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अप्रैल 2018

तीसरी मंजिल से होने वाली मुलाकात

मोहम्मद अल बिसाती / अनुवाद : शहादत

उर्दू रजिस्टर/कहानी-अरबी






वह वहां दूसरी बार आई थी। घोड़े पर सवार पुलिस वाले ने नीचे से ऊपर तक उसे देखा। दोपहर का वक्त था। पीले रंग की चारदिवारी गली के किनारे से दूर तक चली गई थी। चारदिवारी के अंदर एक बहुत बड़ी तीन मंज़िला इमारत थी। जिसकी एक जैसी छोटी छोटी कोठरियां काले अंधेरे सूराखों की तरह दिख रही थी। औरत घोड़े से कुछ कदम दूर खड़ी थी। पुलिस वाले ने पहले एक नज़र अपने पीछे खिड़कियों की तरफ देखा और फिर औरत पर निगाह डाली। उसने अपने दोनों हाथ घोड़े की ज़ीन के अगले हिस्से पर कसते हुए अपनी आँखें बंद कर ली। थोड़े देर बाद घोड़े ने हरकत की और वह गली से थोड़ा नीचे उतर आया। थोड़ा देर बाद घोड़ा वापस घूमा और अपनी पहली जगह चला गया।
औरत दो कदम आगे बढ़ी। घोड़े ने अपनी एक अगली टांग मोड़ी और फिर सीधी कर ली।
''सार्जेंट... प्लीज़.... मुझे उससे दो बातें करने दीजिए'', अपनी ने याचना भरी आंखों से घोड़े से सवाल पुलिस वाले को देखते हुए कहा।
सार्जेंट की आंखें अब भी बंद थी। उसके हाथ अभी तक घोड़े की ज़ीन के अगले हिस्से को पकड़े हुए थे।
दिवार के ऊपर कांटेदार तारों की बाढ़ लगी हुई थी। दिवार के आखिरी सिरे पर लकड़ी का एक वॉच टावर था, जिस पर एक मिसली सिपाही खड़ा था।
औरत ने दूसरा कदम आगे बढ़ाया।
''देखिए....'', घोड़े पर सवाल पुलिस वाले ने किया, ''उसे यहां से दूसरी जगह भेजा जा रहा है।''
सूरज सिर के ऊपर से गुज़र कर पश्चिम की ओर झुक चुका था। इसके बावजूद गर्मी बहुत थी। चारदिवारी के निचले सिरे पर छाया की एक पतली सी पट्टी दिखाई दे रही थी।
औरत ने अपने बच्चें को कंधे पर डाल लिया।
जब उसने दोबारा पुलिस वाले की तरफ देखा तो उसे उसके माथे पर पसीने की नन्हीं-नन्हीं बूंदे नज़र आई।
खामोशी के साथ वो घोड़े के सामने से हटकर दिवार के पास चली गई और दिवार से थोड़ी दूरी पर, जेल की इमारत के सामने पड़े पत्थरों के एक ढ़ेर पर बैठ गई। खिड़कियों की सलाखों से कैदियों के कपड़े आस्तीनों और पायंचों की मदद से लटके हुए दिखाई दे रहे थे। हल्की हवा चलने के बावजूद वह ज़रा भी हिल नहीं रहे थें।
वह खुद से ही बुदबुदाई, ''शायद ये बहुत ज्यादा भीगे हैं।''
उसने बच्चे को गोद में ले लिया। एक पल के लिए उसकी निगाहें एक जलाभा (पुरुषों का कुर्ते की तरह का परिधान) पर टिक गई, जो हवा में बहुत धीरे से हिल रहा था। उसने अपनी टाँगें फैलाई। उन पर लगी मिट्टी को देखा। उसने दोनों पैरों को आपस में रगड़कर मिट्टी छुड़ाने की कोशिश की और फिर से उन्हें देखा।
फिर उसने अपने सिर को पीछे की किया। गर्दन उठाई और नीम आँखों से तीसरी मंज़िल की खिड़कियों को देखा।
वाँच टावर में मौजूद सिपाही ने एक कदम आगे बढ़कर अपने सिर को लकड़ी की दिवारों के किनारे टिका लिया। उसने आसमान की तरफ देखा, मकानों की छतों और गलियों में नज़र दौड़ाई और आखिर में उसकी निगाहें घोड़े के सफेद सिर पर रुक गई।
