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अक्टूबर-2017

कोटर का रोमियो, पिंजड़े की जूलियट... साढ़े छह मिनट की देरी

स्कन्द शुक्ल

कहानी

 

स्कंद शुक्ल पेशे से चिकित्सक हैं, फितरत से किस्सागो। लेखकों से भरे लखनऊ में एक कोना पकड़े बिना किसी शोर शराबे के किताबें भी लिख रखी है। चिकित्सकीय जीवन पर आधारित अपनी किताब 'परमारथ के कारने' को इंटरनेट पर खासा लोकप्रिय पाया गया है। इधर पिछले दिनों अपने वैज्ञानिक चिंतन और लेखन के जरिए हिन्दी पढऩे वालों के बीच उन्होंने अपनी उपस्थिति दर्ज की है। यथार्थ, फंतासी और जीव-विज्ञान को मन के मनके से गूथने वाली उनकी यह कथा काफी ताज़ा लग सकती है।

 

 

लाल जोड़े वाली जूलियट मरी नहीं थी, वह केवल जम कर थम गयी थी...

लेकिन रोमियो ने उसे मरा हुआ जाना। वह डरपोक था। जो डरते हैं, वे बुरा ज़्यादा सोचते हैं। डर अंधेरे को बढ़ाकर दिखाता है। सो रोमियो डर गया। उसने महज़ छह-साढ़े छह मिनट इंतज़ार किया होगा अपनी लाली के जगने का। उठेगी तू? जगेगी भला? बोल तो कुछ मेरी जान! नहीं बोलेगी! चिट्ठी क्यों नहीं आयी तेरी! सालों का क्रम तोड़ दिया! वादाखिलाफी! सच! तो ठीक है! ले फिर! मैं भी चला!

बस, ठीक साढ़े छह मिनट बाद रोमियो गुज़र गया इस संसार से। और उसकी मौत अभिनय नहीं थी, प्रतिक्रिया थी टूट की। जब टूट की खलबली मचती है, तो वह अभिनय भूल जाती है। रोमियो ने कोई अभिनय नहीं किया था। वह सचमुच इस संसार से रुख़सत हो गया।

रोमियो और जूलियट की यह प्रेम-कहानी कुछ अजीब--ग़रीब, कुछ हैरत-अंगेज़ है। अदाकार जूलियट उम्र में इस बौड़म रोमियो से बड़ी है। पूरी एक हफ्ते। आप कहेंगे तो क्या? एक हफ्ते की बढ़ाई-घटाई भी भला कोई मायने रखती है? जी हुज़ूर, रखती है। मुहब्बत में उम्र का अपना ख़ास मुकाम है। जो पहले इस दुनिया में आया, जितने दिन पहले आया, उतने दिन मुहब्बत में सीनियर हुआ। सीनियर यानी ज़्यादा दिन गुज़ारे उसने कुदरत के बीच। ज़्यादा महसूस की धड़कनें नदियों की। ज़्यादा लेटा-लोटा-लुढ़का पहाड़ों की चोटियों-वादियों में। ज़्यादा अधखिले फूल सूँघे, ज़्यादा घायल तितलियाँ फूँकीं। ज़्यादा योगदान किया हर रंगीन बदलाव में। ज़्यादा हिस्सा बना कुदरत के हर करिश्में का।

जूलियट ने हर ये काम रोमियो से पहले किये। ज़्यादा किये और जी-भर किये। किसी लाल नन्हें गुब्बारे-सी वह एक बार धड़की तो फिर न रुकी। बचपन बड़ा हुआ, खिलकर जवानी बन गया। जवानी मुरझायी, सिकुड़ कर बुढ़ापा हो ली। लेकिन जूलियट का धड़कना बदस्तूर जारी रहा।

जन्म के एक ह$फ्ते बाद ही उसे रोमियो मिल गया। कहां रहते हो? क्या नाम है? पहली बार दिखे! न जाने कितने सवाल थे चुलबुली के। मगर रोमियो ठहरा सुस्त। उसकी तासीर धड़कने वाली कहाँ! उसकी पैदाइश इस काम के लिए थोड़े ही न हुई थी! दे दिया जवाब उसने न जाने क्या मरा सा!

