मुखपृष्ठ पिछले अंक साक्षात्कर साक्षात्कार - माज़िद मजीदी
जुलाई 2018

साक्षात्कार - माज़िद मजीदी

शांति स्वरुप त्रिपाठी/रवि बुले

साक्षात्कार/माज़िद मजीदी

 

 

 असली फिल्म वह है, जो

लोगों के दिल में बस जाए

 

समकालीन विश्व सिनेमा में माजिद मजीदी अव्वल, प्रासंगिक और सम्मानित फिल्मकारों में शुमार हैं। उनकी चिल्ड्रन ऑफ हेवन, द कलर ऑफ पैरेडाइज, बरान और द सांग ऑफ स्पैरोज जैसी फिल्में दुनिया भर के सिने-प्रेमियों के दिल में खास जगह रखती हैं। पिछले दिनों मजीदी ने भारत में फिल्म बनाई, बियॉन्ड द क्लाउड्स। हिंदी में। इसकी वजह थी, भारत से मजीदी का प्यार। भारतीय सिनेमा में यह एक ऐतिहासिक घटना है। बॉलीवुड के आंधी-तूफान के बीच सिनेमा के छात्र माजिद की इस फिल्म से गुरु-गंभीरता ठहराव के साथ अपनी मिट्टी की कहानी कहने का अंदाज सीख सकते हैं। फिल्म देखते हुए मजीदी बॉलीवुड निर्देशकों से अधिक अपने लगते हैं। अपने सिनेमा को माजिद संवेदना, मानवता, रिश्तों और उम्मीदों से सजाते हैं। बियॉन्ड द क्लाउड्स के प्रमोशन के दौरान मुंबई में निर्माता कंपनी नम: पिक्चर्स के दफ्तर में एक शाम माजिद मजीदी से वरिष्ठ फिल्म पत्रकार शांतिस्वरूप त्रिपाठी और रवि बुले ने लंबी बातचीत की। माजिद फारसी जुबान समझते-बोलते हैं। अंग्रेजी या हिंदी नहीं। ऐसे में साक्षात्कार के दौरान फारसी-हिंदी संवाद में पुल का काम किया दुभाषिये जवाद असकरी ने। यहां माजिद मजीदी ने अपने सिनेमा समेत बियॉन्ड द क्लाउड्स, हिंदी फिल्मों के कल्चर और ऑस्कर अवार्ड से लेकर विश्व सिनेमा में डिजिटल के खतरों पर आंखें खोलने वाली बातें कही...

 

* अपनी हर फिल्म में आप बच्चों की छोटी-छोटी खुशियों और रिश्तों को पिरोते हैं। बच्चों के साथ इस जुड़ाव की खास वजह?

- कुछ कारण हैं। मैं जब बच्चे से जवान हो रहा था, तब मेरी जिंदगी में जो हालात पेश आए, उन सबने मेरे अंदर प्रभाव डाला। यह मेरे कंधों पर बोझ है। सिनेमा बनाते हुए मुझे लगता है कि अपनी जिंदगी के उस हिस्से को दोबारा पलट कर बच्चों को कहानियों के रूप में लौटा दूं। बच्चों के अहसास दुनिया को दिखाऊं। जब स्कूल में पढ़ता था, बच्चा था तभी से मेरे अंदर थिएटर की कलाकारी जागी थी। यह शौक दिल में पैदा हुआ था। बचपन ने मेरे दिमाग में एक नक्श छोड़ा है... और अभी जब मैं यहां आपके साथ बैठा हूं तब भी वह मेरे साथ है। वह मुझे बार-बार पीछे लौटकर देखने पर मजबूर करता है कि बचपना यह होता है, मेरा बचपना यह था। बच्चों का हृदय बहुत स्वच्छ और निर्मल होता है। हम जो उनसे कहते हैं, वे बातें हमारे और उनके बीच रिश्ते का पुल बनाती हैं। मेरी कुछ फिल्मों में हीरो बड़े भी हैं लेकिन मैं स्पष्ट कर दूं कि फिल्म बच्चों पर हो या बड़ों पर, वह भावनापूर्ण होनी चाहिए। मैं फिल्मों में भावना ईजाद करता हूं।

* आज के बच्चे हाईटेक हैं। आप अपने बचपन से मापते हैं तो क्या लगता है कि उतनी मासूमियत रह गई है? बियांड द क्लाउड्स के अभी-अभी जवान हुए बच्चे ड्रग्स के कारोबार में हैं। पुलिस उनके पीछे है। यह कैसी हकीकत है?

