई। तब मुन्नी उन्हें ज़्यादा नहीं जानती थी। एक दिन वो उसके दरवाज़े पर आए। किसी ने उन्हें बताया कि इस घर में एक बीमार बच्चा है। बच्चे को देखकर वो कुछ फ़िक्रमंद हो गए। उसे डाक्टर के पास ले जाना बहुत ज़रूरी था, लेकिन डाक्टर सिर्फ बुध को मिलेंगे। इस दिन जुमा ही था। इस बच्चे को दवा के साथ िगज़ा की भी सख़्तज़रूरत थी। ख़ाली दवा से कुछ ना होगा, इन्होंने तास्सु से सोचा था। इंतिहाई कमज़ोर होते हुए बच्चे को गोद में लिए आँसू बहाती मुन्नी इन दिनों दो वक़्त भरपेट खाना तक मुहय्या नहीं करा पाती थी। जुड़वां बच्चियां उसके पेट में थीं। आठवां महीना त्म हो रहा था। वो कोई काम ना कर पाती। ख़ुद उसे भरपूर िगज़ा की ज़रूरत थी लेकिन वो दोनों बच्चों, खासतौर पर पहलौठी के बीमार के लिए पागल बनी रहती।

मुन्नी, मैं बुध को फिर आऊँगा, इन्होंने कहा। तुम्हारे बच्चे को अस्पताल ले जाने की सख़्तज़रूरत है। फिर इन्होंने कंधे से लटका झोला उतारा (वही झोला जो हमेशा उनके कंधे से लटका रहता था और आज भी लटका हुआ था)।

ये रखो, झोले में हाथ डाल कर उन्होंने बत्त के चार अंडे बरामद किये और छह अदद केले। ये तोह$फे गांव में दो अलग अलग लोगों ने उन्हें दिए थे। वो सब के सब उन्होंने बच्चे को दे दिए। ये नेअमतें देखकर उसके ज़र्द चेहरे और बुझती आँखों में जो चमक आई थी उसे मुन्नी कभी नहीं भूल सकी। जब भी उसके जाने का म सताता, वो मुसर्रत की इस चमक को याद करती तो दुखते दिल पर ठंडी ठंडी फुवार पड़ जाती। अपनी  ज़िंदगी के आख़िरी दो दिनों में इसका बच्चा बहुत ख़ुश था। वो इस दुनिया से ख़ुख़ुश गया था। इसके पेट में खाना था, वो भी अच्छा खाना। बुध के दिन जब वो उसे लेने आए तो उसकी राख हवाएं उड़ा चुकी थीं पर अपना सर रख दिया। उसने बड़े चाव से अंडे खाए। अपना हाथ बढ़ा कर एक केला छोटे को भी दिया। सब आपकी कृपा थी। वो भूखा जाता तो हम जितने दिन  ज़िंदा रहते, तड़पते रहते। मुन्नी के आँसूओं ने उनके पैर भिगो दिए। ऐसी सख़्त गिरफ़्त थी कि उसके लाख छुड़ाने पर भी वो उस वक़्त तक नहीं उठी जब तक उसका दिल हल्का नहीं हो गया।

तब ही उन्हें मुन्नी के शौहर के बारे में पता चला था। कहीं से भी मालूम हुआ कि हरसिया से किसी तकरार के सबब उसने उसके ख़िला मुिख्बरी की थी। झूठी या सच्ची, ये मालूम होना मुश्किल था। नेपाल से तेंदू की पत्तियों और कत्थे की स्मगलिंग बहुत आम थी। हो सकता है वो सिर्फ मोटरबोट चलाता रहा हो और उसे माल का इल्म ना रहा हो, हो सकता है मुलव्वस5 रहा हो। जो भी हो, वो एक बहुत ही छोटी मछली था जिसे बड़ी मछलियाँ निगल गई थीं। इस सिलसिले में उन्हें कामयाबी नहीं मिल सकी लेकिन मुन्नी एहसानमंद थी; किसी ने इस बारे में सोचा तो, कुछ किया तो। उसके दूसरे बच्चे को पोलियो हो गया था। वही थे जो उसे अस्पताल ले गए, ऑप्रेशन कराया। अस्पताल से उसे लोहे का जूता बनवा कर दिया गया जिसका फ्रेम घुटने तक था। वो लंगड़ाता अब भी था लेकिन पहले से बहुत अच्छा हो गया था। पहले तो वो जिस तरह चलता था उसे देखकर किसी करीह सूरत, फुदकने वाले जानवरकी याद आती थी। मुन्नी का दिल डूब डूब जाता था। कई बार उसे $ख्याल आता था कि ऊपर वाले को उस का बेटा लेना ही था तो इस टूटे फूटे को ले लिया होता। सही सालिम चला गया, ये रह गया। लेकिन फिर उनकी कोशिशों से अब वो इस लायक था कि अपने सारे काम आसानी से कर ले। जल्द ही वो उसे किसी दुकान में बिठाने की सोच रही थी।

