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अक्टूबर-2017

तोहमत

आसाराम लोमटे / अनुवाद : निशिकांत ठकार

लंबी कहानी/मराठी

 

आसाराम लोमटे मराठी के महत्वपूर्ण समकालीन कहानीकार है जिन्होंने अपने पहले ही कहानी संकलन से मराठी साहित्य में अपना स्थान अर्जित किया है। समकालीन मराठी कहानी मध्यवर्ग की हो या फिर ग्रामीण तथा दलितवर्ग की हो, एक घिसे-पिटे और संकेतशरण घेरे में बंदिस्त होने का अहसास हो रहा था, जब जयंत पवार और आसाराम लोमटे की नयी, तरोताजा कहानियों ने इस घेराबन्दी को तोड़ कर कहानी की नई सम्भावनाओं को उद्घाटित किया। 1975 में जन्मे आसाराम लोमटे पेशे से मराठी के एक प्रमुख समाचार पत्र के पत्रकार है। अब तक उनके दो कहानी संकलन ('इडा पिडा टळो', 'आलोक') तथा देहाती समस्याओं पर केन्द्रित आलेखों का एक संकलन ('धूळपेर') प्रकाशित हुआ है। व्यापक मानवीय परिप्रेक्ष्य में शोषित-वंचितों की जिन्दगी के संश्लिष्ट जीवनसंघर्ष की गहराइयों के साथ और प्रभावशाली भाषा के साथ अभिव्यक्ति लोमटे की कहानियों की विशेषता है। उन्हें साहित्य के लिए साहित्य अकादेमी के अलावा लगभग एक दर्जन पुरस्कार प्राप्त हुए है। मो. 09422192193

 

 

दिन ढल जाने के बावजूद धूप की मार कम नहीं हो रही थी। नेहरू-कमीज पहनकर घर से बाहर निकल पड़े श्रीधरराव मालीपाटील सड़क पर जोर-जोर से चले जा रहे थे। ढलते सूरज की आग बदन को सिझाये जा रही थी। हाथ के धोती के घोलसे चेहरे को पोंछते हुए वह और भी तेजी से कदम उठाकर चलने लगे। आसपास कहीं भी लोगों का नामोनिशां नहीं था। कहीं भी पेड का पत्ता तक हिलने का नाम नहीं ले रहा था। गाँव के बाहर निकलकर दो राहे की सड़क पर चल पड़े तो उन्हें महसूस हुआ कि लंबी राह पर अपने सिवा और कोई नहीं है तब पैर गर्म रेती पर चलने की तरह अपनी जगह पर ही धंसने लगे। हवेली की बैठक में बैठने को जरा भी जी नहीं कर रहा था। मानो जगह से ही बाहरफेंक दिया हो इसलिए बाहर निकलना पड़ा, पसीने-पसीने होकर वह दोराहे पर पहुंच गये। वहाँ इकलौती एक चाय पानी की गुमटी थी। लोग यहाँ आकर थोड़ी देर के लिए सुस्ताते। मालीपाटील गुमटी पर पहुंचकर एक बेंच पर बैठ गये। घासफूस की बनी गुमटी के कोने में ताश के पत्तों का खेल परवान चढ़ा था। मालीपाटील के देखते ही लड़के सकपका गये। सारा खेल समेटने की तैयारी करने लगे।

''आरारा... चलने दो तुम लोगों का। मैं बस थोड़ी देर के लिए बैठनेवाला हूँ। क्यों अपना खेल बिगाड़ते हो?'' उन्होंने कहा।

लड़कों में से किसी ने कुछ नहीं कहा। लेकिन खेल बिगड़ गया तो बिगड़ गया। फिर लड़के कोने से उठकर बाहर हवा में गये। मालीपाटील ने गुमटी वाले भगवान से चार-पाँच कप चाय बनाने के लिए कह दिया। उसने स्टोव जलाया। दोपहर के सन्नाटे में स्टोव की भर्र भर्र आवाज कुछ ज्यादा ही आने लगी। लड़के कुछ बिखरने लगे। राह पकडऩे लगे तब मालीपाटील ने कहा, ''अरे, हमने तुम लोगों के वास्ते चाय कह दी है और तुम कहाँ जाने लगे। बैठो तो जरा।''

उनके बोलने पर लड़के जहाँ थेे वहीं पर ठिठक गए। आमतौर पर मालीपाटील किसी से हिलमिलकर नहीं रहते। दोराहे पर भी कभी नहीं आते। गांव के अन्य बुजुर्ग कभी कभार यहाँ आते हैं लेकिन श्रीधरराव कभी नहीं। कहीं बाहर गांव जाना हो तो ही आते। उनके कहने पर लड़के थम गये। दूसरे बेंचपर बैठ गये। ''कब से बैठे हो तुम लोग यहाँ?'' उन्होंने लड़कों से पूछा।

''दो-एक घंटे हो गये होंगे।'' उनमें से एक ने कहा। उनकी समझ में नहीं आया कि वह क्यों पूछ रहे हैं।

''वो बुधवाडे का आनंद आया था क्या यहां किसी को साथ लेकर?'' उन्होंने पूछा। कुछ देर बाद लड़कों ने कहा ''नहीं और हम इस टट्टी के पीछे बैठे थे वहाँ से क्या दिखेगा?''

मालीपाटील की बेचैनी बढ़ गयी। धूप तो चढ़ी हुई थी। लगता है हम कुछ ज्यादा ही सीझ गये हैं। चाय छानते छानते भगवान सबकुछ सुन रहा था। उसने कहा, ''तात्या, वो लोग तो कबके चले गये बससे से।

मालीपाटील को पलभर के लिए लगा कि बिजली चमक गई। भीतर ही भीतर धक्के महसूस किये। ''कौन-कौन थे?'' पूछते हुए भी वह हाँफने लगे।

''एक तो आनंद था। अपने गांव की वह आंगनवाडी की औरत और उनका वह छोटा बच्चा। ऐसे तीन चार लोग गये।''

भगवान के बोले जाने के बाद मालीपाटील कुछ हड़बड़ा गये। फिक्रमंद हो गये कि आगे क्या क्या परोसा जाने वाला है? सोचा, और एक दो घंटे दोराहेपर रूकेंगे तो उनको देख सकेंगे, लेकिन क्यों हम ही छेड़कर मामले को बढ़ावा दें? आगे जो होगा देखा जायेगा। हम सिर्फ एक कान इधर देंगे। कुछ भी हो तो उसकी खबर हमें तुरंत मिल जानी चाहिए। भगवान ने काँच के गिलासों में चाय उंडेलकर लड़कों को दी। सबकी नजरें मालीपाटील के चेहरे पर गड़ी हुईं। उन्होंने जब नजर उठाई तब उन्हें पता चला कि लड़के आते जाते अपनी तरह ही देख रहे हैं तो उनका चेहरा भीतर खींच गया। एक लड़के से पूछा, ''क्या झमेला है तात्याजी?'' जो कुछ हुआ है उसका पता तो सबको हो गया होगा, तात्या ने सोचा। लेकिन वह सही नहीं था। यहाँ लड़कों को पता नहीं है देखकर उन्होंने जरा राहत महसूस की। मतलब बात अभी गांवभर नहीं फैली है। भांडा फूटकर पानी सब तरफ नहीं फैला है। जल्दी से दोनों हाथों से पानी को रोकना होगा। सोचने लगे। फिर लड़कों ने ही याद दिलाई।

''तात्याजी, इधर दोराहेपर कैसे आ गये आप, वह भी ऐन दोपहरी में?''

''बिलावजह मामला पीछे पड़ गया। मानो, घर बैठे आफत को न्योता दे दिया हो।'' उन्होंने कहा और लड़के उधेडबुन में पड़ गये।

''कल दिन डूबने के टैमपर बुधवाडे का एक छोकरा आया था छोटा, यही कोई आठ-दस बरस का। बाड के दोनों तारों के बीच में बाग में आया। एक पेड़ से मुसम्मी तोड़ ली और अपने पास के कपड़े में बाँधने लगा। मैं यूं ही मेंडपर घूम फिर रहा था। मुझे देखते ही लगा भागने। बाड के दो तारों के बीच फंस गया। मैं पास गया। उसे बाहर निकाला और लगा दिये दो झापड़ कान के नीचे। जहाँ खड़ा था वही फटाक् से मूत पड़ा। किसका था इसका भी पता नहीं था। उसने वहीं पर शोर मचाना शुरू किया। मैंने छोड़ दिया। लेकिन बाग से जाने के ऐन टैमपर माँ-बाप हाजीर। बच्चा भागते हुए गया था और उनको लेकर आया था। हो गई कुछ तू-तू मैं-मैं। गलती से उस औरत को भी कुछ गलत बोल गया। दोनों औरत-मर्द ने वहीं पर हंगामा खड़ा कर दिया। उनको निकाल बाहर किया बाग से। फिर रात में क्या हुआ कुछ पता नहीं। किसने कान फूंक दिये क्या मालूम। अब दुपहर में सुना कि आनंद को लेकर दोनों औरत-मर्द तहसील गये हुए हैं। सुना है हम पर केस दायर करने वाले हैं। किया करेंगे वो और उसके बावजूद गुनहगार हम।...'' मालीपाटील ने कहा।

''जाने दीजिए ना तात्याजी, जो होगा सो होगा। आदमी को मुकाबले के लिए तैयार रहना चाहिए।'' एक ने कहा।

''वो तो रहेंगे ही भाई, लेकिन हम हमारी ही तकदीर में क्यों? मुझे तो लगता है कि यह गाँव के ही किसी की साजिश है। किसी के तेल डाले बगैर बत्ती इतनी नहीं जलने वाली।''

उनकी इस बात पर लड़के चौंक पड़े। किस की होगी साजिश? सोचने लगे। इतने में एक ने कहा, ''किसकी है यह तो पता नहीं लेकिन हमारे लड़कों में से किसी ने यह नहीं किया है। आपके बराबरी के ही किसी आदमी का यह काम होगा। आम आदमी क्यों इस झंझट में पड़ेगा?''

तात्या के सामने दो-चार चेहरे दिखाई देने लगे। ये लोग अब और कहां कहां हम पर घात लगाये बैठे होंगे पता नहीं। वह बड़ी हवेली का मुंडासिया। कोसले का साफा इस शान से पहराता है कि लगता है कीर्तनिया महाराज है। सारे काम ऐसे ही। किसी को सुख से जीने नहीं देगा। वो सरपंच तो मीठीबानी का लुच्चा। रास्ते में रोककर बात करेगा। मानो जान का जानू हो। असल में उसे अपना कुछ भी नहीं सुहाता। ग्राम पंचायत उसके कब्जे में गई तो सोसायटी अपने कब्जे में आ गई। वह सोचता है कि गांव में और कोई सियासत न करे। सबको इसकी अंजुरी से पानी पीना चाहिए... इन दो-तीन लोगों में से ही कोई एक होगा पर्दे के पीछे।.... मालीपाटील सोचने लगे। धोती के झोल से हवा लेने लगे।

''तात्याजी, कुछ तकलीफ हो तो हमें बताइए। आप जैसे आदमी का इस कदर बेचैन होना कुछ अजीब-सा लगता है। आखिर क्या होने वाला है? कोई केस ही न? उसे इतना क्या घबराना?'' एक ने ढाढस बांधा।

''मैं भला क्या घबरानेवाला? जो होगा सो देखा जायेगा। लेकिन यह लेना और देना। अपने ही पाँव तले निकल आई यह मुसीबत। ऐसा कुछ हुआ तो गाँव में बेकार की बातें करते हैं लोग। कोई भी आता है और पूंछ उठाकर देखता है। इसीलिए लगता है कि न हो ऐसे झमेले। और हाँ, हम तो आप लड़कों जैसा सीधा उधम तो नहीं मचा सकते ना?''