- बियॉन्ड द क्लाउड्स जिन बच्चों की बात कर रही है, वह अब छोटे नहीं हैं। जवान हो चुके हैं। बच्चे जवान हो जाते हैं तो उनकी जरूरतें, उनकी फिक्रें बदल जाती हैं। ऐसे में वह कुछ भी कर सकते हैं। जब तक बच्चों में मासूमियत रहती है, तब तक वह ड्रग पैडलर जैसे कारनामों से कभी नहीं जुड़ते। मुझे लगता है कि भले मुजरिम हों, आरोपी हों, ड्रग पैडलर हों, लोग अपने अंदर खोए हुए बच्चे या बचपने की तलाश करते रहते हैं। मैंने फिल्म में यही दिखाया है कि जवान युवक जब अपने अंदर के बचपन को तलाशते हैं तो एक दिन उसे पा भी लेते हैं।

* गरीबी दुनिया में हर जगह है। ईरान में भी, हिंदुस्तान में भी। बियॉन्ड द क्लाउड्स का बड़ा हिस्सा आपने मुंबई की झोपड़ पट्टियों में शूट किया। ईरान के गरीब बच्चों तथा इन झुग्गियों के बच्चों में क्या फर्क पाते हैं?

- मेरे लिए इन झोपड़ पट्टियों में कुछ नयापन नहीं है। बियांड द क्लाउड्स के बच्चे जिस वातावरण से आते हैं, वैसा वातावरण हमारे ईरान में भी है। गरीब और गरीबी है। मुख्य बात सभ्यता और संस्कृति की है। ईरान और हिंदुस्तान में सिर्फ इंसानी शक्लें अलग-अलग हैं लेकिन अंदर की बनावट और अहसास अलग नहीं हैं। जीवनशैली में भी ज्यादा फर्क नहीं है। इसीलिए मैं हिंदुस्तान की तरफ खिंचा हुआ आया।

*  आपको हिंदुस्तान ने कब और यहां की किस बात ने सबसे ज्यादा प्रभावित किया?

- जैसे-जैसे मैं बचपन को पीछे छोड़ कर जवान होता गया, वैसे-वैसे हिंदुस्तान के बारे में जानने-समझने लगा। सत्यजीत रे की फिल्म 'पाथेर पांचालीदेखकर मैं हिंदुस्तान का दीवाना हो गया। मैं दावे से कह सकता हूं कि रे की फिल्में हिंदुस्तान का सही परिचय देती हैं। उनकी फिल्मों ने हिंदुस्तान को खुली किताब की तरह मेरे सामने रखा। सच कहूं तो रे की फिल्मों का ही मुझ पर प्रभाव है। उनकी फिल्मों की वजह से मैं हिंदुस्तान की तरफ आकर्षित हुआ। 'पाथेर पांचालीकम से कम 50 बार देखी। अभी भी मौका मिलता है देखता हूं। 'पाथेर पांचालीदेखने के बाद मैं हमेशा खुद से सवाल करता रहा हूं कि ऐसा बेहतरीन सिनेमा कहां चला गया? भारतीय फिल्मों में वह कहानी, वह कल्चर, जो हिंदुस्तान का हिस्सा है, वह कहां और क्यों गायब हो गया? यह बात मुझे बहुत दर्द और दु:ख पहुंचाती है कि भारतीय फिल्मों से भारतीय कहानियां ही गायब हैं। रे की फिल्मों से प्रभावित होने के बाद जब अंतरराष्ट्रीय फिल्मोत्सवों में मेरा यहां आना शुरू हुआ तो धीरे-धीरे भारत के नजदीक आया। यहां मुझे छुपी हुई अनगिनत कहानियों का खजाना नजर आया। दिल में हसरत जागी कि अवसर निकाल कर, भारत आकर यहां की मिट्टी में बसी कहानियों को मजीदी के अंदाज में अपने सिनेमा का हिस्सा बनाउंगा।

* जब आप फिल्म महोत्सवों में हिस्सा लेने भारत आते थे, तब भारतीय फिल्मकारों से मुलाकातें हुई होगी। क्या उनसे आपने अपने इस दर्द को बयां किया?

