मुखपृष्ठ पिछले अंक कहानी जगह की जगह
अक्टूबर-2017

जगह की जगह

रामकुमार तिवारी

कहानी

रामकुमार तिवारी की बड़े अंतरालों में कई कहानियां 'पहल' में छपी हैं। पेशे से सिविल इंजीनियर का पहला कहानी संग्रह 'घर किसी भी दिशा में था' 1989 में आया। अब बिलासपुर छत्तीसगढिय़ा हैं, यूं जन्म महोबा का है।

 

 

गणेश ने जागते ही उनींदी आंखों से दीवार पर आए धूप के टुकड़े को देखा और उठकर बिस्तर पर बैठ गया। बैठते ही उसे याद आ गया कि आज तो रविवार है। बच्चे पढऩे के लिए नहीं आएंगे। वह आंखें मूंदकर फिर लेट गया।

वह बच्चों के आने के पहले ही तैयार हो जाता है। उसे अच्छा नहीं लगता कि बच्चे आकर प्रतीक्षा करते रहें और वह तैयार होता रहे।

गणेश जागते ही सबसे पहले उसी दीवार को देखता है, जिस पर सूरज के निकलते ही रोशनदान से एक आयताकार धूप का टुकड़ा- धूप की पेंटिंग की तरह टंग जाता है।

धूप के उस टुकड़े से गणेश का गहरा रिश्ता है। उगते सूरज की हल्की लालिमा लिए हुए धूप से लेकर दिन चढ़े की चमकदार, आंखों में चुभने वाली धूप के अनगिन शेड्स उसके जेहन में दर्ज हैं।

अलग-अलग ऋतुओं में समय के साथ-साथ धूप की रोशनी में परिवर्तन का होना, उसका दीवार पर चलना, आकार बदलना और फिर गायब हो जाना...

गणेश का यह रोज का शगल है। वह जागने के बाद कुछ देर तक लेटे-लेटे धूप के टुकड़े को निहारता रहता और फिर उठकर टेबल पर रखी घड़ी को देखता। जब, समय का उसका अनुमान लगभग घड़ी में बज रहा होता तब, अपने अनुमान पर रश्क करते हुए वह गुनगनाने लगता है।

बारिश के दिनों में जब, धूप का टुकड़ा नजर नहीं आता तब, वह अलसाया हुआ बिस्तर से उठकर, आंगन वाले दरवाजे की सीढ़ी पर बैठ जाता और कुछ देर तक बादलों में मढ़े आकाश को देखता रहता है।

गणेश अभी न जाने कितनी देर तक लेटा रहता... अगर किसी ने उसका दरवाजा न खटखटाया होता।

''खोल रहा हूं...'' कहता हुआ वह बिस्तर ले उठा। दरवाजे से अंदर सरकाये हुए अखबार को उठाकर उसने जैसे ही दरवाजा खोलकर देखा तो दरवाजे पर कपड़े से ढंकी थाली लिए हुए जित्तू खड़ा है- वह थोड़ा किनारे की ओर हट गया। जित्तू ने अंदर आकर थाली टेबल पर रख दी और कुर्सी पर बैठते हुए कहा -

''चाचू! अभी तक सो रहे थे''

''हां... आज रविवार है न!''

गणेश प्रश्नवाचक नजरों से देखता... इससे पहले जित्तू ने कहा

''दादी ने हनुमान जी का 'प्रसाद' भेजा है''

''हनुमान जी का प्रसाद... लेकिन आज तो मंगलवार नहीं है!''

''चाचू! आज पापा का बर्थडे है। पापा के बर्थडे पर दादी और कुछ नहीं करती - बस, हनुमान जी को प्रसाद भर चढ़ाती हैं''

जित्तू के सामने वाली कुर्सी पर बैठते हुए गणेश ने कहा ''अच्छा! आज रतन भैय्या का जन्मदिन है। अब समझा।''

हथेलियों से आंखों को मलते हुए गणेश ने जित्तू से पूछा ''तुम्हारा रिजल्ट कब आ रहा है?''

''इसी महीने में आ जाएगा!''

''आजकल क्या कर रहे हो?''

जित्तू की समझ में नहीं आया तो गणेश ने फिर कहा - ''छुट्टियां कैसे मना रहे हो?''

जित्तू ने बिना सोचे ही कहा ''ऐसे ही...!''

''क्यों?... खेलना... घूमना... कुछ नहीं?''

''नहीं!'' जित्तू ने सिर हिलाते हुए कहा... ''मेरे सारे दोस्त बाहर गये हुए हैं... कोई नानी के यहां तो कोई अपने मम्मी-पापा के साथ घूमने...''

''अरे! तब तो तुम बोर हो रहे होगे।''

जित्तू कुछ नहीं बोला। उसकी चुप्पी में गणेश के कहे की ही मौन स्वीकृति है। वह थोड़ा उदास हो गया है।

स्थिति को भांपते हुए गणेश ने कहा ''अब क्या...? एक हफ्ता ही तो बचा है! रिजल्ट निकलते ही सब आ जायेंगे!''

कुछ देर तक दोनों के चुप रहने के बाद गणेश ने जित्तू से फिर पूछा- ''जित्तू यह बताओ!... तुम्हे अपने आस-पास या यूं कहें शहर की कौन सी जगह अच्छी लगती है... जहां तुम्हें जाना... कुछ देर वहां बैठना अच्छा लगता है।'' कुछ सोचते हुए जित्तू ने कहा- ''अमेरी गेट वाली रेलवे क्रासिंग- बैरियर के पहले - रोड के दोनों ओर जो पटरी के एंगल के सपोर्ट लगे हैं- उन्हीं पर बैठना मुझे अच्छा लगता है।''

''वहां कब गये थे?''

''कल ही गया था।''

''अकेले ही...''

जित्तू ने सहमति में सिर हिलाया।

''अच्छा! तो तुम्हें गुजरती हुई ट्रेन देखना अच्छा लगता है''

''जित्तू ने सहमति में फिर सिर हिला दिया।''

''यह तो बहुत अच्छा है। हर शहर में ऐसी बहुत सी जगहें होती हैं जहां, जाने से अच्छा लगता है। हमें उन जगहों को पहचानना आना चाहिए। हर मौसम में उन जगहों का एकदम नया रूप होता है। जैसे वे जगहें जहां से सूरज का उगना अच्छा लगता है या वे जगहें जहां से सूरज का डूबना देर तक दिखाई देता रहता है। कहीं से बारिश का देखना अच्छा लगता है और कहीं जाकर सिर्फ बैठना ही अच्छा लगता है।''

''जित्तू के चेहरे पर मुस्कान आ गई। हां! मुझे सर्दी के दिनों में जब, कोहरा होता है तब कोहरे में से ट्रेन का गुजरना अच्छा लगता है।''

''वेरी गुड!''

जित्तू ने गणेश के चेहरे की ओर देखते हुए कहा - ''चाचू! अब मैं चलता हूं... मयंक के यहां प्रसाद पहुंचाना है।''

''ठीक है! जाओ.... फिर आना...!''