जूलियट को कुदरत ने रहने के लिए सफेद पिंजड़ा दिया। नीचे। उसमें हवा आती थी, लोग भी। उसमें शोर मचता था कबूतरी साँसों का, कोलाहल उठता था। बानरी खौं-खौं का भी। जूलियट बेबी फिर सोच लो! यहीं रहोगी? घर कम अजायबघर ज़्यादा है। कोई एकान्त नहीं, कोई प्रायवेसी नहीं। सब कुछ सामने घटता है, सब कुछ सामने जिया जाता है। हां, मां यहीं। मुझे नहीं कहीं जाना-वाना। सबके सामने जीना, सबसे सहज जीना है। जो हूं, वह हूं। जो नहीं हूं, वह नहीं हूं। कोई पसन्द करे तो ठीक। न करे, तो भला मैं क्या करूं।

रोमियो बाबू एकान्त के साधक थे। उन्हें पहाड़ों की चोटियां भाती थीं। सो उन्हें कुदरत ने सबसे ऊंचे पहाड़ पर एकर सफेद कोटर दिया काली घास से ढंका हुआ। वहां ऊंचाई थी, लेकिन हवा न थी। वहां एकान्त था, लेकिन बड़ा मुरदाना था। वह सारा माहौल जैसा ज्ञान पाने के लिए चाहिए होता है।

नीचे हुड़दंग था, हुल्लड़बाज़ी थी। शोर के बीच जूलियट नाचती थी। कभी धीमी होती थी, कभी र$फ्तार पकड़ती थी। लो, कर लो बात! एक गति से हर समय चलना भी भला कोई चलना है? एक तो यहां कोई चलता नहीं। ऊपर से हम चलते हैं, तो सारे आ जाते हैं हमें नसीहत देने।

आप सोच रहे होंगे कि अब मैं जूलियट और रोमियो को परस्पर मिलवाने जा रहा हूं। जी नहीं साहब! वे आपस में कभी नहीं मिले। ऐसी जगह रहते थे कि मिल ही नहीं सकते थे। रोमियो छैला ऊंचे छज्जे के जेलनुमा कोटर का प्राणी था और जूलियट रानी बसती थी नीचे के कोलाहली मुहल्ले में। उनकी मुलाकातें तो एकदम जुटा ही अंदाज़ में होती थीं, होती रहीं।

जूलियट बढ़ी, बढ़कर मुट्ठी-सी बड़ी हो गयी। सु$र्ख चेहरा जिसका एक-एक रेशा कांपता था हर पल। वह कहती थी तो केवल कहती नहीं थी, वह डी डालती थी कहें को। उनके शब्द नहीं होते थे, वे आत्मभुक्ति होते थे। जो वह रोमियो को भेजती थी, वह उसका ख़ुद का भोगा सच होता था। अपने भीतर दुनिया-जहां से उतारा हुआ था, गढ़ ले इनसे परिभाषाएं मेरे बाँके। बना ले प्रमेय, बूझ ले रहस्य। तुझे इस तरह बच्चे-सा भटकते देखने में जो सुख है, उस पर हर पल कुर्बान।

उम्र ने रेशे रोमियो को भी दिये नये-नये। वह बढ़ता गया, जटिल से जटिलतर होता गया। उसमें नये-नये ज्ञान की नवीनतर बिजलियां कौंधती गयीं। हर झटका उसे और ऊपर उठाता, हर चमक उसे कुछ नूतन परिचय दे जाती। कब तक बटोरता रहेगा ये सब बातें? कब तक चमक को देख-देख कौंधता रहेगा। कब तक ठहराव की इस मुद्रा में जड़ता ओढ़े रहेगा?

बस, जान थोड़ा और। कुछ बातें और। कुछ सच और। लगभग सब तो जान लिया है। थोड़ी देर में यह सब ख़त्म हो जाएगा। फिर मैं मिलने आऊंगा तुझसे। तेरे पास। और वैसे रहूँगा जैसे तू कहेगी। धड़कना सीखूँगा। हुल्लड़ भी, हुड़दंग भी। और हाँ, चिट्ठी लिखना भी सिखा देगी न मुझे।

