मुखपृष्ठ पिछले अंक कवितायें महाराज कृष्ण संतोषी की कविताएं
अक्टूबर-2017

महाराज कृष्ण संतोषी की कविताएं

महाराज कृष्ण संतोषी

कविता/जम्मू कश्मीर से

 

 

चांद के बहाने

 

आज जब

मैंने कार्तिक पूर्णिमा का चांद देखा

मन में यह ख्याल आया

क्यों न इसे तोड़ कर

कुछ दिन अपने पास रखूँ

 

जब आकाश से

चांद गायब होगा

तो चारों ओर कोहराम मचेगा

जलूस निकलेंगे

आरोप प्रत्यारोप लगेंगे

 

यहां तक कि कुछ लोग

चांद पर भी ऊंगली उठाएंगे

और उसे नक्सलियों का समर्थन मान कर

उसके भूमिगत होने की अफवाहें फैलायेंगे

 

सरकार

तारों से पूछताछ करेगी

ज़हबी लोग

यह कहते हुए सुने जाएंगे

चांद हमारा है

उन्होंने हमारे चांद का अपहरण किया है

 

वे फिर ज़ोर ज़ोर से चिल्लाना

शुरू करेंगे

हमें हमारा चांद चाहिए

 

कुछ विपक्षी नेता और बुद्धिजीवी

चांद को धर्मनिरपेक्ष कह कर

जनता से उसे बचाने की अपील करेंगे

 

मैं यह सब देख कर हसूँगा

और मुझे हँसते हुए देख कर

क्या पता

चांद भी हँसने लगे

 

तब मैं चुपके चुपके

बिना किसी के देखे

उसे वापस आकाश पर टांक दूंगा

और भूल जाऊंगा

मैंने कभी आकाश से चांद तोड़ा था।

 

राष्ट्रीयता

 

वे अपना लिबास बदल सकते हैं

पर विचार नहीं

 

उनकी लाठी में

आ गया है बल

उनके सपने

सार्वजनिक हो गए हैं

उनके बुद्धिजीवियों में

आ गया है साहस

 

वे लौट आए हैं किताबों में

 

वे अपना रंग अब छिपाते नहीं

उन्हें विश्वास हो गया है

हवा भी उनके ध्वज के साथ है

 

उनके लिए प्रश्नों के उत्तर देना ज़रूरी नहीं

उनके लिए दरिद्रता के खिलाफ लडऩा ज़रूरी नहीं

उनके लिए प्रेम करना भी ज़रूरी नहीं

उनके सरोकार

उस अतीत के साथ है

जो बदरंग हो चुका है

 

वे कहते हैं

हम लड़ेंगे

हम जिएंगे

अपने ही रंग के सम्मोहन में

अब हमें कोई डरा नहीं सकता

हम ने रच डाली है

देश के लिए नई वर्णमाला

 

हाय!

मैंने यह क्या लिख डाला

मैंने तो ज़रा सा साहस अर्जित करके

सिर्फ इतना पूछना चाहा था

महाशय!

आप के पतलून की

राष्ट्रीयता क्या है?

 

 

पाठशाला

 

मुझे बचपन में

न प्रिय थी पुस्तकें

न अनुशासन

बस अच्छा लगता था सुनना

छुट्टी की घंटी

 

घर से पाठशाला

और पाठशाला से घर

इन्हीं दो के बीच

कहीं छिपी थी

मेरे होने की सार्थकता

 

बीच रास्ते एक नदी बहती थी

जिसके पुल पर

उन दिनों

मैं यह अक्सर सोचा करता था

नदी में फेंक दूं

किताबों का यह बस्ता

और खुद भी बहता हुआ जल हो जाऊं

बिना पढ़े ही

सब कुछ सीख जाऊं

 

आज जब सोचता हूं

उन दिनों के बारे में

तो लगता है

यह दुनिया ही एक विशाल पाठशाला है

जिसकी छत आकाश

पेड़ दीवारें

पृथ्वी आंगन

वनस्पतियां किताबें

बदलते हुए मौसम पाठ्यक्रम

जहां पहाड़, नदियां, घास

छोटी बड़ी पगडंडियां

सब अध्यापक

न कभी डांटे न पीटें

न पूछें प्रश्न ही

 

सोचता हूं

कैसी पाठशाला है

जो रात दिन खुली रहती है

जहां कोई किसी के नाप में

पांव नहीं डालता

 

जहां हर कोई स्वतंत्र है

बजाने को अपनी छुट्टी की घंटी

 

साठ बरस की आयु में

आज पहली बार मुझे यह लग रहा है

मैं कितना निरक्षर हूं।

 

इसलिए

हड़बड़ी में ढूंढऩे लगा हूं

अपनी बची हुई सांसों के लिए

 

जीने की नई वर्णमाला


Login