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अक्टूबर-2017

विस्थापन पर कविताओं पर पूर्व वक्तव्य

संदीप जगदाले

 

हम अपने अस्तित्व से किस तरह से चिपके बैठे रहते हैं। अपने आसपास के इंसान, परिवेश, खेत-खलिहान, घरबार, पीढ़ी-दर-पीढ़ी चलती आ रही परम्पराएं और सभी के केंद्र में गांव। ये सब हमारी जड़ें हैं। यह कितना भयावह है कि नक्शे पर एक रेखा खींची जाती है और जो सरेआम पूरे गांव के गांव उजाड़ देती है। ऐसे ही किसी मृत गांव से आया हूँ मैं...

महाराष्ट्र की गोदावरी के तट पर बसा पैठण - यहां खड़े किए गए जायकवाडी बांध से 108 गांव डूब गए। उनमें एक गांव मेरा भी था। न जाने कब से हमारे पहले की पीढिय़ां भटकती हुई पानी की तलाश में गोदावरी के किनारे पहुंची होंगी और यहीं पर उन्होंने खेती करना शुरु कर दिया होगा। और फिर यहीं पर गुजारा करते हुए इन मूल स्त्री-पुरुषों ने मेरा यह गांव बसाया होगा। पर विकास का बुल्डोज़र ऐसा चला कि उसने मेरे गांव को पानी में डुबो दिया। पर क्या एक गांव के मरने से सिर्फ उस गांव के घर, खेत-खलिहान नष्ट होते हैं? नहीं, ऐसा नहीं है। डूबे गांव के साथ-साथ उसके सम्पन्न इतिहास की निशानियां, रीतिरिवाज़, उस प्रदेश की लोकोक्तियों, मुहावरों से समृद्ध वहां की बोलियां, भाषा सब कुछ डूबकर नष्ट हो जाता है। और शेष रहते हैं सिर्फ अधर में लटके इंसान। जिन्हें बड़ी बेरहमी से पुनर्वसन के नाम पर धरती के किसी भी कोने में उठाकर फेंक दिया जाता है। इस तथाकथित दोहरे विस्थापन से इन विस्थापितों का जीना सुलभ होने की जगह ठेकेदार, राजनेताओं और प्रशासकों की ही पांचों उंगलियां घी में होती हैं। पर किसी का घर जलाकर अपना हाथ सेकने की प्रवृत्ति हमारे देश में जहां-जहां पुनर्वसन हुआ वहां सभी जगह पाई गई है। और फिर अपने ह$क का गांव तथाकथित विकास के लिए हमारे कल्याणकारी सरकार द्वारा छीने जाने पर अपनी उखड़ी हुई जड़ों को फिर से बसाने की जद्दोजहद में अजनबी मिट्टी पर जाकर खाक छाननेवाले ये लोग पराये और घुसपैठिये ही बने रहे। जिस बांध के लिए हमारे घरबार की दुर्गति की गई, उन बांधों को बने पचास-पचास वर्ष गुज़र गए पर हमारी जड़ें मिट्टी के अन्दर अपनी जगह नहीं बना पाई।

पूरे भारत में हुआ पुनप्र्रस्थापन राजकीय, प्रशासकीय भ्रष्टाचार और अमानवीयता का जीता-जागता उदाहरण है। इन बड़े-बड़े प्रकल्पों की आड़ में साधारण लोगों को विस्थापित करते हुए इन राजनेताओं, प्रशासन की मंशा किसी से छिपी हुई नहीं है। इन योजनाओं के खड़े होने के पश्चात वहां के पानी, बिजली का लाभ पूंजीपतियों के हित में ही जाता है। इन घिनौनी राजनीति को हम सभी अनुभव कर रहे हैं। विकास के दावे करते हुए खड़े किये गए ये प्रकल्प पूर्ण होने पर उनका सही मूल्यांकन करते हुए उनकी उपयोगिता को आजतक अपनी किसी भी सरकार ने जाहिर नहीं किया है। जाहिर है, इससे उन्हें अपनी पोल खुलने का भय है। जायकवाडी प्रकल्प तो पूर्णतया अपने राजकीय हठ के लिए तकनीकी दृष्टि से गलत जगह पर खड़ा किया गया था। इस राजहठ के चलते 108 गांवों का गला घोंटकर भी अपेक्षित विकास साध्य न हो पाया। इस क्षेत्र के कई अध्ययनकर्ता इस प्रकल्प को ''सफेद हाथी'' कहकर सम्बोधित करते हैं।

आज जायकवाडी प्रकल्प के आसपास जायकवाडी पक्षी अभयारण्य तथा डी.एम.आय.सी. मुंह बाए खड़े हैं। इस पक्षी अभयारण्य के चपेट में आये हुए 24 गांव भी इसी प्रकल्प से पुन:प्रस्थापित गांव हैं। इसका अर्थ यह है कि उन्हें दूसरी बार विस्थापित होना पड़ा है। जायकवाडी योजना से विस्थापित हो चुके पिछले कुछ वर्षों से अन्य जगहों पर जैसे-तैसे बसते हुए किसानों की जमीनों को भी डी.एम.आय.सी. जैसे प्रौद्योगिकी प्रकल्प के जरिये हड़पने की कोशिशें जारी है। इंसान के जीवन की यह कैसी प्रताडऩा है! क्या हमारे कल्याणकारी राज्य की संकल्पना में सर्वसाधारण ग्रामीण का यही कल्याण निहित था?

वर्ष 1855 में अमेरिका के राष्ट्राध्यक्ष फ्रैंकलिन पिअर्स ने संयुक्त राज्य अमेरिका के उत्तर-पश्चिमी प्रदेशों में रहने वाली इंडियन आदिम जमाती दुबामिश के समक्ष यह प्रस्ताव रखा था कि वे अपने जमीनों को गोरे लोगों को बेच दे और जो जमीनें उन्हें सरकार की ओर से दी जाएगी वहाँ पर जाकर बस जाएं। तब उस जमाती के सरकार सिएटल ने पिअर्स के नाम एक पत्र लिख भेजा।

''हमारे प्रेत भी इस अतुल्य भूमि को भूल नहीं पाएंगे, क्यूंकि यह लाल इंसानों की मां है। हम इस भूमि का हिस्सा है और यह भूमि हमारा एक अंग है। खुशबूदार फूल, हिरन, घोड़े और तितलियाँ हमारे सगे भाईबंद हैं। खड़ी हुई ये चट्टानें, लहलहाती घास, टट्टुओं के देह की गर्माहट, और इंसानों की भी - सब कुछ हमारा हैं!''

 

चीफ सिएटल का यह पत्र आज भी पूरी दुनिया के विस्थापित और विस्थापित होने के कगार पर खड़े लोगों का दु:ख लिए हुए है।


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