लड़का अब अस्पताल से लौटा था, उस वक़्त भी मुन्नी ने उनके पैरों पर सर रख दिया था। शिर्क-ओ-कुफ्र6 उसकी लु7 में नहीं थे। होते भी तो उनके मअनी उसके ज़खीरे में नहीं थे। भगवान ख़ुद उतर कर नहीं आते, किसी इन्सान को भेज कर ही काम कराते हैं। वो जिसे भेजें वही उनका रूप।

तसले में आग रोशन हो उठी थी। वो उसे उनके पास ले आई। फिर एक बड़े से टेढ़े-मेढ़े एलमोनियम के कटोरे में दो गिलास पानी, गुड़, आँगन में लगे तुलसी के पौधे से उतारी पत्तियाँ और दो-चार दाने काली मिर्च के डाल कर उबालने को चढ़ा दिए। पानी खूब उबल गया तो उसने एलमोनियम के दो गिलासों में चाय ढाली और अपना गिलास लेकर ख़ुद भी वहीं बैठ गई। गंगा की रेत में मांझे गए एलमोनियम ने पस्ताकद, मद्धम शोलों की रोशनी में चांदी की तरह लशकारा मारा।

मालिक बड़ा कारसाज़ है। मुन्नी की झोंपड़ी रास्ते में ना होती तो वो ठंड से अकड़ गए होते। उनके लिए तो उस वक़्त फूस की सिर्फ एक छत काफ़ी थी। ख़ाली पेट में तवानाई देता गुड और ठंडे जिस्म में गर्माहट भर्ती तुलसी और काली मिर्च की चरपराहट। एक एक घूँट अमृत था।

जाके सो जाओ मुन्नी। रात बहुत हो चुकी है, इन्होंने नरमी से कहा।

''सब लोग आपके बारे में बहुत बातें करते हैं। कभी मन होता था, हम आपके पास बैठें।’’

''मालूम है। और लोग क्या बातें करते हैं, ये भी मालूम है।’’वो मुसकुराए।

''क्या मालूम है?’’

''मैं सवालों के जवाब देते-देते थक गया हूँ। फिर भी कोई ना कोई इन्सान ऐसा मिल जाता है जो नए सिरे से सारा कुछ पूछने लगता है। तुम भी सब पूछना चाहती होगी कि मैं कौन हूँ, कहाँ से आया हूँ, मेरा कुन्बा कहाँ है, गुज़ारा कैसे चलता है, यहाँ क्यों रहता हूँ, है ना?

मुन्नी ने सादा-लौही से सर हिलाया।

वो हंस पड़े। चलो, तुम भी सुन लो। मेरे माँ बाप अब नहीं रहे। जब मैं यहाँ आया था, तब थे। भाई बहन हैं, दोस्त अहबाब हैं, लेकिन में इन सबको बहुत दूर छोड़ आया हूँ। इन्होंने दरे8 तवक्कु किया। एक महबूबा भी थी। उम्मीदों के चरा रौशन किए, मुस्तबिल के ख़ाब देखती... मैंने उसकी दुनिया तह-ओ-बाला कर दी। उसे भी छोड़ आया। लेकिन ये इन्होंने मुन्नी से कहा नहीं और बात का सिरा फिर पकड़ा।

''वो सब बारी बारी मुझे कुछ पैसे भेजते रहते हैं। उनसे मेरा गुज़ारा हो जाता है। दूसरों की मदद के लिए कुछ बचा लेता हूँ। मैं किसी के आगे हाथ नहीं फैलाता, फिर भी कभी भूखा नहीं सोता हूँ। तुममें से भी जिन लोगों के पास कुछ है और वो मुझे देना चाहते हैं तो लेने से इनकार नहीं करता। कभी कोई ग्वाला एक लोटा दूध थमा देता है तो कोई गृहस्थ किलो आध किलो सब्ज़ी।

