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जुलाई 2018

कपिला वात्स्यायन से बातचीत

शैलेन्द्र शैल

बातचीत

 

 

'हम कोई मसीहा नहीं हैं

 

 

डॉ. कपिला वात्स्यायन सुविख्यात शिक्षाविद्, भारतीय संस्कृति, शास्त्रीय संगीत और नृत्य की समीक्षक, इतिहासकार, पारखी और संरक्षिका हैं। वे असाधारण व्यक्तित्व की स्वामी और बहुआयामी प्रतिभा की धनी हैं। ऐसा लिखना शायद रवायती ही होगा, पर यह आवश्यक है। उन्होंने कई पुस्तकें लिखी हैं पर इसमें से 'The square and the circle of the Indian Artsभारतीय कला पर सर्वोत्कृष्ट रचना है। वे इंडिया इंटरनेशनल सेंटर की आजीवन न्यासी हैं और संप्रति 'आई.आई.सी. - एशिया प्रोजेक्टकी अध्यक्षा हैं। वे अपने आपमें एक संस्था हैं। वे राज्यसभा की मनोनीत सदस्या भी रह चुकी हैं। मैंने उन्हें कई आयोजनों में आधिकारिक रूप से विभिन्न विषयों पर व्याख्यान देते हुए सुना है। पर मेरी उनसे औपचारिक भेंट वर्ष 1998 में इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कलाकेन्द्र में हुई जब वे वहां की निर्देशिका थीं और हम एक $गैरसरकारी संस्था 'संजीवनीके लिए संरक्षक खोज रहे थे। डॉ. कर्णसिंह के सुझाव पर हम उनसे मिलने गए। उन्होंने हमारी संस्था की संरक्षिका बनना स्वीकार कर लिया। कई वर्ष बीत गए। उनसे कई बार मिलना हुआ पर कभी लम्बी बातचीत नहीं हुई। मई 2017 में भारतीय कला और संस्कृति को समर्पित एक अन्य और गैर-सरकारी संस्था 'स्पिकमैके’ (सोसायटी फॉर प्रोमोशन ऑफ इंडियन क्लासिकल म्यूजिक एंड कलच्र अमंग्स्ट यूथ) ने चालीस वर्षों की यात्रा पूरी की। मैं इससे लगभग बीस वर्षों से जुड़ा हूँ। कपिला जी इस संस्था की प्रबल समर्थक और संरक्षिका रही हैं।

- कपिला जी, आपका बहुत धन्यवाद कि आपने इस साक्षात्कार के लिए स्वीकृति दी। मैं लगभग बीस वर्षों से स्पिकमैके का केन्द्रीय सलाहकार हूँ। कला और संगीत के साथ साथ साहित्य में भी मेरी रुचि है।

- हां मुझे पता है। निर्मला ने तुम्हारे बारे में पता लगा लिया था! तुम संजीवनी के निदेशक भी रह चुके हो।

- जी, पर मैं थोड़ा का नर्वस हूँ।

- अरे इसमें नर्वस होने की क्या बात है! पूछो क्या पूछना है।

- आपके बारे में और अधिक जानने की इच्छा है। हम आपके बचपन से ही आरंभ करते हैं। आपको बचपन से ही कला और संस्कृति के संस्कार प्राप्त हुए! ऐसा कैसे संभव हुआ?

- मेरे पिता रामलाल मलिक और माता सत्यवती मलिक दोनों ही कला और संस्कृति प्रेमी थे। घर का वातावरण ऐसा था कि अक्सर इन दोनों विषयों पर बातचीत होती रहती। मेहमानों से भी इन्हीं विषयों पर बात होती। यह स्वाभाविक था कि मैं भी इस सबसे प्रभावित होती। मेरे संस्कार ऐसे वातावरण में विकसित हुए।

- और फिर आपने दिल्ली विश्वविद्यालय से अंग्रेजीमें एम.ए. किया। पी.एचडी बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय से और मिशिगन से एम.एड. किया।

- तुम तो मेरे बारे में बहुत कुछ जानते हो।

- जी। स्वाधीनता के समय भारत में कला और संस्कृति के प्रचार प्रसार के लिए क्या किया जा रहा था?