अचानक सन्नाटे में एक चीख गूंजी। औरत ने तेजी से अपने पैरों को समेट लिया। उसकी निगाहों ने तीसरी मंज़िल की एक खिड़की की सलाखों के बीच से बाहर निकली एक नंगी बांह को देख लिया था।
''अज़ीज़ा! अज़ीज़ा! मैं आशूरा हूं...!''
वो उठी खड़ी हुई और दिवार की तरफ एक कदम आगे बढ़ गई और खिड़की की तरफ देखने लगी।
''मैं आशूरा हूं अज़ीज़ा...आशूरा..।''
उसने उसकी दूसरी बांह को भी खिड़की से बाहर आते देखा। उसकी निगाहों ने दोनों हाथों के बीच कुछ ढूँढऩे की कोशिश की और फिर उसे दो सलाखों के बीच चिपका हुआ उसका चेहरा नज़र आ गया। उसके इर्द-गिर्द कुछ दूसरे चेहरे भी नज़र आए।
''अज़ीज़ा... मुझे यहां से दूसरी जगह भेजा जा रहा है... क्या तुम्हें मेरा खत मिला था?... क्या तुमने खज़ूर के दोनों पेड़ों से खज़ूरें झाड़ ली हैं... हामिद और सानिया कहां हैं?.... उन्हें साथ क्यों नहीं लाई... हामिद कहां है?''
फिर अचानक वह पीछे मुड़कर चीखा, ''खामोश रहो कम्बख्तों!''
उसने उसे चीखते हुए सुना और दूसरे चेहरों को खिड़की से गायब होते हुए देखा। एक लम्हे बाद उसका चेहरा खिड़की की सलाखों के पीछे से दिखाई दिया और फिर दूसरे चेहरे भी उसके चेहरे के ऊपर नज़र आये।
''अज़ीज़ा।''
औरत ने घोड़े पर बैठे पुलिस वाले की तरफ देखा और फिर दूसरी निगाह वॉच टावर में मौजूद सिपाही पर डाली।
''अज़ीज़ा... तुम्हारी गोद में कौन है... शाकिर?''
उसने हां में अपना सिर दो बार हिलाया।
''उसे उठाओ... उसे ऊपर उठाओ...।''
औरत ने बच्चे को अपने हाथों में लेकर अपने सिर से ऊपर उठा लिया। उसने देखा कि उसके हाथ अचानक खिड़की के अंदर चले गए और उसके हाथों ने खिड़की की सलाखों को पकड़ लिया। फिर उसका चेहरा वहां से गायब हो गया। एक लम्हे के लिए उसने वहां मौजूद दूसरे चेहरों में उसका चेहरा तलाश करने की कोशिश की। उसने अपने हाथ ज़रा नीचे कर लिये। उसे खिड़की से खिलखिलाकर हंसने की आवाज़े सुनाई दीं। उसने उसके हाथों को एक बार फिर खिड़की से बाहर निकलते देखा और उसका चेहरा फिर खिड़की के बीच नज़र आया।
''ऊपर अज़ीज़ा... और ऊपर... उसका चेहरा सूरज की तरफ करो ताकि मैं उसे देख सकूं।''
बच्चे को थामे अपने हाथों को उसने पहले थोड़ा नीचे किया और फिर ऊपर उठा दिये। उसने बच्चे का चेहरा सूरज की तरफ कर दिया। बच्चे ने अपनी आंखें बंद कर ली और ज़ोर ज़ोर से रोने लगा।
''ये रो रहा है'', वह हंसता हुआ पीछे की ओर मुड़ गया, ''बच्चा रो रहा है अज़ीज़ा... उसे रोने दो... मैं उसकी आवाज़ सुनना चाहता हूं...।''
उसने अपनी दोनों हथेलियों को आपस में मिलाकर उसे गोलकर मुँह से लागकर चीखते हुए कहा, ''उसे रोने दो..।''
वह हंस रहा था। उसके आस-पास कुछ और चीखें भी सुनाई दी। उसकी बड़ी सी नाक सलाखों के बीच से झांक रही थी।
''बेवकूफ औरत... इतना काफी है... बच्चे को नीचे करो और उसे छिपाओ... उसे लू लग जाएगी'', उसे किसी की चीख सुनाई दी। उसने फौरन बच्चे को अपने सीने से लगा लिया। उसकी निगाहें सिपाही पर पड़ी जो टावर के अंदर जा रहा था।
''तुमने दोनों पेड़ों की खजूरें झाड़ ली?''
औरत ने अपना सिर हिलाया।