जी हुजूर, उन्हें चिट्ठियां मिलाती थीं! जूलियट के वे प्रेम पत्र जो वह लगातार, निरन्तर रोमियो को ऊपर भेजती थी। शब्दों की मिठास में सनी भावों की प्राणवायु। और यह कभी हो और न हो, ऐसा न था। जूलियट कभी चूकती नहीं थी लिखने और भेजने में। हर मिनट मन का दुलार, हर मिनट मन का विचार। हर मिनट मन का सत्कार, हर मिनट मन का दुत्कार। हर वह भाव जो मन में उठा, उसी पल भेजा उसने। हर वह बात जो पैदा हुई, ऊपर को रवाना कर दी।

रोमियो महसूस करने का काम करता था। स्वयं को नहीं, दूसरों को। आप कहेंगे यह भी कोई काम है भला! जी साहब, बहुत ही विचित्र लेकिन नेक काम है। जीवन-भर सबको-सबका महसूस करने के लिए अपने लिए सुन्न बनना पड़ता है। एकदम आत्मनिश्चेष्ट। पूरी तरह ख़ुद से कटा हुआ। परहित जीवनयापन। अनुभव करना और अनुभूतियां भी। दूसरों के काम करना और जग को बताना। लेकिन फिर वह एक काम और भी करता था अपनी माशू$का के लिए उसे महसूस करने के साथ। अनुभव ख़ुद रखता था, अनुभूतियां कहता था कि जूलियट से बूझी हैं। जूलियट चौंकती थी! दुत् पगले! मेरा नाम क्यों लगाता है! ख़ुद ले श्रेय अपने किये का! पर नहीं! तू धड़कती है इस तरह! तुझ पर फबेंगी बातें ये! जानने दे ज़माने को कि हर मुस्कान, हर आंसू तुझमें उपजता है। पर ये तो तुझमें पैदा होते हैं रे! तो क्या? तू तो इतने दिनों से देती आ रही हैं मुझे इतना कुछ हर मिनट, वह क्या! उल्लूचन्द, तो अब लेनदेन करेगा। मुझसे! तेरा पहाड़वाला ज्ञान यही कहता है? इतना ही सीखा है तूने ऊपर रहकर?

सीखा तो बहुत कुछ रे पगलिया! लेकिन सबसे बड़ी बात यह सीखी कि आंसुओं-मुस्कानों पर तेरा नाम चिपका दूं। यह लेनदेन नहीं है, यह मेरी आदत है। देख, मैं सोच-भर हूँ। मति बन सकता हूं, मन बनता अजीब लगता हूं। जेली देखी है तूने, जो न गीली होती है न सूखी। बस, मैं वही हूं। तू अलग है पर। बहुत अलग है। तू गागर है, तू सागर भी है। तू भरती है, तू भरण भी है। मैं सूक्ष्म हूँ। इतना कि भर नहीं पाता अब किसी तरह। तू देती है हर चीज़, तो चलता हूं। लेकिन तू रख सकती है, क्योंकि तुझे रखना आता है। तो रख ले। मेरे आंसू और मुस्कानों का यह भण्डार कि दुनिया देख सके। इतनी तरलाई रखती है, तो थोड़ी खारी-मीठी भी हो ले। सच्चे अर्थों में सागर बन जा। फिर जैसे बहना हो, बह, बहती रह।

जूलियट को मानना पड़ा। वह मना न कर सकी। उसने सारी मुस्कानें और आंसू ले लिए। जंच रही है तू! सूट करता है तुझे यह बोझ!

समय गुज़र गया मिनिट-मिनिट होते हुए। प्रेम उनका कहानी बनता बीतता रहा।

अच्छी प्रेम-कहानियों में शादियां नहीं होतीं। क्योंकि वे सामाजिक सिद्धि के लिए नहीं बनतीं। और सर्वोत्तम प्रेम-कहानियों में मिलन भी नहीं होता। क्योंकि वे समाज को आइना दिखाने का काम करती हैं। और आइने में जो दिखता है, उससे कोई आज तक मिल न सका।

जूलियट और रोमियो भी अलग-अलग रहते प्रेम करते बूढ़े हो गये। न वे मिले, पर जुड़े रहे। चिट्ठियां चलती रहीं, अनुभव-अनुभूतियां बांटते जाते रहे। खोज-ख़बर मिलती रही, साझा समय कटता रहा। बस फिर एक दिन। सालों-सालों बाद! नखरीली जूलियट थम गयी! रोमियो को लगा यह मज़ाक है! फिर कोई रफ्तार घटाने का ड्रामा! फिर कोई नवीन अभिनय! फिर कोई नयी नौटंकी!