''जी''

जित्तू के जाते ही गणेश ने दरवाजा बंद किया और आंगन के पीछे किनारे में बने 'लैटबाथ' की ओर निवृत होने चला गया।

जित्तू, काकी मां का पोता है, उसने इसी वर्ष सातवीं कक्षा का इम्तहान दिया है। काकी मां का घर, गणेश के घर से चौथा घर है।

काकी मां गणेश की पड़ोसन ही नहीं, उसकी मां की सहेली भी हैं। मां, जब थी तब वह काकी मां को काकी ही करता था, लेकिन मां के न रहने के बाद कब काकी स्वयं उसकी काकी मां बन गई या वह स्वयं काकी को काकी मां कहने लगा, उसे याद नहीं, लेकिन अब वह उसकी काकी मां है। मां की जगह में जितना संभव हो सकती है- उतनी मां है।

गणेश का छोटा सा घर है जो पिता और मां के न रहने से और छोटा हो गया है। गली से एक सीढ़ी चढ़कर बैठक का दरवाजा है और बायी ओर बैठक से लगा हुआ एक छोटा सा कमरा है, जो पढ़ाई के दिनों में गणेश का कमरा हुआ करता था। बैठक से एक सीढ़ी उतरकर आंगन है जिसके दाहिनी ओर रसोई और छोटा सा स्टोर रुम है बायी ओर एक कमरा है जो मां का कमरा हुआ करता था। मां के कमरे से लगा हुआ बाथरूम और फिर एक छोटी सी दीवार के बाद लैट्रिन बनी हुई है। बाथरूम के सामने पानी के लिए एक हैंडपम्प लगा है जिसके चारों ओर गिरे हुए पानी की निकासी के लिए सीमेंट की पनारी बनी हुई है। आंगन के बीच में एक तुलसी घर है।

पिताजी बैठक में रखी चौकी पर ही सोया करते थे - जिस पर अब गणेश सोता है। गणेश का पढ़ाई वाला कमरा जो कभी सहपाठियों की आवाजाही से भरा रहता था, अब ज्यादातर मां के कमरे की तरह बंद ही रहता है। कमरे की दीवार में बनी आलमारियों में कोर्स की किताबों की जगह अब वे किताबें रखी है जो गणेश को पसंद हैं और जिन्हें उसने खोज-खोजकर इकट्ठा किया है। कमरे की आलमारी से पुस्तक निकालकर गणेश बैठक में ही पढ़ता है। उसका ज्यादातर समय बैठक में ही गुजरता है।

पहले शहर कस्बानुमा था जिसमें गाँव अधिक बसता था। लेकिन पिछले बीस-पच्चीस वर्षों की विकास गति ने शहर को कुछ-कुछ रहस्यमयी बना दिया है। दो-चार महीने में किसी भी ओर जाओ तो वहीं दो-चार नई कॉलोनी, किसी संस्था का भवन, या शॉपिंग काम्पलेक्स बन रहा होता है।

गणेश का मकान शहर के पुराने मुहल्ले में है जो विकास की बाढ़ में घिरे किसी टापू की तरह है। ऊपर से अगर फोटो लो तो चारों ओर की बाहरी सड़कों पर वाहन- नदी से आई बाढ़ की धारा की तरह चक्कर काटते, उफनते दिखाई देंगे और मुहल्ला बाढ़ में घिरे उस टापू की तरह बचा हुआ - सा, जिसकी कुछ न कुछ मिट्टी कटकर, उसी प्रवाह में मिल रही है - जो उसके चारों ओर बह रहा है।

मुख्य सड़कों से मुहल्ले के अंदर जाने के लिए संकरी गलियाँ हैं, जो नसों की तरह, मुहल्ले के अंदर फैली हुई हैं, उनमें प्रवेश करते ही दृश्य किसी फिल्म के दृश्य की तरह एकदम से बदल जाता है।

मुहल्ले में सघनता के बावजूद पेड़ों और देवी-देवताओं की जगहें पहले से ही हैं। जिनमें जगह-जगह पीपल, बरगद और नीम के पेड़ हैं। इन्हीं पेड़ों के पास देवी-देवताओं की मढिय़ां और मंदिर बने हुए हैं। पश्चिम में एक मस्जिद है। सुबह की अजान के साथ मुहल्ले के जागने का रिश्ता बना हुआ है। सदर रोड के समानांतर अंदर की गली में खोवे की मंडी है। दरवाजों से सटी छोटी-छोटी चौकियों पर खोवे के गोले अटे रहते हैं। गली में औटे हुए दूध की गाढ़ी गंध भरी रहती है। लोग एक-दूसरे से सटे हुए खोवा खरीदते रहते हैं। मुहल्ले के पूर्व दिशा में भड़भूजों की दुकानें हैं - जिनसे निकलती भुने हुए चने, मुर्रे की सोंधी गंध गली में फैलती रहती है।

मुहल्ले के बीच में एक स्कूल है - जिसके अहाते में टेंट लगाकर ज्यादातर शादी, ब्याह हो जाते, तीज-त्यौहार मनते रहते हैं। किसी न किसी पेड़ के नीचे मढिय़ा के चबूतरे पर या मंदिर में भजन मण्डली, मंजीरे बजाते हुए भजन गाती रहती है। मुहल्ले के अंदर कुछ चौड़ी सड़क नुमा गलियां हैं - उनमें घरों के सामने गायें बंधी रहती हैं। छोटे-छोटे बछड़े-बछियां सुबह-शाम दूध पीते रहते और गायें उन्हें चाटती-दुलारती रहती हैं। बीच-बीच में भरे पेट बछड़े-बछियां छोटी-छोटी छलांग लगाते हुए, मस्ती में इधर-उधर दौड़ जाते हैं, उन्हें दौड़ता देख गली से निकलने वाले ठिठक कर निहारने लगते हैं। गली में सुबह-शाम गोबर और ताजे दुहे दूध की मिश्रित गंध हवा के संग टहलती रहती है।

गलियों के मोड़ों पर चाय और पानी की गुमटियाँ हैं- जिन पर चाय पीते पान खाते लोग, बातें करने, लनतरानियां सुनाने जुटे रहते हैं। उन्हें मानुष गंध बुलाती रहती है।

मुहल्ले के लोगों के अपने-अपने चरित्र हैं जो अभी भी बचे हुए हैं उनकी अपनी-अपनी पहचानें हैं।

गणेश के घर के सामने से जो अभी-अभी गुजर रहा है वह रामपाल है। उसे पेड़ों पर चढऩे में महारथ है। वह पीपल को प्रणाम करके डंडा, झंडा और रस्सी लिए हुए अचम्भे की तरह चढ़ता चला जाता, उस डगाल के ऊपरी हिस्से तक, जहां डंडे को बांधने पर झंडा पेड़ के ऊपर दूर से दिखाई दे। कितनी ही आंधी, तूफान आए... क्या मजाल की झंडा थोड़ा भी झुक जाए?

मुहल्ले के लागे झंडे को देखकर ही हवा के रुख को देखते हैं और मौसम का अंदाज लगाते हैं... पानी बरसेगा कि नहीं और अगर बरसेगा तो देर तक या जल्दी उड़ जाएगा... या अब ठंड बढ़ जायेगी... वगैरा... वगैरा...

