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सितम्बर - 2018

चचा अबू उस्मान

गुसान अलफानी / अनु. शहादत

देशांतर/फिलिस्तीनी कहानी

 

 

 

उन्होंने हमें शहर रामाल्लाह को शहर बैतुलमुकद्दस से जोडऩे वाली सड़क के दोनों किनारों पर हाथ ऊपर उठा कर दो पैर पर खड़ा हो जाने को कहा। जुलाई की चिलचिलाती हुई धूप थी, मेरी माँ मुझे अपने साए में रखना चाहती थी। एक यहूदी फौजी की नज़र मुझ पर पड़ गई, वो आगे बढ़ा और मेरा हाथ पकड़कर जोर से खींचा। उसने इसी पर बस नहीं किया बल्कि मुझे हाथ ऊपर उठाकर एक पाँव पर सड़क के बीचोंबीच खड़ा हो जाने का हुक्म दिया।

उस वक्त मेरी उम्र का नौवां साल था। अभी चार घंटा पहले ही मेरी आँखों के सामने यहूदी रामाल्लाह में घुसे थे, मैं सड़क के बीचोंबीच खड़ा यहूदियों को बूढ़ी औरतों और बच्चों के जेवरात टटोलते और बड़ी बेरहमी के साथ खींचते हुए देख रहा था, कुछ गोरी खातून फौजी भी थी, वो भी मज़ीद जोश व खरोश के साथ यही काम कर रही थीं। माँ मेरी तरफ देख देखकर खामोशी के साथ रो रही थी। मैं उस वक्त अपनी माँ से कहना चाहता था कि मैं बिल्कुल ठीक हूँ और ये चिलचिलाती धूप इतनी तकलीफ नहीं दे रही है जितना उसकी ममता महसूस कर रही है...

माँ का इस दुनिया में मेरे सिवा कोई न था। मेरे वालिद ये सब शुरु होने से एक साल पहले ही वफात पा चुके थे, मेरे बड़े भाई को ये लोग रामाल्लाह में घुसते ही पकड़ ले गए थे। मैं यकीन के साथ नहीं कह सकता था कि मेरी माँ की नज़रों में मेरी क्या अहमियत थी, हाँ इस बात का अंदाज़ा लगाना मुश्किल है कि अगर मैं दमिश्क में उसके साथ न होता तो उस पर क्या बीतती। मैं दमिश्क में उसका इकलौता सहारा था और बस अड्डों के करीब चीख चिल्लाकर, ठिठ्र सिमट कर अखबार बेचा करता था और इसी से हमारी दाल रोटी चलती थी।

सख्त धूप की वजह से औरतें और बच्चे बिलबिला रहे थे। यहां वहां से विरोध भरी, मुसीबतज़दा सदाएं उभरने लगी। यहां मौजूद कुछ चेहरे जाने पहचाने से लग रहे थे। रामाल्लाह की तंग गलियों में घूमते हुए कई बार उनका सामना हुआ था। उन्हें यहां देखकर मुझे सख्त अफसोस हो रहा था। अचानक मैंने देखा कि एक यहूदी खातून फौजी चचा अबू उस्मान के पास पहुंची और उनकी दाढ़ी से खेलते हुए ठट्ठा मारकर हंसने लगी, मैं एक अजीब किस्म के नाकाबिल बयान एहसास की गिरफ्त में था...

चचा अबू उस्मान मेरे सगे चचा नहीं थे, वो रामाल्लाह के खतना करने वाले नाई थे। बहुत मिलनसार और खुशमिजाज़। जब से होश संभाला था लोगों के दिलों में उनके लिए प्यार ही प्यार पाया था, हम सब एहतरामन उन्हें चचा कह कर पुकारते थे। वो अपनी आखिरी बेटी फातिमा को खुद से भींचे हुए खड़े थे, नन्ही मुन्नी फातिमा अपनी मासूम निगाहों से उस यहूदी औरत फौजी को देखे जा रही थी।

''तेरी बेटी है?’’