-जी हां! मैंने भारतीय फिल्मकारों से कई बार सवाल भी किया कि वह भारत में मौजूद कहानियों पर फिल्में क्यों नहीं बना रहे? इनसे जो जवाब मिला, उसका सार यह निकला कि यह बॉलीवुड है। यहां फिल्म बनाने में बहुत ज्यादा पैसा लगता है। निर्माता को पैसे वापस मिलने की चिंता होती है। इसी वजह से बॉलीवुड की हर फिल्म में मनोरंजन ही मनोरंजन होता है। मैंने तमाम फिल्मकारों से कहा और आज फिर हर भारतीय फिल्मकार से कहना चाहूंगा कि वह अपनी फिल्मों में चाहे जितना मनोरंजन परोसें, नाच-गाना परोसें लेकिन यह ना भूलें कि हर भारतीय के पास कहानियां हैं। उनके दिलों की फरियाद है। उनके दिलों की पुकार है। उसे नजरंदाज ना करें। उन्हें भी अपनी फिल्मों का हिस्सा बनाएं। भारत में बेहतरीन कलाकार मौजूद हैं। यहां बहुत कुछ ऐसा है, जिसे फिल्मों में दिखाया जाना चाहिए लेकिन भारतीय फिल्मकार इन तमाम अच्छी चीजों को ढंक कर बार-बार वही घिसा पिटा सिनेमा बनाते हैं। फिल्म में कहानी का ही अभाव होता है।

* फिल्म निर्माण में काफी धन लगता है और बॉलीवुड में पैसे की कमी नहीं है। ईरान में क्या स्थिति है? वहां जब आपने फिल्में बनानी शुरू की तब शायद अच्छे संसाधन भी उपलब्ध नहीं थे। आपने फिल्में कैसे बनाई?

- मेरे सामने भी तमाम कठिनाइयां आईं पर मैंने हार नहीं मानी। मैं मानता हूं कि बॉलीवुड में भी हर नए फिल्मकार को शुरुआत में अनेक बाधाओं का सामना करना पड़ता है। लेकिन मुझे तो सिनेमा बनाना था। मैंने बहुत मुश्किलों को पार करके 'चिल्ड्रन ऑफ हेवनबनाई, जिस फिल्म से मुझे इतनी शोहरत मिली कि सारे दरवाजे आप ही खुल गए। जब एक बार मैं सिनेमा के अंदर घुस गया तो फिर मेरे लिए सब आसान होने लगा। 'चिल्ड्रन ऑफ हेवनने मुझे आसमान पर पहुंचा दिया लेकिन जब मैं इसकी पटकथा लेकर निर्माताओं से मिल रहा था तो सभी मुझे ठुकरा रहे थे। सबका मानना था कि इस पर बनी फिल्म से सिवाए नुकसान के कुछ नहीं होगा। पैसा लगाने को कोई तैयार नहीं था। तब कुछ दोस्तों का सहारा मिला और फिल्म बनी। फिल्म बनने के बाद भी कोई खरीदने को तैयार नहीं था लेकिन जब यह सिनेमाघरों में पहुंची तो इसने बाक्स आफिस पर धमाल मचाया।

*  ईरान में जो राजनैतिक हालात हैं, वह सिनेमा की राह में कितने मददगार या बाधक हैं?

- ईरान हो, हिंदुस्तान हो या कोई अन्य देश, हर सरकार आम इंसान का गला घोंटने का ही काम करती है। मैं आपके साथ बैठकर बात कर रहा हूं और 'बियांड द क्लाउड्सभारतीय फिल्म सेंसर बोर्ड के शिकंजे में फंसी है। हर देश के अपने नियम, कायदे-कानून होते हैं, उन्हीं के साथ चलना पड़ता है। आप देश के कायदे-कानून के खिलाफ नहीं जा सकते। ईरान के हालात पर कुछ लोगों ने जरा ज्यादा ही बोल दिया। बात का बतंगड़ बना दिया है। इसी वजह से लगता है कि ईरान में सिनेमा बनाना बहुत मुश्किल है। ऐसा नहीं है। ईरान की सरकार सिनेमा को बढ़ावा देती है। ईरान का सिनेमा पूरी दुनिया में घूम रहा है और धूम मचा रहा है। ईरान की फिल्मों को पूरे विश्व में जितनी शोहरत मिली, जो पैसा आ रहा है, उससे ईरान में बेहतर सिनेमा बनाने के अवसर भी पैदा हो रहे हैं। फिल्मकारों के लिए नए रास्ते खुल रहे हैं। भारतीय फिल्मकारों से मेरी सबसे बड़ी शिकायत यही है कि हम ईरानी अपने देश की सभ्यता-संस्कृति को अपने सिनेमा में पेश करते हैं और विश्व में छा जाते हैं पर हिंदुस्तान में वैभवशाली-समृद्ध सभ्यता-संस्कृति होने के बावजूद यह सब भारतीय सिनेमा के माध्यम से विश्व में नहीं जाता। हिंदुस्तान का जो कल्चर विश्व में जा रहा है, वह कुछ और है। हिंदुस्तान की जो खूबसूरती और खासियत है, हिंदुस्तान की जो सभ्यता व संस्कृति है, वह फिल्मों के माध्यम से विदेश में नहीं जाते। सिर्फ मनोरंजन जाता है।

* आपके लिए सिनेमा क्या है?

