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जनवरी 2018

बंद गली

नय्यर मसूद

उर्दू रजिस्टर/कहानी-एक

नय्यर मसूद उर्दू अदब के बड़े कथाकार हैं। उनका जन्म 1936 में लखनऊ में हुआ। उनके हिस्से में अनेक मशहूर उपन्यास और कहानियों के संग्रह हैं। लखनऊ विश्वविद्यालय के फारसी भाषा विभाग में वे लम्बे समय तक प्रोफेसर रहे। आप विख्यात स्कालर मसूद सैय्यद मसद हसन रिज़वी 'अदीब' की संतान थे। 2001 में उन्हें साहित्य अकादमी का सम्मान मिला और अभी कुछ महीनों पूर्व 24 जुलाई 2017 को उनका निधन हुआ। उन्होंने फ्रेंच काफ़्का की मशहूर कृतियों के उर्दू में अनुवाद भी किये हैं।
इन कहानियों (बंद गली और नोशदारू) को हमारे संपादकीय सहयोगी अजमल कमाल ने हिन्दी में तैयार किया है और उन्हीं के मशविरे से नय्यर मसूद की ये दोनों कहानियां एक क्रम में छापी जा रही हैं। पाठक इन्हें इसी तरह पढ़ें।




इस बार वतन आने के बाद मैंने शहर में दिन दिन-भर घूमना शुरू किया इसलिए कि मेरे पास कुछ करने को नहीं था। मेरी अम्मां सिलाई कढ़ाई का काम कर के जो थोड़ी बहुत रक़म पैदा करती थीं वो हम माँ बेटों का पेट भरने को काफी थी, बल्कि मेरे लिए तो हमेशा उम्दा खाना पकता था। अम्मां जैसा कुछ भी खाती हों, मगर मुझे दोनों वक़्त खाने को गोश्त और कोई मीठी चीज़ ज़रूर मिलती थी। सुबह दूध के साथ कभी जलेबी और कभी शीरमाल का नाश्ता कर के मैं घर से निकल जाता था और दोपहर तक शीश-महल, हुसैनाबाद, मुफ्तीगंज से लेकर ठाकुरगंज, चौक, सआदतगंज तक का चक्कर लगा लेता था। मैंने कोई दोस्त नहीं बनाया था इसलिए बगैर किसी से बात किए, पुरानी इमारतों को देखता, तंगगलियों में घूमता फिरता था। दोपहर को घर वापिस आता तो अम्मां की नमाज़ की चौकी पर मेरा खाना सेनी से ढका रक्खा हुआ मिलता था। मैं खाना खाता, झूटे बर्तन कुंवें के पास रख देता और इसी चौकी पर कुछ देर लेट कर सो लेता था। तीसरे पहर को अम्मां काम पर से वापिस आतीं तो मेरे लिए कुछ-न-कुछ खाने को ज़रूर लाती थीं। कभी कोई नया फसली फल, कभी अकबरी दरवाज़े की कोई उम्दा मिठाई और कभी बालाई के पान जो मुझको बहुत पसंद थे। मुझे भूख नहीं होती थी, फिर भी उनकी मुहब्बत से दी हुई चीज़ थोड़ी-सी खा लेता और फिर घूमने निकल जाता था। इस वक़्त मैं ज़्यादा घूमता नहीं था बल्कि रूमी दरवाज़े के बुरज में बैठ कर शहर पर शाम उतरते, फिर रात होते देखता। रात होते वक़्त बुरज से उतर कर बाज़ारों का चक्कर लगाता हुआ घर वापिस आ जाता जहां अम्मां खाना पकाती