''क्यों? ...तुम कुछ बोल क्यों नहीं रही हो? ...मैं यहां से जा रहा हूँ ...अबू इस्माइल के पास जाकर उसे मेरा सलाम कहना... वो पेड़ों से खज़ूरें झड़वाने में तुम्हारी मदद करेगा... फिर तुम थोड़ी खजूरें ले आना... क्या तुम सिगरेट लाई हो?''
उसने अपने हाथ से इशारा किया।
''मुंह से बोलो ना... तुम क्या कह रही हो?''
''वो तुम्हें मिल जाएगी।''
''ज़ोर से बोलो।''
''वो तुम्हें मिल जाएगी... मैं भेज चुकी हूं।''
''कब?''
''अभी अभी।''
''अभी अभी... अच्छा रुको... मैं देखता हूं।''
वहा अचानक वहां से गायब हो गया। खिड़की में दूसरे चेहरे अब भी दिखाई दे रहे थे। उनमें से एक ने अपना एक हाथ खिड़की से बाहर निकला और एक गंदा सा इशारा किया। औरत ने अपनी नज़रें झुका ली और वापस पत्थरों के ढ़ेर पर जा बैठी।
''अज़ीज़ा।''
हालांकि उसके लिए ये आवाज़ नई थी फिर भी उसने ऊपर खिड़की की तरफ देखा। उसने देखा कि एक आदमी वहां मुस्कुरा रहा है और उसका हाथ अब भी वही गंदा इशारा कर रहा है। एक दूसरा आदमी घुटनों के बल झुका हुआ था, उसने अपना जलाभा (कुर्ता) घुटनों के ऊपर तक उठा रखा और चिल्ला रहा था, ''अज़ीज़ा... ये देखो।''
वह मुस्कुराई। पुलिस वाला घोड़े पर वैसे ही आंखें बंद किए बैठा था जैसे सो गया हो। टावर के पास वाली खिड़की से उसे सिपाही के सिर का एक हिस्सा दिखाई दे रहा था। उसने अपना हेलमेट उतार दिया था।
उसने कई आवाज़ें सुनी, जो उसे पुकार रही थी। उस के कान आवाज़ों पर लगे हुए थे लेकिन नज़रें टॉवर में मौजूद सिपाही के सिर पर जमी थी। उसे पुकारने की आवाज़ों में कुछ गालियां और गंदें शब्द भी शामिल थे। सिपाही ने हेलमेट फिर से पहन लिया था लेकिन वह अब भी टावर के अंदर ही बैठा था।
अचानक आवाज़ें बंद हो गई और सन्नाटा छा गया। फिर एक लम्हे के बाद उसके शौहर की हांपती हुई आवाज़ सुनाई दी, ''अज़ीज़ा... मैंने तुमसे पांच कहा था... मैंने तुमसे पांच सिगरेट के पैकेट भेजने के लिए कहा था?''
वह उसे खामोशी से देख रही थी।
''तीन पैकेट सिगरेटों से क्या होगा?''
उसने हाथों से कोई इशारा किया।
''तुम क्या कह रही हो?''
''पांच... मैंने पांच ही भेजे थे।''
''पांच?'', वह गुस्से से चीखा, ''साले कमीने...।''
वह फिर गायब हो गया... कुछ देर बाद वह दोबारा खिड़की में झुकते हुए बोला, ''अभी जाना नहीं... मेरा इंतज़ार करना।''
औरत ने अपनी निगाहें टावर की खिड़की की तरफ घुमाई।
उसका शौहर थोड़ी देर बाद ही वापस आ गया और बोला, ''ठीक है अज़ीज़ा... कोई बात नहीं... पांच ही थे... दो उन्होंने ले लिए... $खैर कोई बात नहीं... सुनो... हां मैं क्या कहने जा रहा था?...।''
उसने उसे खामोशी से खिड़की से बाहर देखते हुए देखा। उसने अपने काले जिलाभा (मिस्त्री औरतों का परिधान) हिलाया और दिवार की तरफ बढ़ी। वह मुस्कुराया।
''अज़ीज़ा... मैं सोच रहा हूँ कि तुमसे क्या कहूँ।''
एक बार फिर वह खामोश हो गया। औरत ने अपना चेहरा दूसरी तरफ कर लिया जिससे उसके चेहरे का एक हिस्सा सूरज की रोशनी में चमकने लगा। उसने अपना दुपट्टा ठीक किया।
''उन लोगों ने दो पैकेट ले लिए... खैर अज़ीज़ा... फिक्र न करो।''
वह हंसा। उसकी आवाज़ में ठहराव था।
उसके आस-पास के चेहरे गायब हो गए थे। सिर्फ एक चेहरा उसके पास मौजूद था।
''तुमने दिवार बनवा दी?''