- मैं फिल्म सिर्फ फिल्म बनाने के लिए नहीं बनाता। फिल्म में अपनी आत्मा डालता हूं। फिल्म मेरी जिम्मेदारी होती है। फिल्म मेरी तिजारत नहीं है कि सिर्फ लोगों को मनोरंजन परोसूं। उन्हें प्रभावित करूं। मेरी आत्मा सोती नहीं है। हमेशा जागती रहती है। मैं मानकर चलता हूं कि मेरी फिल्म पूरी दुनिया देखेगी और फिर फिल्म में से कुछ न कुछ उठाएगी, कुछ न कुछ लेगी। हो सकता है कि मेरी फिल्म किसी को नसीहत दे या किसी को नई राह दिखाए। कुछ दिन बाद जब मैं खुद दूसरे लोगों के साथ बैठकर फिल्म देखूंगा तो अपने आपसे सवाल करूंगा कि यह मैंने क्यों बनाया? मैं बार-बार अपने आपको ठोकता रहूंगा। मैं बार-बार खंजर अपने सीने में चुभाते रहता हूं कि ऐसा हुआ है तो क्यों हुआ और क्यों नहीं होना चाहिए था? मेरे लिए फिल्में पूजा की तरह हैं। फिल्म में जो आत्मा होती है, वह मेरी पवित्र आत्मा होती है। हर फिल्म मेरी इस जिम्मेदारी को बताती है कि देख तू फिल्म इसलिए नहीं बना रहा कि तेरा नाम हो, तुझे शोहरत मिल जाए या तू खूब पैसा कमा ले। बल्कि तू सिनेमा इसलिए बनाता है कि भगवान ने तेरे कंधे पर जो जिम्मेदारी रखी है, उसे सही ढंग से उतार कर लोगों के सामने ऐसे पेश करे कि वह उनके लिए फायदेमंद हो। देखिए, हिंदू 'कर्मकी बात करता है और मुसलमान 'नामेआमाकी। इस्लाम में फरिश्ते कंधों पर बैठते हैं और हम इंसान जो भी काम करते हैं, उसे नामेआमा में लिखते जाते हैं। वह हमारे कर्म यानी कलमा लिखते रहते हैं। नामेआमा एक कागज का टुकड़ा है। मैं नहीं चाहता कि नामेआमा में मेरे कर्म जो लिखे जाएं, उसमें लाल लाल निशान लगें हों। हो सकता है कि कल मैं ना रहूं मेरी मौत हो जाए, मैं दुनिया से चला जाऊं पर नामेआमा तो रह जाएगा। मेरी फिल्में तो रहेंगी। उसमें मेरी बदनामी ना हो। उसमें मेरी आत्मा को ठेस ना पहुंचे। यह कभी नहीं मुझे लगना चाहिए कि अरे! मैंने अपने पीछे ये क्या छोड़ा है।

* क्या आप मानते हैं कि बच्चों की कहानी या बच्चों के किरदारों के माध्यम से देश के सामाजिक-राजनीतिक हालात पर बात करना ज्यादा आसान हो जाता है?

- बिलकुल। सामाजिक-राजनीतिक समस्याओं को हम बच्चों के माध्यम से बड़ी सरलता से सिनेमा में पेश कर पाते हैं। लेकिन जैसे ही आप किसी फिल्म या कहानी को सियासत में पिरो देते हैं, वैसे ही सिनेमा की उम्र छोटी हो जाती है। मसलन आप कल का अखबार आज पढ़ेंगे तो मजा नहीं आएगा क्योंकि वह मर चुका है। यह पत्रकारिता हो जाती है, फिल्म नहीं रहती। जब आप फिल्म बनाते हैं तो कहानी इस तरह लिखी जानी चाहिए कि वह आज, कल, साल भर बाद, दस साल बाद, बीस साल बाद या जब भी आप दर्शक को दिखाएं तो उसे लगे कि ऐसा अभी-अभी हुआ है। कल वाली फिल्म आज देखने में मजा नहीं आता। खालिस, शुद्ध फिल्म चाहे जितने साल बाद देखें, आपको वही मजा आएगा। फिल्म में आपको वही खुशबू, वही ताजगी मिलेगी।

* 'बियांड द क्लाउड्सकी प्रेरणा कहां से मिली और इसके किरदारों तारा और अमीर को आपने देखा है?