''आप भला क्यों मचाये? हम हैं ना। सोसायटी के टैमपर कैसा हमने बराबर कर लिया था ना, तात्याजी। क्या आपको कुछ करना पड़ा?'' सुनकर मालीपाटील को कुछ धीरज बांधा। देखते ही देखते पसीने का झरना थम गया और जरा-सी खुली हवा चलने से कुछ खुलापन महसूस हुआ। ये लोग तहसील गये हैं इतनी बात तो पक्की है। गांव से इतनी दूर आने का इतना तो लाभ हुआ। सिर्फ जानकारी मिली। कुछ काम पड़ा तो लड़कों को बताया जा सकता है। लेकिन अब हमें होशियार रहने की जरूरत है। आगे जो कुछ होगा उस पर नजर रखनी होगी। मालीपाटील ने नेहरू-कमीज की बगलवाली जेब में हाथ डाला और चाय के पैसे दे डाले। ताश का खेल छोड़कर लड़के चले गये। अब फिर अकेलापन लगने लगा। लड़कों की बातों से बल मिला था। अब उनके चले जाने पर फिर धूप की गर्मी सताने लगी। गुमटी वाले भगवान से कुछ देर तक टूटीफूटी बातें करते रहे।

''लेकिन तात्याजी, दो-चार मुसम्मी के वास्ते आपने बच्चे को बेकार ही पीट दिया। फिर कहते हैं कि उसकी माँ को गालियाँ भी दी। बात तो यूँ ही हो जाती है लेकिन फिर उसकी फिक्र लगती रहती है।''

भगवान के इस तरह बोलने से मालीपाटील और भी चिंतित हो गये। इतनी छोटीसी बात के लिए हमने क्यों पीटा उस बच्चे को? सिर्फ मुसम्मी ले ली इसलिए या उसने पलटकर जवाब दिया इसलिए?... फिर उसके मां-बाप ने आकर हमें ही गालियाँ दी, क्या इसलिए हम इतना आपे से बाहर हो गये? लेकिन घटना तो घट चुकी है और अब बेकार में ही फिक्र लगी हुई है।... पैर के तलुवे में छिपे कांटे को कुरेदने की तरह तात्या सोचते रहे। जो होना है वह तो होता रहेगा; लेकिन अब हमें घर जाना चाहिए, नहीं तो उन सबकी और हमारी यहीं पर मुलाकात हो जायेगी। उन्होंने ऐसा सोचा और धोती का झोल हाथ में पकड़कर निकल पड़े। धूप अब भी चमक रही थी। आँखें छोटी करके देखना पड़ता था।

दिन डूबकर चारों ओर अंधेरा फैलने लगा। अंधेरे का पतलापन अभी कम नहीं हुआ था। घना अंधेरा छाने से पहले लोग अपने अपने घरों के सामने बैठे हुए। बुधवाडे के हर एक घर में चूल्हे जलने लगे। बच्चों का शोरगुल, रोनाधोना चल रहा था। तहसील से लौटकर आई ग्वालनबाई चुल्हे से खट रही थी। बाहर आंगन में घरवाला और आनंद बोरिया बिछाकर बैठे हुए बातें कर रहे थे। रोटी थापने की थप् थप् की आवाज के बावजूद ग्वालनबाई का कान उनकी बातों की ओर लगा हुआ था। छोटा बच्चा बाहर कहीं खेलने के लिए गया हुआ था।

''अपनी कोई बात नहीं, लेकिन उस नासपीटे ने ग्वालन को गाली नहीं देना चाहिए थी। क्या हुआ अगर बच्चे ने दो-चार मुसम्मी ले ली तो। इतना होहल्ला मचाने की जरूरत नहीं थी।'' अंकुश बोल रहा था।

''जाने भी दो। अब नानी याद आयेगी। कल सुबह जब पुलिस आयेगी तब उसकी आँख खुलेगी। अब भी उसकी पुरानी रीत नहीं गई है। दुनिया बदल गई लेकिन ये लोग बदलने को तैयार नहीं। कल बैठेगा रोता चिल्लाता। लेकिन हमें पीछे नहीं हटना है। नहीं तो तू उसके कहने में आ जायेगा।'' आनंद कहने लगा।

''बात मत कर। उसने अपनी माँ-बहन को निकाला है तो अब उसके कहने में कैसे जायेंगे? अब समझौता नहीं बोले तो बिल्कुल नहीं।'' अंकुश की बात पर आनंद चल पड़ा। उसके जाने के बाद अंकुश घर आया और दीवार के पास बैठ गया। चूल्हा धू धू जल रहा था। घरवाली की लंबी परछाई दीवारपर पड़ी हुई थी। उस हिलती परछाई पर उसकी नजर लगी हुई थी। कितना भी समझाओ, समझता ही नहीं। मारने-पीटने पर चुप बैठता है। लेकिन उसकी आदत जाती नहीं। कहीं न कहीं से झगड़ा मोल ले आता हैं। अब बच्चे जैसी चीज को पीटे तो भी कितना पीटे? मालीपाटील ने कल पीटा तो बेटा मवेशी की तरह रोता चिल्लाता आया। हम मारते हैं तो मामुली चपत; लेकिन यहाँ उसके गाल पर उंगलियों के निशान पड़े हुए। तार के खरोंच से भी लहूलुहान हुआ। बदन की कमीज भी पीठ पर फटी हुई। उसे देखा और तलुवे की आग माथे में पहुँच गई। घरवाले को साथ लेकर बाग में गई तो मालीपाटील भौंचक। हम उसकी बहूबेटी जैसी लेकिन वह पागल जैसा गालियाँ बकने लगा। हमने भी कुछ उल्टीसीधी बातों की और घर आ गई। लेकिन माथा भड़का तो भड़का ही रहा। आज दोपहर तहसील जाकर उस पर केस दायर किया। आगे जो होगा सो होगा। हमें पेट पालने के लिए नौकरी है। किसी के दफ्तर जाने की जरूरत नहीं। ग्वालनबाई रसोई का काम समेटते समेटते सोचने लगी। अंकुश ने पूछा, ''सुरेश नजर नहीं आ रहा है। अब क्या करें भाई इस बच्चे का। जरा देख आऊँ उसे। अब निवाला निगलने का टैम हो गया तो भी इसका कहीं ठिकाना नहीं।''

घरवाली ने सिर्फ हूँ कहा। दीवार को पीठ देकर बैठा हुआ अंकुश उठा और घर के बाहर चल पड़ा। ग्वालन सब समेटकर आंगन में आ बैठ गई। उसकी नौकरी के तीन-चार बरस हो चुके हैं। गांव की आंगनवाड़ी में सहायक पद पर। आंगनवाड़ी के सारे काम करने पड़ते थे। सुबह स्कूल जाकर झाडू लगाना। छोटे बच्चों को खिचड़ी पकाकर खिलाना। फिर दोपहर घर आने पर कोई काम नहीं था। घरवाला खास कुछ नहीं करता था। आनंद बुधवाडे के लोगों के काम कराता है उसके साथ घूमता फिरता है। कभी तहसील जाना हो तो आनंद घरवाले को ले जाता है। यूं ही साथ में। बुधवाडे के सारे लोग आनंद को लीडर ही पुकारते हैं।

किसी का राशनकार्ड बनवा देना, किसी को कर्ज मुहैया करा देना, किसी की कहीं पर अर्जी पहुंचा देना जैसे काम उसके पास होते हैं। कल मालीपाटील के बाग के वाकये के बाद ग्वालन घरवाले के साथ गुस्से में ही घर आई। समझ में नहीं आ रहा था कि क्या करें। जलभुन गई थीं। बिच्छू के काटने जैसी आग आग हो रही थी। आजकल कभी किसकी ऐसी बातें नहीं सुनी थी। शाम को घरवाले ने आनंद को बता दिया तो उसने पुलिस केस की बात बता दी। मालीपाटील से मुकाबला करने की ताकत तो अपने में नहीं है तो क्या हुआ? आनंद ने कहा कि हम कानून से मुकाबला करेंगे तो घरवाला राजी हो गया। सुबह आंगनवाडी जाना पड़ता है इसलिए काम हो जाने पर सुरेश को साथ लिया और सब दोपहर तहसील गये। अब आगे क्या होगा? ग्वालन सोचने लगी। पुलिस उसे पकड़कर ले जाये। उलझाये अच्छी तरह से रुपये लेकर छोड़ न दे। अक्ल ठिकाने आनी चाहिए उसकी।... वह यूं सोचने लगी। हमने केस दायर की फिर भी आनंद ने हमसे दो सौ रुपये लिये। कहा कि पुलिस को देने पड़ते हैं। उसके बिना ठीक दफा नहीं लगाते। कहा कि मालीपाटील पर एट्रोसिटी लगाने को कहूंगा। हमने तो जो बताना था वह पुलिस को बता दिया। सुरेश ने भी जो पूछा था साफ साफ बता दिया। कागज पर दस्तखत कर दिये। अब आगे क्या होने वाला है उसका पता तो चल ही जायेगा। घड़ीभर में लगा कि मालीपाटील अपनी नौकरी में कुछ बाधा पैदा करेगा। उसने अगर अदावत पकड़ ली तो जहर मिलाने में क्या टैम लगेगा? लेकिन जो होना था सो हो गया। अब उसकी फिक्र क्यों करें? ग्वालन बढ़ते अंधेरे में डूबतीसी सोचने लगी। नजर सड़क पर लगी हुई। दरवाजे पर उसने घरवाले के साथ सुरेश को आते हुए देखा तो कलेजे को ठंडक पहुँची।

 

बाग में झींगुरों की आवाज से अंधेरा कुछ और घना ही लगने लगा। छोटे बड़े पेड़ इस अंधेरे में अजीबों गरीब परछाइयों जैसे दिखाई देने लगे। अंधेरे में राह निकालते हुए यहां तक पहुंच गये लेकिन बाग से गांव की तरफ ऐसे अंधेरे में लौटना तो बेहद मुश्किल होगा। आनंद ने सोचा। सरपंच का चेहरा धुंधला धुंधलासा और हम उसके सामने किसी के पकड़कर लाये हुए जैसे। आनंद को लगा कि सरपंच की बातों में संतोष टपक रहा हो। उन्होंने फिर पूछा, ''वो अंकुश सुलहबाजी तो नहीं करेगा न? आजकल लोगों का कोई भरोसा नहीं।'' आनंद ने सरपंच को बारबार भरोसा जताया। उन्होंने फिर पूछा, ''दफा कौन सी लगाई?''

''मारपीट, गालीगलौज की तो हैं ही लेकिन मालीपाटीलपर एट्रोसिटी कर दी है।'' आनंद के कहते ही सरपंच दिल में बागबाग हो गये। सिगरेट सुलगाने के लिए उन्होंने तीली जलाई तो उसका चेहरा बहुत खुश नजर आया। गांव में खुलकर मिल नहीं सकते। कोई रात में मिलने आता तो कानाफूसी बढ़ती। इसलिए आनंद को इधर बाग में आने को कह दिया था। उन्होंने आनंद से पूछा, ''खाना खा लिया?'' उसने नहीं कहा। सरपंच ने नौकर को आवाज दी। ''कुछ मटन वगैरह बचा है रे?'' पूछने पर नौकर ने हां कहा।

''मटन बनाया था। तुम्हारे आने से कुछ पहले ही मैंने खा लिया। नौकर ने भी खाया है। भीतर जाकर खाना खा ले।'' सरपंच के कहने पर आनंद उठा। बड़े पेड़ के नीचे से नौकर के पीछे बस्ती पर पहुँच गया। झोपड़ी में कम रोशनीवाला झीरो का लट्टू छतपर टंगा हुआ सा लगा। नौकर ने आनंद को परोसा। तेज मिर्चवाला शारेबा मुंह में जाते ही पहले ही निवाले पर हुचक पड़ा। आँखों में पानी आया और माथे पर भरभराकर पसीना छूटा। कुछ देर बाद उसे अच्छा लगा। भूख जोर से लगी हुई थी। वह खाना खा रहा था तभी अंधेर में उठकर सरपंच वहां पहुंच गये। ''भरपेट खाना खा लो।'' झोपड़ी के मुहाने  पर खड़े होकर सरपंच ने कहा। हाथ में जलता सिगरेट। सरपंच के आते ही उसे कुछ अकडऩ सी हो गई। निवाले की गति मंद पड़ गई। चक्की में पिसान रूकने जैसा हुआ। सरपंच झोपड़ी के किवाड़ से हट गये आरै उसने पूरी रोटी थाली में चाँप दी। खाना खाने के बाद गटगट पीनी पी लिया और बाहर आ गया। हवा की लहर से मानो उसे नई ताकत मिल गई।

धुंधली रोशनी में पैरतले कुछ तो दिखाई दे रहा था लेकिन फिर यह रोशनी भी कम हो गई। सरपंच जहां बैठे हुए थे उस जगह पर आने पर तो वह फिर से अंधेरे में डूब गया। खाने से पेट फूल गया था। पैर उठाने को जी नहीं कर रहा था। लगता था कि सीधे पसरा जाये। आँखें बोझिल हो गई थीं। आंखें पूरी तरह से खुली होने के बावजूद अंधेरे की वजह से बंद ही लग रही थी। गांव तक जाना जान पर बन आया था। तभी सरपंच ने पूछा; ''तो फिर चलेंगे गांव की तरफ?''