''वो तो आप दूसरों को बांट देते हैं।’’

''जो मेरी ज़रूरत से ज़्यादा होता है या मुझे दरकार नहीं होता, बस वही। अब अभी तुम्हारी तुलसी की चाय की सख़्तज़रूरत थी। वो मैं किसी के साथ ना बाँटता। इन्होंने बच्चों जैसी मासूम और शरीर मुस्कुराहट के साथ कहा। मुन्नी ने सर खुजाया। उनकी ज़रूरत से ज़्यादा उनके पास क्या होता है और कब होता है! अभी कोई आ जाए तो आधी चाय तो उसे पिला ही देंगे।

''आप, आप का परिवार?’’

''मेरा परिवार तुम लोग हो। आस-पास के चारों गांव मेरा परिवार हैं।’’

''बाल बच्चे पीछे छोड़ आए?’’

''मेरा कोई बाल बच्चा नहीं।’’

''औरत?’’

''औरत नहीं है, इसीलिए बाल बच्चा भी नहीं है। मगर इन गांव के, जहां मैं काम करता हूँ, सारे बच्चे मेरे बच्चे हैं। तुम्हारे बच्चे भी, मुन्नी।’’

मुन्नी के तीनों बच्चे गुदड़ी में लिपटे गहरी नींद सो रहे थे। इसका जी भर आया। कुछ देर वो ख़ामोश रही। बाहर हवा ज़्यादा पागल हो उठी थी। किसी चुड़ैल की तरह सीटियाँ बजाती, हाएं हाएं करती, गंगा माँ की ज़ुल्$फों में लहरों के घूंघर डालती, शरारत पर आमादा ठंडी य हवा। बड़ी ठंड है कह कर वो कुछ देर ख़ामोश रही। उसने फिर आँखें उठाईं।

''तो आपने ब्याह किया ही नहीं?’’

''मुन्नी, आज तुम इतने सवाल क्यूँ कर रही हो?’’

''आज ही तो आपके साथ बैठने का मौका मिला है, मालिक।’’

''कितनी बार कहा, मुझे मालिक कह कर मुख़ातब ना किया करो’’, वो दरे झुँझला कर बोले, ''हाँ, मैंने ब्याह नहीं किया।’’ जवाब दे ही दें वर्ना ये बेव$कू मछुवारन दिमा चाटती रहेगी। उनका लहजा मामूल के मुताबि नरम और पुरसुकून था।

तो औरत का सुख इन्होंने कभी नहीं जाना। और ना जाने कौन कौन से सुख नहीं जाने, बेवकू मछुवारन ने सोचा। बाँस के टट्टर की झोंपड़ी में अकेले रहते हैं। एक पतीली में आलू और चावल साथ उबाल लेते हैं। अपनी थाली ख़ुद मांझना, अपने कपड़े ख़ुद धोना। साईकल को खडख़ड़ाते घूमते फिरते रहना। अपने देस में ज़रूर उनके पास मोटर होगी, सूरत से ही बड़े घर के मालूम होते हैं, लेकिन यहां... सुना था एक-बार अकेले पड़े बुख़ार में भुन रहे थे। संजोग से कोई उधर जा निकला। परले गांव के मुस्लमानों के यहां का लड़का था। वो उन्हें उठा ले गया। सुना है, उससे कहा कि मैं मर जाऊं तो कोई परपंच ना करना। जो कपड़े पहने हूँ, इन्हीं में ले जा के मेरी झोंपड़ी में गाड़ देना। यहां एक कापी पड़ी मिलेगी। हो सके तो इसमें लिखे पते पर बर करा देना, और बस। क्या उसके शौहर ने भी किसी को अपना पता दिया होगा?