- इस फिल्म का आधार मेरी फिल्म 'चिल्ड्रेन ऑफ हेवनही है। उस जमाने में जो बच्चे थे, उनकी जरूरत जूते थे तो उस वक्त मेरी फिल्म का आधार जूता था। तब बच्चों की जरूरतें जूता मिलते ही खत्म हो जाती थी पर अब बच्चे बड़े और जवान हो चुके हैं। जूता नहीं चाहिए। जिंदगी जीने का आधार चाहिए। उनके अंदर बहुत-सी उम्मीदें हैं। ढेर सारे सपने हैं। सपनों को वह पूरा करना चाहते हैं। अत: 'चिल्ड्रेन ऑफ हेवनके बच्चे 'बियांड द क्लाउड्समें आते-आते बड़े होकर हीरो हीरोइन हो गए। उनका वही नया रूप, नई जरूरतों के साथ लोगों के सामने आया है। 'चिल्ड्रेन ऑफ हेवनमें बहन अपने छोटे भाई को जूता दे देती है तो यहां भी बड़ी बहन तारा छोटे भाई अमीर के लिए त्याग करती है, कुर्बानी देती है।

* 'चिल्ड्रेन ऑफ हेवनके माता-पिता अपने बच्चों को नया जूता दिलाने में आर्थिक रूप से सक्षम नहीं थे जबकि 'बियांड द क्लाउड्समें आपने जवान बच्चों को अनाथ दिखाया है?

- आप दोनों फिल्मों की तुलना करते हुए बाहरी नक्शे पर मत जाइए। इन बच्चों के अंदर की भावना, उनकी जद्दोजेहाद पर गौर कीजिए। जो कुर्बानियां हैं, उस पर गौर करें। बहन-भाई दोनों एक-दूसरे को अपना जूता देने को बेताब रहते हैं, इसी बात को जब मैं 'बियांड द क्लाउड्समें लाता हूं तो यहां भी उसी तरह भाई-बहन के बीच प्यार है। अटूट बंधन की बात है। दोनों साथ रहना चाहते हैं। एक-दूसरे की मदद करना चाहते हैं। भाई अपनी बहन के लिए इधर-उधर भागता है, पुलिस स्टेशनों के चक्कर लगाता है, यहां तक कि वह उसके दुश्मन को भी मारने जाता है। इसी तरह बहन अपने बिछुड़े हुए भाई को करीब लाना चाहती हैं। मेरी फिल्म में प्यार, मोहब्बत और कुर्बानी की बात है।

* जब आपने 'चिल्ड्रेन ऑफ हेवनबनाई, उस वक्त आपकी दिमाग में क्या चल रहा था?

- मेरे पास सिर्फ कहानी थी। उसे मैं जैसे-जैसे विकसित करता गया, जिंदगी के कई पन्ने धीरे-धीरे सामने खुलते चले गए। ऐसा लगा कि मेरी आत्मा जाग गई है। कुछ नई चीजें मेरे सामने आ गई हैं। फिर मैंने कोशिश की कि कोई भी चीज उसमें से छूट ना जाए। सब कुछ पिरोता चला गया।

* 'चिल्ड्रेन ऑफ हेवनके मुकाबले रोबर्टो बेनिगनी की इटैलियन 'लाइफ इज ब्यूटीफुलको सर्वश्रेष्ठ विदेशी भाषा की फिल्म का ऑस्कर अवार्ड (1997 में) मिला था। तब आपने क्या महसूस किया था?

- यह बात पुरानी हो गई है। जिसे पुरस्कार मिलना था, मिल गया। जिसे पुरस्कार लेना था, उसने पुरस्कार ले लिया। लेकिन मेरी निगाह में अन्याय हुआ था। 'लाइफ इज ब्यूटीफुलको अवार्ड मिला, इसकी एक वजह बताई गई कि वह अमरीकी लोगों के दिलों को छूती है। लेकिन उसका प्रभाव दिन-प्रतिदिन घटता गया। 'लाइफ इज ब्यूटीफलको पुरस्कार मिलने के बावजूद तब के अमेरिकी ही नहीं पूरे विश्व के अखबारों में सबसे ज्यादा तारीफ 'चिल्ड्रेन ऑफ हेवनकी हुई थी। लोगों ने खुलेआम लिखा कि पुरस्कार की असली हकदार माजिद मजीदी की फिल्म है। खैर, कोई बात नहीं। इस फिल्म को अब तक कई अंतरराष्रील्य फिल्म समारोहों में पचास से अधिक पुरस्कार मिल चुके हैं।

* क्या ऑस्कर अवार्ड सिर्फ अमेरिकी नजरिये तक सीमित हैं?