मुहल्ले में पुराने सामाजिक ढाँचे के लुहार, बढ़ई, नाई, कुम्हार, ढीमर... आदि का आना-जाना है जबकि, उसके परंपरागत कार्य लगभग छूट गये हैं, लेकिन उनके रिश्ते बने हुए हैं।

मुहल्ले के उन लड़कों ने जिनकी अच्छी नौकरी लग गई है या उनके व्यापार में खूब मुनाफा हो रहा है, उन्होंने शादी के बाद कोई न कोई कारण ढूंढ़कर, नई कालोनियों में अपने अलग मकान बनवा लिए हैं, लेकिन, वे भी तीज-त्यौहार अपने पुराने मुहल्ले में ही आकर मनाते हैं। अभी उनका आत्म नई कालोनियों के रंग-ढंग में अपने को अधूरा ही महसूस करता है। लड़कियां ससुराल से आकर अपने इन्हीं घरों में आना पसंद करती हैं। भले ही उनके भाई-भाभी नई कॉलोनियों में रहने लगे हों और अब मां-बाप भी न रहे हों।

सुबह की दिनचर्या से निवृत होकर गणेश कुछ गुनगुनाते हुए बाथरूम से बाहर निकला। रसोई के पास पहुंचते ही उसका गुनगुनाना बंद हो गया और उसे याद आ गया कि शाम को दूध लाना तो वह भूल ही गया है।

फ्रिज खोलकर उसने दूध वाली गंजी को निकालकर देखा तो उसके चेहरे पर राहत का भाव आ गया। गंजी में इतना दूध तो है कि ले-देकर सुबह की चाय बन ही जायेगी।

गणेश ने चाय बनाकर बड़े मग में छानी और बैठक में आ गया।

गणेश ने मेज पर रखी थाली के ढँके कपड़े को हटाया... थाली में प्रसाद क्या? दो मोटे-मोटे रोट रखे हुए हैं- ''बजरंग बली की जय'' कहते हुए उसने आधा रोट तोड़ा और चाय के साथ ग्रहण करने लगा।

वाह! काकी माँ... आपने तो आज नाश्ता ही नहीं दोपहर के प्रसाद का भी इंतजाम कर दिया है, और रात को दीनू का ढाबा जिंदाबाद।

चाय पीकर गणेश ने जैसे ही अखबार उठाया... उसका चेहरा थोड़ा वक्र होकर असामान्य हो गया। उसने अखबार को वापस टेबल पर उछाल दिया और दरवाजे से बाहर, नीम के पेड़ को देखने लगा।

गणेश के स्वाभाव का यह अतिरेक है कि जब भी वह अखबार के मुख्य पृष्ठ पर विज्ञापन देखता है, उस दिन वह अखबार नहीं पढ़ता है। आज अखबार के पूरे मुख्य पृष्ठ पर किसी कार का विज्ञापन छपा है, जिसे देखते ही गणेश का मन उचट गया है।

वैसे गणेश अखबार को चाय पीने के साथ-साथ या चाय पीने के बाद विस्तार से पढ़ता है। जब कभी कोई सार्थक लेख या रिपोर्टिंग पढऩे को मिल जाती तो- पढ़ते ही उसका मन स्फूर्त हो उठता, लेकिन वैसा बहुत ही कम होता है। ज्यादातर तो निराशा ही हाथ लगती है। आजकल वह अखबार की खबरों के पीछे की असली मंशा या प्रायोजितता को जानने के लिए ही पढ़ता है। पढऩे के बाद वह अपनी समझ से आंकलन करता-रहता है कि समय और समाज कहां जा रहे हैं? कौन-कौन सी ताकतें किस-किस रूप में सक्रिय हैं?

गणेश की इच्छा एक समय पत्रकार बनने की थी। उसने लगभग एक वर्ष पत्रकारिता की भी, लेकिन वह पत्रकारिता की दुनिया में रम नहीं पाया। कोई पार्टीगत बद्धता जैसा भाव उसके अंदर कभी नहीं रहा। किसी का अंध समर्थन या अंधविरोध उसे विचलित कर देता। वह स्वतंत्र चेतना को ही पत्रकारिता कर्म के लिए उचित मानता है, वर्ना उसे वह, और नौकरी की तरह ही एक नौकरी लगती है- जो उससे नहीं निभी।

गणेश के मुहल्ले में ही रंजन रहते थे। मुहल्ले के रिश्ते में वे गणेश के बड़े भाई लगते। स्कूल के दिनों में ही उसका-उनसे मिलना जुलना होने लगा। रंजन ने पत्रकारिता को ही अपने कैरियर के रूप में चुना था। वह रंजन का प्रभाव था या गणेश के अपने ही स्वभाव का मूल कि उसका रुझान इतिहास, भूगोल, राजनीति और साहित्य की ओर होता चला गया। वह रंजन से किताबें मांग-मांगकर रातों रात पढऩे लगा। गणेश जब बारहवीं में पढ़ रहा था, उसी वर्ष उसके पिता का देहांत हो गया। वो रात को खाना खाकर सोये तो सोये ही रह गये। बाहरवीं में गणेश पास तो हो गया, लेकिन उसके नंबर जितने, उसके सहपाठियों और मुहल्ले वालों ने सोच रखे थे उससे बहुत कम आये थे।

गणेश ने बारहवीं के बाद आटर््स से बी.. करने के लिए कॉलेज में दाखिला ले लिया था। पढ़ाई के दौरान ही गणेश की इच्छा रंजन की तरह ही पत्रकारिता के क्षेत्र में जाने की थी- उसे शुरुआती प्रोत्साहन रंजन से मिला भी, लेकिन उसी बीच रंजन दिल्ली चले गये और वहीं के होकर रह गये।

बीए के बाद गणेश ने शहर के ही एक अखबार से अपनी पत्रकारिता की शुरुआत की और उन्हीं दिनों में उसने कुछ अच्छी रिपोर्टिंग भी की। गणेश की पहली रिपोर्ट ''नदी हमारे शहर की डस्टबिन है'' की चर्चा पूरे शहर में हुई थी। नगर निगम के चुनाव दो महीने के बाद होने वाले थे, गणेश की रिपोर्टिंग ने वर्तमान महापौर को हिला के रख दिया था। रिपोर्ट की नजर से ही लोग महापौर के कार्यकाल को देखने लगे थे।

गणेश ने नदी में जगह-जगह गिरते नालों और नालियों के असहनीय फोटो बड़ी मेहनत से खींचे थे। अस्पतालों का वेस्ट मटेरियल किस तरह सीधे नदी में फेंका जा रहा है और कितने होटल अपना कचरा नदी में गिरा रहे हैं नदी किनारे की जमीन पर किस किसने- किस तरह कब्जा किया हुआ है...

रिपोर्ट देखकर संपादक महोदय खुश ही नहीं, चकित भी हुए थे। उन्होंने रिपोर्ट को मुख्य पृष्ठ पर प्रमुखता से छापा भी लेकिन रिपोर्ट छपने के बाद संपादक महोदय की मीटिंग ग्रुप के मालिक के साथ हुई- जिसमें ऐसा कुछ हुआ कि गणेश की रिपोर्ट को छपने से पहले ध्यान से देखा जाने लगा। कई बार तो गणेश की खबरें छपती ही नहीं थीं। कभी उससे कहा जाने लगा था कि धोखे से छूट गई या जगह ही नहीं बची थी...

