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अप्रैल 2018

बदसूरत झील

आशीष बिहानी

कविता/नये लोग









1.
तीस किलोमीटर प्रतिघंटे की रफ्तार से दौड़तीं
बरसात की बूँदें
छज्जों, बुर्जों, टपरों से टकरातीं हैं
और ज़र्रे ज़र्र्रे से चटखन निकलती है
जैसे अग्नि में हविष्य
गिनाई पर सधे हाथों में नोटों का चटखना
बुआ की चारपाई में दम साधकर तनी सूतली का ऐंठना
किसी विशाल नितम्ब पर चढ़ी तंग नीली जीन
हर कदम पर हाँफती
अनिश्चितकालीन साम्य में एक विश्व
कण-कण करके
एक अनिवार्य और हिंसक टूटन की ओर बढ़ता हुआ

पहले चटखती हुई दुनिया के तराशे हुए तटबंध तोड़कर
उमंगों के अतिरेक में
जलतरंगें आक्रमण करतीं हैं
सड़क पर
ले उड़तीं हैं गिट्टी की गोंद को
दुनिया के सब स्याह रहस्यों को लेकर प्रवाह
सारी सीमाएं तोड़कर
चुपचाप पार्क की घास में दुबक कर बैठ जाता है
नन्हें आतुर कदमों की बाट जोहता

2.
बारिश से फूली किसी शाम का
बेहया छितरायापन
कुछ और बूंदों के तीखे आक्रमण में सिहरता है

किसी विशाल मशीन की घिर्रियों में लड़ा
एक पुर्जा
संभलकर भाग जाना चाहता है
कोहरे की ओट में
पर गाढ़े काले तेल की परत पर फिसलता
आ गिरता है अपनी जगह पर पुन:

ज़मीन में किसी गड्ढे में हिलता द्रवीभूत शून्य
किनारों पर कटता, भूमि के शोर से गुंजायमान होता
ठीक ठीक बैठ जाता है अंतत:
पृथ्वी की ज़ेब में

3.
एक आदिम टूटन के प्रवाह धरा में खाइयाँ
काट काट कर
एक झील में जाकर समा जाते हैं
पहाड़ों, धोरों और बहुत ऊंचे पेड़ों पर से लोग
आसमान की तरफ मुँह उठा कर
रेल की रड़भड़ सी आवर्त धुनें गाते हैं
बातें करतें हैं
अपने अपने देवताओं से
हाल-चाल, दु:ख-सुख का लेन-देन
भारी भरकम तकरीरें

भाप के साथ गए प्रश्नों के उत्तर
बारिशों के साथ उतरते हैं
मलहम बन कर फैल जाते हैं
उनके चेहरों के कटे फटे दामन पर

वही पानी, वही मिट्टी, वही हवा एक दूसरे को घड़ते रहते हैं
अपररुपों में
अनवरत उलट-पलट, बिना कुछ घटे या बढ़े

4.
वह जिसे ये तगड़ा अहसास था कि उसे
क्या नहीं होना है
नहीं हो पाई, जो उसे होना था
और हो गई वो वो सब
जिनसे भागी थी वो घिन मारी
किनारों पर फोम से लदी उसकी लहरें
आिखर थपेड़ रहीं थीं
किसी शहर के तटबंधों को
धोती बाढ़े से उसकी इमारतों के पैर
अपने पतले पारदर्शी हाथों से उसने
जमीन पर पड़े रसायनों के घाव साफ किये
शरीर के हर हिस्से पर जूट के बंधनों के निशानों को सहलाया
पूरी बरसात उन्होंने लिपट कर टिन की छतों पर पड़ती
बारिश में बड़ा करुण रुदन किया

विपत्ति में हँसना सहज तो नहीं होता
जब कोई देखने को ही न हो तुम्हारा हंसना

5.
वो चलते गए
जैसे उन्हें कहा गया
झेलते झुंडों में, हिंसा और न$फरत
गिरते गए अतल गड्ढे में
जैसा गांधी ने कहा था उन्हें करना चाहिए था

शायद किसी दिन वो गड्ढे भर जाते और लोग उनके ऊपर से
निकल जाते जीवित
शायद भूमि कोमल हो जाती और उन्हें मार नहीं पाती
शायद उनके शरीर फौलाद हो जाते गिरने के प्रभाव से
उत्तर दिशा का रास्ता पूछते पूछते शायद वो पहुँच जाते बर्फ के
किलों में सुरक्षित
पर भूमि की भूख अमिट थी
और उनका जानवर होना भी

