मुखपृष्ठ पिछले अंक कविताएं एवं मूल्यांकन चेतन क्रांति की कविताएं
अक्टूबर-2017

चेतन क्रांति की कविताएं

चेतन क्रांति

कविता

 

नया साल

 

हर साल अमीरों की

कुछ और किस्में बाजार में आ जाती हैं

हर साल

वे दिखते हैं

और ओछे अपने पुरखों से

 

हर साल

विज्ञापन-लेखक

और गहरे उतर जाता है जन-भाषा में

 

हर साल हम

और हुशियारी से

करने लगते हैं

बिकना खरीदने की तरह

 

हर साल

हम औरऔरऔर

कम पर हो जाते हैं राजी

हर साल

हम लिखते हैं

और भी घटिया एक कविता

(जैसी ये है)

 

हर साल

और भी ज्यादा हास्यास्पद

पुरस्कार देकर

हंसने लगती हैं समितियां

 

बोलना

 

मुझे

वहां ले चलो

जहाँ लोग

चीख रहे रो रहे गा रहे नाच रहे गिर रहे

 

बोलने का क्या

 

बोलता तो वो भी है

जो झूठ बोलता है

 

फैसला?

 

मुझे सिस्टम नहीं चाहिए

जो नौकरी देता है

 

मजहब भी नहीं

जिसके पास नौकरी का विकल्प नहीं

 

मुल्क

और उसका झंडा भी

नहीं चाहिए मुझको

जिसका

न मजहब पर काबू है

न नौकरी देने वाले पर

 

,

इन्सानियत भी नहीं

(वह मजहबों और मुल्कों और मालिकों के

झाँसे में आखिर क्यों आती है)

 

(आपने ठीक समझा)

मुझे वो इंसान भी

नहीं चाहिए

जो इंसान बनने के लिए

बस नौकरी माँगता है।

 

(मतलब वही)

ये सिस्टम मुझे नहीं चाहिए।

 

साहित्यकार की निगाह

 

वह करुणा से देखता है

वृद्धों, बच्चों, स्त्रियों और पशुओं को

फोटोजेनिक करुणा से छलछलाकर

करता है उनसे संवाद; अभिभावक की तरह

और निमिष-भर अनुपस्थित हो

पलट आता है साहित्येतिहास, देख आता है

कि सही तो है बड़े लेखकों वाली भंगिमा

इसी तरह बड़े लेखक होकर

जब वे गए थे गाँव

और वहां खड़े होकर देखी थी उन्होंने एक वृद्धा

 

वह पूछता है उनसे

कुछ पूछे हुए प्रश्न फिर अपनी तरह से

शिक्षित-जनोचित ऊंचाई से

चिन्हित करते हुए अपढ़ता की खुरदुरी सीमाएं

 

बताते हुए उन्हें तरह-तरह से कि वह उनसे अलग है

और छिपाते हुए तरह तरह से कि वह उनसे अलग नहीं है

खिंचवाता है एक फोटो

चेहरे को एकदम उनके नजदीक लाकर सोचते हुए इस तरह बनेगी

इस पर एक कविता

और एक यात्रा-वृत्त भी

फोटो तो चलो हो ही गया

 

नाकाम

 

नाकाम ही,

होते हैं अलग

यह भी एक नियम है।

 

जैसे यह भी एक नियम है

कि हर कामयाब

बूँद की तरह सीधे

समुद्र में गिर जाता है

 

समुद्र सामान्य के सौमनस्य का

उन तमाम खूबसूरतियों का

जिनसे मुख्यधाराएं बनती हैं

मुख्यधाराएं कामयाब कदमों की

कदम जो छातियों को सड़क बनाते हुए जाते है

सड़कें जो मंजिलों पर पहुँच जाती हैं

 

वे उन जंगलों की तरह नहीं

जहाँ भटकते-रुकते-ठहरते-चलते

नाकाम जाने कितने

होते होते होते जाने क्या-क्या

हो जाते हैं नाकाम

छोड़ते-त्यागते-इनकार करते

धिक्कारते एक-एक नीचता को

चले जाते किसी ऐसी जगह

जहाँ रात के पिछले पहर

सिंह, सियार, सांप

सोने के अंडे देकर जाते ढेर के ढेर

और वे सुबह उठकर बिना कुछ खाए

उनके पहरे पर बैठ जाते।

 

तुम होते

तो क्या न कर देते उस स्वर्णिम सुबह।

 

शाम को सिंगार करने वाली औरतें

 

उन्हें बताया गया है कि वे वेश्याएं नहीं हैं

विवाहित हैं सम्मानित हैं

इसलिए वे पिछले पहर बेहिचक सिंगार करने बैठ जाती हैं

 

उन्हें कहा गया कि वे नौकरानियां भी नहीं हैं

घर की सब जिम्मेदारियां उनके ऊपर हैं

सो वे सिंगार करके सब्जी काटने बैठ जाती हैं

और अपने पूरे अधिकार और सामथ्र्य से

एक लाजवाब सब्जी बनाती हैं

 

छज्जे पर आ जाती हैं

हंसती-बतियातीं

उनके आने का इंतिजार करने लगती हैं

जिनके नाम पर वह घर है जहाँ वे रहती हैं

जिनके पास वह पैसा है जिसे वे खर्च करती हैं

जिनके वे बच्चे हैं जिन्हें वे पैदा करतीं और पालतीं हैं

 

जब वे गली के मोड़ से आते हुए दिखते हैं

वे लहराकर दरवाजे पर जाती हैं

शाम को सिंगार करने वाली औरतें

घर से ज्यादा दूर नहीं ले जायी जातीं

और वे कभी नहीं जान पातीं

कि वहां वेश्याओं के मुहल्ले में भी

यह सब ऐसे ही होता है।

 

 

चेतन क्रांति के ताज़ा कविता संग्रह का शीर्षक है, 'वीरता पर विचलित'। पहला संग्रह था 'शोकनाच'। पहल ने काफी पहले इस नायाब कवि को प्रकाशित किया था। चेतन क्रांति का जन्म उत्तर प्रदेश के सहारनपुर के गांव उमरीकलां में हुआ। वे एक प्रकाशन संस्थान से जुड़े है, दिल्ली में रहते है।


Login