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जनवरी 2018

शोक कविताएं

अजय सिंह

कविता





निर्मला ठाकुर (1941-2014)

तुम्हारी ज़िंदगी
उस समर्पित तानपूरे की तरह थी
जिसे कपड़े की खोली ओढ़ाकर
कमरे के एक कोने में
रख दिया गया
कभी बजाया नहीं गया
जिस पर धूल जमती रही

उस तानपूरे की कराह
कभी-कभी
सुनायी दे जाती थी

मोहन थपलियाल (1942-2003) को याद करते हुए

इक्का-दुक्का पुराने लोगों
को छोड़ कर
अब कोई तुम्हें याद नहीं करता
एक कहानीकार के रुप में
तुम लगभग भुला दिये गये हो
फुटनोट में भी जगह नहीं मिलती तुम्हें
हिन्दी कहानीकारों की जो सूची बनती है
उसमें आदि-इत्यादि में भी
तुम्हारा ज़िक्र नहीं होता
तुम कब मरे कब पैदा हुए
अब किसी को याद नहीं
तुमने तिकड़म-जुगाड़ किया नहीं
संपर्क बनाने-साधने की कला से
(जिसे आजकल नेटवर्किंग कहा जाता है)
दूर रहे
किसी मठाधीश या आईएएस अफसर
के यहां तुमने हाज़िरी नहीं लगायी
आयकर विभाग वाणिज्य कर विभाग सूचना विभाग
के आला अधिकारियों को मक्खन लगा कर
और उनकी दो कौड़ी की
रचनाओं पर वाह-वाह करके
हासिल किये गये
लकदक विज्ञापनों से भरपूर
दो-तीन सौ पेज की कबाड़ पत्रिका नहीं निकाली
किसी पत्रिका का कोई अंक अपने ऊपर निकलवाया नहीं
कोई आलोचक या विश्वविद्यालय का प्रोफेसर
किसी बड़े अखबार या धमाकेदार पत्रिका का संपादक
या हर हफ्ते कलावादी कॉलम लिखनेवाला कलमघिस्सू
तुम्हारा यार नहीं था
ऐसे में तुम्हारी चर्चा करने से
फायदा क्या था
ऐसा भी जीवन क्या जिया तुमने!
लौंडे-लपाड़ों की कहानियां
कोर्स में पढ़ायी जाती रहीं
और तुम्हें 'अंकल' कह कर
किनारे कर दिया जाता रहा
ज्ञानरंजन   महेन्द्र भल्ला   मा$र्खेज़    बोर्खेस   भिखारी ठाकुर
से कच्चा-पक्का माल उड़ाने वाले
चिट्ठी-पत्री बांचने वाले
अवैध (?) गर्भ की कुंडली तैयार करने वाले
रज़ामंदी से किये जा रहे संभोग को
बदला लेने का कारगर औज़ार बताने वाले
कहानी के चमकीले बादशाह बताये जाते रहे
तुम लिखते रहे
'गुणेंद्र गंजू की डायरी', 'शवासन',
'पम पम बैंड मास्टर की बारात', 'सालोमन गुंडे',
'मांस खाने की इच्छा' और 'छज्जूराम दिनमणि'
जैसी बेहतरीन   मानीखेज़ कहानियां
किसे फुरसत या गरज थी
कि वह इन कहानियों की
अंतर्वस्तु   सौंदर्यशास्त्र
पर माथापच्ची करता

तुम जब मरे
हिंदी कहानी जगत ने
अपनी कृतघ्नता में
चैन की सांस ली

वीरेन डंगवाल (1947-2015) को याद करते हुए

राम सिंह को तुमने बताया:
भाड़े का बंदूकची बनने की जगह
मेहनतकश जनता का झंडा लेकर
आगे-आगे मार्च करना
सार्थक ज़िंदगी की
बुनियादी शर्त है

नीलाभ (1945-2016) को याद करते हुए

तुम हाय इलाहाबाद   हाय इलाहाबाद करते रहे
मरे दिल्ली में
तुम कहते रहे नहीं रहना दिल्ली लौटना है इलाहाबाद
मरे दिल्ली में
तुम्हें दिल्ली कभी पसंद नहीं आयी चिढ़ते रहे हमेशा इससे
लेकिन उसी दिल्ली ने तुम्हारा भरपूर साथ दिया
(दिल्ली ने बहुतों का साथ दिया है
बहुतों की िकस्मत संवारी है)
तुम अपने बनाये नरक से
बाहर आ जाने की बात करते रहे
लौटे उसी नरक में
अपनी मर्जी से
मरे उसी नरक में    अपनी मर्ज़ी से
जिसे तुमने अपना स्वर्ग बताया था
उसकी ओर तुमने भरपूर कीचड़ फेंका
तुम
एक बेहतरीन कवि   बेहतरीन गद्यकार
बेहतरीन अनुवादक  बेहतरीन लेफ्ट ऐक्टिविस्ट
क्यों था तुम्हारी ज़िंदगी में
इतना खालीपन  उतावलापन  लंपटपन
तुम्हारी परस्पर-विरोधी छवियां
गड्डमड्ड  चक्कर काटती रहती हैं
किस चीज़ की तलाश थी तुम्हें
तुम्हारा अंत
दुखांत नाटक की तरह था
तुम्हें अभी ज़िंदा रहना था
मुझे करनी थी तुमसे
भरपूर लड़ाई  लंबी ज़िरह
तुमसे लेना था
'ज्ञानोदय' पत्रिका का 'नयी कलम अंक'
जे 1966 या 1967 में निकला था
और जिसमें संपादक रमेश बक्षी ने
तुम्हें  मुझे और सुधा अरोड़ा को
पहली बार साथ-साथ छापा था

पंकज सिंह (1948-2915) को याद करते हुए

जब तुमने लिखा :
साम्राज्ञी आ रही है
तब क्या तुमने सोचा था
किसी वक्त कोई नंगा राजा आयेगा
लकदक कपड़े पहने हुए
और वह
हमारे जिस्म-ओ-जां को
कुचलता हुआ
हमारी अंतडिय़ों को चीरता हुआ
हत्या का उत्सव मनायेगा?