उसने 'हां' कह दिया। उन्होंने मोटरसाइकिल निकाली। आनंद को सहसा अच्छा लगा।

''चलो, तुम्हें कुछ पहले छोड़ देता हूँ।'' उन्होंने कहा। उनकी शुरु की हुई मोटरसाइकिल पर आनंद बैठ गया। रात के अंधेरे में गाड़ी की आवाज की खरोंच उठी। रास्ते के गड्ढों को टालते हुए गाड़ी सरपट गति से भागने लगीं। पूरे सगवारे में जैसी गाड़ी की आवाज ही गूंज रही थी। आनंद ने सोचा, कल ही इस बाग में आये; लेकिन आते वक्त अंधेरे में पैदल ही आना पड़ा। कल अंकुश का मालीपाटील से झगड़ा होने की भनक पड़ते ही हम शाम में ही उससे मिले। केस दायर कर मालीपाटील को सबक सिखाने के लिए कहा। उसके साथ बात होने पर घना अंधेरा हो जाने के बाद यहाँ सरपंच के बाग में आ गये। कल रात ही सरपंच ने केस दायर करने के लिए कहा था। आज काम हो जाने पर हम उनसे मिले। क्या चाल है पता नहीं; लेकिन हम पहले से ही सरपंच की तरफ खिंचे हुए हैं। वह भी हर काम में अपनी तरफ खींचता है। चुनाव के जमाने में बुधवाडे में कुछ भी करना हो तो उसका भरोसा हम पर ही होता है। हमें पूछे बगैर कुछ नहीं करता। अब बहुत दिनों बाद हम उसके काम आये हैं। मालीपाटील पर एट्रोसिटी दायर होने से सरपंच भी खुश। और हमें भी तो गांव में किसी का आधार तो चाहिए ही। इसीलिए हमने सरपंच को पकड़ रहा है। आंधी-बवंडर में आधार के लिए किसी पेड़ के तने को पकड़कर रखते हैं उसी तरह कभी भी काम पडऩे पर हमारे लिए सरपंच का आधार है। ऐसा कुछ हुआ तो फिर उसे हमारी जरूरत पड़ती है।... आनंद मन ही मन सोच रहा था। सरपंच कुछ बोल नहीं रहे थे। रात के अंधेरे में बोला हुआ साफ सुनाई देता है। गाड़ी की आवाज के बावजूद। इसलिए उनका ध्यान गाड़ी की रोशनी में सामने दिखाई देने वाले गड्ढों की ओर था। देखते ही देखते गाँव की लाइट दूर से ही चमकने लगे। गाँव के पास आने पर गाड़ी की आवाज कम हो गई। उन्होंने कुछ पहले ही गाड़ी को ब्रेक लगाया। आनंद उतर गया। सरपंच ने अपनी नेहरू-कमीज की बगलवाली जेब में हाथ डाला। दो नोट निकाले और मुट्ठी में बंद कर आनंद की जेब में ठूंस दिये। उसने अपनी पेंट की जेब में हाथ डाला। सरपंचकी गाड़ी ने फिर से गति पकड़ ली। आनंद बुधवाडे सड़क पर चल पड़ा। धुंधली रोशनी में राह बनाते हुए उसके कदमों में कुछ अलग ही ताकत का संचार हुआ था। जेब में हाथ डालकर दोनों नोटों को टटोलकर देखा। बुधवाडे के कोने पर लाइट के खंबे के नीचे वह खड़ा रहा। जेब से नोटों को निकालकर फिर हाथ में लिया। रोशनी में देखा तो एक-एक नोट पांच सौ का। कुत्ते के भौंकने से वह होश में आया। फिर घर की राह चल  पडऩे पर उसने सोचा, आज हमने पकाने के लिए डाल दिया, अब कल गर्म होने लगेगा, फिर धीरे धीरे उबलने लगेगा।

...सारा बुधवाडा खामोश सोया हुआ। राह चलते हुए आनंद के कदम भारी हो गये थे। खाने की सुस्ती अभी गई नहीं थी। उसने इधर उधर देखा, सारे बुधवाडे में सन्नाटा था। अंकुश के घर के सामने से जाते हुए उसका कलेजा फिर मेंढकी की तरह काँप उठा। मालीपाटील पर केस दायर करने के बाद गाँव में क्या हो गया इसे जानने की बेताबी थी। उफान आये बरतन का ढक्कन थड़थड़ करता है वैसे उसकी हालत हो गई।

 

फिर दूसरे दिन गांव भर में खबर फैल गई। मालीपाटील पर एट्रोसिटी दायर कर दी गई है। दिन निकलने के पहले ही हाथ में लोटा लिए हुए लोग कोने कोने पर खड़े होकर कानाफूसी करने लगे। तब तक पहले हो चुके झगड़े के बारे में किसी को पता नहीं था। पहले एट्रोसिटी की खबर मालुम हुई और बादमे झगड़े का पता चला। गांव से आने जाने वाले लोग मालीपाटील के घर की तरफ देखने लगे। यूं तो रात में ही बात का पता चल गया होगा; लेकिन लोग सुबह बात करने लगे। सरपंच ने नौकर को ऐसे ही भेज दिया, ''जरा मालीपाटील के घर का चक्कर तो लगा आ, देखना, घर पर ही है या तहसील चला गया है।'' उन्होंने कहा।

इधर बुधवाडे में भी बात देखते देखते घर-घर के चूल्हे तक पहुंच गई थी। उसी दिन सबको पता चल गया था कि ग्वालन के घर का और मालीपाटील का झगड़ा हुआ है; लेकिन इस केस की खबर किसी को नहीं थी। एक-दो ने अंकुश से पूछा, ''क्यों करते हो केस, बेहतर हो कि समझौता ही क्यों नहीं कर लेते?'' इस बात पर अंकुश भड़क पड़ा, ''कल कोई भी आये और हमें पैरों तले रौंद डाले क्या हमें चुप बैठना चाहिए?'' कुछ ने कहा कि जो हुआ सो अच्छा ही हुआ। ''गांव के किसी का बच्चा मुसम्मी तोडऩे घुस गया होता तो क्या उसको इतना बदहाल बना दिया होगा? इनकी नजरों में तो हमारे लोग ही चुभते हैं, इसलिए अंकुश ने मालीपाटील पर केस दायर किया तो अच्छा ही हुआ'' कुछ लोगों का ऐसा भी कहना था। पड़ोसन के घर से अंगार लाकर चूल्हा जलाने की तरह देखते ही देखते यह बात एक घर से दूसरे घर पहुँच गई।

दिन कुछ और ऊपर निकल आया। धूप रेंगते-रेंगते पास आने लगी। हवेली के चौक की परछाइयाँ कुछ दूर जाने लगी। यूं तो मालीपाटील के कान पर इस केस की भनक पड़ चुकी थी कल ही। इसका भी पता कल ही लग चुका था कि अंकुश, उसकी बीबी और उनका बच्चा तीनों तहसील गये थे और साथ में आनंद को भी ले गये थे। वे देर से लौटे होंगे। पता नहीं कब लौट आये; लेकिन बात पक्की है कि हम पर केस दायर हो चुका है। मालीपाटील ने सोचा कि अब बहुत देर तक गांव में रहने में कोई मतलब नहीं। अब और गांव में रूकेंगे तो पुलिस हवेली पर आ जायेगी। बेहतर होगा कि हम ही तहसील चले जायें। जो अपने भाग में होगा उससे तो निपटना ही पड़ेगा। हार मानकर नहीं चलेगा। घरवाली ने भी उनसे पूछा, ''क्या सच है कि हम लोगों पर केस दायर किया गया है?''

''हम लोगों पर नहीं, हम पर... आपको क्या करना है इस झमेले में'' कहते हुए उन्होंने झिड़क दिया। घर के दोनों लड़के जवान लेकिन पूछने की हिम्मत किसी की नहीं हुई। उन्होंने जल्दी से नहा लिया। नहाने के बाद गांव के मारुति के दर्शन के लिए जाने का रिवाज था लेकिन आज रिवाज टूट गया। नहाये और घर के देवघर के सामने झुक गये। हवेली के चौक में आकर मारुति मंदिर की दिशा में मुंह किया, हाथ जोड़े। रोटी खाने की इच्छा ही नहीं हुई। पहले पुलिस थाने जाने के सिवा और कोई विकल्प ही नहीं था।

तहसील आने पर उन्हें सूझा कि सीधे पुलिस थाने जाने में कोई मतलब नहीं। पहले वकील के घर पहुंचना चाहिए। फिर आगे का सोचा जायेगा। वकील के कहने के अनुसार बातों को अंजाम दिया जा सकता है। सुबह सुबह ही रिश्ते के एक वकील को पकड़ लिया। जो हुआ वह सारी बात बता दी। उनके पूछे सवालों के जवाब दिये ''अब घबराओ मत, जो हुआ सो हुआ अब अपने घर से ही पुलिस थाने जायेंगे। वहां से सब निपट लेंगे। कोर्ट के सामने हाजिर होने के बाद जमानत के बारे में देखेंगे।'' वकील साहब ने ऐसे कहा जैसे आसानी से नसैनी चढ़ रहे हों। मालीपाटील को कुछ धीरज बंधा। लेकिन लगा कि हाथ पैर कांप रहे हैं। धूप काफी गर्म हो चुकी हैं और अपना पेट तो खाली है। याद आया कि सुबह बिना कुछ खाये ही निकल पड़े थे। हाथ-पैर ठंडे पड़ रहे हैं। लगा कि जहां बैठे हैं वहीं जकड़ लिये गये हैं।

मालीपाटील वकील के साथ पुलिस थाने गये। पानी पीने के लिए ही पहले कुछ खा लिया। पुलिस थाने आने पर सामने वाले नीम के पेड़ के नीचे छाया में बैठ गये। वकील ही भीतर चले गये। उन्होंने दरोगा से राम-राम किया। यह भी बताया कि मालीपाटील अपने गांव के इज्जतदार आदमी हैं, कैसे गलती हुई पता नहीं लेकिन उन्हें बिलावजाह रगडि़ए मत। वकील साहब और दारोगा का रोजाना का रिश्ता। आवाज को कुछ छोटा करते हुए बोले, ''साहब, लेन-देन के बारे में जो है, वह देखा जायेगा; लेकिन इस सारे मामले को हलके हाथ से देखिएगा।''

दरोगा का चेहरा तन गया। तजुर्बेकार होने ने उन्हें पता था कि इस धंघे में शुरु से ही सुलह-समझौता नहीं किया जाता। पहले सक्ती से बात करना, सामने वाले को जितना हो सकता है उतना झुकाना। इसके बिना कारोबार ढंग से नहीं चलता। यह उनका अनुभव था। शुरु में ही उंगली पकडऩे दी तो लोग पहुँचा पकड़ लेते हैं, इसीलिए पहले ही आसपास आने नहीं देने की उनकी रीत थी।

''ऐसे केस में ज्यादा कुछ समझौता करने नहीं आता। एक बार अपराध का पंजीकरण हो गया तो कुछ होने का सवाल ही नहीं उठता। अगली सारी बातें उपविभागीय हाकिमों के हाथ होती हैं। फिर सामाजिक संगठनों का दबाव भी होता है। इसलिए हम जैसों को ज्यादा ढील देना नहीं आता।'' उन्होंने कहा।