चचा अबू उस्मान ने इंतहाइ रंज के साथ अपना सिर हिलाया, उनकी आँखों में आने वाली साख्त की झलक थी। यहूदी औरत फौजी ने बड़ी आसानी से अपनी छोटी सी गन उठाई और फातिमा के सिर का निशाना लगा लिया। बेचारी नन्ही मुन्नी फातिमा जिसकी काली आँखों में हमेशा हैरत के साए लहराते रहते थे। ठीक उसी लम्हे, एक यहूदी फौजी गश्त करते करते ठीक मेरे सामने पहुंच गया, ये मंज़र देखकर वो भी खड़ा तमाशा देखने लगा, जिसकी वजह से मामला मेरी आँखों से औझल हो गया, लेकिन मैंने एक के बाद एक तीन गोलियों के चलने की आवाज़ सुनी। कुछ देर बाद चचा अबू उस्मान दिखाई दिए, उनके चेहरे से दर्द व हसरत का दरिया उबल रहा था। नन्ही मुन्नी फातिमा पर नज़र पड़ी, उसका सिर आगे की तरफ ढलका हुआ था। उसके सिर से खून के फव्वारे उबल उबल कर ज़मीन की प्यास बुझा रहे थें।

कुछ ही लम्हों के बाद, चचा अबू उस्मान मेरे पास से होकर गुज़रे, उनके बूढ़े हाथों में नन्ही फातिमा की लाश थी, वो जमी हुई खामोश के साथ बिल्कुल सामने की तरफ देख रहे थे, मेरे पास से होकर गुज़रे लेकिन मेरी तरफ देखा तक नहीं, झुकी हुई कमर के साथ वो चलते रहे यहां तक कि पहले मोड़ पर पहुंच कर नज़रों से ओझल हो गए। मेरी नज़र दोबारा उनकी बीवी पर पड़ी, वो ज़मीन पर बैठी अपना सिर दोनों हाथों में लिए हुए दर्द भरी आवाज़ में रो रही थी। एक यहूदी फौजी उनके पास पहुंचा और उन्होंने इशारे से खड़ा होने के लिए कहा... लेकिन बूढ़ी चची नहीं खड़ी हुई, वो हद दर्जा मायूस हो चुकी थी।

इस बार मैंने बड़े साफ अंदाज़ में सब कुछ देखा, फौजी ने अपने पाँव से उन्हें बड़ी ज़ोरदार ठोकर मारी, बूढ़ी चची अपनी पीठ के बल गिर गई, उनके चेहरे से खऊन उबल रहा था, फिर उसने बंदूक की नाल उनके सीने पर रखकर टीगर दबा दिया...

अगले लम्हे वही फौजी मेरी तरफ आया, मुझे पता ही नहीं चला कब मैंने अपना पैर ज़मीन पर रख दिया था, फौजी ने सपाट लहजे में मुझे पैर उठाने को कहा, मैंने हड़बड़ा कर अपना पैर ऊपर उठा लिया, जाते जाते फौजी ने मुझे दो ज़ोरदार थप्पड़ रसीद कर दिए, मेरे मुँह से खून निकलकर उसके हाथ पर लग गया। जिसे उसने मेरी शर्ट में पोंछा।

मुझे सख्त तकलीफ हुई। लेकिन मेरी नज़र मेरी माँ पर पड़ी, वहां औरतों के बीच वो अपना हाथ ऊपर उठाए हुए खामोशी से रो रही थी, लेकिन उस लम्हे वो रोते रोते हँस पड़ी, मेरा एक पाँव मेरे जिस्म के बोझ तले लरज़ रहा था, मारे दर्द के मेरी रान फटी जा रही थी, लेकिन मैं भी हँस पड़ा, ऐ काश, मैं दौड़कर अपनी माँ के पास जा पाता, मैं उसे कहता, माँ, मत रो। उन दो थप्पड़ों से मुझे कुछ ज्यादा दर्द नहीं हुआ है! माँ, मैं बिल्कुल ठीक हूँ। माँ मत रोओ ना। देखो, चचा अबू उस्मान ने अभी कैसे किया है, तुम भी वैसा ही करो ना।

