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अक्टूबर-2017

अंधा

उदय प्रकाश

किस्सा (कहानी)

 

बड़े कथाकार उदय प्रकाश देश और विश्व की अनेक भाषाओं में प्रकाशित हैं। पहल सम्मान से विभूषित। उनकी यह कहानी लगभग एक दशक बाद पढऩे को उपलब्ध हो सकी है।

 

 

कौन कहता है कि सोचने के कुछ नहीं होता?

कुछ घटनाएं ऐसी हैं और कुछ किस्से ऐसे हैं, जिनसे पता चलता है कि सोचना या विचार करना अकर्मण्य या निठल्ला हो जाना नहीं होता। सोचने से कुछ न कुछ तो होता है।

जब मैं स्कूल में पढ़ता था, तब मेरे दोस्त ने एक किस्सा सुनाया था। किस्सा यों है:

'एक अंधा था। उसका जन्म ही अंधेपन के साथ हुआ था। जन्मांध। वह कुछ देखता नहीं था, बस ध्वनियों को सुना करता था, चीज़ों को छूता-टटोलता था।

और उसे सारी दुनिया तरह-तरह के गंध-सुगंध, खुशबू-बदबू से भरी हुई लगती थी। चारें और फैली हवाओं को वह अपनी सांस और अपनी त्वचा से जानता था। सांस से गंध और त्वचा से उनका ताप।

जितनी ही उस अंधे की उम्र बढ़ती गयी, उतना ही वह अकेला होता चला गया।

जो उसकी उम्र के लोग थे, वे धीरे-धीरे कहीं और चले गए। वे दूसरे शहरों में बस गए। और जो उससे बड़ी उम्र के थे, जिनमें माता-पिता, दादा-दादी, मौसी-बुआ, चाचा-ताऊ, ताई-चाची जैसे कई संबंधी शामिल थे, धीरे-धीरे वे सब मरेत गए।

अपने अंधेपन के साथ वह बूढ़ा होता चला गया।

अब वह अकेला, घर के पिछवाड़े एक बहुत पुराने, सूखे हुए पेड़ के तने पर अपनी पीठ टिकाये दिन-रात बैठा रहता और कुछ सोचता रहता। रात में जब सोता तो उसे कई तरह के सपने आते। ये सपने उन लोगों के सपनों से बिलकुल अलग होते थे, जिनकी आँखें थीं और जो देखी गयी चीज़ों के सपने ही देखा करते थे।

वह जो सोचता या छूता या सूंघता, वही अनुभव उसके सपनों को बनाया करते। यही कारण था कि वह अधिक सपने देखने के लिए बड़ी व्यग्रता के साथ हर उस चीज़ को छूता, टटोलता, जो उसके आसपास हो जाती। बार-बार गहरी साँसें लेकर वह हवा को सूंघने की कोशिश करता। उसकी ये हरकतें दूसरे लोगों ने उसे अलग और अस्वाभाविक बनातीं। लोग उसे आश्चर्य, उदासीनता और गुस्से से देखते। वे लोग यह न समझ पाते कि वह ऐसा अपने सपनों को तरह-तरह की चीज़ों से और अधिक भरने के लिए करता है।

वह शहर भी अब पहले से जितना बड़ा होता गया, उतना ही लोगों के पास काम बढ़ते गए और उसके पास समय कम होता गया।

उस अंधे के पास भला कौन आता और उसकी अजीबोगरीब बातें सुनता? इतनी फुर्सत ही किसके पास थी? अगर लोगों को फुर्सत भी कभी मिलती, तो उसे वे अपने मनोरंजन के लिए खर्च करते। यह उनका अपना समय था, उसे अंधे के पास बरबाद करने की बात कौन सोचता।

वह अकेले से ज़्यादा अकेला, अलग से ज्यादा अलग होता चला गया।

शहर के लोगों के लिए वह अब सिर्फ 'अंधा' भर नहीं रह गया था क्योंकि शहर में कुछ और भी अंधे थे। उनमें से कुछ ऐसे थे जिनकी आँखों की रोशनी उम्र के कारण, किसी रोग के कारण या किसी दुर्घटना के कारण चली गयी थी। वह इनसे अलग था इसीलिए सिर्फ 'अंधा' कहने से उसे अलग से नहीं पहचाना जा सकता था।