- स्वाधीनता के पहले कलाकारों को राजघरानों का प्रश्रय प्राप्त था। ग्वालियर, जयपुर, लखनऊ, बनारस, रामपुर, पटियाला आदि रियासतें कलाकारों को संरक्षण देती थीं। स्वाधीनता के बाद इनका भारतीय संघ में विलय हो गया। संरक्षण लगभग समाप्त हो गया। सरकार के संस्कृति मंत्रालय में ब्यूरोक्रेट भरे पड़े थे। उन्हें संस्कृति और कलाओं की न तो समझ थी और न ही इनमें उनकी कोई रुचि थी।

- तब आपको शिक्षा सचिव का पदभार सौंपा गया।

- हाँ, मौलाना अब्दुल कलाम आज़ाद शिक्षा और संस्कृति मंत्री थे। वे एक आला दर्जे के इन्सान और देशभक्त थे। उनकी साहित्य और कलाओं में रुचि थी। पर वे हार्ड टास्क मास्टर थे। उनसे मैंने बहुत कुछ सीखा। एक मीटिंग के बाद मुझे उसके मिनट्स बनाने थे। एक घंटे बाद ही उनका फोन आया- 'मिनट्स लिख लिए क्या?’ मैंने कहा - लिख लिए हैं, बस टाइप हो रहे हैं। आधे घंटे बाद फिर फोन आया - 'टाइप हो गए हों तो ले आओ। मैंने सचिव रहते हुए कई नए इनिशिएटिव लिए। शिक्षा के नए केन्द्र खोले। साहित्य अकादमी, संजीव नाटक अकादमी और ललित कला अकादमी का गठन किया गया। तत्कालीन प्रधानमंत्री पं. नेहरू एक स्वप्नदर्शी थे। उन्हीं के प्रयासों से इन संस्थाओं की स्थापना हो पाई। उन्होंने स्वयं साहित्य अकादमी के प्रथम अध्यक्ष पद का भार संभाला।

- ये सभी संस्थाएं सरकारी कोष से धनराशि पाती हैं। इनकी सैद्धान्तिक और वैचारिक स्वायत्तता को लेकर समय-समय पर प्रश्न चिन्ह लगते रहे हैं।

- हां, यह सही हैं पर सरकार इनके दिन प्रतिदिन के काम में दखल नहीं देती - जहां तक मुझे पता है। सरकार में कौन है कहने वाला। किस भाषा या कलाकार को बढ़ावा देना है, किसको नहीं, ऐसा कुछ नहीं है।

- आप इतनी सांस्कृतिक संस्थाओं और कलाविधाओं से जुड़ी हैं। आपने नेहरु स्मारक संग्रहालय और पुस्तकालय की स्थापना में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है।

- हां, पं. नेहरू के निधन के बाद इंदिरा जी ने मुझे बुलाया और कहा - 'मैं चाहती हूं तीन मूर्ति भवन में पंडित जी की स्मृति में एक ऐसे स्मारक की स्थापना की जाये जो अभूतपूर्व हो।तब एक उन्नत विश्वस्तरीय अध्ययन संस्था के रूप में इसकी परिकल्पना की गई जो आधुनिक और समकालीन साहित्य के क्षेत्र में शैक्षिक अनुसन्धान को बढ़ावा दे। इसमें पंडित जी की सारी पुस्तकें, उनके चित्रों, उनसे जुड़े या उन्हें मिले स्मृति चिन्हों, ऐतिहासिक दस्तावेज़ों और राष्ट्रवादी नेताओं के का$गज़ों को अर्जित और संरक्षित किया गया है। यह भारत में साम्राज्यवाद विरोधी संघर्ष के पुर्ननिर्माण और संरक्षण के लिए समर्पित है। नाम रखा गया नेहरू संग्रहालय और पुस्तकालय!