वकील साहब के लिए इसमें नया कुछ नहीं था। ''साहब, आप अपनी हात में जितना है, उतना करवा लीजिए। कहना सिर्फ इतना ही है कि देखिए कि उनकी बेइज्जती न हो। दस्तावेज में कैद दिखाइए। अदालत में कब हाजिर करना है बताइए, मैं दस्तावेज तैयार करता हूं। जमानत मिलने पर वे चले जायेंगे। फिर जब भी जांच-वांच करनी हो तो मुझे फोन कीजिए, आधी रात में हाजिर हो जायेंगे। बस इतना देखिए कि गांव में सिपाही भेजकर उन्हें तकलीफ मत दीजिएगा। गांव की राजनीति बहुत बुरी होती है, साहब, लोग बात का बतंगड बना देते हैं।'' वकील साहब धीमी आवाज में यह बता रहे थे। दरोगा ध्यान से अपनी बात तो सुन रहे हैं लेकिन उनकी दोनों आंखें अपनी ओर ऐसी लगी हुई मानो कड़ा पहरा दे रही हो। वकील साहब ने उनसे आंखें चार की और अपनी बात पूरी की।

''कहां हैं वो मालीपाटील?'' दारोगा ने पूछा।

''बाहर बैठे हुए हैं। नीम के पेड़ तले। बुलाता हूँ मैं उनको।'' कहते हुए वकील साहब उठे। छांव में एक पत्थर पर बैठे मालीपाटील को उन्होंने आवाज दी। माथे का हाथ उठाकर घुटने पर जोर देते हुए, धोती से पसीना पोंछते हुए उठ गये। भीतर आकर दारोगा को रामराम किया। वकील साहब बैठ गये। बैठे कि न बैठे इसी सोच में खड़े रह गये।

''क्यों मालीपाटील, अच्छा हो गया आप आ गये वर्ना हम दो सिपाहियों को आपके गांव रवाना करने वाले ही थे। गुनाह तो कल ही दाखिल हुआ; लेकिन रात में यहाँ कोई नहीं था, इसलिए सोचा कि सुबह ही आपकी तरफ देखा जाये।''

दारोगा की बात से मालीपाटील कुछ दहशत में आ गये। अपनी रामराम की तो इस बाप ने खबर ही नहीं ली। सामने कुर्सी पर बैठने के लिए भी नहीं कह रहा है। उसकी बात पर हम क्या बोल सकते हैं? उलझन में पड़ गये। पहले जब हम घूमते-फिरते थे तब तहसील के हाकियों से जान-पहचान रहा करती थी। अब गांव के सारे सूत्र सरपंच के पास हैं। वह कभीकभार तहसील के हाकियों को बाग में आने का न्योता देता है, पार्टी करता है। इस दरोगा से तो हम पहली बार ही मिल रहे हैं।... आखिर जाकर उसके बैठो कहने पर मालीपाटील कुर्सी पर बैठ गये।

''पाटील, क्या इस तरह के झमेले अच्छे लगते हैं? आप जैसे आदमी को इज्जत से रहना चाहिए तो चले नंगे के साथ होली खेलने'' दारोगा की बात पर उन्होंने कुछ नहीं कहा। वकील साहब ही बीच में आ गये।

''जाने दीजिए ना साहब, जो हो गया सो हो गया। अब इसे दस्तावेजों में बराबर कर लीजिए। कुछ ही देर में हम अदालत चलेंगे, वहां भी टैम लगने वाला हैं'' वकील साहब के बोलने के बाद दारोगा ने फिर कुछ बढ़ाया नहीं। सारे काम झटपट हो गये। मालीपाटील पूरे सकपका गये थे। उनके ध्यान में नहीं आ रहा था कि सुबह से वह क्या कर रहे हैं। उन्हें लग रहा था कि कोई उनसे ये काम करवा रहा था। अदालत में आने पर भी उनका मन ठिकाने पर नहीं था। इस सारे झमेले से पार होते होते दिन ढल गया था। सिर भिन्ना रहा था। बात मामूली नहीं रही। हमें न कभी पुलिस थाने का पता था न कभी अदालत की सीढिय़ां चढऩी पड़ी थी। ऐसे हुआ जैसे होशियार नहीं थे और प्रहार हुआ। इससे किसी तरह बाहर तो निकलेंगे ही लेकिन अब चुप नहीं बैठेंगे। गांव में जाने पर कोई न कोई कुछ न कुछ तो कहता रहेगा। नामूसी होती रहेगी। इससे बेहतर हो कि इस दांव को उलटा दिया जाये। गांव के दो-चार लड़कों को पकड़कर कुछ हंगामा किये बिना नहीं चलेगा।... अदालत के कामों से निपट गये। मालीपाटील वकील की गाड़ी पर बैठकर उनके घर आये। पूछना चाहा कि कितने देने हैं लेकिन उसकी जरूरत ही नहीं पड़ी।

वकील साहब ही बोले, '' पाटील, अभी सिर्फ पाँच हजार रुपये दीजिए। दारोगा का भी में देख लेता हूँ। फिर आगे जैसे जैसे लगेंगे, मैं आपके कहूंगा।''

मालीपाटील ने नेहरू कमीज के बगलवाजी जेब में हाथ डालकर रुपये गिना दिये। हाथ से गिनते वक्त पेट में जैसे गड्ढा पड़ रहा था। घर बैठे आफत आती है वैसा हुआ। लेकिन काम तो हो गया सो ठीक हुआ। पत्थर के नीचे से हाथ निकला। अब आगे के काम करने होंगे। मालीपाटील मन ही मन योजना बनाने लगे। गांव में आते आते शाम हो गई। ढोर-लंगर लौटने लगे थे। खेतों में काम करने वाली औरतें सिर पर बोझ उठाकर सड़क के किनारे जा रही थी। अभी अंधेरा नहीं हुआ था। दोराहे पर उतरकर मालीपाटील ने इधर उधर देखा ही नहीं। सीधे चल पड़े थे। वे समझ गये थे कि एसटी से उतरते ही गांव के लोग अपनी तरफ अलग नजर से देख रहे हैं। गांव में घुसते ही एक ने पूछा,

''तात्याजी आप?''

''क्या हुआ? क्या मैं गांव में नया हूं? मुझे तो पहचानता होगा न? फिर इस तरह मुंह उठाकर क्यों पूछ रहा है?''

''ऐसा नहीं, सोचा, कहीं किसी गांव से तो नहीं आ रहे हैं?''

''मुझे कुछ हुआ नहीं है और न कुछ होगा। तू क्यों पूछताछ कर रहा है? अपनी धो नहीं सकते और चले लोगों की धोने।''

मालीपाटील को गुस्सा आया। सोचा कि आज रात ही लड़कों को बुला लें। करेंगे कुछ खर्च। सब कुछ उन्हें ही बतायेंगे। उस खूसट को सबक सिखाना ही पड़ेगा। इस तरह होता रहेगा तो मुश्किल होगा गांव में। कोई भी आये और धोती में हाथ डाले। उनके दिमाग की हालत ऐसी हो गई जैसे किसी भली हवेली में घूस लगे और वह खोदी हुई मिट्टी को निकाल बाहर डाले।

देखते ही देखते मालीपाटील के गांव में आने की खबर फैल गई। सरपंच को पता लगा। अंकुश को किसी ने बताया। शाम को वह सड़क पर ही बोलते हुए खड़ा था। फौरन आनंद के पास गया।

''अरे, वो आया ना छूटकर'' उसके पूछने पर भी आनंद की समझ में कुछ नहीं आया। कुछ देर बाद ही समझ आया।

''तो तुमने क्या सोचा? उसे तुरंत अंदर कर देंगे? आज उसे जमानत मिल गई होगी। उसे थोड़े ही तुरत-फुरत सजा देंगे'' चक्राकार घूमने वाली गिरगिरी रुक जाने जैसा कुछ अंकुश के दिमाग में हुआ। उसे अचरज हुआ कि आनंद ऐसे बोल रहा जैसे उसे सब कुछ मालुम है। ''डरो मत। वह नहीं छूटनेवाला इस केस से।'' कहते हुए आनंद ने धीरज बंधाया फिर भी अंकुश निराश-सा हुआ। रास्ते में रुकना उसे अच्छा नहीं लगा। घर जाकर घरवाली को बताने के लिए वह चल पड़ा। घरवाली को पहले ही किसी ने बता दिया था। उसका चेहरा तो पूरा उतर गया था। ''यह ऐसा कैसा काम है? तुरत जाना और तुरत आना। यहां मेरे बच्चे को मरते दम तक मारा फिर भी उस मुए का बाल भी बांका नहीं हुआ। भूनी मिर्च की तरह तेज बोल रहा था। मैं उसकी बेटी जैसी तो मुझे भी कुछ उल्टी सीधा बोलने लगा। ऐसे तो कोई भी कुछ भी करेगा और छूट जायेगा।'' उसकी जबान चल रही थी। अंकुश घरवाली से समझाने लगा।

''अरी, फिर होगी उसको सजा। अभी तो वह सिर्फ जमानत पर छूटा है।'

''ऐसे कैसे छूटा? अब कल ही वह सीना तानकर गांव में घूमेगा?'' उसकी समझ में नहीं आ रहा था कि ग्वालन को कैसे समझाये।

''अच्छा सुरेश कहाँ गया है?''

''बच्चे का सारा बदन ठनक रहा है। तार के खरोंच पड़े हैं पीठ पर तो पूरी पीठ चिल्ले जैसी हो गई है। यही कहीं बाहर बैठा होगा।''

ग्वालन उसे बहुत नाराज दिखाई दी। दोनों सुरेश पर जान छिड़कते थे। इकलौता एक होने से बेहद लाडला था। कहने को तीसरी कक्षा में था लेकिन स्कूल जाता ही नहीं था। उसके रोज के झगड़ों टंटों से परेशान थे फिर भी दोनों उसे जान से प्यारा मानते थे।

''इस पुलिस केस का कुछ न कुछ तो होगा, उस दिन बुधवाडे के पांच-सात लोगों को ले जाकर उसका हिसाब चुकता किया होता को अच्छा होता।'' अंकुश ने कहा लेकिन ग्वालन को लगा, सांप तो चला गया अब जमीन को पीटने से क्या होगा? और सांप ऐसे थोड़े ही गया, हमने उसे छोड़ा है। सांप को देखते ही उसे कुचल डालते तो ठीक था। अधूरा मारने पर तो वह अपनी ही जान को खतरा... ग्वालन के मन में सारे विचार सांप के ही आने लगे। ...सांप को छेडऩे पर अब सुख से कैसे सोया जा सकता है? ...वह इसी के बारे में सोचने लगी।

 

एक दिन ऐन दोपहर में ही दोराहे पर मालीपाटील का संदेशा आया। संदेशा पहुंचाने वाला इतना चालाक था कि बिल्कुल सही आदमी से ही उसने कानाफूसी की। ताश का खेल परवान पर चढ़ चुका था। खेल को तोड़ा गया। बिलास, मोतीराम, महादू जैसे लड़के तड़ाक से चल पड़े। दोपहर होने से दोराहा सुनसान था। भीड़ नहीं थी। दोपहर होने से गांव की सड़कें भी सुनसान थी। सड़क पर जहां छांव थी वहाँ उसके नीचे दो-एक बूढ़े बैठे हुए थे। लड़के मालीपाटील की हवेली पर पहुंचे तो सामने वाला बड़ा दरवाजा बंद था। इतने में पीछे से आकर नौकर ने संदेशा दिया कि तात्या जी गायवाडे में बैठे हुए हैं, वहीं पर बुलाया है। लड़के फौरन गायवाडे में पहुंच गये। तात्या का गायवाडा काफी लंबाचौड़ा। मवेशियों को एक तरफ बांधा जाता है। दूसरी तरफ कडबी की राशी, एक कोने में इंधन की लकडिय़ों का ढेर।... सोसायटी के चुनाव के वक्त लड़के कई बार यहां बैठे थे। मतदाताओं की फेरहिश्ते लेकर एक-एक नाम पर बहस की थी। यही पर चाय, यहीं पर खाना। मतदान के पहले के दिन यहीं से शराब की बोतलें बांटी गई। इसलिए यह बाडा नया नहीं था उनके लिए। तात्याजी अपने हमेशा की जगह पर लकड़ी की मेज पर कंबल बिछाकर बैठे हुए थे। लड़कों के आ जाने पर उन्होंने अपने आसपास उनके लिए जगह बना दी। लड़के कुछ संवरकर उनके पास ही बैठ गये।

