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अक्टूबर-2017

शहंशाह आलम की कविताएं

शहंशाह आलम

कविता

 

 

एक अच्छा आदमी होने के नाते

 

आज दुनिया में हरेक चीज बेची जा रही है बेशर्मी से

 

एक अच्छा आदमी होने के नाते मैंने

बाज़ार में बिक रहे मोहनदास करमचन्द गांधी को खरीदा

बुरा आदमी होने के नाते उन्होंने नाथूराम गोडसे को

 

एक अच्छा आदमी होने के नाते मैंने

फिलिस्तीनियों के पक्ष में अपना मत दिया

बुरा आदमी होने के नामते उन्होंने इज़राइल को चुना

 

एक अच्छा आदमी होने के नाते मैंने

एक नाव खरीद ली यह सोचकर कि

इससे दूसरे आदमियों को नदी पार करा सकूंगा

और अपने बच्चों के लिए कुछ रोटियाँ ला सकूँगा

बुरा आदमी होने के नाते उन्होने

पूरा दरिया खरीद लिया यह सोचकर कि

वे इस तरह मीठे पानी को बेच-बेचकर

अपनी प्रेमिका के लिए महल खड़ा कर सकेंगे

एक अच्छा आदमी होने के नाते मैंने

शहतूत का पेड़ खरीद लिया यह सोचकर कि

इस एक शहतूत के पेड़ से कई पेड़ खड़ा करूँगा

फिर सारे पेड़ों को अपनी बहनों में बाँट दूँगा

बुरा आदमी होने के नाते उन्होंने

मेरे सारे पेड़ ठेकेदारों के हाथों बेच दिए

 

एक अच्छा आदमी होने के नाते मैंने

सूरज से चाँद से ज़रा-सी रोशनी चाही

बुरा आदमी होने के नाते उन्होंने

जंगल में आग लगा दी ताकि लोग उनसे डरते रहें

 

एक अच्छा आदमी होने के नाते मैंने

इंसान की आज़ादी का एक गीत लिखा

बुरा आदमी होने के नाते उन्होंने

मेरे गीत से देशद्रोह का खतरा होना बताया

मुझे आजीवन कारावास की सज़ा सुनाई

 

एक अच्छा आदमी होने के नाते मैंने

लोहे की सलाखों के पीछे रहकर इंकलाब की नज़्में लिखीं

जेल के सारे कैदियों ने मेरे हौसले का गीत गाकर

मुझे उस बुरे आदमी के कैद से आज़ादी दिलवाई।

 

जब तक मैं अपने मुल्क के नाम एक नज़्म पूरी करूँगा

 

जब तक मैं अपने मुल्क के नाम एक नज़्म पूरी करूँगा

थके-हारे मुसाफिर के लिए मेरे घर खाना बन चुकेगा

उसकी मर्ज़ी से बिस्तर ठीक किया जा चुकेगा

अजनबी मुसािफर से मेरी बीवी सवाल शुरू कर चुकेगी

 

अजनबी, तुम काहे के लिए सफर पर निकलते हो

वीरान हो चुकीं मस्जिदों में अज़ान देने के लिए

तुम हर सफर में हमारे की घर की कुंडी काहे खटखटाते हो

इस वास्ते कि इस नगर में आप ही का दरवाज़ा खुला मिलता है

 

अजनबी, तुम वीरान मस्जिदों में अज़ान क्यों देते हो

मैं मंदिर की गुरुद्वारे की साफ-सफाई कर चुका होता हूँ

 

तुम काम क्या करते हो जो नगर में बार-बार चले आते हो

मैं आपके शौहर की तरह शायरी करने का काम नहीं करता हूँ

आपके नगर में मंदिर-मस्जिद का रगड़ा सदियों-सदियों पुराना है

इसीलिए मैं किसी अच्छे आदमी की तरह अज़ान देने चला आता हूँ

 

लेकिन औरों की तो अज़ान की आवाज़ में नींदें खराब हो जाती हैं

जब मंदिर की अनवरत बजती घंटियों से आपकी नींदें खराब नहीं होतीं

तो मस्जिदों से आने वाली अज़ान की आवाज़ें उन्हें क्योंकर बुरी लगेंगी

 