शौहर को याद करके उसके दिल में टीस उठी एक बेरहम टीस। वो जब आता तो मुन्नी खाना तैयार करके रखती, लपक कर लोटे में पानी निकाल कर देती। इसके सामने इतनी तंगी नहीं थी। रूखा सूखा सही, लेकिन दोनों वक़्त भर पेट मिल जाया करता था। फिर रात में पुवाल के बिस्तर में मोटी चादर तले उलवही9 सुख। पता नहीं वो अब इस दुनिया में है भी या नहीं। उसकी मौत की इत्तिला देने के लिए किसी के पास शायद कोई पता ना था। मगर जब उसके पास था, बहुत ख़ुश था। जब दिल में टीस उठती है वो ये याद करके तसल्ली देती है ख़ुद को, कि उसने बड़ी ख़ुश-ओ-ख़ुर्रम  ज़िंदगी बसर की। मुन्नी ने उसे भरपूर सुख दिया। बिलकुल ऐसे ही जैसे उसे जब बेटे की याद आती है तो वो उसकी यादों में एक मिठास पाती है; एक तमानीयत कि  ज़िंदगी के आख़िरी दो ढाई दिनों में उसे कुछ अच्छा खाने को मिला था, फल मिले थे। ऐसा ना हुआ होता तो इसकी यादें सिर्फ कलेजा फाड़तीं, कलेजे पर कोई फाहा ना रखतीं। वो आज भी लोट लोट कर रोती होती।

आपका सर सहला दूं? नींद नहीं आ रही है ना? उसने चाय का आख़िरी घूँट लेकर ख़ाली गिलास रखते हुए कहा।

तुम ख़ुद सोलो जा के। सवेरे सवेरे मछली लाने निकल पड़ोगी। जाओ यहां से, इन्होंने दरे डपट कर कहा। ये अब भी मेरे बारे में सोच रहे हैं। मुन्नी कुछ देर तज़बज़ब के आलम में खड़ी रही, फिर कुछ छिपटीयाँ तसले में डाल कर अंदर जाकर बच्चों के साथ गड़ी मुड़ी होकर गुदड़ी में घुस गई। अपनी कथरी तो उसने उन पर डाल दी थी। यहां एक गुदड़ी में चार नर हो गए थे। बच्चों को ढकने की कोशिश में वो ख़ुद बार-बार खुल जाती।

कोई दो बजे ठंड के शदीद एहसास से वो पूरी तरह जाग गई। हवा कुछ ऐसे सांय सांय कर रही थी जैसे हज़ारों भुतनियां अपने घाघरे सरसराती गंगा पर से गुज़र रही हों या फिर किनारे जलती चिताओं से उठी नाआसूदा10 रूहें। गंगा माँ के शोर में भी कुछ नाराज़गी थी जैसे दो आबे के मैदानों में उतरने के बाद भी वो पहाड़ी ढलानों से गुज़र रही हैं तेज़, तुंग, ज़बनाक। कभी ना डरने वाली मुन्नी उस वक़्त कुछ खौज़दा हो उठी किस चीज़ से, ये ख़ुद उसकी समझ में नहीं आया। साँप मरुद के पत्तों में दुबका ख़ुद ही डरा बैठा था और ओसारे में एक बहुत ही नेक पाकीज़ा इन्सान सोया हुआ था। फिर उसे किस चीज़ का डर था? वो कुछ बेचैन सी, उसके सिरहाने आकर खड़ी हो गई। उनकी साँसों के ज़ेर-ओ-बम और हल्के खर्राटे गहरी नींद के म्माज़ थे। कुछ लम्हों बाद वो वहीं बैठ गई। तसले की आग बुझ कर बहुत सी राख छोड़ गई थी लेकिन राख के अंदर अँगारे थे और राख गर्म थी। उसने एक टहनी से उसे कुरेदा तो चिनगारियाँ उड़ीं। कुछ देर तक वो अपनी कसरत-ए-इस्तेमाल से पतली पड़ती सारी के पल्लू से ख़ुद को लपेट लपेट कर कुछ सोंचती रही, फिर धीरे से उनकी बल में सरक आई। सख़्त मेहनत से गठा हुआ, अट्ठाईस साला जवान जिस्म कमान की तरह तना और फिर चिरा की तरह लौ देने लगा।

आदम के साथ हव्वा का तलीक11 किया जाना कुछ ऐसा बे-म$क्सद तो ना था।

मालिक, जाने ब$गैर दुनिया मत छोडि़एगा। आत्मा भटकेगी। ये सुख... भोगीए ना भोगीए, जान तो लीजीए एक-बार...

उनकी आँख खुल गई। तमकीली स्याह आँखों वाली रोहू मछली जैसी वो लाँबी, छरेरी गठी हुई सुडौल औरत उनके गले में हाथ डाले पड़ी थी। चारों तर घंटियाँ बज रही थीं.... टन-टन-टन... तरे की, मुसीबत की, और किसी अनहोनी पेशनगोई की, मौसीकी से लबरेज लेकिन डरावनी... और पूरा जिस्म तूफ़ान की ज़द में आई नाव की तरह हचकोले जा रहा था।

महात्मा बुद्ध वैसे तो अहिंसा के पुजारी थे लेकिन कोई कशकोल में गोश्त डाल देता तो खा लेते। लेकिन क्या जब मार ने उन्हें गुमराह करने के लिए अपनी बेटियों को भेजा तो वो उन्हें शिकस्त नहीं दे सके थे? क्या इन्होंने अपनी $ख्वाहिशों पर मुकम्मल काबू नहीं पा लिया था?

