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अक्टूबर-2017

समकालीन हिंदी कविता का विशिष्ट और प्रतिनिधि स्वर

प्रियदर्शन

समकालीन

 

 सुप्रसिद्ध एनडीटीवी से जुड़े प्रियदर्शन आलोचना में अपनी बड़ी पहचान बना रहे हैं। उनकी कलम सही जगह पर पहुँचती है और जिम्मेदारी से लिखती है। मो. 09811901398

 

 

 

आर चेतन क्रांति की कविता के बहाने कुछ टीपें

 

निस्संदेह समकालीन हिंदी कविता बहुत समृद्ध कविता है। इस समय लगातार लिख रहे पुराने दौर के कवियों को छोड़ दें तो भी इक्कीसवीं सदी की कविता का संसार बहुत भरा पूरा है। कायदे से देवी प्रसाद मिश्र, संजय चतुर्वेदी, बदरीनारायण, अनामिका, कुमार अंबुज, एकांत श्रीवास्तव, निलय उपाध्याय, विमल कुमार, गगन गिल, कात्यायनी और सविता सिंह जैसे कवियों के बाद आई यह काव्य पीढ़ी (या पीढिय़ां) अनुभव के बहुत सारे रेशे और अभिव्यक्ति के बहुत सारे औजार साथ लाई है। हालांकि कई बार यह भी महसूस होता है कि पुराने कवियों का जो चौकन्ना राजनीतिक प्रशिक्षण था- शायद शीतयुद्ध के वैश्विक वैचारिक संग्राम और समाजवाद-नक्सलवाद के स्थानीय दबावों के साझा रसायन से बना हुआ- वह आज के कवियों में कुछ कम है और परंपरा का पाठ भी कुछ झीना है, इसके बावजूद हमारे समय में बहुत सारे कवि हैं जिन्होंने हिंदी को कुछ बहुत मार्मिक कविताएं दी हैं। गीत चतुर्वेदी कई विलक्षण अनुभव रचने वाले कवि हैं, बाबुषा कोहली प्रतीकों और बिंबों की बहुत गझिन और चमकती कविता पैदा करती हैं, अविनाश मिश्रा के पास बात कहने का एक अलग सलीका है। हाल के दिनों में अंबर रंजना पांडेय ने अपनी विपुल शब्द संपदा का परिचय देते हुए कुछ बहुत अलग कविताएं लिखी हैं, बल्कि छद्मनामों से उससे भी दिलचस्प खेल किए हैं। शुभमश्री समकालीन कविता में किसी तोडफ़ोड़ से कम नहीं हैं जो भाषा, विचार, कहन हर स्तर पर एक बागी तेवर के साथ लिख रही हैं। बहुत कम कविताओं के साथ मोनिका कुमार ने अपनी छाप छोड़ी है। सोच और शिल्प की अभिनवता के साछ कुछ शरारती शायक आलोक ने कई बेहतरीन कविताएं लिखी हैं, वीरू सोनकर की भाषा प्रभावित करने वाली है। निर्मला पुतुल, अनुज लुगुन और जसिंता केरकेट्टा इस कविता में आदिवासी आवाज़ें जोड़ते हैं। जैसे-जैसे कुछ पीछे लौटते हैं, यह सूची बड़ी और प्रभावशाली होती लगती है। परंपरा के बहुत गाढ़े परिचय के साथ कुमार अनुपम, स्त्रीत्व का नया पक्ष रचने वाले पवन करण, इतिहास पर कुछ बहुत अच्छी कविताएं लिखने वाले पंकज राग, और कुछ पीछे लौटते हुए संजय कुंदन, पंकज चतुर्वेदी, गिरिराज किराडू और नीलेश रघुवंशी तक हिंदी कविता का वितान बहुत बड़ा और इंद्रधनुषी है। निस्संदेह जितने समर्थ कवि इस सूची में हैं, उतने इससे बाहर भी हैं और शायद कहीं से कमतर नहीं। यह भी सच है कि इनमें से कई कवि कई बार अपनी कविता को भाषा के खेल तक महदूद करते पाए जाते हैं और कई बार उस वैचारिक समझ से वंचित दिखते हैं जो उन्हें बड़ा कवि बना सके, लेकिन इन सबके बावजूद ये सारे नाम एक समर्थ भाषा के भीतर संभव होने वाली कविता की विविधता के पुष्ट प्रमाण हैं। इतने सारे कवियों के बीच आर चेतन क्रांति अगर इन तमाम वर्षों में अलक्षित या उपेक्षित रहे तो इसका कुछ दोष हिंदी की उस शिथिल हो गई आलोचना का भी है जो अपनी बनी-बनाई परिपाटियों से बाहर आने को तैयार नहीं है, या फिर हिंदी साहित्य की उस आपाधापी का जिसमें समर्थ लोग अपनी चर्चा करा लेते हैं, बाकी छूट जाते हैं। बहरहाल, यह निस्संकोच कहा जा सकता है कि इस पूरे दौर की सबसे प्रतिनिधि आवाज़- या आवाज़ें- सबसे मज़बूती से जिन कुछ कवियों में सुनाई पड़ती हैं, उनमें से एक आर चेतन क्रांति हैं।