संपादक महोदय ने कई बार गणेश को निर्देश दिये कि जाओ... वहां की खबर को इस तरह बना के लाओ। लेकिन संपादक महोदय के कहे अनुसार गणेश ने कभी खबर नहीं बनाई। उसे जो जरूरी लगता था उसी की वह रिपोर्ट या खबर बनाता था।

प्रबंधन कुछ कहता इससे पहले ही उसकी समझ में आ गया और उसने विनम्रता से विदा ले ली। लेकिन उस एक वर्ष की पत्रकारिता में शहर के पत्रकारों ने उसकी प्रतिभा को पहचान लिया था। बाद में कुछ अखबारों से उसे प्रस्ताव भी मिले थे लेकिन उसका मन पत्रकारिता से उचाट हो चुका था।

एक दिन गणेश के पिता की तरह उसकी मां भी नहीं रही। उन दिनों उसकी अजीब मन:स्थिति हो गयी थी। उसे कुछ समझ में नहीं आ रहा था और वह गुमसुम सा उदास रहने लगा था।

उसी समय से काकी- काकी मां बनकर उनका ख्याल रखने लगी है। झाडू-पोछा वाली बाई से लेकर उसके खाने की व्यवस्था तक का वे ध्यान रखती हैं।

उन्हीं दिनों, न जाने कैसे कब संयोग बना कि गणेश कुछ बच्चों को पढ़ाने लगा। धीरे-धीरे पढऩे वाले बच्चों के दो ग्रुप बन गये। पहला सुबह आठ से दस बजे और दूसरा शाम को छ: बजे से आठ बजे तक पढ़ाने में उसका मन रमने लगा, उसकी लय लौट आई।

गणेश बहुत देर तक यूं ही नीम के पेड़ के आकाश को देखते हुए बैठा रहा फिर उसने अपने से पूछा - ''पहले नहा लूं या दुकान से दूध ले आऊं।''

गणेश घर बंद करके दूध लेने चल दिया। दूध पास में ही गुप्ता जी के दुकान में मिल जाता है लेकिन वह सदर रोड में कामधेनु डेयरी तक चला गया।

दूध का पैकेट लेकर वह दुकान की सीढिय़ां उतर ही रहा था कि किसी ने आवाज दी ''गणेश...! गणेश...!''

गणेश ने देखा एक बच्चे का हाथ पकड़े रागिनी उसे आवाज दे रही है। गणेश के चेहरे पर मुस्कान आ गई... ''अरे! तुम यहां कैसे?....'' -  ''क्यों? मैं क्या अपने शहर.... अपने घर नहीं आ सकती?''

रागिनी ने सड़क पर कुछ दूर नजर दौड़ाई और कहा... ''चलो! कॉफी हाउस में बैठकर कॉफी पीते है। गणेश यह मेरा बेटा ऋषभ है।'' गणेश ने मुस्कुराकर ऋषभ को देखा। ऋषभ का चेहरा भी मुस्कुरा दिया।

वे कॉफी हाउस में आ गये। कुर्सी पर बैठते ही रागिनी ने कहा ''गणेश मैं कल से तुम्हें याद कर रही थी.... सच कह रही हूं...! मैं तुमसे मिलना चाहती थी। यह तो अच्छा हुआ कि हमारी एकाएक भेंट हो गई। कल का पूरा समय तो पिताजी के हैल्थ चैकअप में ही निकल गया और आज भी दुनिया भर के कामों से घिरी हुई हूं। कल की मेरी फ्लाईट है। हो सकता... इस व्यस्तता में मैं तुमसे मिले बिना ही चली जाती, लेकिन मेरा मन कचोटता रहता...''

गणेश ने ऋषभ से पूछा - ''बेटा! क्या खाओगे?''

ऋषभ ने कहा ''टूटी-फ्रूटी''

गणेश ने बैरे को बुला कर एक टूटी-फ्रूटी और दो कप कॉफी का ऑर्डर दे दिया।

रागिनी ने गणेश के हाथों को अपने हाथों में लेते हुए कहा ''गणेश कैसे हो?''

''अच्छा हूं''

''मुझे संजय से पता चला था कि आंटी नहीं रही...''

''हां! अब तो दो वर्ष होने को हैं।''

''घर में बड़ा सूना लगता होगा।''

''शुरु शुरु में... अब तो लगता ही नहीं कि मां नहीं है... मुझे छोड़कर वे कहीं जा सकती हैं?''

कुछ देर की चुप्पी के बाद गणेश ने पूछा ''रागिनी तुम आजकल कहां हो''

''गुडग़ांव में हूं... मेरे पति भी वहीं उसी ग्रुप में आ गये हैं। जीवन में अब थोड़ी राहत मिली है... वर्ना... यहां से वहां, भागम-भाग में ही जिंदगी कट रही थी...'' कुछ देर तक दोनों कॉफी का घूंट भरे चुप रहे फिर रागिनी ने कहा ''गणेश एक बात पूछूं''

''हां! पूछो।''

''मैंने संजय से सुना था कि तुम कुछ नहीं कर रहे हो... फिर तुम्हारा खर्च कैसे चलता है?''

''रागिनी मैं तुम्हें एक बात बताऊं! हमारे देश की जो मां होती है, वे गजब की स्त्रियां होती है। वे जीवन में किस तरह घर और बच्चों के भविष्य के लिए एक-एक पैसा जोड़कर संचित करती रहती हैं, इसकी कल्पना बच्चें नहीं कर सकते। मां के न रहने पर जब, बैंक के उनके एकाउंट मेरे नाम ट्रांसफर हुए तब, मुझे पता चला कि पिताजी के फंड और बीमा के रुपये ही नहीं मां ने पेंशन से भी इतने रुपये बचा कर रखे है कि मैं इस जन्म में भी कुछ न करुं तब भी कोई कमी नहीं रहेगी। वैसे, मैं तुम्हें बताऊं, आजकल मैं बच्चों को पढ़ाता भी हूं और जितने पैसे मुझे अपने खर्च के लिए चाहिए होते हैं, उतने पैसे मुझे स्वेच्छा से मिल भी जाते हैं। मेरा खर्च है ही क्या? बेतुके का खर्च करने का मेरा मन भी नहीं होता है। तुम्हें अचरज होगा, सभी ने मुझसे कहा- यहां तक काकी मां ने भी कि मैं एक स्कूटी खरीद लूं लेकिन मुझे स्कूटी की जरूरत ही महसूस नहीं होती है। मैं आज भी अपने पिता की साइकिल ही चलाता हूं, इसलिए नहीं कि पिता की साइकिल से मेरा भावनात्मक लगाव है, बल्कि, इसलिए कि साइकिल की गति मेरे स्वभाव के अनुकूल है। मुझे उसी से आना-जाना अच्छा लगता है।''

गणेश का कहा रागिनी की समझ में कुछ-कुछ ही आया। उसने गणेश के चेहरे को देखते हुए पूछा ''संजय, जयदेव, प्रवीण, अशरफ... जब, आते हैं तब, तुमसे मिलने आते हैं कि नहीं...''