''बात का पता तो तुम्हें चल गया होगा। बुधवाडे के उस अंकिया ने कल हम पर केस दायर की थी। उसे हमने तो निपटा लिया लेकिन अब उका कुछ तो हिसाब करना पड़ेगा।'' उन्होंने आरंभ किया।

''उसका हिसाब करने के लिए उसके पास है ही क्या? नंगे के पास उघडा गया और रात भर ठंड से मर गया, जैसी बात। उसका हम क्या कर सकते हैं तात्याजी?'' विलास ने पूछा। तात्या होशीयार हो गये। जरा दबकर बैठे थे।

''वह आवारा है। उसको क्या कर सकते हैं। खालीपीली भटकता रहता है उस आनंद के साथ।'' महादू ने कहा। तात्या चुपचाप सुनते रहे। पहले उन्होंने सबकी बात सुन ली। ''हमें उसका कुछ नहीं करना है। उसकी घरवाली आंगनवाडी में सहायक है। बहुत घूमती-फिरती है मास्टरनी की तरह। कुछ तो तोहमत रचनी होगी जिससे की उसकी नौकरी चली जाये। सीधे गोडाई करने को चली जाये। फिर यह भी कैसे आवारा घूमता रहेगा। उसे भी घरवाली के साथ खेत पर जाना पड़ेगा। कितने दिन बैठकर खायेगा? अभी तो घरवाली के तनखे पर जीता है। क्या करना है देखिए लेकिन यह बिसात बिछानी होगी।'' मालीपाटील ने अपने मन की सारी बातें खोल दी।

''तात्याजी, सरपंच ने विधायक की सिफारिश से उस औरत को काम पर लगाया है। हम उसमें क्या कर सकते हैं? कल हमने कुछ भी किया तो सरपंच ही आयेगा संभालने।'' मोतीराम ने अपनी आशंका जता दी। तात्या के ध्यान में आया कि लड़के हिम्मत हार रहे हैं। उन्हें उत्तेजित करने के लिए तात्या ने कहा, ''मां की, अरे तुम सब लोग बाघ जैसे और अब हिम्मत क्यों हार रहे हो? हम सब के एक हो जाने पर सोसायटी के चुनाव में हमने उनको पछाड़ दिया था ना?... यह भी कोई मुश्किल काम नहीं है। पहले  आप इसे मन में ठान लीजिए। सरपंच डरता है तुम लोगों से। कल हमें और भी कई बातें मिलजुलकर करनी हैं।'' मालीपाटील ने लड़कों पर भरोसा जताया। हर एक के चेहरे के भाव पढऩे लगे। उन्हें पता था कि यह चार-पांच लड़के ठान लेंगे तो कुछ भी कर सकते हैं। अब भी दोराहे पर ताश का खेल चलता है। कोई उनसे कुछ नहीं कहता। बीट जमादार  के साथ इनका मेलजोल तो हमेशा ही चलता रहता है। गांव में सरपंच की ताकत है जरूर लेकिन वह भी इनसे डरता है। सरे राह पर ये लड़के क्या बोलेंगे कुछ कह नहीं सकते। उन्होंने फिर से कहा, ''तुम लोग ठान लोगे तो किसी की भी थाली को उल्टा सकते हो। हमारे लिए इतना तो भी करो। और कुछ जरूरत पड़ी दरमियान तो हमारे पास हक से आना।''

लड़के उठने वाले ही थे कि चाय आ गई। चलते वक्त विलास ने कहा, ''तात्याजी, देखते हैं अब क्या करना हैं। आप इतनी आजिजी से कह रहे हैं तो कुछ न कुछ तो करना ही पड़ेगा।''

लड़कों के चले जाने पर भी मालीपाटील की बेचैनी कम होने का नाम नहीं ले रही थी। लकड़ी की मेज पर कंबल को ठीक कर उन्होंने पैर पसारे। आंखें मूंद ली। फिर भी उस दिन का झगड़ा दिखाई देने लगा। उन्होंने सोचा, केस से तो किसी तरह निपटा लेंगे लेकिन अन्य बातें तो अपने हाथ से छूट जायेंगी। इससे गांव की प्रतिष्ठा पर आंच आ जाती है। इस बार किसी ने शुरुआत की तो बाद में बाकी लोग राह बना देते हैं। कल कोई भी सोचेगा कि मालीपाटील पर केस करना तो आसान बात है। फिर सरपंच तो पच्चड ठोंक देने के लिए तैयार। बुधवाडे के लोगों को बतायेगा, ''मालीपाटील का बर्ताव ठीक नहीं है, क्या जरूरत थी औरत जात को गालीगलौज करने की?'' इससे बुधवाडे के लोग लेने देने के खिलाफ हो जायेंगे। ऐसी एक नहीं कई बातों से तात्या की बेचैनी और भी बढ़ गई। लगा कोई किसी से ऐसी बातें नहीं करता। बिना काम कोई सीधी बात नहीं करता। अब किसी ने किसी का मान-सम्मान करने का सवाल ही पैदा नहीं होता। यह गांव के लड़के तो किसी के साथ भी सीधी बात नहीं करते। हमने उन्हें संभाल रखा है इसलिए अपने साथ अच्छा सलूक करते हैं। हम अपने बड्प्पन को ऐसे संभाले हुए हैं जैसे पुराने चीथड़ों को बदनपर सजाया हो। लेकिन ऐसा कुछ वाकया हो जाता है और अपने चीथड़े और भी ज्यादा लटकने लगते हैं। इस सब को फेंक देना भी अपने से नहीं होता... मालीपाटील आंखें मूंदकर सोचते रहे। उस दिन का वह छोटा बच्चा नजर के सामने आकर हमें छेडऩे, सताने, तंग करने, फिर से गालियां देने आ गया है।... फिर ग्वालन और अंकुश अजीब तरह हाथ उठाकर झगड़ा करने आये हैं। अपने को बिल्कुल पोतेरा समझकर बर्ताव कर रहे हैं ऐसा महसूस हुआ। और फिर जैसे सारा खेल ही खराब हो गया। तनबदन जल उठा। कनपटियां गर्म हो गई। छटापटाहट हो रही थी कि उठकर बाहर निकल पड़े लेकिन जहां बैठे थे वहीं पर चुलबुलाते हुए कंबल पर लेटे रह गये।

 

दो-तीन दिन के बाद की बात। ग्वालन सुबह सब कुछ समेटकर आंगनवाड़ी की तरफ निकल पड़ी। स्कूल के एक कमरे में ही आंगनवाड़ी चलती । साथ में खिचड़ी पकाने का बडा भगोना ले लिया था। बुधवाडा पार कर स्कूल के रास्ते आई। कोने पर उसे विलास और मोतीराम दिखाई दिये। दोनों ग्वालन से कुछ नहीं बोले लेकिन आपस में ही पूछा,

''कितने बजे रे?''

''सवा नौ हो चुके।''

''आंगनवाडी का टैम कितने का है?''

''सुबह नौ का?''

''तो फिर वक्त का कुछ अता-पता है या नहीं? किसी को पूछने वाला नहीं है इस गांव में। हर कोई चुपचाप अपना अपना खाये जा रहा है।''

''अब इसके बाद आंगनवाडी खुलेगी तो कल्याण हो गया समझो। लोग अपने अपने बालबच्चों को लेकर आयेंगे और आंगनवाडी का ताला खुलने का इतंजार करते रहेंगे। चाबियां अपने पास रख लेने का और लोगों को बिठाय रखने का। ऐसा है सारा कार्यक्रम।''

दोनों इस तरह आपस में बोलते रहे। ग्वालन रुकी नहीं। आज निकलने में कुछ देर हो गई थी। ''गलती अपनी ही थी लेकिन बोलने वालों को उतना ही मौका मिल गया। अब इसके आगे जरा होशियार रहना होगा। निमित्त के लिए बेकार ही कारण न हो।''... कि ग्वालन को सुनाई पड़े। अपनी ही गलती थी तो क्यों खामखा झगड़ा मोल ले? और कहां कहां तक परेशान होते रहे? अब अपने आवारे से कुछ कहे तो फिर भड़क उठेगा। पहले से ही हमें देर हो चुकी है और मालीपाटील से टंटा भी हो चुका है। लोग कहेंगे इस औरत को क्या झगड़ेकरने के सिवा कोई काम नहीं है? मन ही मन ऐसा सोचकर उनसे कुछ नहीं कहा।

घर आने पर अंकुश के कान पर डाला। उसने सोचा, जो होना है सो होगा लेकिन पहले इन लड़कों से जाकर बोलना होगा। उनका क्या वास्ता? वह कौन होते हैं ग्वालन से पूछने वाले? लेकिन उसी ने अंकुश को रोका। ''यह नौकरी है इसलिए पेट को पेट भर मिल जाता है। नहीं तो बेकार बनबन भटकना पड़ता। इस तरह रोज ही बखेडे होते रहे तो उनसे निपटने में ही सबकुछ चला जायेगा।'' उसने अंकुश को समझाया। उसकी तसल्ली नहीं हो रही थी।

''मां के, टुच्चे साले। न इनके बाल न बच्चे और इन्हें फिक्र है आंगनवाडी की? औलादी के अब हमें रोटी भी सुख से तोडऩे नहीं देंगे।'' वह कह गया।

ग्वालन दहशत में आ गई। उसकी जान को परेशानी होने लगी कि अब कभीकभार ऐसी तरलीफें तो नहीं होती रहेंगी?

लड़कों ने मालीपाटील से कह दिया। अब कहीं चूल्हा सुलगाया है। कल ही हमने देर से आने के लिए ग्वालन को ताना मारा। सीधे उससे बात नहीं की लेकिन तीर बराबर निशाने पर लगा। लड़कों ने कहा, ''हम उनके खिलाफ निवेदन देंगे'' लेकिन मालीपाटील ने मना कर दिया। इतनी छोटी सी बात के लिए निवेदन देना ठीक नहीं दीखता। अभी हमारा काम इतना ही है कि उस औरत को मानसिक कष्ट देना। रोने की नौबत आनी चाहिए। गांव में पूरी जिंदगी में हमसे किसी ने सिर उठाकर बात नहीं की और यह केस दायर करती है? लोग तो हमें बस घासफूस समझने लगे। अब वह रोटी को खाये या रोटी उसे खाये।... मालीपाटील ने मन ही मन कहा। उन्होंने लड़कों से कहा, ''अब दूसरा कुछ देखो।''

मालीपाटील ने गांव में घूमते-फिरते तो कोई न कोई जानबूझकर बात निकालता, ''क्यों तात्याजी, वो आपका मामला सुलझ गया क्या?'' उन्हें गुस्सा आता। लोगों को क्या दूसरे काम नहीं है? एक दिन बडी हवेली के बाबूरावजी मिले। कोसले का साफा ठीकठाक करते हुए मालीपाटील से पूछा, ''क्यों तात्याजी, सुना है आजकल आप अंटसंट बोलने लगे हैं। आप जैसे आदमी के साथ क्या झगड़ा-टंटा शोभा देता है? जाने दीजिए न, लेकिन अब अच्छी तरह से निपट लीजिए।''

तात्या पहले से ही बाबूराव से खफा थे। यह आदमी कोसले का साफा पहनकर गांव में घूमता-फिरता है। रहता है जैसे कोई महाराज हो लेकिन दिनभर लगाई-बुझाई करते रहता है। बात टालने के लिए तात्या ने कुछ कह दिया। लेकिन उससे बाबूराव की तसल्ली नहीं हुई। ''आप बेकार की चुडियां पहन बैठे।  आपको भी उस पर केस करना चाहिए था। आपके ही बाग में आकर आप को ही गालियां देना। बहुत हो गया। बात को नजरअंदाज करेंगे तो सीने पर चढ़ बैठेंगे, तात्याजी!''

