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अक्टूबर-2017

बहादुर पटेल की कविताएं

बहादुर पटेल

कविता

 

धातु

 

यह पुरातन घड़ा

किस धातु से बना होगा

 

जो भी हो मिट्टी से निकला होगा

मिट्टी के बिना कुछ भी संभव नहीं

इसकी मिट्टी भी

अपनी ही मिट्टी से बने

किसी मजदूर ने निकाली होगी

 

कारीगर की भी कोई मिट्टी रही होगी

यहाँ तक आते-आते कई परतें

जमी होगी मिट्टी की

 

दरअसल जिसके लिए बनाया होगा

वह भी होगा तो मिट्टी का ही मानुष

पर वह सत्ता के घोल से

धातु का नया नमूना होगा

जिसने सबकी मिट्टी खराब की।

 

तुम्हारा अनुवाद

 

तुम एक भाषा हो

जिसे मुझे सीखने समझने में बहुत वक्त लगा

यों कहें कि अरसा लगा

 

बहुत विचित्र है व्याकरण

एक वाक्य का अर्थ एक समय से दूसरे समय में बदल जाता है

 

कुछ शब्द बिल्कुल चांद की तरह है तुम्हारी भाषा में

मेरे उच्चारण करते-करते

वाक्य में स्थान और ध्वनि बदल जाती है

 

एक अल्पविराम लंबी प्रतीक्षा के बाद

पूर्णविराम में बदल जाता है

और कर्म क्रिया में कब बदल जाता है

यह समझते-समझते विषय समाप्त हो जाता

और सारी व्याख्याएँ निरर्थक हो जाती हैं

 

तुम्हारी आकृति के भीतर एक उजास होता है

मैं उसे छूता हूँ और अंधेरा फैल जाता है

और निरक्षर की तरह देखता रहता हूँ तुम्हारी ओर

 

दरअसल अनुवाद करना चाहता हूँ मैं

तुम्हारी अपनी भाषा में

लेकिन पूरा अनुवाद करने के बाद

पढ़ नहीं पाता

क्योंकि तब तक मेरी अपनी भाषा भी अपना अर्थ खो देती है।

 

पहरेदार

 

रात के इस पहर में

पहरेदार जागना नहीं चाहता

उसके चाहने से कुछ नहीं होना है

पहरेदार होने की नियति यही है

 

जागने के भी मायने हैं

सबके लिये अलग-अलग

सोते रहने के तरीके बहुत हैं

पहरेदार के भरोसे सोते रहना

किसी राजनीति का हिस्सा हो सकता है

 

रात के इस पहर में सुनना उसकी कला में शामिल है

देखना एक हद तक बाधित हो सकता है

सोते हुए लोगों की नींद में

एक तिनके जितना जागना नहीं छोडऩा चाहता

 

नदी को देखो

वह सोती नहीं और जागती है सुबह

जहाँ उसे बांधा जाता है वहां

न वह सोती है न जागती है

उसका संगीत एक सन्नाटे की कब्र में हो जाता है दफ्न

रुदन और हाहाकार की गहराई में डूब जाती है नदी

 

सोता हुआ आदमी उचककर उठ बैठता है

पहरेदार नदी के तट पर रोता रहता है

आवाज़ की खुश्की उसे अविश्वसनीय बनाती है

वह चिल्लाता रहता है

और सरकारें जश्न मनाती हैं

लोगों की देह से गुजर जाती हैं।

 

उपवास

 

जब मनुष्य डार्विन के कहे अनुसार

पृथ्वी पर आया

तो फाकाकशी में उपवास किया

फल और पत्तियों के भरोसे रहा

तब भी उपवास में रहा

 

पहली बार उसने हथियार बनाया

और उसका उपवास टूटा

किसी के पास हथियार होना

और उपवास में रहना एक साथ कैसे हो सकता है भला

यह कला भी उसने बहुत बाद में ईजाद की

 

जब उसने खेत बनाये

पसीना बहाया और अन्न उपजा

तब खेती माता को शीश नवाया

अन्न को पूजा तब उपवास किया

 

हमारे पूर्वज किसान और वनवासी ही थे

वे जब धरती पर दु:ख आया तो रोये

उन्होंने अपने बच्चों को

दु:ख से लडऩा सिखाया

इसी अभ्यास में एक बार फिर उपवास किया

 

पहली बार बच्चा माँ से रूठा

और उसने प्रतिरोध में उपवास किया

 

पानी, आग और हवा ने

उनका रास्ता रोका तो वे नतमस्तक हुए

उनको देवता मानकर पूजा

और उनके लिए फिर उपवास किया

राजा पैदा हुए

तो उनके लिए भी उपवास किया

जब दुनिया बड़ी हुई तो

सबका पेट भरा

फसलें खराब हुई

खाने भर को नहीं मिला

तो पूरे परिवार के साथ उपवास किया

उपवास करने की कला को

उन्होंने ही विकसित किया

कला धीरे-धीरे आदत में तब्दील हुई

फिर भी शिकायत नहीं की

उपवास उपवास और उपवास किया

 

लाल बहादुर जानते थे उपवास के मर्म को

गांधी ने उपवास किये आज़ादी के लिए

शर्मिला इरोम ने लंबा उपवास किया

इन सबने अपने लिए नहीं

बहुजन हिताय उपवास किया

 

जब राजा की गोलियों से मारे गए

तब पहली बार उन्होंने उपवास करने से मना किया

हिंसा का जवाब उसी भाषा में दिया

राजनीति को राजनीति की तरह समझा और इस्तेमाल किया

 

पहली बार उन्होंने जाना कि

राजा की नींद हराम होती है

तो वह उपवास करता है

यह भी जाना कि असंवेदनशील वह

संवेदना के हथियार का इस्तेमाल

बहुत चालाकी से उनके ही खिलाफ करता है।

 

जिंदा रहते हुए मरो

 

यह जीवन एक ही है

एक बार ही जीना है जैसा भी

अपने को बार-बार मारो और जियो

 

यह दुनिया इसी तरह का अजायबघर है आजकल

दिखाओ तमाशा

अपने रोने को हँसने में बदलो

धीरे-धीरे अपने आप को बदलो

धीरे-धीरे ही हुक्मरानों की संख्या बढ़ी है

कैसे भीड़ न्याय का तंत्र अपने हाथ में लेती है

यह समझो और उसके सामने नतमस्तक हो जाओ

अब तो हर एक के भीतर भीड़ बसती है

 

कुछ भी करने और कहने से पहले दस बार सोचो

फिर भी न तो कुछ करना और न कहना

सोचना और विचार करना याने मारे जाना है

 

ये जीवन एक है

और एक बार ही मिलता है

इसलिए तो कह रहा हूँ मरो अपने आपको मारो

अपने भीतर बैठे मनुष्य को सबसे पहले मारो

जमीर को लात जमाओ

मरो लेकिन उस तरह नहीं

जैसे देह से छूटते हैं प्राण

अपने आप को जिंदा रखते हुए मरो।

 

 

 

बहादुर पटेल मालवा अंचल के एक सक्रिय कवि और कार्यकर्ता हैं। उनकी कविताएं पहली बार 'पहलÓ में प्रकाशित हो रही हैं।


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