''संजय, जयदेव, अशरफ... तो बहुत समय से नहीं आये। सभी की अपनी-अपनी व्यस्तताएं होंगी... हो सकता है वे लम्बे समय से शहर ही न आये हों... हां! प्रवीण कुछ महीने पहले ही आया था। वह शाम को अपने बड़े भाई की मोटरसाइकिल लेकर आ गया था और हम दोनों कोटा से आगे बलगहना रोड में उस मोड़ तक गये थे जहां घोंघा जलाशय का भराव आता हैं। वहां की शाम अद्भुत होती हैं। पूरा जलाशय सुनहरी आभा से भर जाता है। सामने कुहरीली आभा से भरे, घुलते-घुलते से पहाड़ देखते ही चित्त शांत हो जाता है।

स्कूल के दिनों में भी हम कभी-कभी साइकिल से वहां जाते थे। प्रवीण के संग साथ में मन निरभार हो जाता है। अच्छा लगता है। वह उस दिन भी हो रही शाम को उसी तरह विस्मय से देख रहा था जैसा वह स्कूल के दिनों में देखता था। शांत... अपने में उतरता हुआ।''

''तुम आजकल बार-बार, स्वभाव-स्वभाव बहुत करने लगे हो।''

''हां! रागिनी मुझे लगता है कि मनुष्य का स्वभाव ही मूल है और हमें उसे न सिर्फ पहचानना बल्कि जितना हो सके जीना भी चाहिए।''

''गणेश! तुमने हम सब को विशेषकर गणित न पढ़ाई होती तो शायद हम वहां नहीं होते जहां आज है।''

''ऐसा कुछ नहीं है?''

''नहीं! यही सच हैं, हम सब मानते हैं कि तुमने हमारे टीचर्स से ज्यादा हमें पढ़ाया है। हम लोगों के लिए तुम्हारी जीनियस बुद्धि वरदान थी। तुम हमारे क्लास फैलो ही नहीं हमारे टीचर भी हो। गणेश! तुमने हम सब का कैरियर तो बना दिया लेकिन अपना कैरियर क्यों नहीं बनाया?''- हम लोगों के लिए यह आज भी पहेली है।

गणेश को हंसी आ गई। उसने हंसते हुए कहा- रागिनी ऐसा कुछ नहीं है? मुहल्ले के सभी लोग मानते हैं कि पिताजी का देहांत न हुआ होता तो मैं आज किसी बड़े पद पर होता, लेकिन यह सच नहीं है। पिताजी के गुजरने के एक वर्ष पहले से ही मुझे लगने लगा था कि मेरा स्वभाव इंजीनियर का नहीं है। बस!... इसीलिए नहीं बना। जब तुम सब मानते हो और मैं भी यह अच्छी तरह जानता था कि मैं थोड़ा भी ध्यान दूंगा तो मेरा चयन किसी भी जगह के लिए हो जायेगा... परीक्षा के दो-तीन माह पहले से ही मेरा मन अपने विषयों से उचट गया था। तुम्हें हैरानी होगी... परीक्षा के दिनों में भी मैं गांधी जी की अफ्रीका यात्रा के बारे में ही विस्तार से पढ़ रहा था।

''गणेश स्वभाव क्या कोई ऐसी चीज है, जिसे तुम जिस तरह बताते हो उस तरह उसे जाना जा सकता है।''

''हां! अगर हम चाहे तो उसे अनुभव कर सकते हैं।''

''कैसे?''

रागिनी... जब-जब संजय और जयदेव मुझसे मिलने आये तब-तब, मेरे चारों ओर वही दुनिया घूमने लगती, जो दुनिया उन्होंने इस बीच देखी है या जो दुनिया अब उनकी है। और जिसे वे मुझे दिखाना या महसूस कराना चाहते हैं... सिर्फ दिखाने या महसूस कराने के लिए, उन क्षणों में न कोई स्पेस, न अवकाश और ना ही संलग्नता होती, लेकिन प्रवीण के साथ एकदम भिन्न अनुभव होता है। अब शहर और हम भी वही नहीं रहे, लेकिन जब भी हम मिलते हैं, तब वह गुजरा हुआ समय, शहर और लोग हमारे आस-पास सांस लेने लगते हैं... शायद यही स्वभाव का भेद है...

गणेश का कहना रागिनी की समझ में नहीं आया उसने अपने पूछे को बिसूरते हुए बीच में ही फिर पूछा ''गणेश सच बताना तुम्हारा मन बच्चों को पढ़ाने में लग जाता है।''

''अरे! जब हम साथ-साथ पढ़ते थे तब तुम सब को पढ़ाने में मेरा मन लग जाता था, अब तो मेरी उम्र भी गुरुजी लायक हो गई है, मुझे आनंद आ रहा है। बच्चों से मेरा और बच्चों का मुझसे एक अलग ही रिश्ता बन जाता है। मैं उन्हें सिर्फ उनके विषयों को ही नहीं पढ़ाता हूं... लगभग आधे समय वह भी पढ़ाता-बताता हूं जो पाठ्यक्रमों में नहीं है और जिसे होना चाहिए या जो जीवन में नहीं है और जिसे होना चाहिए।''

''तुम्हारा मतलब... शहर में चार, : गणेश और पैदा हो जायें।''

''बिल्कुल! हर मुहल्ले में एक गणेश तो होना ही चाहिए। नहीं तो वे सूने हो जाएंगे, कोई रागिनी वहां मिलने नहीं आयेगी'' - यह कहकर गणेश मुस्कुरा दिया।

रागिनी ने अपनी कलाई में बंधी घड़ी को देखा और गणेश से बोली ''चलती हूं'' खड़े होते हुए गणेश ने ऋषभ को देखते हुए कहा ''ठीक है! हम बातों में ऋषभ को भूले ही जा रहे। वह बुरी तरह ऊब गया है।''

''कोई बात नहीं'' कहकर रागिनी ने ऋषभ की ओर मुस्कुराकर देखा- ऋषभ का चेहरा वैसा ऊबा हुआ ही बना रहा।

''गणेश अपना ख्याल रखना''

''तुम भी''

''अगली बार जब भी जाऊंगी, तुमसे मिलने घर पर ही आऊंगी।''

''ठीक है।'' कहकर गणेश दूध का पैकेट लिए हुए अपने मुहल्ले की गली में ओझल हो गया।

अपनी गली में पहुंचते ही गणेश ने देखा कि उसके घर के पास कोई खड़ा है। पहले तो उसे विश्वास नहीं हुआ लेकिन फिर वह आश्वस्त हो गया कि वे 'राजनारायण' जी ही हैं।

वह तेज-तेज चलता हुआ घर के पास पहुंचा। पहुंचते ही उसने उन्हें प्रणाम किया।

गणेश को देखते ही राजनारायण जी खुश हो गये। उनके चेहरे पर मुस्कान आ गई।

''गणेश! मैं तुम से मिलने ही आया हूं... कहां गये थे? मैं तो ताला लगा देखकर निराश हो गया था।''