रोमियो ने इंतज़ार किया। एक, दो तीन नहीं पूरे साढ़े छह मिनट। आिखरी साढ़े छह मिनट रोमियो को उसकी कोई चिट्ठी नहीं मिली थी। वे अन्तिम साढ़े छह मिनट रोमियो के एकान्त के क्षण थे। यह असली एकान्त था, जब जूलियट नहीं थी। भयावह। अकेला। निर्जन।

और फिर क्या! उसने भी प्राण दे दिये। इहलीला समाप्त। यहां न मिले तो कहीं और मिलेंगे। किसी और दुनिया में। जहां न ऊंचाई होगी, न नीचाई। जहां न पहाड़ पर बन्द-बन्द सफेद कोटर होंगे, न नीचे स$फेद खुले-खुले पिंजड़े। जहां ज्ञान और प्रेम में कोई द्वन्द्व नहीं होगा। जहां चिट्ठियां बांची जाएंगी, लिखी नहीं। कहने, कह देने में जो बात है, वह भला लिखने, लिख भेजने में कहाँ!

और फिर! जो रुकाव था, वह टूटा। थमी हुई जूलियट जागी। धीमे-धीमे चली, चल पड़ी। भेजी चिट्ठियां। भेजी मिठास। भेजे प्राण। लेकिन अब कहां वह बात! अब कहां वे दिन! जो घटना था, वह तो घट चुका था। गीला जवाब पहले भी न आता था पहाड़ से। लेकिन इस बार कुछ जवाब से बड़ा आया। रोमियो ने अन्तिम इच्छा लिखी थी। मरने से पहले न जाने कब वह लिख गया था! मेरी जान, तू किसी और में जा, जाकर बस जा! इस पिजड़े से दूर किसी और पिंजड़े में।

उस दिन लाल जोड़े वाली जूलियट ज़ार-ज़ार रोयी! उस दिन उसने सारे आंसू रोमियो पर बहा दिये। क्यों रे, छोड़ गया इतनी जल्दी मुझे अकेला! साढ़े छह मिनट का इंतज़ार, बस! मुहब्बत में जवाब नहीं मिलेगा, तो जान दे दे देगा! उत्तर के सिवा प्रेम को समझने का कोई ढंग न सीख पाया इतने दिनों में! इतना तो जानता पगले कि प्यार की ऊंचाई जवाबों की तलाश में नहीं, सवालों में जवाब ढूंढ़ लेने में होती है! इतने ऊपर रहकर इतनी सी बात न समझी तूने!

रोमियो दिमाग़ ही सही, लेकिन दिलबर था। जूलियट दिल थी, उसने दिलबर का कहा मानकर किसी और पिंजड़े में दूसरा घर बसा लिया।

दिये गये आंसू तो सारे वह बहा चुकी थी, लेकिन मुस्कान धीमे-धीमे लुटाना अब उसने जाना था।

 

दो

सुस्त कछुआ, चंचल ख़रगोश... दौड़ जिसे कोई नहीं जीता

 

आदमी मर गया है। इसलिए क्योंकि उसका मस्तिष्क मर गया है। जो मर जाता है, वह वेजीटेटिव हो जाता है। वेजीटेटिव यानी वेजीटेबलनुमा। जब वह पौधे पर लगा लहराया था, वह जीवन था। अब जब वह डण्ठल से टूट कर अलग हो गया है, तो वह सब्जी है काल के लिए उसी के गाल से होता हुआ उसके उदर में चला जाएगा अन्तत: वह। (बल्कि चला ही गया है!)

डण्ठल कहाँ है मगर? वह नाल कहाँ है जिससे टूट कर वह बेचारा सब्ज़ी बना? इस सवाल का जवाब बहाव नहीं होना चाहिए पानी का। इसलिए नहीं होना चाहिए ताकि फंतासी के धार में घुली हकीकत का रंग कहीं संग न चला जाए। ताकि इश्क की तासीर पर कोई ज़मीनी य$कीन पैदा हो सके। ताकि मुहब्बत आशिकों की $कब्रगाह ही न रह जाए, ज़िन्दगियों का गुलशन भी बने।