मैं महात्मा नहीं हूँ। मैं बुध भी नहीं हूँ। मुझे इ$र्फान12 कहाँ हासिल हुआ है? $र्फान की तलाश में तो मैं निकला भी नहीं हूँ। हाँ, अगर बनी नोअ़13 इन्सान की ख़िदमत से इ$र्फान मिलता है तो शायद कभी मुझे भी हासिल हो जाये। और क्या सोचते थे कनफटे जोगी की औरत का सुख वैसा ही है जैसा आत्मा के परमात्मा में ज़म होने का सुख। मरने से पहले एक-बार अगर जान लूं कि ये होता क्या है तो बुरा क्या है? मैंने शराब का सुरूर जाना है। अच्छे भरपेट खाने, गहरी नींद, माँ की गोद, औरत की मुहब्बत इन सबसे आगाह हूँ, सिर्फ उसका जिस्म ही नहीं जानता। शायद में पूरी तरह ख़ुद पर काबू नहीं पा सका हूँ वर्ना इस य रात में ये शोले ना भड़कते। अब तक तो धक्का देकर इस सलसल करती मछली को वापिस गंगा में फेंक दिया होता। शोले पहले भी कई मर्तबा भड़के थे आख़िर वो इन्सान ही तो थे लेकिन इन्होंने फटकार के पानी से उन्हें बुझा दिया था। हर बार क$फ्फारे के लिए इन्होंने तीन दिन लगातार रोज़े रखे थे, मुसलमानों के रोज़ों से भी ज़्यादा यों कि रोज़ा खोल कर भी वो भर पेट खाना नहीं खाते थे। कभी कभी तो महज़ उबले आलू या खीरा ककड़ी खा के रह जाते थे।

अभी हाल की ही तो बात है।

इन दिनों दियारा के उस पार वाले गांव की बारी थी। वो एक बीमार शख़्स को हस्पताल में दिखा कर वापिस घर पहुंचा रहे थे। वहां कुँए पर गांव में ब्याह कर आई नई बहू सुनन्दा खड़ी थी। पानी निकालने के लिए उसने एक पैर $खूब आगे बढ़ा कर जिस्म को तान रखा था। सुनहरी, पक्के गंदुम और जिल्द वाले सुथरे, सुडौल पैर पर उसका वाहिद ज़ेवर, चांदी की पायल बहुत ही भली लग रही थी। बाल्टी खेंचते हुए सुनन्दा के पूरे जिस्म में इर्तिआश था। लगता था, माँ बाप के घर वो कुँए से पानी निकलाने की आदी नहीं रही थी। उस की साड़ी जिस्म से सरक सरक गई थी। गदबदा, दरे भारी, गुदाज़ जिस्म ब्लाउज़ में से छलका छलका पड़ रहा था। उनकी नज़रें उसके खूबसूरत पैर पर ज़रा की ज़रा रुकीं और फिर सरसर करती सीधी गर्दन तक पहुंच गई। सुनंदा के जिस्म का इर्तिआश उनके अपने जिस्म में मुंतिकल हो गया। इन्होंने ख़ुद पर लानत भेजते हुए नज़रें हटाईं। लेकिन वो अच्छी तरह समझ रहे थे कि नज़रें जितनी देर ठहरी थीं वो वक़फ़ा मुनासिब से बहुत ज़्यादा था और जो वक़फ़ा गुज़रा था वो सही नहीं था। वो नज़रें महज़ ख़ुदा की एक हसीन तली की सताइश करती नज़रें नहीं थीं... वो एक मर्द की नज़रें थीं जो एक औरत की सताइश कर रही थीं। इन्होंने ख़ुद पर कफ्फ़ारा वाजिब किया, क्योंकि उनका ज़मीर उनसे जो सवाल कर रहा था इसके लिए उसके पास ख़ातिर ख़ाह जवाब नहीं था।

मछली ने अपनी काली चमकीली, काजल भरी आँखों से उन्हें फिर देखा। तृष्णा लेकर दुनिया से मत जाओ सन्यासी... जान लो कि तुम क्या नहीं जानते। ये तसल्ली भी कर लो कि जिस न14 को तुमने काबू में किया है वो बड़ा बेलगाम, मुँह ज़ोर घोड़ा है। बाद में अपनी पीठ ठोकते रहना। मगर एक-बार... सिर्फ इस बार...