जब तक मैं अपने मुल्क के नाम पर एक नज़्म पूरी करूँगा

अजनबी अपना काम खत्म करके अपने शहर लौट चुकेगा

मेरी बीवी रास्ते के लिए उसे कुछ रोटियाँ दे चुकेगी

फिर मेरी बीवी मुझसे सवाल शुरु कर चुकेगी

 

आप काहे से अपनी नज़्में लिखते हैं

कलम से मेरी जान और काहे से

 

अजनबी मुसाफिऱ काहे से अज़ान देता है

मुँह से मेरी जान और काहे से

 

अजनबी मुसािफर काहे से मंदिर को साफ करता है

पानी से मेरी जान और काहे से

 

अजनबी मुसािफर अज़ान ही काहे देता है

अजनबी मुसािफर मंदिर ही काहे साफ करता है

और आप शायरी ही काहे करते हैं

 

मुल्क के हालात ठीक नहीं चल रहे

इस वास्ते मुसािफर अज़ान देता है

कि देखो, तुम्हारा खुदा तुमसे क्या कहता है

मंदिर इस वास्ते साफ करता है

कि उसका खुदा हर जगह पाया जाता है

और मैं शायरी इसलिए करता हूँ

कि हमारे घर में कोई अजनबी नाउम्मीद होकर नहीं लौटे

 

फिर कोई काहे ऐसा-वैसा कहता फिरता है

कि हर मुसलमान गद्दार होता है हर हिंदू देशभक्त

 

यह सब तुमसे किसने कह दिया मेरी जान

सारे न्यूज़ चैनल वाले तो यही समझा रहे हैं लोगों को

अपने मुल्क के वज़ीरे-ज़म भी उनके चेले-चटिये भी

 

ऐसा इसलिए बार-बार कहा जा रहा है मेरी जान

क्योंकि अब कोई मुल्क का वज़ीरे-ज़म नहीं होता

किसीखासकौम का वज़ीरे-ज़म होता है

किसीखास तबके का मंत्री-संतरी और अधिकारी

 

फिर आपकी शायरी इतने लोग क्यों पसंद करते हैं

ये लोग मुल्क के भोले और सच्चे लोग हैं मेरी जान

जो मेरी शायरी पसंद करते हैं और मेरी तरह मुल्क से मुहब्बत भी

 

जब तक आप अपने मुल्क के नाम नज़्म पूरी करेंगे

अजनबी मुसािफर क्या-क्या कर चुकेगा मेरे सरताज

 

जब तक मैं अपने मुल्क के लोगों के नाम नज़्म लिख चुकूँगा

अजनबी मुसािफर दिलों से-दिलों को जोड़ चुकेगा मेरी जान।

 

मेरे पास चंद रुपये बचे हैं कुछ रेज़गारी

 

मेरे पास चंद रुपये बचे हैं कुछ रेज़गारी

बीवी ने कहा जब तक वह आटा गूँथती है

तब तक मैं सोनू बूचड़ के यहाँ से

आधा किलो गोश्त ले आऊँ जाँघ के पास का

एमडीएच का मीट मसाला एक किलो टाटा नमक भी

सरकार को टैक्स भरने के बाद और

स्कूल में बच्चों के नाम लिखवाने के बाद से

घर में बना कहाँ है गोश्त किसी खुशी में

मेरी बेहद-बेहद बुड़बक-बौड़म बीवी को

मुल्क के आटे-दाल का भाव मालूम नहीं

उसे यह भी पता नहीं कि सोनू बूचड़ का कत्ल

सरकार कब का करवा चुकी छाती ठोंकते हुए

और अब सुप्रीम कोर्ट में हलफनामा दायर कर

टेलीविज़न पर बहस चलवाकर यह बतलाती फिर रही है

कि तीन तलाक पा चुकीं औरतों की उन्हें बड़ी चिंता है

 

सोनू बूचड़ की अकारण विधवा बनाई बीवी को इन मसलों से

दूर रखा था सरकार ने और न्यूज चैनल वालों ने भी

इन औरतों से सरकार का न बोट बैंक बढऩा था

न न्यूज़ चैनल की टीआरपी बढऩी थी

न सत्ता की शाबाशी मिलनी थी न कोई बख्शीस

 

मैने बीवी को टालना चाहा कि जब तक वह रोटी पका लेगी

तब तक मैं अपनी एक नज़्म उसके नाम लिख चुकूँगा

तुम्हारे नज़्म लिखने से क्या मेरे बच्चों का पेट भर सकेगा

नहीं मेरे नज़्म लिखने से तुम्हारे बच्चों की आह

संसद तक पहुँच सकेगी फिर संसद से सरकार तक

 