पराभौतिकी वैभव से सुसज्जित कर इस कथा को इसके अंत तक ले जाना सरल है, लेकिन मैं कुछ और तलाश रहा हूँ। कोई भौतिक सत्य, जो जीवन और मृत्यु को जोडऩे वाले पुल की तरह हो, जो किसी उर्वर खेत के ख़ुशहाल किसानों की तरह हो, जो प्रायमरी स्कूल की उस टीचर की तरह हो जिसे नन्हें बच्चों को गाजरी रंग बताने के लिए अपनी नरम हथेलियों की रेशेदार रेखाएँ दिखानी पड़ती हों।

अब सूरत बदलनी चाहिए।

आइये! इस ढूँढ़ में लगिए मेरे संग कि कहाँ हैं वो डंठल? वह नाल कहाँ है जिससे टूट कर वह बेचारा सब्ज़ी बना। तो भौतिक सच है कि ख़ून की वे धमनियाँ, जो मस्तिष्क को हृदय से जोड़ती हैं, ये ही वे डण्ठलें हैं। डण्ठलें, जिनसे दिमाग़ में रक्त एक धड़कन के साथ पहुँचता है।

हृदय कांपा, उसने ख़ुद को निचोड़कर एक धार ऊपर को भेजी। वह धार पहले दो धमनियों में बंट कर फिर शाखाओं-प्रशाखाओं में बिखरती हुई दिमाग़ में दािखल हो गयी। उस धार-संग बहुत कुछ साथ गया। जीवनदायिनी ऑक्सीजन। मीठा ग्लूकोज़। खनिज-लवण। और तमाम चीज़ें।

मनुष्य मां के पेट में होता है तीन हफ्ते-भर का, तो उसमें हृदय बन जाता है। तीन हफ्ते में छोटी सी लाल धड़कन उस नन्हीं जान को गुदगुदाने लगती है। मस्तिष्क उसके एक सप्ताह बात अस्तित्व में आता है। सोच की कुलबुलाहट शायद तब जाकर शुरु होती है।

आदमी धड़कता पहले है, उसके एक हफ्ते बाद चिन्तन चालू करता है। समय बीतता जाता है: पहले माँ के पेट में और फिर बाह्य जगत् में। दिल छाती में हवा भरते, फूलते-पिचकते फेफड़ों के बीच धड़कता रहता है अनवरत। वह सक्रिय मांसल पिण्ड है मुट्ठी के बराबर: उसे सबको खिलाना-पिलाना है और ज़िन्दा रखना है।

मस्तिष्क ऊपर, बहुत ऊपर पड़ा है निष्क्रिय सा। वह धड़कता नहीं जान पड़ता, वह कपाल के खोल में किसी कछुए-सा बन्द है। वह दिल-सा ख़रगोश नहीं कि कभी धीमे चले, तो कभी तेज़। उसे नब्ज़-सी ज़िन्दगी नहीं जीनी वह स्फुलिंग-सा कौंधता रहता है हर पल मगर हिलता नहीं। तमाम जटिलताओं-सूक्ष्मताओं को अपनी तन्त्रिकाओं से बटोरता और उन्हें तमाम अंगों तक पहुँचाता, वह चेतन संसार को अचेत का आभास देता है।

दिल पानी है, जिसे वह ख़ून कहकर निरन्तर घाट-घाट को बांटता जाता है। दिमाग़ आग है, उसके रेशों-रेशों में लगातार बिजली कौंधती रहती है।

वे जुड़े हुए हैं, लेकिन दूर हैं। वे मिले हुए हैं, लेकिन अलग-अलग कामों में रत हैं। वे कभी एक दूसरे को देखेंगे नहीं: बस दिल अपना ख़ून दिमाग़ तक नित्य पहुंचाता रहेगा और दिमाग़ अपनी तन्त्रिकाओं से उसे तेज़ या धीमे चलने की सलाह देता रहेगा।

ऐसे ही दिनों के गुच्छे महीने बनेंगे और महीनों के साल। ऐसे ही पुलिन्दे-सा जीवन गुज़र जाएगा, दोनों चंचल और स्थिर का।