- एकदम सही कहा। लेकिन ऐसा हर उस जगह होता है, जहां समाज पर सियासत हावी होती है। ऑस्कर अवार्ड में अमरीकन सियासत हावी रहती है। लोगों ने खुलकर कहा था कि 'चिल्ड्रेन ऑफ हेवनको पुरस्कार मिलना चाहिए लेकिन मिला उस फिल्म को जिसमें अमेरिकी मुद्दे थे।

* आपकी नजर में विश्व के लिए ऑस्कर अवार्ड कितने महत्वपूर्ण हैं?

- ऑस्कर अवार्ड बहुत ऊंचा दर्जा रखता है। फिल्म को विश्व बाजार में बेचना हो या निर्देशक का कद बढऩा हो, शोहरत मिलनी हो तो उसके लिए ऑस्कर अवार्ड की अहमियत बहुत ज्यादा है। पूरी दुनिया के लोग ऑस्कर अवार्ड से सम्मानित हर फिल्म देखना चाहते हैं। मगर मेरी नजर में असली फिल्म वह होती है, जो लोगों के दिलों में बस जाए। आप अल्फ्रेड हिचकॉक को देखें, उनकी किसी फिल्म को ऑस्कर नहीं मिला पर उनकी हर फिल्म अब भी महत्व रखती है। उनकी फिल्मों को कोई भुला नहीं पाया। मैं ही क्यों, आप भी अच्छी तरह जानते हैं कि तमाम फिल्मकार ऐसे हैं, जिन्होंने ऑस्कर अवार्ड पाया मगर लोग उन्हें भुला चुके हैं। वहीं तमाम फिल्मकार और कलाकार हैं, जिन्हें कभी कोई ऑस्कर नहीं मिला, वह इस संसार में हों या ना हों मगर अपनी कला के माध्यम से आज भी जिंदा हैं और हमेशा जिंदा रहेंगे। 

* इन दिनों फिल्म तकनीक को लेकर नई बहस छिड़ी है। पहले फीचर फिल्में रील पर बना करती थीं, अब डिजिटल कैमरों पर शूट होने लगी हैं। पश्चिम में सिनेमा को डिजिटल से फिर फोटोकेमिकल फिल्म पर लाने का अभियान चल रहा है। हॉलीवुड के मेकर क्रिस्टोफर नोलन ने पिछले दिनों मुंबई यात्रा में इस पर विस्तार से बातें की। डिजिटल तकनीक को आप कैसे देखते हैं?

- मुझे अफसोस है कि डिजिटल तकनीक से सिनेमा की हकीकत गुम हो रही है। डिजिटल आने के बाद इंसान के अंदर की कलाकारी खत्म हो रही है। मुझे कई लोगों ने तकनीक समझाई कि यह परदा है... इसमें यह चिन्ह है, हम इसे ऐसे नहीं... ऐसे बदल देंगे। जब हम रील से शूटिंग करते थे, तब यदि हमारी फिल्म का सीन शाम के वक्त सूरज के डूबने के समय का है तो इंतजार करते थे। कई बार हमें 3-4 दिन तक प्रतीक्षा करनी पड़ती थी कि सही रंग-रोशनी मिल जाए। डिजिटल आने के बाद लोग कह देते है कि आप आसमान का एक सीन ले लीजिए बाकी हम वीएफएक्स से सूरज को उगते-डूबते सब कुछ दिखा देंगे। मगर जब हम फिल्म देखते हैं तो उस वक्त सूरज की किरणों में जो चमक होनी चाहिए, वह नजर नहीं आती। सब फीका-सा लगता है। जब वह चमक नहीं रही तो उसका असर कैसे पैदा होगा? आज की नौजवान पीढ़ी अपने अंदर के कलाकार को जगाने की कोशिश नहीं कर रही। वह इसी तरह से कुछ सीन ले लेती है, फिर वीएफएक्स तकनीशियन के हवाले कर देती है। पूरी फिल्म मुर्दा जैसी लगती है। एक ऐसा जिस्म सामने आता है, जिसमें आत्मा ना हो। डिजिटल में फिल्माई गई फिल्में मुर्दे की तरह ही हैं।

* नई पीढ़ी डिजिटल कंटेंट और वीडियो गेम्स में ज्यादा रुचि ले रही है। हिंदी फिल्मों के महानायक अमिताभ बच्चन ने भी कहा है कि फिल्म शब्द की चमक अब फीकी पड़ चुकी है। क्या सिनेमा धीरे-धीरे मर रहा है?