''आइये! आइये!!'' कहते हुए गणेश ताला खोलने लगा।

अंदर आकर राजनारायण जी चौकी पर बैठ गये। गणेश ने एक गिलास पानी लाकर उन्हें दिया और पास ही में कुर्सी खींचकर बैठ गया।

पानी पीकर राजनारायण जी ने कहा ''गणेश! मैं तुम्हारे पास एक योजना के तहत आया हूं। मैं चाहता हूं, तुम उसमें न सिर्फ मेरी मदद करो बल्कि बराबरी से शामिल भी हो जाओ।''

''जी बताइये।''

''गणेश! मुझे कुछ लोग मिल गये हैं - वे चाहते है कि मैं एक अखबार निकालूं। वे पैसा लगाने के लिए तैयार हैं। पत्रकारिता का क्या हाल है?... तुम देख ही रहे हो। तुम्हारी प्रतिभा को मैं जानता हूं। तुम्हें अवसर मिला होता तो आज तुम कहां होते? इस योजना के बनते ही, मेरे जेहन में सबसे पहले तुम्हारा ही नाम आया'' फिर विस्तार से राजनारायण जी ने पूरी योजना बताई और गणेश से आदेशात्मक हां... कहलवाकर, वे उत्साह से भरे हुए चले गये। योजना की व्यस्तता के चलते उन्होंने चाय भी नहीं पी।

गणेश, राजनारायण जी को गली की मोड़ तक, जब तक, वे ओझल नहीं हो गये - उन्हें जाता हुआ देखता रहा और फिर एकदम से करुणा से भर गया। राजनारायण जी की वह बहुत इज्जत करता है। इस समय में जितना संभव हो सकता है, उतनी ईमानदारी से उन्होंने पत्रकारिता की है। वह उनके संघर्ष को जानता है। कई बार उनका निर्वासन हुआ और वे बार-बार लौटे भी, बीच-बीच में वे अवसाद से भी घिरे रहे हैं।

योजना सुनते ही गणेश जान गया था कि एक बार उन्हें फिर निराशा घेरने वाली है। वह उन लोगों को जानता है जिन्होंने उन्हें अखबार निकालने के लिए कहा है। राजनारायण जी में न तो वह होशियारी है जो आज के जमाने में जरूरी है और न ही प्रबंधन की वह क्षमता, जो एक अखबार निकालने के लिए चाहिए। इस पक्ष में वे अभी भी भोले हैं।

घर के अंदर आकर गणेश ने दरवाजा बंद किया और नहाने के लिए चला गया। नहाने के बाद उसने एक लोटा जल तुलसीघर में चढ़ाया।

मां के न रहने के बाद, तुलसी सूख गई थी। गणेश का ध्यान कभी तुलसीघर की ओर गया ही नहीं। एक दिन काकी मां तुलसी का छोटा- सा पोधा लेकर आईं और सूखी तुलसी की, जगह में नये पौधे को रोपते हुए गणेश से बोली- ''नहाकर एक लोटा जल तुलसीघर में चढ़ा दिया करो।'' उसी दिन से गणेश नहाकर एक लोटा जल तुलसीघर में चढ़ाने लगा है।

देखते-देखते कुछ ही दिनों में तुलसी बड़ी हो गई हैं। सर्दी-खांसी होने पर वह चाय में तुलसी पत्ती का उपयोग करने लगा है, कुछ इस भाव से जैसे मां को याद कर रहा हो।

एक दिन गणेश को शाम के समय तुलसीघर में दिया रखते हुए मां की याद आई तो वह दुकान से एक लीटर सरसों का तेल और कुछ रुई की बनी बनाई बाती ले आया। घर में पुराना दिया खोजकर उसने धो-सुखाकर तैयार किया और संध्या होते ही जलाकर तुलसीघर में रख दिया। पूरे आंगन में दिये का स्निग्ध प्रकाश फैल गया। उस दिन वह आंगन में ही बहुत देर तक बैठा रहा और जब उठा तो इस तरह जैसे पिता ने आवाज दी हो।

नहाकर गणेश ने दूध गर्म किया और आधे दूध को कांसे के सकोरे में निकालकर, उसमें रोट मीड़ कर दोपहर का प्रसाद ग्रहण किया। प्रसाद ग्रहण करने के बाद उसका मन थोड़ा आराम करने का हुआ। लेटते ही उसे नींद आ गई लेकिन वह जल्दी ही खुल गई। वह उठ गया। घड़ी देखी- तीन बजने को हैं। आज उसका पढऩे का भी मन नहीं हो रहा हैं। दीनू के ढाबे की ओर वह चार बजे के करीब निकलेगा- जब धूप कुछ हल्की हो जायेगी। वह कुर्सी खींचकर दरवाजे के सामने बैठ गया और बाहर को देखने लगा।

गणेश सप्ताह में कम से कम एक बार दीनू के ढाबे जरूर जाता है। ढाबा तो उसके  जाने के बीच का एक पड़ाव भर है- जहां, वह जाते समय चाय पीता है और लौटते समय दाल फ्राई के साथ अंगारे में सिकी, चपातियां खाता है... वैसे वह ढाबे के कुछ पहले, मुख्य सड़क से दाहिनी ओर इंजीनियरिंग कॉलेज के बगल से निकली सड़क से होता हुआ, बिरकोना के तिराहे तक जाता है, और वहीं शाम को होते हुए देखता है।

स्कूल के दिनों से ही गणेश की आदत शांत जगह में कुछ समय बिताने की है।

एक समय था जब गणेश अपने शहर की हर सड़क और मुहल्ले की हवाओं को उनके बारीक ताप और गंधों के अंतर के साथ पहचानता था।

चाहे वह... रेलवे कॉलोनी की शीतल मंद-मंद बहती सदाबहार हवा हो या व्यापार विहार की उखड़ी-उखड़ी हवा जिसमें कूड़े की डम्पिंग से निकली दुर्गंध के झोकों की घुसपैठ हो या लिंकरोड की आकाशी शिरीष के पेड़ों की गंध से भरी बासंती हवा हो या नेहरू चौक से कलेक्ट्रेट रोड की चढ़ाई चढ़ती हुई सड़क की हवा जो मंगला के अपने वायुमंडल में जैसे उसे ऊंगली पकड़कर ले जा रही हो या गोलबाजार की परचूनों की दुकानों की गंधों के साथ-साथ अमरनाथ की दुकान से निकली जड़ी-बूटियों की दिव्य गंध वाली हवा हो... या....