मिलतीं। इस वक़्त मुझको खूब गर्मगर्म खाना मिलता। मेरे आगे वही गोश्त, चावल लगता था और अम्मां के आगे वही चपाती और कोई सादी तरकारी या दाल, लेकिन मैं ज़बरदस्ती उनको अपने हिस्से में से कुछ खिलाता और ज़्यादा रात आने से पहले ही सो जाता था। इस तरह देखा जाए तो खासी आराम की ज़िंदगी थी, हालांकि हमारे घर में आराम का सामान गोया कुछ था ही नहीं। खाने-पकाने के पाँच पिचके हुए बर्तन, एक टूटा हुआ निवाड़ी पलंग, एक हिलती हुई नमाज़ की चौकी, लोटा, बाल्टी, मामूली बिस्तर, एक घड़ा, कटोरा और खजूर की दो चटाईयां, ये हमारी कुल बिसात थी। मेरे पास पहनने के कपड़े भी ढंग के नहीं थे। सिर्फ दो जोड़े थे जो घिसने के क़रीब हो गए थे और अम्मां रोज़ नया जोड़ा बनवाने का इरादा ज़ाहिर करती थीं। रफ्ता-रफ्ता मेरे कपड़े चीथड़ों की शक्ल इखतियार करने लगे जिन्हें अम्मां की कारीगरी किसी तरह पहनने के लायक़ रक्खे हुए थी। उन्होंने कभी मुझसे ये नहीं कहा कि मुझे भी कुछ काम करना चाहिए। मेरी उम्र अठ्ठाईस बरस की हो चुकी थी लेकिन मुझको न अपनी बढ़ती हुई उम्र का एहसास था न इसका ख़्याल आता था कि मैं खासा पढ़ा-लिखा हूँ। अपने हमउमर जवानों को देखकर भी में उनकी और अपनी हालत का मुक़ाबला नहीं करता था। अब सोचता हूँ कि वो मेरी ज़िंदगी का अच्छा ज़माना था। लेकिन एक दिन उस ज़माने का ख़ातमा शुरू हो गया।
रात हो गई थी और मैं रूमी दरवाज़े से उतर कर गोल दरवाज़े से होता हुआ चौक में से गुज़र रहा था। बीच चौक में पहुंच कर मुझे महसूस हुआ कि बाज़ार में सन्नाटा है और दुकानें सब-की-सब बंद हैं। मैं सोच रहा था कि शायद आज बाज़ार बंद रहने का दिन है और दिल ही दिल में हफ़्ते के दिनों का हिसाब लगा रहा था जो महीने की तारीख़ों की तरह मुझे कभी याद नहीं रहते थे। इतने में कहीं दूर पर एक शोर सुनाई दिया और मेरे क़दम तेज़ी से उठने लगे। फिर किसी और तरफ़ से भी शोर उठा, और अब मुझे पता चला कि पूरे चौक में मेरे सिवा एक भी आदमी नहीं है। शोर कुछ और बढ़ा और चौक की सड़क से इधर-उधर फूटने वाली गलियों में कुछ हलचल सी पैदा हुई। किसी ने पुकार कर किसी से कुछ कहा और मुझे मकानों के दरवाज़े बंद होने के धड़ाके सुनाई दिए; फिर रौशनियों के साथ एक हुजूम नज़र आया जो अकबरी दरवाज़े के नीचे से गुज़र कर मेरी तरफ़ बढ़ रहा था। मुझे अपने दाहने हाथ वाली चौड़ी गली में भी शोर सुनाई दिया और मैं बे-सोचे-समझे बाएं हाथ की एक तंग गली में घुस गया। कुछ दूर बढ़कर उस गली के पहलू में एक और गली मुड़ती