 

आर चेतन क्रांति को पहली बार पढ़ते हुए धूमिल का खयाल आता है। धूमिल में अपने पाठकों को बेचैन और स्तब्ध कर देने वाला जो विकट यथार्थ-बोध था, अभिव्यक्ति का जो बीहड़पन था, वह उन जैसी आक्रामकता के साथ अगर नहीं तो वैसी ही तीक्ष्णता के साथ आर चेतन क्रांति की कविताओं में दिखता है।

लेकिन यह आर चेतन क्रांति की एक परत है। दूसरी बार उनको पढ़ते हुए किसी को रघुवीर सहाय की याद आ सकती है। रघुवीर सहाय का बौद्धिक चौकन्नापन, पाखंड की बहुत सारी तहों को हटा कर सच को बिल्कुल नग्न आंखों से देखने की निर्मम तटस्थता और व्यक्ति और समाज के बीच की लोकतांत्रिक द्वंद्वात्मकता भी आर चेतन क्रांति की कविताओं के भीतर बड़ी सहजता से सुलभ हैं।

आर चेतन क्रांति को तीसरी बार पढ़ते हुए, उनकी कुछ दूसरी तरह की कविताओं से गुज़रते हुए देवी प्रसाद मिश्र याद आते हैं- 'प्रार्थना के शिल्प में नहीं' के साथ हिंदी कविता के कहन में देवी जो तोडफ़ोड़ करते हैं, इतिहास और वर्तमान के बीच, संस्कृति और राजनीति के बीच, संशय और विश्वास के बीच के बहुत सारे असंबद्ध दिखने, मगर एक दूसरे से जुड़े रहने वाले, एक दूसरे को प्रभावित करने वाले सूत्रों को पहचानने-पकडऩे के लिए वे जिस अभिनवता का सहारा लेते हैं, आर चेतन क्रांति उसकी भी याद दिलाते हैं।

कहने की जरूरत नहीं कि अगर किसी एक कवि के भीतर ये सब मौजूद हों तो थोड़ा सा रसायन विष्णु खरे और मंगलेश डबराल का भी होगा ही।

इस अर्थ में आर चेतन क्रांति शायद हिंदी की समकालीन बौद्धिक विरासत के सर्वश्रेष्ठ कवि हैं।

कवि और भी हैं जिनको पढ़ते हुए दूसरे कवियों की याद आती है। यह परंपरा है जो हमारे भीतर चुपचाप दा$िखल हो जाती है- हमारे जाने-अनजाने भी। उस परंपरा का कितना अंश हम ग्रहण करते हैं, यह इस बात से तय होता है कि हमने अपने भीतर कितनी जगह बनाई है, अपना कितना विस्तार किया है। परंपरा में कई बार प्रक्षिप्त भी चला आता है- कूड़ा-कचरा भी- यहां हमारी संवेदनशीलता, हमारे विवेक, हमारे खाद्य-अखाद्य के बोध की परीक्षा होती है- इस बात की कि हम क्या ग्रहण करते हैं, क्या छोड देते हैं।

इस परंपरा में हम कई बार दूरस्थ बैठे ऋषियों से भी प्रेरित होते हैं, कई बार बिल्कुल समकालीनों से भी। नागार्जुन को पढ़ते हुए कबीर की या त्रिलोचन को पढ़ते हुए कभी-कभी तुलसी की याद आना सहज-स्वाभाविक है। अरुण कमल में कुछ मंगलेश डबराल, राजेश जोशी और वीरेन डंगवाल मिल जाते हैं तो वीरेन डंगवाल में कुछ शमशेर-केदार मिल जाते हैं। शमशेर में कभी-कभी मुक्तिबोध मिल जाते हैं, मुक्तिबोध में भी कई जगह शमशेर मिल जाते हैं। कुमार अंबुज में असद ौदी भी मिल जाते हैं। संभव है, इसका उल्टा भी होता हो। जिसमें कोई नहीं मिलता, या जिससे कोई नहीं मिलता, वैसा आकाशजीवी, मौलिक कवि दरअसल कवि नहीं, कुछ और होता है।