बाबूराव की बातों से मालीपाटील को नफरत होने लगी। इस आदमी से अपना कुछ भी देखा नहीं जाता। अब ही ऐसे दिखा रहा है जैसे इसे हमारी बहुत फिक्र हो। हर बात में राजनीति देखता है। गांव के मंदिर की अल्मारी की चाबी इसकी जेब में। अल्मारी में पखावज और मंजीरें रखे हुए होते हैं। गांव वालों ने एक बार किसी दूसरे महाराज का कीर्तन इसको बिना जानकारी दिये आयोजित किया था। इसे गुस्सा आया। जानबूछकर उस दिन दूसरे गांव चला गया। गांव की कीर्तन मंडली शाम हो जाने पर इसे ढूंढ ने लगी। इसका कहीं पता नहीं। घर के लोग भी कुछ बताने को तैयार नहीं। मंदिर की अलमारी की चाबियाँ लेकर यह पट्ठा गायब हो गया। अब कीर्तन कैसे हो? मंडली परेशान आखिर दौड़धूप करके दूसरे गांव से पखाबज मंजीरे लाये गये। फिर जाकर कार्यक्रम आरम्भ हुआ। पखाबज, मंजीरे की आवाज मंदिर में गूंजने लगी तो थोड़ी देर बाद टपक पड़ा। कहा कि कीर्तन के लिए ही दौड़ते भागते आ गया। मेरी वजह से कार्यक्रम न रुके इसलिए आया तो क्या देखता हूं कि यहां तो दूसरे गांव से पखाबज, मंजीरे लाये गये हैं और कीर्तन शुरु हो गया है। सब कुछ अपने गांव में होते हुए दूसरों के सामने क्यों हाथ फैलाना। इस तरह की बातें करने को तैयार। मालीपाटील को लगातार लगता रहा कि बाबूराव की और अपनी गांठ कुछ ज्यादा ही पक्की है। अपने साथ बर्ताव करते वक्त यह एकदम बाहर रखकर ही बात करता है। लगता नहीं कि कभी अपने साथ ईमानदारी से बात की हो। वह सरपंच वैसा तो यह ऐसा। इसीलिए हमने गांव के लड़को को पकड़ रखा है। ये लड़के ही अपने काम आयेंगे। मालीपाटील ने तय किया कि लड़कों को ढीला नहीं पडऩे देंगे।

 

एक दिन विलास स्कूल आया। आंगनवाडी के कमरे में छोटे बच्चे कतार में बैठे हुए थे; लेकिन रंगोली की बिखरी बिंदियों जैसे। आसपास शोर मचाते हुए। दीवार के पास ग्वालन बच्चों के लिए खिचडी पका रही थी। विलास उन बच्चों की कक्षा के सामने से चला गया। स्कूल के पास वाले खेत में जा बैठा। तब तक मोतीराम भी उसे ढूंढते हुए पहुंच गया। थोड़ी देर बाद दोनों फिर आंगनवाडी के सामने आये। ग्वालन बच्चों को उनके डिब्बों में खिचड़ी भरकर दे रही थी। खिचड़ी लेकर बच्चे फिर खुली जगह में जाकर बैठते थे। विलास के रिश्ते का एक बच्चा था। विलास ने उसका डिब्बा हाथ में लेकर मुआयना किया। काफी देर तक गोंजता रहा। फिर पड़ोस के दूसरे बच्चे का डिब्बा हाथ में लिया। दो-चार बार ऐसी हरकतें की। मोतीराम पास में ही खड़ा था। ग्वालन भी देख रही थी। लेकिन वह कुछ बोल नहीं पाई। उन्हें यहां क्योंकर आना चाहिए। उसके सामने यही सवाल था। लेकिन पूछे तो कैसे? एक डिब्बे को गींजते हुए विलास चिल्लाया, ''आरारा... नन्हों को मार डालना है क्या? , कोई मत खाओ'' वह बोलने लगा तो भी बच्चों का खाना जारी ही था। वे कुछ नहीं समझे। मोतीराम विलास के पास गया। उसने डिब्बे को हाथ में लेकर देखा। ''बाप रे! कीड़े।'' उसके चिल्लाते ही ग्वालन के पांव के नीचे की जमीन खिसक गई। खिचड़ी पकाने से पहले हम एक बार तो चावल धो लेते है। फिर आज यह कैसे हुआ? उसने सोचा, गलती से एकाध कीड़ा चावल में गया होगा शायद। ग्वालन ने पूछा, ''कहां है? दिखाईए तो भैया।'' लेकिन विलास ने सुना नहीं। ''तुम्हें दिखाने से क्या लाभ बाई? हमारे बच्चे पढऩे आते है यहां। तुम्हें क्या? अपने बच्चों को थोड़े ही ना खिलाना है? उसे तो मुसम्मी चाहिए न।'' विलास ने कहा। ग्वालन के तनबदन में आग लग गई।

''नजर से छूट गया होगा। लेकिन आपको टेढ़ा-मेढ़ा बोलने की जरूरत नहीं है। मेरे बच्चे को आपको क्या लेना-देना है।'' उसने चिढ़कर कहा। विलास तेजी से स्कूल गया। मोतीराम को गांव में भेजकर और दो-तीन लोगों को बुलाने के लिए कहा। स्कूल में जाकर उसने दो-तीन शिक्षकों को वह डिब्बा दिखाया ग्वालनबाई अकेली ही आंगनवाड़ी की सीढ़ी पर दुचिता होकर बैठ गई। अब किसे बुलाये? घरवाले का एक ठिकाना नहीं होता। गया होगा कहीं उस आनंद के साथ। अब क्या करें? उसका चेहरा मुरझा गया। मास्टरजी ने स्कूल में बुलाया। अपने हाथ का डिब्बा उसे दिखा दिया।

''बाई, यह देखा क्या?''

उसने पास जाकर देखा तो जीरे जैसे दो-तीन कीड़े। रोज चावल साधवानी से धोने के बावजूद ये कीड़े नजरों से छूट गये। तब तक मोतीराम भी मालीपाटील को ले आया। मालीपाटील ने कक्षा में कदम रखते ही कहा, ''देखिए मास्टरजी देख लिया ना, अब आप ही बताइए क्या किया जाय। गांव के नन्हें मुन्ने क्या अब कीड़े मकोड़े खायेंगे?''

लड़कों और मालीपाटील के दबाव में मास्टरजी कुछ बोल नहीं पाये। फिर भी उन्होंने कहा, ''जाने दीजिए पाटीलजी गलती से रह गये होंगे। बाई ने जानबूझकर थोड़े ही डाले होंगे। और चावल डालते हुए दिखाई देते तो क्या बाई ने निकाले नहीं होते? कोई जानबूझकर थोड़े ही करता है।''

विलास ताव में आ गया, ''सच है कि जानबूझकर कोई नहीं करता, लेकिन फिक्र किसी भी बात की नहीं है न। उन्हें लगता है कि कोई हमारा क्या बिगाड़ सकता है। अब कैसी मुश्किल आन पड़ी। मास्टरजी अब आपके सामने की पंचनामा कीजिए और सब के दस्तखत लीजिए।''

मास्टरजी सोचते थे कि सारा मामला शान्ति से सुलझ जाय। बाई ने जानबूझकर तो गलती नहीं की है। लेकिन नौजवान सुनना नहीं चाहते थे। उन्होंने बाई की तरफ देखा। जवानों की नजरें आते जाते उसकी तरफ तरेरकर देख रही थी। वह रुआंसी हो गई थी। मास्टरजी को लगा कि अब कुछ हो गया तो यह रो पड़ेगी। पूरे कमरे में सन्नाटा का माहौल छा गया। इतने में मालीपाटील ने कहा, ''मास्टरजी कागज लाइए सामने।'' बाई ने पल्लू मुंह में ठूंसा और सिसकी निकल पड़ी। उसी हालत में ग्वालनबाई कक्षा के बाहर चल पड़ी। बरामदे में एक लोहे खंबे के सहारे खड़ी हो गई।

''पाटीलजी, जाने दीजिए। क्यों गरीब के पेट पर पांव रखते हों। आप जैसे बड़े लोगों को दया दिखानी चाहिए। एक छोटीसी बात का इतना शोर क्यों हो?''

''मास्टरजी दया की बात नहीं है। अभी दया दिखायेंगे तो भी फिर यह औरत और उसका घरवाला हम पर ही गुर्रायेंगे। जाने दीजिए। क्या करना है इसे आप हमें मत बताईए। आप बस कागज पर लिख लीजिए और हमारे दस्तखत लीजिए। बात को ज्यादा देर क्यों चलाना।'' मालीपाटील ने कहा। मास्टरजी ने अपने हाथ से सब लिखा। जवानों और मालीपाटील के दस्तखत लिये। अपने दस्तखत किये और कागज अपने पास रख लिया। जवान लड़के कागज अपने पास देने के लिए कह रहे थे लेकिन उन्होंने बताया कि कल तुम्हें इस कागज की झेरॉक्स दे दूंगा। लड़के और मालीपाटील स्कूल से ऐसे बाहर निकल पड़े मानो कोई मुहिम पूरी हो गई हो। निकलते हुए देखा, ग्वालन पल्लू से आंखें पोंछ रही थी। इनके चले जाने पर बाई फिर से मास्टरजी के पास आगई। मास्टरजी ने समझाया, ''बाई, फिक्र की कोई बात नहीं है। कोई बड़ा अपराध नहीं हुआ है तुमसे। ऐसे मामलों में कुछ नहीं होता। उन्हें जो करना है करने दो।''

ग्वालनबाई बोलते वक्त हकलाने लगी। ''मास्टरजी, ये लोग बिलावजह हाथ धोकर पीछे पड़े है। उस मालीपाटील ने मेरे बच्चे को पीटा, बच्चा नींद में भी चिल्लाता है। बाग के तार के खरोंचों से उसकी पूरी कमीज फट गई। पीठ छिलकर लहूलूह हो गई। मैं और घरवाला पूछने गये तो हमें अंटसंट कुछ भी बोलने लगा। उस पर केस किया उसका इस तरह बदला ले रहा है।''

ग्वालनबाई की बात से मास्टरजी को सारा खुलासा होने लगा। 'तुम अब जाओ। काम पूरा करो और घर जाओ' उन्होंने कहा। वह फिर आंगनवाड़ी के कमरे के पास आ गई। बच्चे अपनी अपनी जगह पर बैठे हुए थे। भगोने के पास खिचड़ी का जूठन पड़ा हुआ था। भगोने की सारी खिचड़ी को एक जगह समेट लिया। फेंक देने को जी नहीं करता था। वक्त होने पर भगोना लेकर घर की ओर चल पड़ी। आंगनवाडी के कमरे में रखने पर चोरी जाने का डर था। दूसरा भगोना कहां से लायेंगे? और फिर चोरी की तोहमत अपने पर ही  आ गई तो? शाम को देर से अंकुश घर लौटा। आते ही उसने सब कुछ उसे बता दिया। घरवाली की सुनकर वह सहम उठा। बात अकेले से दबने वाली नहीं थी। एक दो की बात होती तो झगड़ा मोल ले सकते थे। इतने लोगों को कैसे झेला जा सकता है। बैठा था वहीं पर आंखों के आगे अंधेरा छा गया। बेटा कभी नहीं तो अभी सलेट लेकर बैठा हुआ था। दिन भर बुधवाडे के बच्चों के साथ खेलता रहता है। घर पर मां-बाप को फिक्रमंद देखकर मायूस बैठा हुआ था। शाम होने पर भी ग्वालन ने रसोई में हाथ नहीं डाला था। स्कूल से लाई गई खिचड़ी खाकर ही तीनों ने हाथ धो लिये। ग्वालन को लगा कि कहीं अड़ोस-पडोस में जाकर दिल की बात करें लेकिन उठने को जी नहीं कर रहा था। बुधवाडे में समाज मंदिर के सामने की बत्ती जल उठी। मैदान की रोशनी में लोग बैठकर बतियाने लगे। अंकुश को घर पर बैठना मुहाल हो रहा था। ग्वालन को बताकर वह उठकर घर के बाहर चल पड़ा। मीठी मार पड़ी हो वैसी दशा हो गई। समाज मंदिर के मैदान में आने पर वह रोशनी से ही डरने लगा। सोचा कि सारे लोग अपनी तरफ ही देख रहे हैं। बूढ़े ग्यानुने उसे आवाज दी।