अजंता लोहित (1957-2007) को याद करते हुए

प्यार और राजनीति
उसकी ज़िंदगी के दो पहलू थे
वह प्यार किये बिना रह नहीं सकती थी
और राजनीति उसकी नस-नस में थी
राजनीति ने उसे आज़ादी दी
उसे ताकतवर बनाया
उसका प्यार भी
पॉलिटिकल स्टेटमेंट होता था

राजनीति करना कोई उससे सीखे
प्यार करना कोई उससे सीखे

अजय सिंह (1946-2017) को याद करते हुए

यहां दफन है अजय सिंह
कमलघिस्सू कवि
कलमघिस्सू पत्रकार
हालांकि वह ढंग का न कवि बन पाया न पत्रकार
न कवियों की सूची में उसका नाम रहा न पत्रकारों की
वह अपने को लेखक व राजनीतिक विश्लेषक भी कहता था
इस मामले में भी वह फिसड्डी रहा
होने को तो वह दोस्त सहजीवी साथी लवगुरु कॉमरेड प्रेमी भी होता था
वह शौहर पिता नाना था
लोगों के ज्ञानचक्षु खोलने वाला
बात-बात पर सलाह देने वाला
मास्टर भी था
लेकिन सब आधा-अधूरा
लखनऊ में निशातगंज के जिस कब्रिस्तान में वह दफन है
उससे चंद कदम के फासले पर
उसके प्रिय कवि असरारुल हक मजाज़
ज़मीन के नीचे   बहुत नीचे
आराम फरमा रहे हैं
उनकी कब्र पर फूल चढ़ाने
इक्का-दुक्का ही कोई आता है
वह सोचता है
मजाज़-जैसी ज़िंदगी व शोहरत उसे क्यों नहीं मिली
क्यों वह मजाज़ व आधे-अधूरे ख्वाब
आधे-अधूरे इन्कलाब का
वारिस न बन सका
वह प्रेम बड़ी गहराई से करता था
जबकि उससे ज़्यादातर समकालीन
प्रेम को
महा फालतू    महा समयखाऊ   महा वाहियात
काम समझते थे
हालांकि औरत के लिए
उनकी लपक देखते बनती थी
कितनी औरतें उसकी ज़िंदगी में आयीं और गयीं
वह सबसे प्रेम करता था
कितने आधे-अधूरे ख्वाब आये और गये
सब उसके दिल के करीब थे
कितनी आधी-अधूरी क्रांतियां आयीं और उसे छूती हुई  गुज़र गयीं
वह उन सबका रहबर था
वह हर किसी का था और किसी का नहीं था
जब वह अपने कब्र की ओर एक-एक कदम बढ़ रहा था
रास्ते में उसे अचानक
एक परी मिली
न जाने किस लोक से भटकती हुई धरती पर आ गयी थी
पता नहीं क्यों
उस परी में उसे
अपना खोया हुआ अक्स दिखायी पड़ा
परी ने उसे रोका और पूछा :
कहां जा रहे हो?
जवाब मिला :
अपनी कब्र की ओर!
परी ने कहा :
अरे, इतनी जल्दी!
वहां तो देर-सबेर हर किसी को जाना है
तुम्हें अभी कई काम करने हैं
और उसने बर्तोल्त ब्रेख्त का एक डॉयलाग मारा :
तुम अपनी आखिरी सांस तक नयी शुरुआत कर सकते हो!
और यह कह कर गायब हो गयी
उसने परी को बहुत ढूंढ़ा
लेकिन पता नहीं वह किधर उडऩ-छू हो गयी थी
कब्र में लेटा हुआ वह सोच रहा है
वह भी उस परी के साथ उडऩ-छू
हो गया होता
तो कितना अच्छा रहता
उसने अपनी कब्र के पत्थर पर
लिखवाया है :
कॉमरेडो और दोस्तों,
तुम्हारे कल के लिए
मैंने अपना आज कुर्बान कर दिया!
वह मुस्करा रहा है
लोग इस जुमले को पढ़ कर सोचते होंगे
अजय सिंह ज़िंदगी भर सिरफिरा ही रहा!

जैसी कि रस्म है
उसे याद करने के लिये बेमन से शोक सभा हो रही है
कुछ लोग मन-ही-मन हंस रहे हैं
अच्छा हुआ मर गया साला
शहर की कुछ नायाब सुंदरियों पर
इस कमबख्त ने कब्ज़ा जमा रखा था
अब वे सुंदरियां हमारी गिरफ्त में आयेंगी

लेकिन अजय
कब्र में लेटा हुआ
उस परी के बारे में सोचता रहता है

 

लखनऊ/पटना/दिल्ली
मई-सितम्बर - 2017
संपर्क : मो. 09335778466


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