- बाद में आपने इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केन्द्र की परिकल्पना और संस्थापना की।

- हां, इंदिरा जी की नृशंस हत्या के बाद राजीव जी ने मुझसे कहा - 'आपने नाना जी की स्मृति में नेहरू संग्रहालय और पुस्तकालय की स्थापना की। मैं चाहता हूं कि मम्मी के लिए भी आप वैसा  ही कुछ करें।उस समय इसके लिए न तो कोई ऐंकर था और न ही यह पता था कि यह किस मंत्रालय के आधीन होगी, धनराशि कहां से आएगी। अब प्रश्न यह उठा कि इसकी स्थापना कहां की जाए। जनपथ पर राष्ट्रीय अभिलेखागार के सामने भारतीय वायुसेना की आफिसर्स मेस थी। उसके लिए वेलजल्वी रोड पर जगह दे दी गई। मैंने इसकी परिकल्पना एक ऐसी संस्था के रुप में की जो संस्कृति और कलाओं के प्रचार प्रसार को समर्पित हो। हमने पंच तत्वों- पृथ्वी, आकाश, अग्नि, जल और वायु को प्रतीक रुप में लिया। पांच प्रदेशों से लाकर पांच शिलाएं स्थापित की गई। देश की पांच प्रमुख सदानीरा नदियों - सिन्धु, गंगा, कावेरी, महानदी और नर्मदा से जल मंगवाया गया। हम एक पेड़ की परिकल्पना कर रहे थे जिसकी जड़ें पृथ्वी में मज़बूती से जमी हों और जो आकाश तक पहुँचे - एक अश्वत्य वृक्ष। इस केन्द्र को हम भारतीय संस्कृति की प्राचीनता तथा नदियों और शिलाओं की पवित्रता के रुप में देखते हैं जो भारतीय कलाओं - विशेष रूप से लिखित, मौखिक एवं दृश्य - कलाओं की सम्पदा का स्रोत केन्द्र हो। साथ-ही कलाओं और साहित्य, भाषा, इतिहास, दर्शन आदि विषयों के क्षेत्र में शोधकार्य हो, शब्द कोषों, संदर्भ ग्रंथों और विश्वकोषों को प्रकाशित किया जाए।

- क्या इसके अतिरिक्त अन्य क्षेत्रों में भी कार्य हो रहा है?

- हां, जनजातीय और लोक संस्कृति का विभाग है जो इनको बढ़ावा देता है। यह एक प्रकार से संवाद-मंच है जहां प्रदर्शनों और बहु-माध्यमों द्वारा संस्कृति का संरक्षण और संवर्धन किया जाता है। हमने विश्व के विभिन्न पुस्तकालयों से महत्वपूर्ण सामग्री और दुर्लभ पांडुलिपियां एकत्रित की हैं। पांडुलिपियों का संरक्षण और स्रद्बद्दद्बह्लड्डद्यद्बह्यड्डह्लद्बशठ्ठ भी किया जा रहा है ताकि कालान्तर में वे नष्ट या विलुप्त न हो जाएं।

- आप अनेक सांस्कृतिक संस्थाओं और कला-विधाओं से जुड़ी हुई हैं। आज तक की सांस्कृतिक यात्रा कैसी लगी है?

- मैं नहीं जानती। मेरे पास इस प्रश्न का उत्तर नहीं है। मैं अपनी यात्रा को अतीत के संदर्भमें बयान नहीं कर सकती। यात्रा तो निरन्तर जारी है।

- आज हमारे आसपास तनाव, संघर्ष और असहिष्णुता व्याप्त हैं। आप के विचार में क्या शास्त्रीय कलाएं इनको कुछ कम करने में सहायक हो सकती हैं?