''आज स्कूल में क्या झगड़ा हुआ रे? मां की, सारी जिनगानी क्या इसी तरह झगड़ा-टंटा करने में ही गुजारनी है क्या? तुम्हारा और उस मालीपाटील का इतना क्या दुश्मनदावा हो गया कि एक दूसरे के साथ घुर जनम का झडा हो? अब कहीं तो समझौता होना चाहिए।''

''ग्यानुदा अपने पास कहां टैम है उससे झगड़ा करने के लिए। उसकी लेन-देन अपने पीछे पड़ी है। परछाई की तरह। गांव के लड़कों के हाथ उसने लुकड़ी थाम दी है, उसे हम क्या करें?'' अंकुश ने कहा। वहां पर थोड़ी देर अटका रहा। सोचा अब यहां पर रुकना नहीं चाहिए। एक-एक आकर ऐसे ही मिट्टी खोदते रहेंगे। उसकी नजर आनंद को ढू्ंढ रही थी। समाज मंदिर की बाजू की गली में वह घुस गया। आनंद के घर के सामने आवाज देने पर वह बाहर आ गया। अंकुश को तसल्ली हुई। अब इसको कुछ तो बताया जा सकेगा। कुछ राय ले सकेंगे। दोनों बाहर आकर चबूतरे पर बैठ गये।

''आनंदा, मां की, इस मालीपाटील के साथ के झगड़े बुझने का नाम नहीं ले रहे हैं। वो बहुत ही हाथ धोके पीछे पड़ा हुआ है।'' कहते हुए सारी बातें उसे सुना दी। आनंद ऐसे सुनता रहा जैसे उसे कुछ भी मालुम नहीं।

''क्या करें अब? या उसे अब ठीकठाक ही करले। फिर जो होगा सो होगा। वोही हमारी थाली में मिट्टी मिलाने को तुला है, तो हम भी कहां तक खामोश बैठे।'' अंकुश की बात पर आनंद कुछ देर के लिए चुप रहा। ''अब एक बार हमने उस पर केस दायर किया है। बारबार वही झमेले कितनीबार करते रहेंगे। इससे तो अपनी ही हंसी हो जायेगी। अच्छा, मारने पीटने की बात करनी हो तो हम कैसे उसका मुकाबला कर पायेंगे? किसी को बीचबचाव के लिए कहकर देखते हैं।'' आनंद ने उसे उपाय सुझाया। फिर भी अंकुश को नहीं लगा कि इससे बाहर निकल सकेंगे। खोपड़ी में कोई नाली अटक गई हो जैसा हो गया। ''देखेंगे हम, करेंगे कुछ न कुछ अब तुम कल मिलो।'' कहते हुए आनंद ने उसे रास्ता दिखाया। अंकुश बूचे तने की तरह बेजान हो गया। घर लौटते हुए कदम रास्ते में ही डगमगाने लगे। समाजमंदिर के सामने वाले मैदान में चार छह लोगों के बीच आने पर भी वह अकेलापन महसूस करने लगा। सरपंच के पास जाये तो पता नहीं हमें धीरज बंधायेगा या नहीं। अपना काम उसने रुपये लेकर ही किया; लेकिन काम हो जाने के बाद फिचले दो-तीन बरसों से हम उससे कुछ खास मिले भी नहीं। ऐसे ही राह चलते कभी मिले होंगे। अब मिलेंगे तो कहेगा, ''इतने दिनों में याद नहीं आई और अब ही कैसे आई?'' पहले भी उसने हमें दो-एक बार टोका था।... अंकुश ने सोचा कि पहले इस समाज मंदिर की रोशनी से हटना चाहिए। लगा कि कहीं अंधेरे में जाकर छिप जाना चाहिए। कदम अपने आप घर की तरफ खींचने लगे।

 

देर रात आनंद और सरपंच की मुलाकात हो गई। वह तीन-चार दिन बाहर गांव चले गये थे। उन्हें पता नहीं था कि मालीपाटील केस दायर होने के बाद क्या हुआ था। आनंद ने उन्हें सबकुछ बता दिया। मालीपाटील अब लड़कों की मदद से ग्वालनबाई को परेशान करने लगे हैं। वह एक दिन आंगनवाडी में देर से पहुंची तो लड़कों ने उसे ताने मारे। खिचड़ी में एक-दो छोटी कीड़े निकले तो लड़कों ने और मालीपाटील ने मास्टरजी के सामने पंचनामा करने लगाया। सरपंच ने सबकुछ सुन लिया।

''वो अंकिया अपने काम भी कहां आता है? छोड़ो। अपनी मौत से मर जायेगा वो। उसकी फिक्र क्यों करे?'' बहुत कुछ सुन लेने के बाद सरपंच डक्कार देने की तरह बोले।

''फिर उसे सीधे मालीपाटील से माफी माँगने के लिए बोलकर क्या मामले को रफादफा कर लें?'' आनंद ने पूछा।

''उसे माफी मंगवाने की बात अब क्यों करते हो? आग लगती है तो लगने दो। तुम क्यों बुझाने पर तुले हो?'' सरपंच ने कहा।

''इससे उस औरत की नौकरी चली जाएगी, मालिक यह लोग कदम कदम पर कांटे बिछा रहे हैं।''

''जाने दो न। हमने उसे रोजगार दिलाया वो अंकिया अब हमें पहचानने को तैयार नहीं। और उसके घरवाली की नौकरी जाती है तो क्या हुआ। तुम्हारी घरवाली को वहां लगा देंगे।'' सरपंच ने कहा और आनंद के सीने में संतोष की एक लहर आकर लौट गई।

''हमें मालीपाटील को परेशान करना था, सो हमने किया। अब अंकिया को भटकने दो जहां भटके।'' सरपंच ने बोलने के बाद आनंद को पूरे बदन पर जैसे मीठे रोमांच खड़े हो गये। सरपंच के पास से उठा तो लगा कि आसमान छू लिया हो। लंबे लंबे डग भरते हुए वह बुधवाडे पहुंच गया।

ग्वालनबाई किसी बीमारी से उठी हो जैसी सुबह ही निकल पड़ी। अंकुश घर पर ही था। उसे चिंता हुई कि अपने पीछे लगी हुई यह बला और कितने दिनों तक रहने वाली है। कल लिखे गये पंचनामे के कागज का आगे क्या होगा समझ में नहीं आ रहा था। खाली भगोना लेकर वह भीतर से टूटी-सी चलने लगी। बेटे को तैयार कर पहले ही स्कूल भेज दिया था। गांव में रोज इस तरह की बातें होने लगी इसलिए उसने घरवाले को गांव में ही रहने के लिए कह दिया था। वह घर पर ही बैठा था।

बुधवाडे से बाहर निकल ही रही थी कि आनंद से मुलाकात हो गई। उसने सोचा, सीधे आनंद से ही पूछा जाये कि भाई कुछ तो रास्ता निकाल इसमें। वह रूककर बोलने लगी तो आनंद ने कहा, ''मुझे अंकुश ने सब कुछ बता दिया है। हम निकालेंगे कोई न कोई रास्ता लेकिन भाभीजी आप जरा संभलकर ही रहिए अब।''

''मतलब?''

''ऐसा कुछ नहीं। इतना ही कि काम करते वक्त जरा सी भी गलती न होने देना। गांव के लोग अब निशाना साधे ही बैठे हैं।''

''मैं तो जितनी हो सकती हूं उतनी सावधानी तो बरतती ही हूं। सोचा, कि आंगनवाडी का ताला तोड़कर कोई भगोना न चुरा ले इसलिए मैं रोज इसे घर ले जाती हूं। इतनी फिक्र करने के बावजूद अपनी तकदीर में परेशानी।''

''भगोना लाती हो, लेकिन और क्या होता है आंगनवाडी में?''

''कुछ नहीं अब चावल की एक पोटली है।''

''तो फिर उसे भी क्यों रखती हैं? कल उसकी भी चोरी हो सकती है और तोहमत आप पर आ सकती है। इससे तो यह ठीक होगा कि भगोने में चावल भी ले आइए। पोटली कहो तो पंद्रह-बीस किलो की होगी। इस भगाने में समा जायेगी।''

आनंद के कहने से ग्वालनबाई को जैसे सहारा मिल गया। सोचा, इतना अपनेपन  से क्या कोई कहता है? आनंद चल पड़ा। और ग्वालनबाई आंगनवाड़ी की तरफ निकल पड़ी। आज खिचड़ी पकाने से पहले उसने तीन बार चावल पानी से धोए। चार-चार बार छान लिये। खिचड़ी पकाने के लिए रख दी। काफी देर तक बाहर बैठी रही। कक्षा में मास्टरजी आये हुए दिखाई पड़े। स्कूल के पांच छह कमरे पार कर वह मास्टरजी के पास पहुंच गई। उनके सामने जाकर सीधे खड़ी रह गई। मास्टरजी ने उपर देखा। ''क्या है?'' जैसा भाव उनके चेहरे पर था।

''कुछ नहीं। कलवाले उस कागज का क्या हुआ?'' उसने चिंता के स्वर में पूछा।

''इतनी जल्दी क्या होगा, लेकिन कल मालीपाटील ने मेरे पास आकर उस पंचनामे की कापी ले ली। झेरॉक्स कराकर मूल कापी मेरे पास रख दी। वह अब तहसील जाकर दे देंगे। फिर अधिकारी पूछताछ कर जो कुछ कार्रवाई करनी है, करेंगे।''

मास्टरजी का बताया, सब कुछ तो ग्वालनबाई की समझ में नहीं आया; लेकिन इतना भरोसा हो गया कि आज की आफत कल पर टल गई। वह फिर आंगनवाडी के कमरे के पास आ गई। अंदर मास्टरनी बच्चों को कोई गाना सुना रही थी। उसने खिड़की से झांका। थोड़ी देर बाद सब बच्चों में खिचड़ी बांट दी। डालते वक्त हर एक के डिब्बे में बारबार देखा। फिक्र लगी हुई थी कि परोसते वक्त आज गांव का कोई आदमी तो नहीं आयेगा; लेकिन कोई नहीं आया। सबको खिचड़ी परोसन के बाद भगोने को स्कूल के नल पर ले गई, अच्छी तरह से मांज लिया। आंगनवाडी के कमरे में आकर चावल की पोटली को भगोने में खाली कर दिया। भगोना बड़ा था इसलिए पूरा नहीं भरा था। आधे के कुछ ऊपर था। टैम हो गया। सब बच्चे अपने अपने घरों की ओर चल पड़े। कुछ बच्चों के घर के लोग ले जाने के लिए आये हुए थे। बच्चे ऐसे बिखर गये मानो मुरमुरे का थैला खुल गया हो। सारे बच्चे जब नजर से ओझल हो गये तब ग्वालनबाई ने ताला लगाया। भगोना सिर पर उठाया और चल पड़ी। चावल का बोझ कुछ भारी लग रहा था। इसका असर गर्दन पर पड़ रहा था। पल्लू को ठिकठाक कर वह चल पड़ी। कदम भारी हो रहे थे। स्कूल का मैदान पा कर वह रास्ते पर आ गई। बड़ी नाली लंबी टांग से लांघ कर वह गोने पर आई नहीं तो बड़ा शोरगुल हुआ। सहसा वह सहम गई। पांच-छह लड़के आगे बढ़ गये मानो उसकी राह रोक रहे हैं। उसकी समझ में कुछ नहीं आया कि क्या हो रहा है। भगोने पर दोनों हाथ जोर से कांपने लगे। लगा कि भगोना हाथ से फिसल तो नहीं जायेगा। उसने मजबूती से पकड़ रखा। धांधली ऐसी मच गई कि कुछ देर के लिए पता ही नहीं चला कि कौन क्या बोल रहा है। वह खड़ी की खड़ी रह गई। लड़कों की गड़बड़ी देखकर सड़क के आने-जाने वाले लोग भी रुक गये।

'', भगोना पहले नीचे रख दे'' मोतीराम से डांटने के सुर में कहा।

''किसलिए?'' क्या हुआ वह कुछ समझी नहीं। वह घबरा गई।

''चावल चुराकर घर ले जा रही है क्या? पहले भगोना नीचे रख दे।'' उसके माथे पर बिजली कड़क पड़ी हो जैसे। ऐसा लगा कि पहाड़ के माथे से लुढ़कते ही सीधे नीचे जा रहे हैं। क्या कैफियत देंगे हम और कौन सुनेगा इतने बड़े शोर में। धूल का बवंडर उठ गया हो जैसे। उसे लगा कि जमीन फट जाये और उसे पेट में समा ले। यहीं के यहीं मौत आ जाये और पत्थर बनकर पड़े। पूरा बदन चुनचुना उठा। उसकी आग से चीखने को जी  करने लगा। देखते ही देखते सड़क की भीड़ बढ़ गई। आने-जानेवाला हर कोई आदमी रुकने लगा। कोई कुछ, कोई कुछ जो मन में आये बोलने लगा। उसने घबराकर कांपते हुए भगोने को नींचे रखा। रास्ते के सारे औरत मर्द भगोने की तरफ देखने लगे।

''कैसी री ये दुनिया। अब किस पर भरोसा रखे?''