दिखाई दी। मैं इस गली में मुड़ गया, मगर कोई पचास क़दम आगे बढ़कर गली आहिस्ता-आहिस्ता एक सिम्त घूमना शुरू हुई, फिर अचानक बंद हो गई। इस अंधी गली में ज़्यादा-तर मकानों के पिछवाड़े थे। सिर्फ सामने, जहां गली ख़त्म होती थी, एक सदर-दरवाज़ा नज़र आ रहा था। ये दरवाज़ा थोड़ा खुला हुआ था। मैं उस की तरफ़ बढ़ रहा था कि अंदर से किसी ने उसे बंद कर लिया। मैं कुछ और आगे बढ़ा तो दरवाज़े के दूसरी तरफ़ क़ुंडी लगने की खडख़ड़ाहट सुनाई दी। मुझे महसूस हुआ कि दूसरी तरफ़ जो कोई भी है उसे कुंडी चढ़ाने में कामयाबी नहीं हो रही है। उसी वक़्त गली के दहाने की तरफ़ दौड़ते हुए क़दमों की आवाज़ आई और मैंने लपक कर सदर-दरवाज़े को अंदर की तरफ़ ढकेला।
दूसरी ओर से कमज़ोर सा विरोध हुआ। गली के दहाने पर आवाज़ के साथ कोई चीज़ चमकी और मैंने दरवाज़े पर पूरे बदन का ज़ोर लगाया। दरवाज़ा लम्हा-भर को रुक कर खुल गया और में उस की चौखट फाँद कर अंदर चला गया। तारीक ड्योढ़ी में मुझे चूडिय़ों की खनक और हल्की-सी ख़ौफ़ज़दा चीख़ सुनाई दी, लेकिन मैंने इस पर ज़्यादा ध्यान दिए ब$गैर जल्दी से दरवाज़ा बंद कर के उस से अपनी पीठ लगा दी। एक हाथ को बड़ी दिक़्क़त से पीछे घुमा कर मैंने कुंडी टटोली और चढ़ा दी। ड्योढ़ी में अब ख़ामोशी थी।
''यहां कौन है?'' मैंने पूछा।
कोई जवाब नहीं मिला। मैं कुछ देर वहीं रुका रहा। मकान के अंदर ख़ामोशी थी। मैं ड्योढ़ी के अंदरूनी दरवाज़े की तरफ़ बढ़ा। दरवाज़े के सामने एक दहलीज़ उतर कर पर्दे की दीवार थी। ख़ुद को दीवार की आड़ में रखकर मैं सेहन में उतरा। मेरा पैर टीन की किसी चीज़ से टकराया और वो चीज़ हल्की आवाज़ के साथ एक तरफ़ लुढ़क गई। मुझे क़रीब ही मु$र्गीयों की कुड़कुड़ाहट सुनाई दी और मैंने एहतियात के साथ दीवार के दूसरी तरफ़ झांक कर देखा। सब कुछ धुँदला धुँदला था। सामने एक दालान नज़र आ रहा था जिसके बीच वाले दर में मद्धम रोशनी की लालटैन लटक रही थी। मैंने पैर से टटोल कर टीन की चीज़ को हल्की सी ठोकरमारी। उस की आवाज़ के जवाब में फिर मु$र्गीयों की कुड़कुड़ाहट सुनाई दी। अब मैं ज़रा इतमीनान के साथ बीच सेहन में आ गया। हल्की रोशनी में मकान का नक़्शा मेरी समझ में ठीक से नहीं आया, लेकिन इतना अंदाज़ा होता था कि सेहन के तीन तरफ़ दालान हैं, ऊपर की मंज़िल नहीं है और ड्योढ़ी से सटा हुआ बावरीची ख़ाना, ग़ुस्ल-ख़ाना, मुर्गी-ख़ाना वगैरा है। दालानों के पीछे कोठरियां थीं और सब बाहर से बंद मालूम होती थीं।