यही वजह थी कि लोग अब 'मनहूस अंधा' या 'खड्डूस अंधा' के नाम से उसका ज़िक्र करते थे, इसी के ज़रिये उसकी $खास पहचान बनती थी।

लेकिन वह कभी-कभी रात में कुछ गाया करता था। गाने की आवाज़ कभी धीमी ज़िक्र करते थे। इसी के ज़रिये उसकी खास पहचान बनती थी।

लेकिन वह कभी-कभी रात में कुछ गाया करता था। गाने की आवाज़ कभी धीमी और बहुत धीमी और कभी ऊंची और बहुत ऊंची होती।

यहाँ भी एक समस्या थी। उसका गला कुछ अलग ही था। जन्म के साथ जैसे उसकी आंखों में रोशनी नहीं थी, उसी तरह शायद उसके कंठ आरै स्वरयंत्र में भी कुछ-कोई कमी रह गयी थी।

उसका गाना एक अलग ध्वनि और सुर में होता। विचित्र सी आवाज़ होती, जिसमें शब्द भी अजीब और कई बार अपरिचित होते। उनका कोई क्रम, संगति, विन्यास या व्याकरण न होता।

अलग सुर और आवाज़ में अजीबोगरीब बंदिशों का उसका गाना उन लोगों को, जो उधर की गली से देर शाम या रात में गुज़रते, उन्हें रुक कर कुछ अटकल लगाने को विवश करता। वे यह समझने की कोशिश करते कि इस खड्डूस अंधे की बंदिशों का मतलब क्या है। उन्हें लगता कि इस मनहूस अंधे के गाने ने उनके दिमाग में कुछ चुभने वाले कंकड़ डाल दिये हैं। उन्हें बेचैनी और चिढ़ एक साथ होती। वे अंधे को और ना-पसंद करते।

उस अंधे का उस शहर में होना और खासतौर पर उसका गाना, किसी अबूझ पहेली जैसा होता गया, जिसका अर्थ लोगबा$ग यों ही लगाने लगते। यह कई लोगों की वक्त-कटी का सबब बनता गया। कोई ऐसी गुत्थी जिसे सुलझाने का खेल लोग बिना जाने, कभी अकेले और कभी आपस में खेलने लगते।

इस तरह कई साल बीते।

इस बीच शहर के कई राजा मरे और कई राजा जनमे। कई गए और कई आये।

अंधा अपने घर के पिछवाड़े उसी सूखे पेड़ के तने पर अपनी पीठ टिकाये अकेला बैठा रहता और रात में कभी-कभी गाया करता। उस गली से देर शाम या रात में गुज़रते लोग उसके गाने को उसी चिढ़ और कौतूहल के साथ सुनते और अटकल लगाने का खेल कभी अकेले और कभी आपस में खेलते।

फिर एक दिन वह आया जो इस किस्से का सबसे अहम् हिस्सा है।

शहर में उस रोज़ सारे लोग एक साथ एक जगह पर इकट्ठे हो गये। जैसे शहर की सारी मधुमक्खियाँ किसी एक ढेले पर आकर जमा हो गयी हों। ऐसी भीड़ी शहर में कभी देखी नहीं गयी थी। कुछ लोग जो बहुत बूढ़े हो चुके थे, उनका कहना था कि कई साल पहले जब आकाश में आठ ग्रह एक साथ इकट्ठा हो गए थे और ज्योतिषियों ने कहा था कि अब दुनिया खत्म हो जायेगी, और तब एक सात मरने के लिए समूचे शहर के लोग इसी जगह इकट्ठा हो गए थे, उस दिन भी ऐसी भीड़ नहीं थी। हालांकि, उस अष्टग्रही के बावजूद शहर का एक भी आदमी नहीं मरा था। बस एक बुढिय़ा को हल्का-सा जुकाम हुआ था और एक बच्चे को खांसी आयी थी।