''इनको नौकरियां भी दो और इस तरह अडम् धडम लूटने की इजाजत भी दो।''

''इतने बड़े स्कूल में भगोने में चावल रखने के लिए क्या जगह भी नहीं है?''

''देखा ना, नीचे मुंडी पाताल ढूंढी।''

नीचे सिर झुकाकर बैठी ग्वालन और एक औरत ने कह दिया। इतने में दो-तीन समझदार लोगों ने जरा भीड़ को कम करने की कोशिश की। जरा सब्र करके उससे पूछने के लिए कहा।

''स्कूल से चावल चोरी हो जायेंगे इसलिए मैं इन्हें घर ले जा रही थी। इसका एक कन भी मेरी गिरस्ती के लिए नहीं चाहिए। इसमें से कुछ खाया तो मेरा बंस डूब जायेगा।''

ग्वालन जी तोड़कर बोलने लगी। उसे लगा कि अपना कलेजा फाड़कर दिखाये। लेकिन भीड़ बढ़ती ही गई और उसकी बात कपूर की नाई हवा होने लगी। बात अंकुश के कानों पर पहुंच गई। वह दौड़ते भागते वहां पहुंच गया। अब यह क्या बला नसीब में आ गई। भीड़ देखकर तो उसका बेहोश हो जाना बाकी था। उसे पूरा भरोसा था कि ग्वालन ऐसा कुछ नहीं कर सकती। आते ही आते उसने घेरा तोड़कर ग्वालन को बाहें पकड़कर उठाया।

''देखो न, इसमें अपना क्या गुनाह है? किसने कैसे नसीब में मिट्टी मिला दी? कहते कहते वह उठ गई। वह उसे भीड़ से बाहर ले आया।''

'', चलो रे लड़को, ले चलो वह भगोना ग्राम पंचायत की तरफ। उनको जाने दो जहां जाना है। मां के, दिनदहाड़े चोरी करने लगे हैं।'' विलाश की आवाज आई। उसी ने भगोना सिर पर उठाया। ''चलो रे सब, एक निवेदन करेंगे। भीड़ के सब लोग चलो। एक भी इधर उधर न जाये। और पुलिस थाने चोरी की एक शिकायत दर्ज करो। सड़क पर का यह खेल अब बस हो गया।'' फिर मोतीराम की आवाज गुंज उठी। कुछ लोग बिखर गये। लेकिन बाकी सब ग्राम पंचायत की तरफ निकल पड़े। आगे आगे भगोना उठाये हुए विलास।

घर आने तक ग्वालनबाई की आंखों से बह रही धारा थमने का नाम नहीं ले रही थी। घर आते ही बिछाना पसरकर वह लेट गई। माथ में जैसे मथानी घूम रही थी। अंकुश तो सफेदफक हो गया था। बुधवाडे के लोग आते-जाते देख जाते थे। लोगों की नजरों का कांटा चुभने लगा था। छोटे बच्चों को खबर नहीं थी कि क्या हुआ है। गली के छोटे-छोटे बच्चों के साथ सुरेश भी चबूतरे पर बैठा हुआ था। शाम हो जाने पर भी लोग आते रहे। आनेवाले हर एक को अंकुश बताता रहा कि अपना कोई गुनाह नहीं है। ये लोग हम पर नाहक तोहमत लगा रहे हैं चाहे जैसी। गला बैठने की नौबत आ गई। गीलापन सूखजाने से मुंह सूखासूखा हो गया था। घर पर चूल्हा नहीं जला था। अंधेरा बढऩे लगा। ग्वालन ने सोचा कि इस अंधेरे में हम हमेशा के लिए डूब जायेंगे तो कितना अच्छा होगा। अंधेरे में कुछ सुकून मिल रहा था कि घरवाले ने लाइट शुरू की। वह उठी। उठकर पेटभर पानी पी लिया। अंकुश उठकर बाहर आ गया। बाहर की हवा लगने से उसे कुछ ठीक लगा। कदम अपने आप आनंद के घर की तरफ चल पड़े। समाज मंदिर के सामने की भीड़ को उसने एक नजर से देखा। आनंद दिखाई नहीं दिया। वह तुरंत आनंद के घर चला गया। तन में कोई ताकत नहीं बची थी लेकिन उसे अचरज हुआ कि पैरों में बल कहां से आया। उसने आनंद को बाहर बुलाया।

''आनंद अब यह तो बहुत ज्यादा हो गया। ऐसे में जिये तो कैसे जिये? अब तुम ही एक बार उस मालीपाटील से कह दो। हम दोनों औरत-मर्द उनकी माफी मांगेंगे; लेकिन हमारे घरबार पर हल किसलिए चला रहे हैं?'' अंकुश की आवाज कांपने लगी थी। आनंद ने उसके कंधे पर हाथ रख दिया।

''माफी फिर कभी मांग लेते हैं। लेकिन आज नहीं। आज मांगना अच्छा नहीं दीखेगा।'' उसने कहा। ''तो फिर कब? हम भीख मांगने लगेंगे तब माफी मांगेगे?'' अंकुश ने पूछा।

''समझ में नहीं आ रहा है कि अब ये पांसे कैसे पड़ रहे हैं। लगा था कि यह बुझ  जायेगा लेकिन फिर से जलने लगा है। अब हमें जरा रुकना पड़ेगा। अभी कुछ करने में कोई मतलब नहीं। मेरी तो समझ में कुछ नहीं आ रहा है।'' आनंद की बात पर अंकुश तो ठंडा ही पड़ गया। खड़े-खड़े ही उसे लगा कि रहंटझूले में बैठा हुआ है। होश खो बैठने की नौबत आ गई। हिम्मत जुटाकर उसने पूछा,

''फिर अब कैसे?''

''अब जो होता है उसे देखते रहना। हमने तो हार मान ली भैया।'' आनंद की बात से अंकुश का माथा चकराने लगा। वह फिर ज्यादा देर वहां रुका नहीं। एक दो जगह ठेस खाई। रूकते-ठिठकते ही घर पहुंच पाया। घर के सामने पत्थर था। रोज आते जाते उससे बचता था लेकिन आज उसी से ठोकर खाईं। मरने जैसी टीझ पहुंची। उसी दशा में चलता रहा। ग्वालन ने सुरेश के लिए चूल्हा जलाया। औरत-मर्द की भूख-प्यास की बासना ही गायब हो गई थी।

रात में सुनसान होने के बावजूद आंख नहीं लग रही थी। अब भगोने को लेकर लड़के कहां गये होंगे? क्या इतनी रात गये पुलिस घर आयेगी? चोरी का गुनाह दायर हो जाने पर क्या नौकरी चली जायेगी? नौकरी चली जाये तो कोई बात नहीं; लेकिन लोग कहेंगे, सगेसंबंधी बोलेंगे, चावल चुराने की वजह से नौकरी चली गई। दोनों सोचते हुए जागते रहे। सुरेश की आंख लग गई थी। अंकुश ने ग्वालन से कहा,

''क्यों न हम मालीपटाली के पास चले जायें?''

''अभी? इतनी देर बाद?'' ग्वालन ने पूछा।

''जाकर दोनों सीधे माफी मांग लेंगे। चक्की के पाटों में दरदराने की तरह कितने दिन दम घूंटते रहेंगे? आज यह चोरी की तोहमत लगाई है। पहले क्या तो खिचड़ी में कीड़े हैं। अब हमें सहारा भी तो किसका है? उसे जो कुछ बोलना है बोलने दो।'' अंकुश ने कहा। ग्वालन ने बड़ी हिम्मत से काम लिया। बाग में सुरेश को पीटा तब पगलाये सांप की तरह चढि़कर मालीपाटील दौड़ा आया। हम तो बस इतना ही कह रहे थे ''बच्चा नादान है। इतना तो भी आपको समझना चाहिए था।''

''बाई, अपने नन्हें को बाँध पीठपर और भटकती फिर सारी दुनिया में। यहाँ क्या तेरे बाप ने सोना गड़ा रखा है? क्या दूसरों के खेतों को लूटने के लिए औलादे पैदा की हैं?'' मालीपाटील की इस तरह की बातें अब भी कानों में गूंजकर कनपटियों को मसलने लगी। फिर भी उसने पूरे धीरज से काम लेकर आगे की बात सोची। ''ठीक है, चलिए।'' उसके मुंह से शब्द निकल पड़े। सुरेश बिछाने पर सोया हुआ था। रात में रास्ते सुनसान हो गये थे। दोनों अंधेरे में चलने लगे तो कुत्ते एक सुर में भोंकने लगे।

 

मालीपाटील की हवेली की पत्थरवाली सीढिय़ों पर दोनों पहुंच गये। अंकुश को लगा कि अपने कदम लडख़ड़ा रहे हैं। उसके पीछे निचली सीढ़ी पर ग्वालन खड़ी। दरवाजे की सांकल को धीरे से बजाकर अंकुश ने आवाज दी। भीतर से आवाज आई ''कौन है?'' ''मैं हूं, तात्याजी'' अंकुश बड़ी मुश्किल से निकली आवाज में बोला। हवेली का बड़ा दरवाजा खुल गया। सामने मालीपाटील को देखकर दोनों का दिल बैठ गया।

''क्या है रे भाई?'' उन्होंने पूछा।

''तात्याजी, हाथ जोड़कर माफी मांगता हूँ। हमारी बरबादी क्यों देखिएगा।'' अंकुश ने कहा।

''मालिक, आपको बच्चे की कसम। गलती हो गई इसे भूल जाइए। गुस्से में हो गया होगा हमसे।'' ग्वालन बोली।

 

''तुम लोग क्या बोल रहे हो, मेरी कुछ समझ में नहीं आ रहा है। माफ करने वाला मैं कौन होता हूं? और माफी आप लोग किस बात की मांग रहे हैं?'' मालीपाटील सहसा रुखे सुर में बोलने लगे। दोनों ने सोचा कि अब और कितना झुके, कितना गिरकर बोले जिससे कि इस आदमी का दिल पसीजे। कुछ देर कोई कुछ भी नहीं बोला। खौफनाक सन्नाटा छा गया। अंकुश को लगा कि मालीपाटील की हवेली की रोशनी दरवाजे से बाहर धावा बोल रही है। रोशनी में मालीपाटील ने दोनों के चेहरे को जलती हुई नजर से देखा और धड़ाम् से दरवाजा बंद होने की आवाज आईं। ग्वालन को आभास हुआ मानो बिजली की जलती हुई लपट अपने बदन पर गिर गई हो। उसकी मार में आ गई हो जैसी वह कांप उठी। इधर उधर सहारे के लिए हाथ बढ़ाया लेकिन कुछ भी हाथ नहीं आया। लकवा मारा गया हो जैसे वह सहसा नीचे बैठ गई। बंद दरवाजे को छिपकली की तरह चिपका हुआ अंकुश उसे सहारा देने के लिए झुक गया तो उसे लगा कि सारा अंधेरा ही हमें निगलने जा रहा है। फिर दोनों की एक दूसरे को सहारा देने की छटपटाहट सारे अंधेरे को बिलोड़ती रही।


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