- इस शास्त्रीय कलाएं कोई बौद्धिक शोध ग्रन्थ नहीं हैं- हो भी नहीं सकतीं। आज स्वत्व या अपनी अपनी पहचान का संघर्ष है। कलाएं लोगों की आहत भावनाओं को, इस संघर्ष को कुछ सीमा तक कम करने में सहायक सिद्ध हो सकती हैं - मरहम का काम कर सकती हैं। कला-प्रदर्शनों द्वारा संकट की घड़ी में मानवीय संप्रेषण के अन्य तरीके अपनाएं जा सकते हैं। इसके माध्यम से पारस्परिक संबंधों को बेहतर बनाया जा सकता है। ये हमें एक दूसरे से जोड़ती हैं, तोड़ती नहीं। मैं यह नहीं कर रही कि लेखक इसमें अपना योगदान नहीं दे रहे। कई प्रकार के आंदोलन या चित्रकार एक साथ चल रहे हैं। इसमें बहुत अन्तर पड़ता है। हम इसके बारे में एक बयान नहीं दे सकते। हम कोई मसीहा नहीं हैं।

- बदलते सामाजिक-आर्थिक परिवेश में जहां गंभीर चिन्तन या बहस के लिए कोई स्पेस नहीं बचा है, क्या शासकीय कला-विधाएं बची रह पाएंगी। क्या उनका अस्तित्व बचा रह पाएगा?

- यह एक साथ ही बहुत आसन और बहुत कठिन प्रश्न है। कला-विधाएं न केवल इतने वर्षों से जीवित हैं, उन्होंने बहुत महत्वपूर्ण योगदान दिया है। कभी सामाजिक-आर्थिक परिस्थितियां बहुत अनुकूल होती हैं और कभी नहीं। पर कलाकार की आवाज़ सदा परिवर्तन की वाहक रही है। पहले सभी कलाकारों को संरक्षण प्राप्त नहीं था। उनमें से बहुतेरे दरिद्रता का जीवन जीते रहे। आज कलाएं कठिन और भिन्न परिस्थिति में हैं। पर उनका प्रसार हो रहा है। भविष्य में क्या होगा, हम नहीं कर सकते। हमारे समय में हम नृत्य और संगीत की बात भी नहीं कर सकते थे - कालेज में या संभ्रान्त घरों में। पर आज यह बदल गया है। आज तकनीकी विधियां भी जुड़ गई हैं। कलाओं को जीवित रहने के लिए अन्य विषयों के साथ तालमेल बिठाना पड़ेगा। उनमें अन्र्तसंबंध आवश्यक है। स्पिकमैके जैस संस्थाओं के प्रयासों से कला-विधाओं का प्रचार-प्रसार बढ़ा है।

- कुछ कला विधाएं - जैसे कूडिय़ट्टम और रुद्रवीणा आज विलुप्तप्राय हैं। आज इन विधाओं के प्रणेता न के बराबर है, उन्हें उंगलियों पर गिना जा सकता है। हमसे कहां गलती हुई। इन्हें पुनर्जीवित करने के लिए हमें क्या करना चाहिए?

- बीस-पच्चीस वर्ष पहले किसी को भी कूडिय़ाट्टम का सही उच्चारण तक नहीं पता था। जब मैं केरल गई तो आरंभ में मुझे गुरु अम्मानूर माधव चक्यार से मिलने तक नहीं दिया गया। बहुत कठिनाई से मैं उन्हें दिल्ली ला पाई और संगीत नाटक अकादमी द्वारा आयोजित एक कार्यक्रम में उनका प्रदर्शन हुआ। शायद मुझे इसके बारे में कभी लिखना चाहिए। बाद में स्पिकमैके के संस्थापक किरण सेठ उन्हें शैक्षिणक संस्थाओं में लेकर आए।

- कूडियट्टम को यूनेस्को ने मानवता की मौखिक और अपूर्व परम्परा की अमूल्य निधि के रूप में मान्यता दी है।

- हां, यह सब होता रहता है। यह एक बहुत ही विशिष्ट कला-विधा है। इसके अधिक प्रणेता न तो हो सकते हैं और न ही होने चाहिए। तब यह अपनी विशेषता खौ बैठेगी। रुद्र वीणा और कूडिय़ट्टम का मामला एक जैसा नहीं है। अपने स्वभाव और प्रकृति के कारण कुछ वाद्य यंत्र धीरे धीरे विलुप्त हो जाते हैं और नए जन्म लेते हैं। यह बहुत दुखद स्थिति है कि आज इसे बजाने वाले बहुत कम कलाकार रह गए हैं।

- परम्परा और आधुनिकता के बारे में आपके विचार?