दोपहर होते-होते पता चला कि दूसरे शहरों के लोग भी इसी शहर की ओर चले आ रहे हैं। अंदेशा होने लगा कि अगर इसी तरह लोग आते रहे तो पूरे देश के सारे शहरों के लोग इसी एक जगह इकट्ठा हो जायेंगे और ऐसा हुआ तो यह किसी बड़ी प्राकृतिक आपदा से कम नहीं होगा। बाढ़, तूफान, सुनामी या भूकंप से अधिक भयावना, क्योंकि यहां पानी-पत्थर-हवा-धूल नहीं, मनुष्य इकट्ठा होकर समुद्र बना रहे थे।

शहर में कफ्र्यू और देश में आपातकाल लगा दिया गया।

चारों ओर, चप्पे-चप्पे पर पुलिस और सेना तैनात हो गयी। खुिफया, मुखबिर, जासूस सक्रिय हो गए। आसमान से भी निगरानी की जाने लगी।

लेकिन कोई कुछ बता नहीं पा रहा था कि ऐसा क्यों हो रहा है। जो लोग वहां इकट्ठा हो गए थे, वे भी नहीं बता पा रहे थे कि वे यहाँ क्यों आ गए हैं? बहुत खोजबीन और पूछताछ की गयी लेकिन कुछ भी पता नहीं चला।

फिर, जैसा होता है कि किसी बड़ी मुसीबत का दोषी कोई सबसे निकम्मा, कमज़ोर और बेकार आदमी पाया जाता है, जो यह खोज़ शुरू हुई कि इस शहर का कौन-सा आदमी सबसे बेकार, कमज़ोर है और निकम्मा है।

भला उस खड्डूस अंधे के अलावा ऐसा कोई दूसरा कैसे हो सकता था?

अंधा अपने घर के पिछवाड़े, उसी सूखे पेड़ के तने पर अपनी पीठ टिकाये हुए चुपचाप बैठा था, जब सिपाही उसे गिरफ्तार करके ले गये।

आश्चर्य कि बात यह हुई कि जैसे ही उस खड्डूस अंधे को वहां से ले जाया गया, लोगों की भीड़ छंटने लगी और देखते ही देखते वह जगह खाली हो गयी। लोग अपने अपने घरों और शहरों को लौट गये।

कहा जाता है कि उस अंधे के विरुद्ध जो अपराध कायम किये गये और उस पर जो मुकदमा चला और उसे जो सज़ा दी गयी वह सब कुछ कहीं लिखा हुआ तो नहीं मिलता, उसका कोई कागज़ी दस्तावेज़ तो कहीं उपलब्ध नहीं है, लेकिन वह न्यायाधीशों के मस्तिष्क में उस अंधे के अजीबों$गरीब गाने की बंदिश और धुनों की तरह कभी-कभी गूंजने लगता है।

इतना $िकस्सा सुनाकर मेरे स्कूल के दोस्त ने मुझसे पूछा था- 'जानते हो जज ने अंधे को क्या सज़ा दी?'

मेरे 'नहीं' कहने पर दोस्त ने बताया - 'जज ने उनकी दोनों आँखें फोड़ देने की सज़ा सुनाई थी।'

मेरे बचपन के दिनों का वह दोस्त, जिसने यह िकस्सा सुनाया था, वह बाद में आध्यात्मिक हो गया था और किसी साधू की तरह जंगल में किसी पेड़ के तने पर अपनी पीठ टिकाये बैठा रहता था।

कभी-कभी जब मैं शहर से अपने गाँव जाता हूँ तो  कभी-कभी पास के जंगल में उससे मिलने भी चला जाता हूँ। मैं उसे समझाना चाहता हूँ कि वह सोचना छोड़ दे।

क्योंकि वह यह पहेली कभी नहीं सुलझा पायेगा कि इस कहानी में आिखर अंधा कौन है?

और क्या उस मनहूस अंधे का, सज़ा पाने के बाद, सोचना और सपने देखना छूट गया था?

मैं अपने दोस्त को यही समझाना चाहता हूँ कि ज़्यादा सोचने पर उसे भी सज़ा मिल सकती है।

 

 

(पिछले दिनों एक 90 प्रतिशत अपाहिज को, जो हमेशा 'व्हील-चेयर' पर रहता था, उसे एक निचली अदालत के जज द्वारा आजीवन कारावास की सज़ा सुनाये जाने के बाद यह नोट. शायद वह अब किसी जेल के कमरे में अपनी पहियों वाली कुर्सी पर अकेला बैठा रहेगा।)


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