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जुलाई 2018

कविताएं - अशोक शाह

अशोक शाह

कविता

 

 

 

चार इमली का पिल्ला

 

वह पिल्ला चार इमली को जाने वाली

सड़क के बीचों बीच लेटा था

जोड़ रहा था धरती को आकाश से

भोपाल में

 

यही कोई दोपहर के बजे होंगे साढ़े तीन

वह पड़ा था एकदम निश्चिंत

सुलभ काम्प्लेक्स के ठीक बगल में

वह जानता था बच्चे अब रोड पर नहीं हगते

न रात में छिपकर कोई सयाना ही

 

पर उसे नहीं मालूम था

जहाँ वह लेटा था यहाँ से बहुत दूर

गाँव में थे चने के खेत

और बैगनी रंग के निकल रहे थे फूल

उनकी फुनगियों को कोई तोड़ रहा था

शाम को भाजी बनाने के लिए

उसे भात के साथ नहीं मिलेगी भाजी

वह तो शहर में लेटा था

जहाँ आसमान नीला नहीं मटमैला था

 

उसके चारों तरफ खड़ी हवा

सुस्ता रही थी

बुढ़ापे में कहां होती बहने की क्षमता

 

उसे नहीं पता था

आदमी कार से, बाइक से घर से दफ्तर

आ जा रहा था

आदमी अब सिर्फ कमाता है

कुछ दिनों तक ज़िन्दा रहने के लिए

 

उनमें से कोई भी उसे कुचल सकता था

उसकी आँते किसी क्षण भी सड़क पर बिखर रही होगी

पता नहीं नगर निगम वाले आयेंगे या नहीं

कचरे की गाड़ी में उठाने

या कुछ दिनों तक पड़े पड़े बन जाएगा

चमचमाती काली सड़क का हिस्सा

कारों के पहिये सोख लेंगे सड़ती उसकी

लाश की दुर्गन्ध भी

 

फिर भी वह बेफिक्र लेटा था

और इस देश के कानून में

नहीं लिखी थी कोई धारा जिसके तहत

उसकी मौत को घोषित किया जा सके

कोई अपराध या

उन पिल्लों को दिया जा सके मुआवजा

जो चार इमली की सड़क पर लेटे नहीं थे

 

बाकी है मदूरी

 

चिडिय़ों को दाना चुगाने वाला

जरूरी नहीं कि पक्षीप्रेमी हो

सेवा करने के लिए

बहुत कम पाली जाती हैं बकरियाँ

पदासीन तुम्हारा कर्ता-धर्ता, सरकार

तुम्हारे हित के लिए नहीं हो सकते

 

ठीक से पहचानो अपने बीच का आदमी

उसके मस्तिष्क में उठ रही तरंगों को पढ़ो

उसके शब्दों को एक बार ध्यान से सुनो

उसकी योजना में सेन्ध लगाकर देखो

मगरमच्छ के पीठ पर नहीं की जा सकती सवारी

 

वह अपने से भी नहीं करता प्यार

लेकिन पूरी जिन्दगी तुम्हारे लिए करता जीने का वादा

ध्यान से देखो तुम्हारे बीच पहुँच चुका

तुम्हारे तन-मन में उग रहा दीमक की तरह

हाँ, तुम्हें ही खाकर बन चुका है तुम्हारा हिस्सा

तुम्हें विश्वास नहीं, इलाज करना होगा अपने ख्मों का

न सपने बुनो न माँगो कभी मदद उससे

तुम्हें किसी एहसान की जरूरत नहीं

एक बार तो पहचानो अपनी ताकत

तुम्हारे कन्धों पर टिके हैं उसके सिंहासन के पाए

 

युगों युगान्तर से मिला कहाँ

तुम्हारे श्रम का उचित पारिश्रमिक

दुनिया में जहां कहीं भी सम्पत्ति का जो ढेर है

वह तुम्हारी हड़पी गयी मदूरी का गल्ला है

और उसके उपभोग के लिए लिखे गये

धर्मशास्त्र, अर्थशास्त्र, समाजशास्त्र, विधिशास्त्र

सत्ता दर सत्ता तुम रखे गये मदूरों से मरहूम

ताजमहल, संसद भवन, तिरुपति, एफेल टावर

आज भी है तुम्हारे कर्दार

कन्नी और गारे के बीच अभी तक

छटपटा रही है आधी मजदूरी जो कभी दी नहीं गयी

अन्यथा पच्चास हजार साल बाद भी

इस धरती पर कैसे रह गये तुम गरीब

कैसे कोई हो सकता है तुम पर मेहरबान

यदि तुम्हारी आधी मजदूरी गिरवी न हो उसके पास

 

किसी भी महान धर्म की छत्रछाया में रहते

तुम कैसे हो सकते थे दलित, पिछड़ा या आदिवासी

बस सिर्फ इसलिए कि दी जा न सके सही मजदूरी

तुम्हारी $गरीबी का सबूत है

हर वही भ्रष्ट सरकार जो चलती

आयी है धरती पर पीढ़ी दर पीढ़ी

 

मत सुनना किसी का उपदेश या लेना एहसास

ईश्वर भी यदि आ जाए देने वरदान

मत कहना, जाना है भवसागर पार

बस माँगना अपनी पूरी वाजिब मदूरी

तब देखना तुम, नहीं रहेगा कहीं अँधेरा

धरती के घूमने की बदल जाएगी दिशा

हर नदी में होगा पानी हर वृक्ष फलाच्छादित

और सूरज कभी भी देर से नहीं समय पर निकलेगा

रश्मियों-सा हाथों में लिए ऊर्जा का प्रसाद

 

 

 

सीवान (बिहार) में जन्म। 1990 से भारतीय प्रशासनिक सेवा में। कानपुर और दिल्ली आईआईटी से पढ़ाई की। अब तक 6 कविता संग्रह प्रकाशित। पुरातत्व में विशेष रुचि। मो. 9425016311

 


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