''अभी नहीं।''
''क्यों?''
''जब अहमद चचा की भट्टी में ईटें तैयार होंगी तो मैं उनसे कुछ ईंटें ले लूंगी।''
''ठीक है... ट्राम में होशियार रहना... बच्चे की हिफाज़त करना।''
वह खड़ी रही।
''तुम्हें कुछ चाहिए?''
''नहीं।''
उसने अपने शौहर के चेहरे पर निगाह डाली, उसकी बड़ी नाक और नंगें हाथों को देखा, वह मुस्कुराई। जवाब में उसका शौहर भी मुस्कुराया। साथ ही उसके पास मौजूद दूसरा चेहरा भी मुस्कुराया।
''क्या तुम्हें $खत मिला था?.... मुझे दूसरी जगह भेजा जा रहा है।''
''कहाँ?''
''मुझे नहीं पता।''
''कब?''
''असल में इस जेल को बंद किया जा रहा है।''
''तुम कहां जाओगे?''
''अल्लाह जाने... कहीं भी हो सकता है... किसी को कुछ नहीं पता।''
''कब?''
''दो या तीन दिनों में... यहां अब मत आना... जब मेरा ट्रांसफर हो जाएगा तो मैं तुम्हें बता दूंगा... क्या बच्चा सो गया है?''
''नहीं, जागा हुआ है।''
वह कुछ देर उसे देखता रहा और फिर बोला, ''अज़ीज़ा।''
एक बार फिर खामोशी छा गई। उसके पास मौजूद दूसरा चेहरा मुस्कुराया। फिर धीरे से पीछे हटा और गायब हो गया। उसका शौहर खामोश था। उसके हाथ खिड़की की सलाखों के चारों ओर लिपटे हुए थे।
अचानक उसने अपने पीछे देखा और अपने हाथों को अंदर कर लिया। उसने अपनी बीवी को चले जाने का इशारा किया और खिड़की से गायब हो गया। वह कुछ कदम पीछे हटी लेकिन उसकी नज़रें खिड़की पर ही टिकी रही।
थोड़ी देर बाद वह पत्थरों के ढ़ेर पर बैठ गई। उसने अपनी टांगें सीधी फैला ली और अपनी चादर समेट कर बच्चे को दूध पिलाने लगी। दीवार की छाया अब गली के बीच तक आ गई थी और उसके कदमों को छू रही थी। उसने अपने पैरों को थोड़ा सा सिकोड़ लिया। हर तरफ खामोशी थी और लटके हुए कपड़े-हल्के हवा में हिल रहे थें। उसने अपने पैरों की तरफ देखा। साया अब उसके अंगूठे तक आ गया था। वह खड़ी हो गई।
सिपाही अब भी टावर के अंदर था। उसके जूते की नोक लकड़ी के प्लेटफॉर्म से बाहर निकली हुई दिखाई दे रही थी। घोड़े के नजदीक पहुंचने से पहले उसने पीछे मुड़कर देखा। खिड़की खाली थी।
उसने खामोश निगाहों से पुलिस वाले की ओर देखा। उसकी आंखें बंद थी। उसके हाथ घोड़े की ज़ीन के अगले हिस्से को पकड़े हुए थे। घोड़ा अपनी जगह खड़ा हुआ था। वह पतली गली में चलती हुई बड़ी गली की ओर बढ़ गई।



शहादत : उर्दू की सुप्रसिद्ध साइट 'रेख्ता' से जुड़े हुए हैं।

मोहम्मद अल बिसाती- अरबी साहित्य के अग्रणी लेखक मोहम्मद अल बिसाती का जन्म नवम्बर 1937 में मिस्र के अल गमलिया शहर में हुआ था। इन्होंने 1960 में स्कूल ऑफ कॉमर्स, काहिरा यूनिवर्सिटी से ग्रेजुएशन किया था। इसके बाद वह अनेक सरकारी महकमों में काम करते रहे। यूनिवर्सिटी के ज़माने से ही उन्होंने लिखना शुरु कर दिया था और इनका पहला कहानी संग्रह 1962 में अल-कबीर अल-सगीर नाम से प्रकाशित हुआ। इसके बाद इनके छ: कहानी संग्रह और नौ उपन्यास प्रकाशित हुए। इनके कई उपन्यासों और कहानियों का अंग्रेजी, इतावली, फ्रेंच और स्पेनिश आदि भाषाओं में अनुवाद हो चुका है। 14 जुलाई 2012 को इनकी मृत्यु हो गई।


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