अब मुझे उस की िफक्र हुई जो ड्योढ़ी के अंदर से दरवाज़ा बंद करना चाह रही थी। मैं ड्योढ़ी में वापिस आया, कुछ देर तक अंधेरे में देखने की कोशिश करता रहा, फिर बोला:
''मुझसे डरने की कोई बात नहीं। मैं ख़ुद डरा हुआ हूँ।''
कुछ जवाब नहीं मिला। अब मैं फिर सेहन में उतरा। दर में लोहे की आंकड़ेदार छड़ से लटकती हुई लालटैन उतार कर फिर ड्योढ़ी में आया। लालटैन की चिमनी क़रीब-क़रीब काली हो रही थी, फिर भी तारीक ड्योढ़ी के लिए उस की रोशनी काफ़ी थी। ड्योढ़ी ख़ाली थी लेकिन उस के एक कोने से मिला हुआ एक नीचा-सा दरवाज़ा नज़र आ रहा था जो आधा खुला हुआ था। मैंने लालटैन वाला हाथ दरवाज़े के अंदर किया, फिर सर अन्दर डाल कर इधर-उधर देखा। छोटी-सी कोठरी थी जिसमें दरवाज़ों के गले हुए पट, पलंगों के पाए और पट्टियाँ, एक मसहरी का ढांचा और उस पर मैली निवाड़ के उलझे हुए लच्छे और इसी तरह का दूसरा सामान भरा हुआ था। मैं लालटैन को घुमा घुमा कर कोठरी का जाएज़ा ले रहा था कि निवाड़ के एक बड़े-से लच्छे में मुझे हल्की-सी जुम्बिशनज़र आई और मैं कोठरी में दा$िखल हो गया। एक औरत उस लच्छे के पीछे छिपने की कोशिश कर रही थी।
बाहर आईए, मैंने कहा, ''मुझसे डरिए मत।''
वो ख़ामोश रही।
''मैं जान के डर से यहां चला आया था,'' मैंने कहा। ''मैं ख़ुद डरा हुआ हूँ, लेकिन अगर आपको मुझसे डर लग रहा है तो जाता हूँ।''
वो फिर भी कुछ नहीं बोली, और अचानक मुझे एहसास हुआ कि मैं वहां हूँ जहां मुझको नहीं होना चाहिए था। मैंने कहा :
''बाहर लोग चाक़ू छुरीयां लिए घूम रहे हैं। ख़ैर, देखा जाएगा।''
इस के बाद मैं कोठरी से बाहर आ गया। सदर-दरवाज़े की कुंडी बहुत कसी हुई थी। लालटैन ज़मीन पर रखकर मैं दोनों हाथों से उसे खोलने की कोशिश कर रहा था कि अपनी पुश्त पर मुझे कुछ गर्मीसी महसूस हुई और मैंने पलट कर देखा।
ज़मीन पर रक्खी हुई लालटैन की मरी-मरी रोशनी में उस का चेहरा डरावना सा मालूम हो रहा था। मैंने झुक कर लालटैन ऊपर उठाई। उसी वक़्त मुझे उस की आवाज़ सुनाई दी।
''आप यहां क्यों आए हैं?''
''गली में यही एक दरवाज़ा था,'' मैंने कहा। ''लेकिन अब जा रहा हूँ।''
''बाहर क्या हो गया है?''
''मालूम नहीं। शायद कोई झगड़ा हुआ है।''
वो देर तक ख़ामोश रही और मुझे फिर एहसास हुआ कि मैं वहां हूँ जहां मुझको नहीं होना चाहिए था। मैंने एक हाथ से कुंडी खोलने की नाकाम कोशिश की। मुझे ये सोच कर हैरत हुई कि कुछ देर पहले मैंने पुश्त पर हाथ घुमा कर उसे आसानी से चढ़ा दिया था। इतने में उसने पूछा :
''बाहर ख़तरा तो नहीं है?''