हमारा समय कई तरह की वक्रताओं और विडंबनाओं से भरा है। बहुत अभिभूत करने वाली चमक-दमक के पीछे बहुत आक्रांत कर सकने वाली क्रूरताएं हैं तो बहुत लोकतांत्रिक दिखने वाली व्यवस्थाओं के पीछे बहुत अधिनायकवादी मंसूबे हैं। बाज़ार राजनीति की सर्वानुमति भी बना रहा है और समाज-नीति की नैतिकता भी तय कर रहा है। नैतिक और अनैतिक के बीच का फर्क बहुत झीना होता जा रहा है। करुणा बर्बरता की पीठ पर बैठ कर आती है और कलाएं रुपये की खनक से अर्थ और हैसियत हासिल करती हैं। साहित्य सरोकार नहीं कारोबार है- बल्कि एक पिटा हुआ कारोबार जिसमें कविता कहीं प्रदर्शन की वस्तु है, कहीं परिहास की। हर तरफ सत्ता और शक्ति का बर्बर अट्टहास है जिसके हम लगातार आदी बनाए जा रहे हैं। इस जटिल-कुटिल यथार्थ को व्यक्त करना न गद्य में आसान है न कविता में। अच्छी बात यह है कि बहुत सारे लेखक कवि फिर भी लगातार इसके अलग-अलग पक्षों पर लिख रहे हैं, उसे समझने-पकडऩे-व्यक्त करने की कोशिश कर रहे हैं।

2004 में आए अपने पहले कविता संग्रह 'शोकनाच' के साथ आर चेतन क्रांति ने इक्कीसवीं सदी की दुनिया के पेच शायद सबसे करीने से पकड़े। इस संग्रह को पढ़ते हुए समझ में आता है कि कविता कैसे नई नजर देती है, या दृष्टि का वह धुंधलका हटाती है जिसके बाद सच कहीं ज़्यादा सच्चाई के साथ दिखाई पड़ता है। इक्कीसवीं सदी में जीने की कुंजी प्रबंधन है- सबकुछ प्रबंधित-प्रायोजित-परिभाषित है- प्रकृति हो या मनुष्य, उसकी उत्पादकता को प्रबंधन के दायरे में लाना, उसे उपयोगी बनाना इकलौता लक्ष्य है। जो इस लक्ष्य से बाहर है, इसे अस्वीकार करता है, वह विफल है, पीछे छूट जाने को अभिशप्त है। सत्ता राजनीति की हो या कविता की- यह एकमात्र सच है। उस संग्रह की पहली ही कविता में चेतन लिखते हैं,

'वे सभी जाग्रत जीव / जिनकी रगों के घोड़े / मांद पर बंधे ध्यानरत खाते होंगे संतुलित पुष्ट घास / विचार करेंगे / उन सभी पशुओं की नियति पर / जिनके खुर नहीं आते उनके वश में / वे ईश्वर को सलाह देंगे  / कि ये बैल, ये भैंस, ये कुत्ता, ये बिल्ली, / ये चूहा, ये हिरन, ये लोमड़ी, / ये सब दरअसल जंगल के जानवर हैं / कि इनके विकास के लिए कोई विज्ञान रचा जाए / वे सब-परिस्थितियां और मनस्थितियां होंगी जिनकी चेरी, / जिन्होंने किए होंगे सारे कोर्स,/  और शानदार ढंग से पाई होगी शिक्षा / कि कैसे रखें काबू में कच्ची ऊर्जाओं को / कि कैसे निबटें ठाठे मारती इस पशु ताकत से / जो हुक्म देती भी नहीं, हुक्म लेती भी नहीं, / इसे उत्पादन में कैसे जोतें।'

अनुशासन, आज़ादी और हाज़िरजवाबी की इस प्रबंधकीय कुटिलता से बनी दुनिया का सतहीपन उनकी कविता जैसे तार-तार कर देती है- सबसे प्रेरक ईष्र्याओं और सबसे हसीन चुटकुलों की सभ्यता पर चोट करती हुई और इशारा करती हुई उस भयावह भविष्य की ओर, जिसमें 'एक दिन वे बैठेंगे वहां और दुनिया की सफाई पर विचार करेंगे।'