- भारतीय परम्परा में एक सातन्य है और उसका आधुनिकता से कोई विरोध नहीं है। दोनों का अपना अपना महत्व है। दोनों किसी भी देशकाल के लिए आवश्यक हैं। ये हमारे जीवन में रची-बसी रहती हैं।

- बहुत कम लोगों को पता है कि आपने पंडित अच्छन महाराज से बाकायदा कथक की शिक्षा प्राप्त की है। कभी सार्वजनिक प्रदर्शन भी किया है?

- जैसा कि मैंने पहले कहा, हमारे समय में लड़कियों का नृत्य आदि सीखना अच्छा नहीं समझा जाता था। पर मेरे माता-पिता ने मुझे इसे सीखने की अनुमति दी और प्रोत्साहित किया। मैंने कई वर्षों तक गुरु पं. अच्छन महाराज से कथक की शिक्षा पाई। (मैंने नोटिस किया उन्होंने गुरु का नाम लेते हुए अपने कानों को हाथ नहीं लगाया) पर हमारा परिवार उदार विचारों का होते हुए भी यह नहीं चाहता था कि परिवार के अन्य सदस्यों या संबंधियों को इस बात का पता चले। धीरे धीरे मेरा रियाज़ छूट गया। फिर मैं नृत्य और संगीत की अध्येता बन गई।

- कपिला जी एक प्रश्न पूछूं आप बुरा तो न मानेंगी। विकीमीडिया में आपके बारे में लिखा गया है कि आप भारतीय कला और संस्कृति की ज़ारीना हैं...

- (बीच में ही काटते हुए).... हम किसी का हाथ या कलम तो नहीं पकड़ सकते। ज़ार-ज़ारीना का ज़माना कब का लद गया। मैंने अपने आपको एक कला साधक और अध्येता समझा है। लोग सदा अतिशयोक्ति में बात करते हैं। यह भी उनमें से एक है।

- अब एक व्यक्तिगत प्रश्न। आपके बड़े भाई केशव मलिक अंग्रेज़ी के उच्चकोटि के कवि थे। क्या आपने भी कभी कविता लिखी है। शायद अपनी युवावस्था में - कालेज के दिनों में ...!

- (हंसते हुए) परिवार में पहले ही बहुत कवि थे। मैं उस फेहरिस्त को और लम्बा नहीं करना चाहती थी।

- शायद आप कुछ छिपा रही हैं...

- नहीं, ऐसा नहीं है, यही सच है।

- अंत में युवाओं के लिए कोई संदेश?

- मैं कोई संदेश देने में सक्षम नहीं हूं, मैं कोई नेता या मसीहा भी नहीं हूं। स्पिकमैके की यात्रा बहुत ही महत्वपूर्ण, रोचक और अन्य गैरसरकारी सांस्कृतिक संस्थाओं से भिन्न रही है। नए मार्ग तलाशते रहो। कलाएं सब ओर हैं और वे सीमित नहीं हैं। दृश्य, श्रव्य और प्रदर्शन कलाएं एक दूसरे के और निकट आ सकती हैं। मैंने इसमें अंतर्सबंध के बारे में पहले भी कहा है। इसमें आदान-प्रदान निरंतर चलते रहना चाहिए।

स्वातंत्र्योत्तर भारत में बड़े सांस्कृतिक संस्थानों का मूलाधार बनाने में कपिलाजी की बड़ी कल्पनाशील भूमिका रही है। ऐसा करते हुये वे स्वायत्त और तटस्थ रहीं और राजनैतिक चपेटों से मुक्त रहीं। इन्हीं संस्थानों पर अब दक्षिणपंथी मनचले और सत्तालोलुप संगठित हमला कर रहे हैं और उन्हें तबाह कर रहे हैं।

 

 

शैलेन्द्र शैल के संस्मरणों की एक दिलचस्प िकताब इसी वर्ष भारतीय ज्ञानपीठ से आई है।

संपर्क - मो. 09811078889

 


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