''ख़तरा?'' मैंने कहा। ''कुछ नहीं, सिवा इसके कि जब बाहर निकलूँगा तो ज़िबह कर दिया जाऊंगा।''
''तो अभी न जाईए,'' उसने कहा और लालटैन मेरे हाथ से ले ली। उसी वक़्त बाहर गली में दबा-दबा सा शोर और भारी चीज़ों के गिरने की आवाज़ें सुनाई दीं।
''अंदर आ जाईए,'' उसने कहा।
मैं उसके पीछे-पीछे सेहन में उतरा। लालटैन उसने बीच वाले दर में लटका दी। अब उसका चेहरा कुछ साफ़ नज़र आ रहा था। एक निगाह में वो मुझको बरसों की बीमार मालूम हुई, लेकिन मैं उसे ठीक से देख नहीं सका। वो देर तक मुझसे मुँह फेरे ख़ामोशी के साथ लालटैन को देखती रही। फिर उसी तरह मुँह फेरे-फेरे दालान की तरफ़ इशारा कर के बोली :
''बैठिए, आपने अभी खाना भी नहीं खाया होगा।''
मुझे वाक़ई बहुत भूक लग रही थी, लेकिन मैंने कहा :
''नहीं, भूक नहीं है।''
''हम कुछ लाते हैं,'' उसने कहा, ''आप बैठिए।''
मैंने उसे ड्योढ़ी की तरफ़ जाते देखा। कुछ देर तक बर्तनों की हल्की खडख़ड़ाहट सुनाई देती रही और मैं दालान में एक छोटी चौकी पर बैठा लालटैन की काली चिमनी को देखता रहा। फिर मैंने देखा कि वो एक गोल सेनी उठाए हुए रोशनी की तरफ़ आ रही है। दालान में आकर उसने सेनी चौकी पर रख दी और बोली :
''इस वक़्त यही है।''
मैंने सेनी की तरफ़ देखा। उस में दो-तीन बर्तन थे लेकिन ये नज़र नहीं आता था कि बर्तनों में क्या है।
''आपने ख़्वाह-मख़ाह तकलीफ़ की,'' मैंने कहा। ''मुझे कोई ख़ास भूक नहीं थी।''
''आप शुरू कीजिए,'' वो बोली। ''हम पानी ला रहे हैं।''
मैंने उसे सेहन की तरफ़ मुड़ते देखा, लेकिन उसी वक्त लालटैन हल्की आवाज़ के साथ भड़कने लगी। वो लालटैन के बिलकुल नीचे थी। उसने सर उठा कर लालटैन को देखा, फिर मुझको, और अब वो फिर पहले की तरह डरी हुई मालूम होने लगी।
आपको यहां नहीं आना चाहिए था, उसने घुटी घुटी आवाज़ में कहा। इस के साथ ही लालटैन आिखरी बार भड़की और बुझ गई।
घुप-अँधेरे में मुझे चूडिय़ों की खनक और कपड़ों की सरसराहाट सुनाई दी। फिर दालान में मेरी पुश्त पर कोई दरवाज़ा खुला और धड़ाके के साथ बंद हो गया। अब मकान में सन्नाटा था, अलबत्ता कहीं बहुत दूर पर-शोर हो रहा था।
मैं इसी अंधेरे में उठकर अंदाज़े से ड्योढ़ी की तरफ़ चला। पर्दे की दीवार का मुझको ख़्याल नहीं रहा था इसलिए मैंने पहली टक्कर इसी से खाई। संभलने की कोशिश में एक-बार फिर टीन की वो चीज़ मेरी ठोकर में आई और कुछ दूर तक लुढ़कती चली गई। मुर्गी ख़ाने में किसी मुर्ग ने ज़ोर से पर फटफटा कर बाँग दी और मैं ड्योढ़ी में दािखल हो गया। सदर दरवाज़े की किसी हुई कुंडी मैंने एक झटके में खोल ली और बाहर निकल आया।
चंद क़दम चल कर मुझे ख़्याल आया कि सदर दरवाज़े का ऐसे वक़्त में खुला रहना ठीक नहीं है, लेकिन उसे अंदर से बंद कर के बाहर आ जाना मेरे बस की बात नहीं थी, इसलिए उसे यूँ ही छोड़कर मैं बंद गली से बाहर आ गया।


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