सोचो की ये दौड़ जल्द ही टूट गई, चचा अबू उस्मान फातिमा को दफन करने के बाद मेरे सामने से गुजर रहे थे, अब की बार भी जब वो मेरे बिल्कुल नजदीक से गुजरे, मेरी तरफ देखा तक नहीं। मुझे याद आया कि उन लोगों ने उनकी बीवी को भी मार डाला है, एक नई घटना उनके इंतज़ार में थी। मैंने डरते हुए नम निगाहों से उनकी तरफ देखा, वो अपनी जगह पहुंचकर कुछ देर खड़े रहे, पसीने से तर उनकी पीठ मेरी तरफ थी, लेकिन गोया मैं उनके चहरे को देख रहा था। पसीने से तर, दर्द और तकलीफ से सख्त, चचा अबू उस्मान अपनी बीवी की लाश उठाने के लिए झुके, मैंने उनकी बीवी को कई बार उनकी दुकान के सामने देखा था, वो दोपहर के वक्त अपने शोहर के लिए खाना लाया करती थी और जब वो खाने से फारिग हो जाते तो बर्तन ले कर घर चली जाया करती थी। चचा अबू उस्मान तीसरी बार मेरी पास से होकर गुजरे, वो ज़ोर ज़ोर से हांप रहे थें और उनका चेहरा पूरी तरह नम था। उन बार भी उन्होंने मेरी तरफ नहीं देखा, मैं पसीने से तरबतर झुकी हुई कमर के साथ उन्हें दोनों किनारों के बीच आहिस्ता आहिस्ता चलता हुआ देख रहा था।

          लोगों ने रोना बंद कर दिया।

          औरतों और बूढ़ों पर सन्नाटा तारी था...

ऐसा लग रहा था कि चचा अबू उस्मान की यादें लोगों को डस रही थी। छोटी छोटी यादें जो चचा अबू उस्मान के सामने बेठकर बाल कटवाने वाले रामाल्लाह के हर आदमी के साथ जुड़ी हुई थी... उन छोटी छोटी यादों की वजह से लोगों के दिलों में उनके लिए एक खास जगह बन चुकी थी। यही यादें अब उनको डस रही थी।

चचा अबू उस्मान खुशमिजाज़ तबियत के मालिक एक हर दिल अजीज़ इंसान थे, खुद्दारी उनमें कूट कूट कर भरी हुई थी, जब इंकलाब जबलउन्नार की वजह से उन्हें रामाल्लाह आना पड़ा उस वक्त उनके पास कुछ नहीं बचा था। किसी पाक सरज़मीं व हरे पौधे की तरह उन्होंने रामाल्लाह की पाक सरज़मीं में अपनी ज़िंदगी नए सिरे से शुरु की। जल्दी ही अपने अखलाक की बिना पर उन्होंने लोगों का दिल जीत लिया। जब फिलस्तीन की आखिरी जंग शुरु हुई, तो वो अपना सब कुछ बेचकर हथियार खरीद लाए, वो उन हथियारों को अपने करीबी लोगों में बांट देते ताकि वो लड़ाई में हिस्सा ले सकें, उनकी दुकान असलहाखाना में तब्दील हो चुकी थी। उन सब कुर्बानियों का उन्हें कोई सिला नहीं चाहिए था, बस वो रामाल्लाह के दरख्तों से भरे खूबसूरत कब्रिस्तान में दफन होना चाहते थे, बस वो लोगों से यही चाहते थे... रामाल्लाह के सब लोग जानते थे कि चचा अबू उस्मान मरने पर रामाल्लाह के कब्रिस्तान में दफन होना चाहते हैं।

इन छोटी छोटी चीजों ने लोगों की ज़बाने गूंगी कर दी थी, उनके भीगे हुए चेहरे उन यादों के बोझ तले कराह रहे थे... मैंने अपनी माँ के तरफ देखा, वो वहां हाथ उठाए सीधे खड़ी चचा अबू उस्मान को देख रही थी... ऐसे खामोश थी जैसे गोलियों की ढेर हो। मैंने अपनी नज़र दौड़ाई, चचा अबू उस्मान एक यहूदी फौजी से बात करते हुए अपनी दुकान की तरफ इशारा कर रहे थे, फिर वो अकेले अपनी दुकान में गए और सफेद रुमाल लेकर वापस आ गए, उन्होंने उस सफेद रुमाल से अपनी बीवी की लाश ढांपी और कब्रिस्तान की तरफ चल पड़े।

थोड़ी देर बाद, वो दूर से आते हुए दिखाई दिए, थके थके कदम, झुकी हुई कमर, ढलके हुए हाथों के सहारे, आहिस्ता आहिस्ता चलते हुए मेरे करीब आ रहे थे, उम्र से ज्यादा बूढ़े लगे रहे थे, चेहरा धूल से सना हुआ था, चलते हुए कराह रहे थे, उनकी सदरी पर जगह जगह खून से भीगी मिट्टी लगी हुई थी...