विज्ञान ने बड़ी तरक्की की है और यह बता दिया है कि प्यार-व्यार दिल से नहीं, दिमाग से ही होता है। सुख भी। न$फरत भी। क्रोध भी। दु:ख भी। मगर दुनिया ने दिल को जो श्रेय दे रखा है सदियों से, दिमाग़ वह वापस लेने को राज़ी नहीं। दुनिया कह रही है उल्लूराम से कि सब कुछ तो तुम करते ही थे। लो, प्यार करने वाले भी तुम्हीं निकले। गया दिल! रह गया केवल एक अदना सा पम्प। बस, ख़ून फेंकने की एक मांसल मशीन, इससे ज़्यादा कुछ नहीं।

उस दिन दिमाग ने अपनी तन्त्रिकाओं से दिल के जिस्म को ख़ास ढंग से छुआ। टटोला और सहलाया। ''सुना तुमने? नयी-नयी बातें चल निकली हैं हमारी-तुम्हारी। कि तुम कुछ करते नहीं, सब हमीं कते हैं। क्या करें, कह दें? मान लें सच को? स्वीकार लें जो हार गले डालने को खड़े हैं सब कतार में?''

''जैसी मरज़ी तुम्हारी।'' एक धड़कन-भरी ऊष्म धार ऊपर को आयी।

दिमाग़ ने लेकिन ऐसा कुछ किया नहीं। वह दिल से उसका मान छीनना नहीं चाहता था, उसने छीना भी नहीं। दुनिया के चाहने-न चाहने से भला क्या होता है? जब तक दिमाग़ न कह दे कि आंसू और मुस्कान उसकी मिल्कियत हैं, बात कैसे बनेगी? नहीं बन सकती।

इसलिए बात बनी नहीं। बन नहीं पा रही।

समय गुज़रता चला गया। दोनों संग रहे, बिना एक-दूसरे को देखे मगर एक दूसरे को महसूस करते। ख़रगोश-सा दिल, कछुए-सा दिमाग़।

और फिर एक दिन।

दिल रुक गया जाने क्यों। ज़्यादा नहीं केवल साढ़े छह मिनट को। दिमाग़ तक ख़ून नहीं पहुंचा। फिर क्या होना था! फिर क्या हो सकता था! वही घट गयी जिसे मौत कहते हैं।

ज़िन्दगी की रेस ख़त्म हो गयी। ख़रगोश ने रुककर इस कछुए को हरवा दिया।

फिर उसकी आंख खुली। वह चल पड़ा धड़कता हुआ। कुलांचे भरता अनवरत। मगर अब क्या होना था? अब क्या हो सकता था?

रेस की िफनिशिंग-लाइन पर जब वह पहुंचा तो उसे बताया गया कि कोई नहीं जीता है। क्योंकि कोई जीत ही नहीं सकता था इस रेस को अकेले। दोनों दौड़ते, तो नतीजा आता शायद कभी। लेकिन अगर एक रुक गया, तो दूसरे की जीत उसके साथ ही नष्ट हो गयी।

लेकिन एक चिट्ठी है जाने वाले की। उसमें अन्तिम इच्छा है। मैं चला गया, पर तुम न जाना। तुम्हारे पास समय है। तुम इतने निर्भर नहीं हो मुझ पर, जितना मैं था। तुम पर। इसलिए एक वादा करो। कि किसी और जिस्म में रुप जाओगे। कि किसी और दिमाग़ को मुझ सा ही प्रेम दोगे। कि किसी अन्य की धड़कन बनकर उसको ऊर्जित करते रहोगे।

फिर किसी और रेस में जाओ और हाँ, अबकी बार सोना नहीं। चाहे उछलकूद मचाना, मचाते रहना। नहीं तो देर हो जाएगी। नहीं तो वह भी मर जाएगा मेरी तरह।

जाओ खरगोश। किसी लगभग मरे की छाती के बिल में प्रत्यारोपित हो जाओ। बना लो नया आशियाना कोई। यह सुख बदनसीब दिमाग़ों के हिस्से अब तक न आ पाया है। ख़ुशनसीब हो कि तुम दिल हो मेरी जान!

आदमी सचमुच मर गया है। रख सकते हो तो आदमियत को ज़िन्दा रख लो।

 

 

 

(बड़ी मजबूरी है कि लिखा नहीं जा पा रहा बहुत हद तक भौतिक होते हुए। इस िकस्सागो ने सोचा था कि सूरत बदल दी जाएगी। अब की बार, पर रेस से बाहर होते हुए भी वह रेस में है शायद...)


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