चेतन की निगाह में यह औसत का राजमार्ग है- अपनी दृष्टिहीनता की कोख से उपजा हुआ। वे बिल्कुल सख्ती और सहजता से अपनी बात कहते हैं- और यह बिल्कुल खिल्ली उड़ाने जैसी मालूम होती है 

'कि राजा नहीं, प्रजा नहीं, भगवान नहीं, भक्त नहीं  /कि फाज़िल नहीं, ज़ाहिल नहीं, आसान नहीं, सख्त नहीं, / सिर्फ मीडियॉकर ही दुनिया को बचाएगा / कि कृष्ण का, कि राम का, कि ख्रीस्टा का, / कि वेस्ट का, कि ईस्ट का, / मिला-जुला ख़ुदा एक आएगा।'

यह ख़ुदा कौन होगा, चेतन नहीं बताते।

प्रबंधकीय औसतपन और बुद्धिहीनता का बीहड़ सिर्फ बाज़ार और शून्य पैदा नहीं करता, वह अपने बने रहने के लिए एक आसान सी क्रूरता पैदा करता है, सत्ता नियोजित सांप्रदायिकता का पोषण करता है, लोकतंत्र के भीतर ज़ख़्मी पहचानों की राजनीति का खेल खेलता है। इसी में 2002 का गुजरात भी घटित होता है। इस त्रासदी को हिंदी कविता ने कई तरह से पढ़ा है। मंगलेश डबराल की कविता 'एक मृतक का बयान', गुजरात के राहत शिविर को लेकर लिखी गई विष्णु खरे की कविता और ऐसी बहुत सारी दूसरी कविताएं हैं जो सांप्रदायिकता के विरुद्ध एक आख्यान बनाती है। मगर आर चेतन क्रांति संभवत: सांप्रदायिकता से लड़ाई में सबसे दूर तक जाते हैं और सबसे तीखे वार करते हैं। 'हत्यारे साधु जाएं हत्या करने मेरा यह शाप लेकर' एक अद्भुत कविता है जिसमें चेतन लिखते हैं, 'धर्माचार्यों, तुम्हारे दिन तो जा ही चुके थे बरसों पहले / लो, अब तुम्हारा धर्म भी गया / हत्या पर हत्या करके भी / अब तुम उसे लौटा नहीं सकते। / तुम्हारी हवस की लपटों बीच अकेला, असहाय, निहत्था खड़ा / भगवान के भी सहारे बिना / मैं तुम्हें शाप देता हूं / कि जाओ तुम्हारी क्षय हो, सतत / पाताल के सबसे गंदे कुएं में जाकर तुम गिरो,/ मारीच जैसी मौत मरा था, ऐसी मौत तुम मरो / और लौट-लौट कर रावण के कुल में ही जनमो / अनंत काल तक। / जब तक पूरी लंका, और पूरी अयोध्या न हो जाए नष्ट।'

यह सात्विक गुस्सा आर चेतन क्रांति की कविता को वह काव्यात्मक उदात्तता देता है जो अन्यत्र दुर्लभ है। इस संग्रह में ऐसी बहुत सारी कविताएं हैं जो सांप्रदायिकता की व्यर्थता, उसके छल और उससे पैदा होने वहशीपन के विरुद्ध पूरी ताकत से खड़ी हैं।