इस बार मेरी तरफ नज़र डाली गोया मुझे पहली बार देख रहे हो, जुलाई की झुलसा देने वाली धूप में बीच सड़क में खड़ा एक बच्चा, धूल से सना चेहरा, पसीने में तरबतर वजूद, फटे हुए होंठों से खून निकल कर जम चुका था, उन्होंने कराहते हुए बड़े ध्यान से मेरी तरफ देखा, उनकी आँखों में बहुत से अर्थ छिपे हुए थे जिन्हें मैं समझ तो नहीं पाया लेकिन पूरी तरह महसूस किया। चचा अबू उस्मान आहिस्ता-आहिस्ता चलते हुए धूल भरी हालत में कराहते हुए अपनी जगह पर लौट गए, वहां पहुंच कर वो रुके, अपना रुख सड़क की तरफ किया और अफने हाथों को खड़ा कर दिया।

लोग चचा अबू उस्मान को ख्वाहिश के मुताबिक दफन न कर सके। हुआ यूं कि जब उनको राज़ उगलवाने के लिए यहूदी फौजी हेडक्वार्टर ले जाया गया, उस वक्त लोगों ने ज़ोरदार धमाके की आवाज़ सुनी, पूरा हेडक्वार्टर तबाह हो गया और इमारत के मलबे में चचा अबू उस्मान के जिस्म के चिथड़े खो गए।

हम पहाड़ के रास्ते अरदन जा रहे थें। लोगों ने मेरी माँ को बताया कि जब चचा अबू उस्मान अपनी बीवी को दफन करने से पहले अपनी दुकान में गए थे उस वक्त वो सिर्फ सफेद रुमाल लेकर नहीं लौटे थे।

 

                                                                  लेखक- गुसान अलफानी (फलस्तीन)

 

8 अप्रैल 1936 में अविभाजित फलस्तीन के एक सुन्नी परिवार में गुसान अलफानी का जन्म हुआ था। उनके पिता एक राष्ट्रीय स्तर के वकील थे। उनकी शुरुआती शिक्षा एक मिशनरी में हुई। बाद में द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान फलस्तीन का विभाजन और यहूदी राष्ट्र इजराइल के उत्थान के कारण इन्हें अपनी ज़िंदगी बेरुत, लेबनान और कतर जैसे देशों में शरणार्थी के रूप में गुजारी।

अलफानी लिबरेशन ऑफ फिलस्तीन मोर्चे के अग्रणी नेता थे और अपनी जीवन की दूसरी इकाई में ही वह एक कथाकार के रूप में नाम कमा चुके थें। उन्होंने शुरुआत में कहानियां लिखी। जिन्हें कतर और लेबनान की साहित्यिक संस्थाओं द्वारा सम्मानित भी किया गया। बाद में उन्होंने देश-बदर फिलस्तीनी युवाओं के शरणार्थी शिविरों में गुज़रती ज़िंदगी को आधार बनाकर 'मेन इन द सन’ (1962), 'मा ताबाक्काह लकम’, 'उम्मे सादऔर 'रिटर्न टू हाइफा’ (1970) जैसे चर्चित उपन्यास और कहानियों की रचना की।

8 जुलाई 1972को 'लॉर्ड हवाई अड्डे नरसंहारके जवाब में इजराइली खुफिया एजेंसी मोसाद ने इनकी हत्या कर दी थी।

 

 

 

 

 

शहादत सुप्रसिद्ध रेख्ता वेबसाइट से सम्बद्ध है।

संपर्क - मो. 07065710780, नोएडा

 


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