लेकिन पिछले कुछ वर्षों से गणेश के साथ सब गड़बड़ाने लगा है। ध्यान देने पर भी ऐसा कुछ अनुभव नहीं होता जो अलग से दर्ज हो। उसे लगने लगा है उसके फेफड़े तेजी से कमजोर हो रहे हैं और सूंघने की शक्ति छीज रही है... यही सोचते सोचते गणेश को घबराहट होने लगती और वह साइकिल उठाकर ऐसी जगह की तलाश में निकल पड़ता, जहां हवा और वातावरण उसे अलग से अनुभव हो।

कुर्सी पर बैठे-बैठक गणेश को एकाएक जित्तू से कही बात याद आ गई और उसका कहा हुआ उसे ही सुनाई देने लगा-

''हर शहर में ऐसी बहुत सी जगहें होती हैं, जहां-जाने से अच्छा लगता है। हमें उन जगहों को पहचानना आना चाहिए।''

गणेश की आंखों में दो-तीन दशक का समय और शहर की कई जगहें एक साथ घूम गई।

बचपन में वह अपने मुहल्ले के उत्तर में बह रही अरपा नदी के किनारे किसी उठी हुई जगह की घास पर ही बैठ जाता या कभी बदलाव के लिए पिताजी की साइकिल उठाकर 'उस्लापुर' रेलवे स्टेशन चला जाता था। शाम वह वहीं प्लेटफार्म पर ही बिताया करता। उसने बहुतेरी शामें उस्लापुर स्टेशन पर बितायी हैं।

पैसेंजर ट्रेन के जाने के बाद प्लेटफार्म एकदम शांत हो जाता था। बारिश की शाम का एहसास तो वहां इतना घनीभूत होता कि जैसे पूरा वातावरण बारिश की कविता हो और उसका पाठ प्लेटफार्म डूबकर कर रहा हो। झींगुरों और दादुरों के अंतहीन स्वर, बह रही आद्र्र हवा के झोकों के साथ बहता उतना ही गाढ़ा अंधेरा और उनमें जुगनुओं की लप-झप... सब कुछ इतना जादुई कि उसे समय का ख्याल ही नहीं रहता।

धीरे-धीरे नदी किनारे बैठना दूभर हो गया। नदी जो कभी, अमरकंटक की तराई से उतरी ताजा हवाओं का खुला हुआ चैनल हुआ करती, और जिसमें बहती हुई हवा, किनारों से उफनकर, शहर की गलियों, सड़कों की रुकी हुई हवा को बुहारकर, ताजी हवाओं से भर देती थी। अब अधिकांश समय- बदबू और दुर्गन्ध से ही भरी रहती है। उसकी टूटी धार के गड्ढों में पानी सड़ता रहता है, एक-दो बगुले, उन्हीं गड्ढों में अपनी भूख मिटाने के लिए गर्दन झुकाये खड़े रहते हैं और शहर के सर्वहारा लोग उन्हीं गड्ढों के किनारे फारिग होकर, उन्हीं में शौच करते हुए शहर के लोगों को मानवीय गरिमा की याद दिलाते रहते हैं।

बारिश के दिनों में जब दो चार बार की बारिश में नदी किनारे की गदंगी बह जाती, तब शहर के कुछ सयाने लोग, पुरानी यादों से बंधे नदी किनारे आते और अरपा की बारह मास बहती धारा को याद करते रहते। उनकी आंखों में नदी के उस पार खानबाड़े की मस्जिद के गुंबद पर लगी नीली बत्ती की रोशनी पाटो-पाट बहती अरपा की धारा में रह-रहकर लहरने लगती। वे कुछ देर के लिए खो-से जाते।

धीरे-धीरे वे तमाम जगहें, जहां होना उसे अच्छा लगता था, कैसे एक-एक करके अनुपस्थित होती जा रही है।

उस्लापुर रेलवे स्टेशन के उस पार कोलवॉशरी और डंपिंग यार्ड शुरु होते ही, वह जादू खत्म हो गया जो बारिश के दिनों में उसे आवाज देता था। अब वहां कोयले की डस्ट और धूल की धुंध ही छाई रहती है। उसका उसलापुर स्टेशन जाना लगभग बंद हो गया है।

कुछ दिन यहां-वहां भटकने के बाद तुर्काडीह का नया पुल जो अभी यातायात के लिए नहीं खुला था उसे एक राहत कैंप की तरह मिल गया।

तुर्काडीह के पुल से वह अरपा के बांकपन को निहारता रहता। शाम का सूरज डूबने से पहले जल धारा में जगह-जगह अपनी लालिमा घोल देता और उसके आसपास अमरकंटक से उतरी हवा किसी भूले यात्री सी बहने लगती।

लेकिन यह राहत भी कुछ ही दिनों की थी तुर्काडीह का पुल यातायात के लिए खुल गया और वह फिर नई जगह खोजने लगा। रेत की ढुलाई की वजह से सेंदरी तक पूरी नदी पोकलेन की मशीनों और डम्परों से भरी रहती।

नदी किनारे बैठने का समय बीत चुका है- यह जानते हुए भी वह नई जगह की तलाश करता रहता। नदी किनारे होने को वह अपना सौभाग्य मानता है।

उन्हीं दिनों बारिश में नदी के बहाव से रोड के कटाव को रोकने के लिए नदी के किनारे-किनारे प्रोटेक्शन वॉल बनने लगी- फिर क्या? गणेश ने प्रोटेक्शन वाल पर वह जगह, जहां नदी सुंदर मोड़ मुड़ती है अपने लिए चुन ली। प्रोटेक्शन वॉल पर बैठकर वह पैरों को नदी की तरफ लटका लेता और वहीं मशीनों ओर डम्फरों की तमाम आवाजों के बीच भी हो रही शाम में अपने लिए कुछ न कुछ ढूँढ ही लेता।

रविवार के उस दिन गणेश को प्रोटेक्शन वॉल वाली जगह की याद सिद्दत से आ रही थी। वह कुछ जल्दी ही उस ओर चल दिया, यह सोचते हुए कि आज बैठने के लिए पर्याप्त समय रहेगा और वह हो रही शाम को जी भर देखने के बाद ही दिन को बिदा कहेगा।

पिछली रविवार को वह आ नहीं पाया था। काकी मां के बेटे रतन भैया की तबियत खराब हो गई थी। वह उनकी देखभाल के लिए अस्पताल में ही रुक गया था।

गणेश उत्साह से भरा-भरा जैसे ही उस जगह पहुंचा तो उसका मन गश खाकर बैठ- सा गया। वह जगह अब वह जगह नहीं रह गई थी। वहां बदबू आ रही थी। किसी ने दीवार पर वहीं जहां पर वह बैठा करता था, टट्टी कर दी थी।

उसने कुछ जगह आगे-पीछे जाकर देखा तो आसपास शराब की खाली बोतलें, चिप्स और नमकीन के रेपर, पॉलीथीन की थैलियां और कुछ बोतलें टूटी पड़ी थीं। दूर-दूर तक कांच के टुकड़े बिखरे हुये थे।

यह सब देखकर उसका मन ऐसा उचाट खाया कि फिर कोई और जगह खोजने का उसका मन नहीं हुआ और अब शायद वहां कोई जगह बची भी नहीं थी। वहां से वह सीधा घर की ओर चल दिया।

गणेश साइकिल से सड़क किनारे-किनारे जा ही रहा था कि एक ट्रेलर प्रेसर हॉर्न बजाते हुए आगे को मोड़ मुडऩे के लिए इतने किनारे आ गया कि उसके आगे चल रहा साइकिल वाला घबड़ा गया और किसी तरह गिरते-गिरते बचा। गणेश के अंदर भी डर की लकीर कौंध गयी थी।

उस दिन के बाद गणेश ने मुख्य सड़क छोड़कर इंजीनियरिंग कॉलेज के बगल से जाने वाली सड़क खोज निकाली। कद्दावर आकाशीय पेड़ों के बीच से निकली सड़क उसे थोड़ी ही चढ़ाई के बाद बिरकोना तिराहे के शांत वातावरण में पहुंचा देती। वहां के मैदान में उसे पठार जैसी अनुभूति होती और उसके फेफड़े और मन वहां की हवा में ताजगी अनुभव करते।

हर रविवार को वह बिना नागा घर से निकलता। दीनू के ढाबे में चाय पीता और फिर उसी सड़क से चढ़ाई चढ़ते हुए वहीं पहुंच जाता। गहराती शाम में देर तक बैठा रहता।

एक दिन उसे अनुभव हुआ कि दो बस्तियों के बीच की जगह जिसमें हवा, पेड़ों के साथ रुकती, सुसताती और फिर सुबह शाम बहने लगती है अब, धीरे-धीरे खत्म हो रही है!