सलाहों के पुलिंदे भूल गए कि
लोग ढंक देते हैं गुफाओं के मुँह चट्टानों से
जब तुम अन्दर लड़ रहे हो बचपन से पुराने असुरों से
और बुला लाते हैं किसी अनजान तीरंदाज हसासिन को
जो तमाम संघर्षों से जीवित निकल आने के बाद
किसी पेड़ की ओट से तुम्हें बींधकर मार डालेगा
समुद्र तुम्हारे रक्त के
पाटे जायेंगे चट्टानों से, हड्डियों से

6.
बरसात की बूँदें अब तट की चद्दरों पर नाचे बिना
खो देतीं हैं अपनी पहचान
शाक्र्स के खाने को वहाँ शिकार नहीं बचा है
धरती के आँसू और उसके घावों का पीब,
जो मीठा होकर भी विष है,
तुम्हारे और समुद्र के बीच में
दीवार होकर मत्र्यों से बदले के लिए जलता
सिन्धु सभ्यता से लेकर वर्तमान तक अद्यतन यमलोकीय बही खाते
बगल में दबाये

वो तुम्हारी नस-नस से वाकिफ है
तुम्हारे हर भय से
और तुम नहीं समझते उसका एक लेश भी
वो बिछाएगा दूर दूर तक फैले सोचे-समझे अदृश्य जाल
शैवालों की प्रलयंकारी स्थानीय बाढ़
जिसकी जटाएं निकलेंगी तुम्हारी सभ्यता की बैसाखियां
महासागरों के खंदकों को उलीचना काफी न होगा तब
ढूँढने और सुधारने को, तुम्हारी गलतियाँ
7.
अमरत्व एक पंगु छलना है
जैसे
बिना बाहरी उर्जा के, सतत चलने वाली मशीन
बीतने से रोकना अपने समय को
इंसान से बेहतर होने की कोशिश करना किसी कृत्रिम चेतना का
निर्धारित करना व्यक्ति की परिभाषा
सीखना किसी और की भाषा पूरी तरह से

अधसुलझे धागों की एक झील का
सुनना अपने वातावरण को
और बदलना अपने विन्यास को उसके माकूल
जिसका हिस्सा है अरबों लोगों का मरना,
भूख से बिलबिलाना
न समझ पाना एक-दूसरे को एक ही भाषा में बात करके भी
नष्ट होना सभ्यताओं का
फटना हज़ारों सूर्यों का
होना बुद्ध

हो नहीं सकता, या मुश्किल है?

8.
अगर दुनिया इतनी बुरी है
तो तुम उसके लिए कविता क्यों लिखते हो?

उसके कीचड़ और उसकी कालिख से तुम एक पृष्ठभूमि तैयार करते हो
रक्त और क्रंदन से एक रुपरेखा बनाते हो
फिर उसके घावों के पीब से, मल मूत्र और नाक के बहावों से
उसमें रंग भरे
फिर मुस्कुराहटों-चुटकुलों-पुकारों के पुट यत्र-तत्र चढ़ा दिए
फिर उसे दुनिया की तरफ घुमा कर
ऐसा मूक अभिनय करते हो
जैसे आईना दिखा रहे उसे

तुम सोचते हो कि तुम जानते हो
कि किसी चमार या भंगी के फटेहाल होने को
या कि भूख-रेप-प्रताडऩा कैसे महसूस होते हैं
कैसी बातें करते हो, कवि बाबू!
थोड़ा दाएँ-बाएँ देख-सुन लो

''हेल्प्स टू गेट रिड ऑफ द बेड ब्लड'', क्लेमेंज़ा ने कहा

9.
पैदा होने पर तुमने मुझे एक खूबसूरत झील में तैरने को छोड़ा
और मुझे बताया कि मैं एक आज़ाद व्यक्ति हूँ
मुक्त बनाने को घरोंदे और सोची समझी कलाकृतियाँ

फिर मेरी जरूरतों का मोटे तौर पर अनुमान लगाकर
तुमने इस सब के क्वान्टा बना दिए
जिनके बदले मुझे मिला
शैवालों का फलता फूलता कीचड़
धरती का धीमा, कर्णभेदी विलाप
सभ्यता की उतरन
असंख्य बेनाम कब्रें
कच्चे तेल से निर्दयी धूसर अवांछित मर्म
कानून के धागों का दिशाओं में ठूंस ठूंस कर भरा जमावड़ा

टुकड़े टुकड़े करके कैद
थोड़ी थोड़ी मौत
किसी खेत में खाळे और बाड़ से घिरे
कोने की सपाट जमीन पर एक पेड़ के नीचे
मुझे चुपचाप बैठे
जाड़ों की धूप सेंकनीं थी

तुमने उसके बदले लाकर दी मुझे एक
बदसूरत झील
जिसके जिस्म में कीलें ठुकीं हुईं थीं
जितने दुनिया में लोग


कोशिकीय एवं आणविक जीव विज्ञान केन्द्र, हैदराबाद


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