- जी हां, ये जो डिजिटल युग का सिनेमा है इसकी मौत करीब है। आज के वक्त की मांग है कि लोगों को असली चीजें सच्चाई के साथ दिखाएं। मान लीजिए आपका बच्चा है, जिसे आप तालीम देना चाहते हैं। आप उसे एक कमरे के अंदर बंद कर देते हैं और खिलौने दिखा कर कहते हैं कि देखो बच्चे यह परिंदा है, यह पेड़ है, यह फूल है तो बच्चा जब बड़ा होगा तो एक्वेरियम की बंदिश की तरह बड़ा होगा। मेरी निगाह में बच्चे की अच्छी और असली परवरिश तभी हो सकती है, जब आप उसे बाहर खुले वातावरण में ले जाएं। बच्चे को सामने उड़ता परिंदा दिखाएं। बच्चा जब पानी में हाथ डालकर देखेगा कि यह पानी है तो इसका अलग अहसास होगा। वह पेड़ को हाथ लगाएगा, पत्तों को छुएगा तो उसमें भावनाएं पैदा होंगी। अन्यथा वह तो रोबोट की तरह होगा। जिसका जिस्म होता है, आत्मा नहीं। रोबोट में जो प्रोगाम डाला जाता है, उसी हिसाब से वह काम करता है। डिजिटल भी रोबोट की तरह ही है। इसलिए मुझे यकीन है कि फिल्म मेकर घूम-फिर कर वापस रील वाले सिनेमा की तरफ आएंगे।

* देखिए, तकनीक तो पीछे नहीं जा सकती। वह सदा आगे बढ़ती है। अत: इस डिजिटल संसार के साथ हमें सफर करना है। बीच का क्या रास्ता निकल सकता है?

- मेरे पास एक पैगाम है, पूरे विश्व के फिल्मकारों के लिए। मैंने आपकी बात मान ली कि हम तकनीक को पीछे नहीं ले जा सकते। परंतु मेरी बात पर गौर कीजिए। आज हमारे पास एक छोटा-सा बम है तो यह भी एक तकनीक है। तकनीक विकसित होगी तो एक बड़ा न्यूकलियर बम बनेगा। छोटा बम फटेगा तो चार लोग मरेंगें पर न्यूकलियर बम फटेगा तो बड़ी आबादी खत्म हो जाएगी। सवाल यह कि आप तकनीक के विकसित होने के साथ बर्बादी क्यों लेकर आ रहे हैं? मैं लोगों को आगाह करना चाहता हूं, संदेश देना चाहता हूं कि आगे मत बढ़ो। यह डिजिटल, सिनेमा की असलियत को खत्म कर रहा है। उसकी आत्मा खत्म हो गई है। रूह को बचाकर रखो। कोशिश यह होनी चाहिए कि हम छोटे बम को भी आधा कर दें, जिससे कम नुकसान हो। सिनेमा को जितना नुकसान पहुंचाना था, आप पहुंचा चुके। अब तो रुक जाओ, पीछे लौट आओ, उसी में भलाई है। सत्यजित रे ने फिल्म बनाई थी 'पाथेर पांचाली। उसके बाद से हम लोगों ने कम से कम एक करेाड़ फिल्में बना डाली। लेकिन मैं दावे से कह सकता हूं कि तराजू के एक पल्ले में आप 'पाथेर पांचालीको रखें और दूसरे पल्ले में बाकी की एक करोड़ फिल्में रख दें। 'पाथेर पांचलीही भारी रहेगी। तो ऐसी फिल्में बनाने से, ऐसी उन्नति से, ऐसी प्रगति से फायदा क्या? जो तकनीक हमें नुकसान पहुंचा रही हो, उससे दूर रहने में भलाई है। आत्मा को खत्म ना होने दें। हम सभी को वापस 'पाथेर पांचालीकी तरफ लौट कर जाना चाहिए। वैसे मैंने जो बात कही, उसे कोई कंपनी वाला नहीं मानेगा क्योंकि उन्हें तकनीक और उपकरण बेचकर पैसा कमाना है। हर कारपोरेट कंपनी ज्यादा से ज्यादा पैसा कमाना चाहती है। इसीलिए असली जिम्मेदारी सरकार की है। सरकार की तरफ से अच्छी फिल्मों के लिए पैसा खर्च किया जाना चाहिए। सरकार को चाहिए कि देश के नवयवुक, जिनके अंदर कला है, उन्हें इक_ा करे और रील वाला सिनेमा बनाने के लिए पैसा मुहैय्या कर उन्हें प्रोत्साहित करे। सरकार जब मदद करेगी, तब नई-नई कला विकसित होगी। लोग तकनीक के गुलाम नहीं बनेंगे।