मेरे बच्चों की आह क्या मुल्क की हुकूमत सह सकेगी

नहीं इस तरह सोनू बूचड़ की बीवी को इंसाफ मिल सकेगा

तो क्या हुकूमत अपने कारिंदों से कहकर उन्हें भी मौत के घाट उतरवा देगी

 

क्या मुल्क की इंसाफ की कोठरी में बैठे हुए मुंसिफ

इस तरह मारे जा रहे हैं लोगों की मौत का इंसाफ नहीं करेंगे

मुल्क के मुंसिफ बगलें झाँक-झाँककर रह जाएँगे

यह सोचकर कि मारे गए लोग उनके सगे नहीं हैं

वे जिस दिन इस तरह मारे हुओं का इंसाफ कर देंगे

उस दिन उनकी मुंसिफी खतरे में पड़ जाएगी

अब आप ऐसे में क्या करेंगे फैज़ के पापा

जब आपके पास कुछ रुपये बचे हैं कुछ रेज़गारी

 

मेरा मुंसिफ मेरा मुंसिफ का पद यही कह रहा है पुरज़ोर

जो पैसे बचे हैं वह हम सोनू बूचड़ की बीवी को दे आएँ और

अपने बच्चों को एक न्यायशील आदमी बनाने में अभी से लग जाएँ।

 

वे मुझे किस तरह से मार डालेंगे

 

मैं जो एक रुई धुनने वाला हूँ

वे मुझे किस तरह से मार डालेंगे

वे तुमसे तुम्हारा रुई का पेड़

$खुद के नाम करवा लेंगे

फिर तुम ऐसे ही मार जाओगे

 

मैं जो कोयले की खदान में काम करता हूँ

वे मुझसे किस तरह मेरा काम छीन लेंगे

तुम पर कोयला चुराने का इल्ज़ाम लगाकर

 

मैं जो तंदूर बनाने में माहिर हूँ

वे मुझसे मेरा हुनर कैसे मेरे पड़ोसी को दे देंगे

रोटी बनाने की कोई मशीन खरीदकर

 

मैं जो पीतल-ताँबे की वस्तुओं पर

राँगे का लेप चढ़ाने वाला कलईगर हूँ

वे मुझे घर से क्यों निकाल बाहर करेंगे

अपना भेद खुल जाने के भय से

 

मैं जो भेड़ चराने वाला गड़ेरिया हूँ

वे एक दिन मेरी भेड़ें कैसे चुरा लेंगे

भेडिय़े को तुम्हारे पीछे लगवाकर

इसी तरह वे तुमसे तुम्हारे घोड़े

तुमसे तुम्हारी मधुमक्खियाँ

तुमसे तुम्हारी गाएँ भैंसें

तुमसे तुम्हारा समुंदर नदियाँ

सब छीनकर उन्हें अपना कहेंगे

 

एक दिन तुम अपने वतन की आज़ादी का

कोई गीत गाते-गुनगुनाते लिख रहे होओगे

वे तुम्हें आज़ादी का दीवाना समझकर

तुम्हें तुम्हारे ही मुल्क से बेदखल कर देंगे

तब भी मेरी जान, तुमसे बिछडऩे से पहले

उनके लिए इतना गड्ढा खोद चुका होऊँगा

कि वे इस गड्ढे में गिरकर हमेशा के लिए

मर चुके होंगे मुझे मार डालने का मलाल लिए।

 

 

शहंशाह आलम मूलत: हिंदी के कवि हैं। मुंगेर, बिहार में बिलकुल मामूली परिवार में जन्म। 'गर दादी की कोई खबर आए', 'अभी शेष है पृथ्वी-राग', 'अच्छे दिनों में ऊँटनियों का कोरस', 'वितान', 'इस समय की पटकथा' कविता संग्रह प्रकाशित। 'थिरक रहा देह का पानी' प्रेम कविताओं का संग्रह शीघ्र प्रकाश्य। आलोचना की पहली किताब 'कवि का आलोचक' प्रकाशन की प्रतीक्षा में। देश की सभी महत्वपूर्ण पत्र-पत्रिकाओं में कविताएँ छपीं और सराही गईं। कई भाषाओं में कविता के अनुवाद हुए और छपे। मो. 09835417537

 

 


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