इस लम्हे ने मज़ीद कुछ सोचने का मौ$का नहीं दिया। वो इन पर हमला कर बैठा, जैसे नेपाल से बर्फ पिघलने के बाद दुग्यानी पर आई बेबिज़ाअत15 गंडक खूँख़ार होकर तातवर गंगा पर चढ़ दौड़ती है और गंगा अपनी तमाम-तर ज़बनानी के बावजूद करवटें बदल बदल कर उसे अपने अंदर ज़म करने पर मजबूर हो जाती है।

सुबह जब उनकी आँख खुली तो पहले तो समझ नहीं आया कि जो हुआ वो क्या एक बुरा ख़ाब था या एक अच्छा ख़ा? बड़ी दहश्त के साथ उनकी अल-ओ-हम ने बताया कि वो ख़ाब नहीं था, क़ीक़त थी, और मज़ीद दहशतनाक बात ये थी कि नींद के जाले सा हो जाने के बाद लब-ओ-ज़हन पर सरूर की कैफ़ीयत तारी हो रही थी, जिस्म एक पुरकै दर्द से टूट रहा था। रूह पर कभी ना मिटने वाले निशान पड़ गए थे। उनका कलेजा फटने लगा। सारी रियाज़त मिट्टी में मिल गई थी और उन्हें ये अच्छा लग रहा था। मुन्नी उनसे पहले उठ चुकी थी। इस ठंड में कुँवें से पानी खींच कर वो नहा चुकी थी और उनके लिए मिट्टी के चूल्हे पर चाय चढ़ा चुकी थी। इसकी सुथरी आँखों में कोई पशेमानी नहीं थी, गुनाह का कोई एहसास नहीं था। बस एक तमानीयत थी, एक सुकून था। उसकी महबूब हस्ती उसके दरवाज़े पर आई तो उसने उसके कशकोल में वो डाल दिया जो उसके पास था ना उससे कम, ना उससे ज़्यादा। उसने मिट्टी की रकाबी में भूबल में भुनी शकरकंद और एलमोनियम के गिलास में चाय लाकर रख दी। उन्होंने शकरकंद सरका कर चाय का गिलास उठा लिया।

चाय पी कर वो उठ खड़े हुए।

झोंपड़ी के दरवाज़े पर वो रूबरू हुए।

मुन्नी ने हाथ जोड़ दिए थे। ''अब कभी रुकने को नहीं कहूँगी भगवन्। डरीएगा नहीं।’’

''बाक़ी सारी  ज़िंदगी सिर्फ एक वक़्त खाना खा कर आज की रात का कफ्फ़ारा अदा करूँगा, इन्होंने धीरे से कहा। मगर तुम्हारा शुक्रगुज़ार हूँ मुन्नी माँ... हमेशा रहूंगा।’’ इन्होंने अचानक झुक कर उसके पैर छू लिए।

''रुकने को कहने की ज़रूरत नहीं होगी। ये इलाका छोड़कर जा रहा हूँ।’’

वो ठंड से सुकड़ी, नम, धुआं देती तारीक सुबह में तेज़ी से गुम हो गए।

 

1. सदा-ए-एहतिजाज - विरोध (दर्ज कराना)

2. वसी-ओ-अरीज़ - लम्बा चौड़ा

3. तजस्सुस - जिज्ञासा

4. ज़हे नसीब - अहो भाग्य

5. मुलव्वस - शामिल, भागीदार

6. शिर्क व कुफ्र - बहुदेववाद, ईश्वर से इनकार

7. लुत - शब्द भंडार/शब्दावली

8. दरे तवक्कु - किंचित रूकना

9. उलवही - अलौकिक

10. ना आसूदा - असंतुष्ट

11. ली - रचना

12. इर्फान - ज्ञान/बुद्धत्व

13. बनी नौ-ए-इन्सान - मानव मात्र

14. स - वासना

15, बेबज़ाअत - शक्तिहीन

 

मशहूर कथाकार। संपर्क - पटना

 


Login