वह 2004 का साल था। तब से अब तक 12 साल बीत गए। 'शोकनाच' के बाद अब आर चेतन क्रांति का दूसरा संग्रह 'वीरता से विचलित' आया है। वीरता वह विशेषण है जिससे अब तक दुनिया अभिभूत रही है। वीर होना एक बड़ी नियामत है। लेकिन यह वीरता हमारे कवि को विचलित करती है। 2004 से 2017 तक आते-आते कुछ समय भी बदला है और कुछ हमारा कवि भी। लेकिन मूलभूत बदलाव दोनों में नहीं है। समय ज़्यादा कूर, ज़्यादा प्रबंधित, ज़्यादा उग्र और उन्मादी है। सांप्रदायिकता की विष-बेल राजनीति और सार्वजनिक जीवन से उठ कर घरों-परिवारों के भीतर पहुंच गई है, सारी पढ़ाई-लिखाई नौकरियों के लिए है और चमकदार करिअर की तलाश में लगे नौजवान अब विश्वविद्यालयों की धूल-मिट्टी का नहीं, निजी-चमचमाते संस्थानों के भव्य परिसरों का रुख़ करते हैं। दुकानों की जगह मॉल ने ले ली है जो बाहर बिखरी-पसरी गंदगी और विपन्नता से बिल्कुल अछूते, चमचमाते स्वर्ग जैसे लगते हैं। क्रूरता और कुलीनता का यह परस्पर आलिंगन इस संसार में बिल्कुल नया तो नहीं, मगर इस लिहाज से अनूठा है कि अब उसका पूरा एक सांस्कृतिक भाष्य और विमर्श तैयार किया जा रहा है। इसके पीछे आर्थिक और राजनीतिक दोनों तरह की सत्ताएं लगी हुई हैं। एक छोटा सा भारत एक बहुत बड़े भारत को अपना उपनिवेश बना कर ऐश कर रहा है। दुर्भाग्य से हम सब इस छोटे से भारत के ही सुविधासंपन्न नागरिक हैं। इस दौर में चेतन की कविता में पुराना थरथराता आवेग तो है ही, एक नई िकस्म की व्यंग्य विदग्धता दिखाई पड़ती है। सत्ता और सांप्रदायिकता के बर्बर गठजोड़ की वे खिल्ली उडाते हैं, मॉल और कार संस्कृति पर तीखी चोट करते हैं, पेशेवर ठंडेपन पर ठंडेपन से निगाह डालते हैं, और लोगों के वस्तुओं में बदलते जाने की मार्मिक पुष्टि करते हैं। लेकिन सबसे बड़ा काम उनकी कविता यह करती है कि इस पूरे दौर की शिनाख़्त करती है जिसमें यह सारे बदलाव घटित हुए हैं। बरसों पहले उन्हें 'सीलमपुर की लड़कियां' कविता लिखने के लिए भारत भूषण अग्रवाल स्मृति सम्मान मिला था। इस बार उन्होंने 'सीलमपुर के लड़के' नाम की कविता लिखी है। अगर धूमिल की 'पटकथा' भारत की आज़ादी से लेकर साठ के दशक के मोहभंग की कहानी है, अगर मुक्तिबोध की 'अंधेरे में' उस दौर में बढ़ रहे अंधेरों की शिनाख़्त है तो सीलमपुर के लड़के बीसवीं सदी की आ$िखरी दहाई से इक्कीसवीं सदी के शुरुआती दो दशकों में हुई उस दुर्घटना का साक्ष्य हैं जिसे हम सब अपने साथ घटित सभ्यता का वरदान मानते हैं।

सीलमपुर के लड़के भूखे और बेरोज़गार हैं, घर-परिवार और समाज से बेजार हैं, जिंदगी के बारे में कोई नक्शा उनके पास नहीं है, उनके सामने टीवी पर राम और युधिष्ठिर मनोरंजन करके नई भूमिकाओं में चले गए, उनके सामने चार सौ साल पुरानी एक मस्जिद गिरी और नया ज़माना आया, उनके सामने मोबाइल की स्क्रीनों पर लड़कियां उग आईं जिन्हें वे मसलते रहे, उनके सामने रामलीला मैदान में एक बूढ़ा बैठा और अपनी नाउम्मीदी के बीच और बावजूद जीने की भूख के साथ वे वहां चले आए। हर सवाल का जवाब उन्होंने मोटरसाइकिल से दिया और एक दिन वे देशप्रेमी हो गए। एक तरह की निरुद्देश्यता और हताशा के बीच एक दिए गए मक़सद में अपने हिस्से का गर्व और गुमान खोजती एक पूरी पीढ़ी की निस्पंद हिंसा के स्रोत जैसे यह कविता पकड़ लेती है,

'सो सबसे पहले उनहोंने पौरुष पहना, / फिर पैसा / और सबसे ऊपर देश। / जिसने सब शिकायतें, / सब दुख / सोख लिए / वे कहते घूमे कि क्या हुआ जो मरते हैं लोग / लोग तो मरते ही हैं असली बात है देश / और देश का विकास।'

यह मुक्तिबोध के उस सादगी भरे उलाहना का जवाब है, कि 'मर गया देश। जीवित रह गए तुम।' चलते-चलते चेतन लिखते हैं,

'और सीलमपुर के लड़के मुस्तैद हो गए / बोले कि अब जो सामने आया तोड़ देंगे तोड़ देंगे जो पीछे से हंसा, / तोड़ देंगे जो ऊपर से मुस्कुराया, / तोड़ देंगे जो नीचे कुलबुलाया, / और इस मंत्र को जपते हुए बैठ गए / एक आंख बंद कर समाधि में / और दूसरी आंख खोल कर / तैयारी में।'