* हिंदी सिनेमा कमजोर होने की एक वजह शायद ये है कि यहां प्रचुर मात्रा में साहित्य होने के बावजूद फिल्मकार खुद को उससे दूर रखते हैं? आप स्वयं साहित्य के कितना करीब हैं?

- ईरान में सिनेमा जिस तरह से फल-फूल रहा है, उसमें वहां के साहित्य का बड़ा योगदान है। हमारे यहां बड़े-बड़े कवि और हाफिज हैं, वह जो कुछ लिखते हैं, उसका निचोड़ हम अपनी फिल्म में लाने की कोशिश करते हैं। भारत में भी तमाम साहित्यिक और गैर साहित्यिक किताबें हैं, जिनका उपयोग फिल्में बनाने के लिए करना चाहिए। पता नहीं क्यों भारतीय फिल्मकार खुद को सहित्य से दूर रखते हैं। ईरान का हर फिल्मकार, हर कलाकार साहित्य में रचा-बसा रहता है। यही वजह है कि हमारा ईरानी सिनेमा अपनी धाक जमा रहा है।

* क्या आप कभी ऑटोबायोग्राफी लिखना चाहेंगे?

- जी नहीं। मुझे नही लगता कि मेरी जिंदगी इस लायक है कि लोग उसे किताब की शक्ल में पढऩा चाहेंगे। मैंने जो सिनेमा बनाया है, उस पर तमाम लोगों ने तमाम किताबें लिखी हैं। सच कहूं तो मैंने कई बार सोचा कि अपनी जिंदगी की कहानी को किताब के तौर पर लिखूं। फिर सोचा कि यह सब क्या मजाक है। मैं अभी उस मुकाम तक नहीं पहुंचा हूं कि मेरी बातों में उतनी संजीदगी हो। मेरे विचारों में उतनी संजीदगी हो कि मैं उसे किताब का रूप दे सकूं।

*  एक फिल्म पूरी होने और दूसरी फिल्म के शुरू होने के बीच आप क्या करते हैं?

-फिल्म पूरी होते ही मेरी जिम्मेदारी खत्म नहीं हो जाती। फिल्म की रिलीज के बाद लोगों की जिस ढंग से प्रतिक्रिया मिलती है, उसकी मैं विवेचना करता हूं। अपनी गलतियां-कमियां समझता हूं। फिर उन्हें दूर करने के लिए दूसरी फिल्म के निर्माण से पहले शोध करता हूं। पहले की कमियां दूसरी फिल्म में ना आने पाएं, इसी में समय गुजर जाता है।

* किसी भी फिल्म में फिल्मकार अपनी बात कहना चाहता है। ऐसे में आप फिल्म में दर्शकों की पसंद-नापसंद का कितना ख्याल रखते हैं?

- इतना तो स्पष्ट है कि मैं जो चाहता हूं, वही सिनेमा बनाता हूं। परंतु दर्शक को वह चीज पसंद आए, इसके लिए सामंजस्य बैठाना जरूरी हो जाता है। मैं अपनी बात कहने के लिए इस ढंग से फिल्म बनाता हूं कि वह दर्शकों की समझ से बाहर ना जाए। मैं जो फार्मूला इस्तेमाल करता हूं, वह यह है कि मेरी फिल्म देखने चाहे पांच साल का बच्चा आए, चाहे जाहिल इंसान आए, चाहे बुजुर्ग आए या कोई दार्शनिक ही क्यों न पहुंचे, हर किसी को फिल्म समझ में आए। मेरी फिल्म हर इंसान के साथ जुड़ती है। हर किसी की समझदारी की एक सीमा होती है लेकिन फिल्म में जो आत्मा घूम रही होती है, वह कहीं न कहीं लोगों तक पहुंचती है और दर्शक उस बात को समझ जाता है।

 

 

शांति स्वरुप और रवि बुले मुम्बई में सिने पत्रकार हैं और रवि बुले जाने माने कथाकार भी। वे अखबार अमर उजाला के ब्यूरो जीफ हैं।

 


Login