देखते-देखते तिराहे वाली जगह ने भी गणेश के साथ खेल खेलना शुरु कर दिया। कभी वह उपस्थित मिलती तो कभी अनुपस्थित।

यह सच है कि अब वह जगह निरापद नहीं रह गई है। वहां जगह-जगह निर्माण कार्य शुरु हो गये हैं। एनटीपीसी की चिमनियों से निकलने वाले धुएं की धमक वहां आने लगी है। और पिछले हफ्ते से ईट भट्टे से निकलने वाला धुआं भी वहां फैलने लगा है।

शुक्रवार के दिन, एकाएक जब बच्चों ने गणेश से हॉकी टूर्नामेंट का फाइनल मैच देखने के लिए छुट्टी मांगी तो उसने दे दी। गणेश भी चाहता है कि बच्चे क्रिकेट में ही न डूबे रहें। उन्हें दूसरे खेलों को भी उसकी कला के साथ देखना-खेलना आना चाहिए।

बच्चों के जाने के बाद वह भी साइकिल उठाकर बिरकोना तिराहे की ओर चल दिया था।

दीनू के ढाबे में खटिया पर बैठा गणेश अभी चाय पीते-पीते, ट्रक ड्राइवरों और खलासियों की बातों को सुनते हुए उसके जीवन और स्वप्न में डूब उतरा ही रहा था कि अचानक एक घिसटती... चिचयाती आवाज के साथ एक रिरयाती चीख बीच में ही टूटकर चुप हो गई... सड़क पर एक लम्बा ट्रेलर दस-बारह फीट घिसटता-घिसटता किसी तरह... पलटने से बचा था।

''क्या हुआ?'' दीनू उसी ओर दौड़ा... और वहां से लौटने पर उसने बताया कि ''कबरा पिसा गया है।''

ढाबे में जूठन और कुछ दीनू की उदारता के कारण पांच-:, कुत्ते ढाबे के पास ही रहते हैं- कुछ-कुछ पालतू से उन्हीं में से कबरा नाम का कुत्ता ट्रेलर के नीचे दब गया था।

दीनू ने भारी आवाज में कहा ''इस साल में यह दूसरा हादसा है... सात माह पहले 'भूरा' भी इसी तरह दबकर मर गया था।''

गणेश खटिया से उठकर धीरे-धीरे बिरकोना तिराहे की ओर चल दिया। कुत्ते की रिरयाती चीख ने उसे उदास कर दिया था। तिराहे के पास पहुंच कर भी उसका मन नहीं लगा और वह थोड़ी ही देर बाद लौट आया। उस दिन उसने ढाबा में खाना भी नहीं खाया।

कुल्फी वाले की आवाज से गणेश की तन्द्रा टूटी... वर्तमान में लौटते हुए उसे लगा कि कुछ ही पलों में जैसे युग बीत गया हो। कुर्सी पर बैठे-बैठे ही उसने अंगड़ाई ली और बाहर धूप को देखते हुए घड़ी को देखा। चार बजने को ही थे। वह साइकिल उठाकर बिरकोना तिराहे की ओर चल दिया।

जैसे ही वह ढाबे के पास पहुंचा तो उसे कबरे कुत्ते की याद आ गई।

खटिया पर बैठते ही उसने दीनू से कहा- ''कबरे कुत्ते की लाश को तुमने कॉलेज वाली सड़क के किनारे, गड्ढों में तो नहीं फिकवा दिया। कुछ महीने पहले वहां किसी ने कुत्ते की लाश को फेंक दिया था। लाश की सड़ांध से वह एरिया तिराहे के कुछ पहले एक बुरी तरह गंधाता रहा था। वहां जाते समय मैंने सांस रोककर सड़ांध पार करने की कोशिश की थी लेकिन मेरी सांस बीच में ही टूट गई थी और सड़ांध का भभूका मेरे अंदर भर गया था। बहुत दिनों  तक, उस सड़ांध की बू मेरे अंदर बनी रही थी।''

दीनू ने कहा - ''नहीं साब...! वहां तो ऊपर वालों ने ही फेंका होगा। अब कहाँ... फैंकना-मैंकना... एक के बाद एक ट्रेलर दनदनाते हुए आते-जाते हैं, और जो भी चपेट में आता, वहीं सड़क पर पिस जाता है और एक ही रात में पहियों में घिसट-घिसटकर साफ हो जाता है। अब तो सड़क पर जहां-तहां कुत्ते, सियार, सांप, बिच्छू पिसकर छप जाते हैं और दूसरे दिन साफ...

गणेश को लगा दीनू ठीक कह रहा है। इस रफ्तार और हड़बड़ी में रुकना, हटाना कहां? सांस रोककर सड़ांध पारकर अब तुम किसी और हवा में कैसे जा सकते हो? जहां सांस लोगे वहां वही हवा होगी जिसे तुम पार करना चाहते हो।

उसने सड़क के दोनों ओर देखा तो उसे कबरे कुत्ते की लाश अंतहीन-सी दूर दूर फैलती हुई दिखाई दी। उसने एक गहरी सांस खींची तो उसे राहत महसूस हुई सड़ांध का कोई भभूका उसके अंदर नहीं आया।

जीवन में यह कैसी सुविधा है कि पता ही नहीं चलता कि कब हम अभ्यस्त हो गये हैं?

चाय का गिलास खटिया के नीचे सरकाकर गणेश उठा और साइकिल चलाने लगा...

उसे नहीं पता कि वह घर से बिरकोना तिराहे की ओर जा रहा है या वहां से लौट रहा है।

अचेतन में भी एक अभ्यस्ती होती है। वहीं अभ्यस्ती गणेश को घर ले आई। ताला खोलकर वह सीधे अपने कमरे में गया और कमरे में पुरानी, धूल भरी पत्रिकाओं में से उस पत्रिका को खोजने लगा, जिसमें ''उत्तराखंड के घोस्ट गांव'' शीर्षक से एक रिपोर्ट छपी थी- और जिसे वह कई बार पढ़ चुका था। उत्तराखंड के उन गांवों में अब कोई नहीं रहता। गांवों के घरों में ताले लटके हुए हैं। उन गांवों में अब भूत ही भूत है- कोई वर्तमान नहीं है।

 

पत्रिका खोजते-खोजते गणेश को लगा कि क्या उसके शहर में कोई भूत नहीं है? सिर्फ वर्तमान ही वर्तमान है।


Login