सीलमपुर के लड़कों के साथ घटी इस त्रासदी के बाद दुनिया कैसी है? 'शोकनाच' के धर्माचार्य अब सत्तासीन हैं, उनकी हुक्मउदूली नहीं की जा सकती, लेकिन उनको कविता के चाबुक से पीटा तो जा सकता है। 'भय प्रवाह' नाम की कविता लगभग यही काम करती है। लेकिन चेतन जो चाबुक उठाते हैं, नागार्जुन और कबीर की तरह सीधा नहीं है, उसका घुमाव अपने चरम पर है। वह शुरू करते हैं इस बात से कि 'लीजिए हम डर गए, लीजिए हम मर गए, आप ही यहां रहें, आप ही अपनी कहें। और इसके बाद वे अपने ख़ास लहजे में उनकी इच्छाओं का सच उजागर करते हैं-

'हर सड़क का नाम स्वदेशी? जी साहिब कर दिया

हर तरफ़ हुक्काम स्वदेशीजी मालिक कर दिया

औरतें साड़ी में निकलें? ओत्तेरी जी, भेज दीं

साथ में सिंदूर की डिबियाएं भी? जी भेज दीं

लिखने-पढऩे सोचने वाले भी साहिब जा चुके

मीर, ख़ुसरो, जोश, मंटो और गालिब? जा चुके

ज्ञान के भूखों को भी संतुष्ट हमने कर दिया

वेद सबके सामने एक-एक कॉपी धर दिया

कर दिया जी कर दिया, इतिहास भी सब ठीकठाक

बालकों के मुंह पे, चिपका दी है इक-इक गज़ की नाक।'

क्या हिंदी कविता में इतना मारक और अचूक व्यंग्य तत्काल याद आता है?

रघुवीर सहाय के रामदास को हम सबने पढ़ा है। वह निरीह है। उसे पता है हत्या होगी। वह अपनी हत्या के लिए प्रस्तुत है। उसकी हत्या होती है, सब गवाह हैं। लेकिन अब रामदास बदल गया है। अब वह एक प्रोफेशनल है जिसे मालूम है कि वह चूकेगा तो पीछे रह जाएगा, उसको सबसे ज़्यादा तनख्वाह इस बात की मिल रही है कि वह एक कुशल हत्यारा है। आर चेतन क्रांति की कविता 'प्रोफेशनल' इस नए रामदास से मिलाती है-

'उसको एक चाकू दिया गया / और तनख्वाह / कि जब मरते हुए आदमी को देखकर / तुम्हारा हाथ कांपे, / तुम करुणा से बाज रहो। / तो वह जब घर में घुसा / उसके हाथ में सिर्फ आदेश था। / उसने बैठकर मक़तूल की पूरी बात सुनी, / उसे दया आई, हमदर्दी हुई, / आदत के तहत उसके दिल ने कहा, छोड़ दो, / लेकिन उसे पीछे रह जाने से डर लगा/ .....और थोडी देर बाद / अपने थैले में / एक सिर ठूंस कर निकला / जिसकी आंखें खुली थीं।'

यह नया रामदास है। मार रहा है और मर रहा है। उसकी तनख्वाह का औचित्य साबित करने के लिए, यह साबित करने के लिए कि उसके लिए भी मनोरंजन की गुंजाइश बची है, नई सभ्यता ने म़ॉल बनाए हैं। आर चेतन क्रांति लिखते हैं,

'गू-मूत-कीचड़-धूल-शोर / ख़ून दर्द उल्लास / धक्कामुक्की और भीड़ के चौराहे पर / एक वास्तुसम्मत दिशा देखकर / ख़ड़ा किया वह नन्हा सा स्वर्ग / साफ़ और चमकीला / जो दो ही महीने में / सदियों पुराने शहर से ज़्यादा शाश्वत दिखने लगा।'

इस मॉल का वैभव और इसकी व्यवस्था डराते और लुभाते हैं, याद दिलाते हैं कि हमारी कितनी ज़रूरतें हैं जिनका हमें भी एहसास तक नहीं, हमारी कितनी इच्छाएं हैं जिनका हमें पता तक नहीं। लेकिन मन, नज़र, उदर सब तृप्त कर देने वाले मॉल से निकलने के बाद क्या होता है? चेतन से सुनिए- 'शाम ढले जाकर हम बाहर निकले / और रात देर तक / पता ही न कर सके / कि हमें प्यास ज़्यादा थी / या हगास।'

कोमलता में छुपी क्रूरता, सलीके में छुपी फूहड़ता, आधुनिकता में छुपी मध्ययुगीनता, सहिष्णुता में छुपी असहिष्णुता, कविता में छुपी और उदात्तता से ढंकी क्षुद्रता, मनुष्यता के चोले में छुपा जातिवाद- आर चेतन क्रांति की कविताएं जैसे एक-एक कर सभ्यता का वह परदा हटाती चलती है जिसके पीछे अलग-अलग समय में और नियत-नियत लक्ष्यों पर वार कर सकने लायक अचूक और आजमाए हुए हथियार छुपा कर रखे गए हैं। आर चेतन क्रांति इस मोड़ और मोर्चे पर सबसे आगे हैं और सबसे चौकन्ने।

बहुत सारे भोले लोग शिकायत करते हैं कि नई कविता दुरूह है, बोधगम्य नहीं है। वे शायद यह अनुभव नहीं करते कि नया ज़माना भी इससे कहीं ज़्यादा दुरूह और कहीं ज़्यादा अबोधगम्य है। वह जो दिखता है, वह नहीं है। जो है, उसे दिखाने के लिए भी अभिधा और व्यंजना के पुराने प्रतीक नाकाफी हैं। लेकिन लोग जैसे हैं, वैसे हैं। इसलिए उनको अंतत: वह कविता देनी होगी जो उन्हें कविता जैसी लगे, सीधे-सीधे समझ में आए। यहां अचानक हम पाते हैं कि आर चेतन क्रांति के पास कविता की बहुत सारी डिज़ाइनें हैं- उनके पास एक बहुत तना हुआ शिल्प है, सधा हुआ छंद है। उनके संग्रह में गीत और गज़लें भी हैं- लेकिन रूमानी नहीं, बिल्कुल उसी कड़क मिज़ाज वाली जो सीधे सीने में लगती है, हमारे समय में पैसे और ताकत के अहंकार के गुब्बारे में बहुत बड़ा पिन चुभोती हैं। 'पावर', 'कार', और 'सिपाही' जैसी $गज़लनुमा कविताओं का करारा व्यंग्य लाजवाब करता है। हालांकि अगर आप सुधी पाठक हैं तो यह समझने में देर नहीं लगेगी कि चेतन ने यह शिल्प बस इसलिए नहीं चुना है कि इससे उनकी कविता को कुछ पाठक मिल सकते हैं, वह कुछ लोकप्रिय हो सकती है, बल्कि इसलिए चुना है कि उनका जो कथ्य है, वह इसी शिल्प की मांग करता है। इससे अलग यह कविताएं लिखी जातीं तो कुछ और होतीं। इन कविताओं में अपने बहुत सीधे संप्रेषण के बावजूद जो वक्रता है, जो टेढ़ापन है, जो सबकी खिल्ली उड़ा सकने वाला गुमान है, वह अचानक इन्हें एक झन्नाटेदार अनुभव में बदलता है।

इस अनुभव का एक और पहलू है। हमारे समय में हिंदी जैसे एक सहमी हुई भाषा हो गई है। हिंदी का लेखक या तो अंग्रेजी से आक्रांत सबको समझ में आने लायक हिंदी लिखने में लगा है या फिर अपनी बौद्धिक क्षमता के प्रमाण के तौर पर प्रस्तुत किए जा सकने लायक ऐसी शिष्ट-शालीन भाषा, जिसमें यह सतर्क कोशिश होती है कि किसी को चोट न पहुंचे। यह शायद असहमति और विरोध न जताने और न झेल पाने की आदत से उपजी हुई भाषा है जिसमें हर बात बस एक तर्क है जिसका कोई प्रतितर्क हो सकता है या जिसे किसी असुविधानजक मोड़ पर छोड़ा जा सकता है। निस्संदेह इससे अलग एक और भाषा है जो अक्सर भावुकता और उन्माद से लिथड़ी, स्थूलता और दिखावे से भरी ऐसी हिंदी है जिसे कोई ताकतवर जुबान बोलती दिखाई पड़ती है। लेकिन आर चेतन क्रांति की काव्य भाषा में एक अलग तरह की खनक और ठसक है। यह मुक्तिबोध की 'गरबीली गरीबी' वाली परंपरा से निकली भाषा है जो कई बार हमारे शिष्ट संस्कारों को अगर आहत नहीं करती तो झटका जरूर देती है। लेकिन यह काव्यभाषा भी कहीं से आरोपित नहीं, अपनी जरूरत से उपजी है।

लेकिन आर चेतन क्रांति की काव्य दृष्टि की सबसे बड़ी विलक्षणता दूसरी है। वे इस बात को अचूक ढंग से पहचानने वाले कवि हैं कि निजी से निजी दर्द का भी एक सार्वजनिक पक्ष होता है, कि जिसे हम व्यक्तिगत अभाव की तरह पढ़ते हैं, वह सभ्यतागत संकट का भी प्रमाण है। बहुत मामूली लगने वाली बात से शुरू होकर उनकी कविता एक सभ्यतागत विमर्श में बदल जाती है- वह भी किसी विचार की तरह नहीं, ठेठ कविता की तरह। मिसाल के तौर पर, 'सीधी सड़क टेढ़ी सड़क' नाम की कविता के शुरू में आर चेतन क्रांति कहते हैं,

'मुझसे अपने स्वार्थ छिपाते नहीं बनते / अपने लालच-लोभ मैं धाड़ से कह देता हूं / जिन्हें सुनकर सलीके / अवाक रह जाते हैं/' इसके आगे लिखते हैं,

'ताज्जुब है कि तुमको आलस नहीं आता, / शुक्र है मुझे ऐसा पुख्ता पीठ आलस मिला / कि नमस्कार से पहले मैं लिप्सा कह देता हूं / मुझे लगता है कि अगर सीधे जाऊंगा / तो इतना घूम कर नहीं जाना पड़ेगा, / जिसके लिए तुमको वाहन रखना पड़ जाता है। / तुमको नहीं लगता कि पूरी पृथ्वी सड़कों को नहीं दी जा सकती। / और न सब सड़कें पहियों को, / और फिर, टांगों के बिना / सोचो, कैसे तो तुम लगोगे, / जब वे पूंछ की तरह / तुम्हारी गाडी भर नितंबों के गोश्त में विलुप्त हो जाएंगी।'

इक्कीसवीं सदी सिर्फ क्रूरता और बाज़ार की सदी नहीं है। यह खोई हुई पहचानों की तलाश और सोई हुई अस्मिताओं के जागने की भी सदी है। हिंदी नाम की भाषा में उसके आदिवासी धीरे-धीरे जाग रहे हैं, उसके दलित जाग चुके हैं, उसकी स्त्रियां अपनी अलग काव्य भाषा रच रही हैं। बल्कि पहली बार एक भाषा के रूप में हिंदी इस बात को लेकर सजग दिख रही है कि वह अपनी मर्दानगी का गुमान झाड़े और स्त्री संसार की संवेदना को कुछ संजीदगी से समझने की कोशिश करे। वरना एक दौर में हमने पाया है कि धूमिल और केदार अचानक मादा होने के िखलाफ़ खड़े हो जाते हैं, तथाकथित प्रेम कविता दरअसल पुरुष कामना की कविता साबित होती है और स्त्री बस उपादान सी रह जाती है। मगर इक्कीसवीं सदी की एक फांस भी है। वह स्त्री को आज़ाद तो करती है, उसे उसकी आवाज़ भी लौटाती है, उसे सार्वजनिकता भी प्रदान करती है, लेकिन साथ-साथ उसके शोषण के, उसके शिकार के और बारीक उपकरण निकाल लेती है। वह स्त्री को चुपचाप देह और अंगों तक समेट देती है और इन्हें जैसे उसकी मुक्ति की अनिवार्य शर्त बना डालती है।

अच्छी बात यह है कि हिंदी कविता की नई लैंगिक संवेदना इस छल के प्रति सतर्क है। कभी-कभी बहुत कठोर दिखने वाले चेतन की स्त्री संबंधी कविताओं का दायरा भी उनकी बाकी कविताओं की तरह बहुत बड़ा है। पहले तो वे मर्दवाद पर बहुत तीखा वार करते हैं। 'मर्दानगी' नाम की कविता में उनका व्यंग्य विदग्ध अंदाज़ जैसे एक कोड़ा फटकारता है। 'सखि हे', 'क्रॉसड्रेसर' 'यहां जींस बिकती है', 'सुन  दुनिया को तुम वहां से मत देखो जहां से पैदा हुई थी' जैसी उनकी कविताएं बिल्कुल एक अलग चर्चा की मांग करती हैं। ये कविताएं बदलते समय में स्त्री के लिए बन रही जगह, तथाकथित संस्कारशीलता और चारित्रिकता के समानांतर स्वतंत्रता और आत्मनिर्भरता के नए मूल्यों, बाज़ार की फांस और स्त्रीत्व के द्वंद्व, नई तरह के प्रेम और नई तरह की संवेदना के अनेक आशयों का वहन करती हैं। इन्हें ठीक से पढ़ा जाना चाहिए, इन पर ठीक से लिखा जाना चाहिए।

 


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