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जुलाई - 2017

ध्येय का धैर्य

अविनाश मिश्र

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हरीश चंद्र पांडे की कविता-सृष्टि पर एकाग्र


समादृत साहित्यकार विश्वनाथ त्रिपाठी को 'जनसत्ता' में यह लिखे हुए कि हरीश चंद्र पांडे हिंदी कविता की मुख्यधारा के शोर से दूर हैं, डेढ़ दशक से भी ज्यादा वक्त गुजर चुका है। इस दरमियान हरीश चंद्र पांडेय की कविताओं पर पर्याप्त समीक्षात्मक लेखन हुआ है और उन्हें हिंदी कविता की मुख्यधारा के शोर में शरीक कर लिया गया है। यह सुखद है कि इस प्रक्रिया में उनका कवि-व्यक्तित्व खोया नहीं है और वह बराबर इस प्रकार की कविताएं मुमकिन करते आए हैं जिन्हें एक औसत कविता-समय में बेहतर कहा जा सकता है। लंबे धैर्य के बाद प्राप्त हुई स्वीकार्यता प्राय: लंबी दूरियां तय करती है और विचलन भी उसमें कुछ कम होते हैं।

किसी सस्तेपन से फूटी हों
अमरता की कोपलें
कभी नहीं देखा गया ऐसा
    [ तुम्हारा नाम ]

आचार्य रामचंद्र शुक्ल से लेकर सुबोध शुक्ल तक आते-आते हिंदी में आलोचना की भाषा अब लगभग ढह चुकी है। रीढ़ और मस्तिष्क दोनों ही खोकर इसने अपनी मौजूदा स्थिति को बेहद लचर कर लिया है। इसमें प्रयोगों, तथ्यों और सुंदर वाक्यों का घोर अभाव है। सारयुक्त श्रम विसर्जित हो चुका है। लेकिन इस संकट में कोई घबराता इसलिए नहीं है, क्योंकि हमारे पास नामवर सिंह से लेकर विजय कुमार तक सबके लघु संस्करण उपलब्ध हैं। ये संस्करण भी अपने पूर्ववर्तियों की तरह ही भरपूर उद्धरणवादी, उबाऊ और दिलदुखाऊ हैं। कहने का आशय यह है कि कैसे भी नए संस्करण अब नहीं हैं, सब जन्म से ही चिन्ह विशेष साथ लेकर आ रहे हैं। यह हिंदी आलोचना का अकाल है— रहस्यमय, अपाठ्य और अप्रासंगिक। इस प्रकार की आलोचना प्राय: बहुत बिखरे हुए प्रवचनात्मक अंधकार से शुरू होने को विवश है। उदाहरण के लिए वह अगर हरीश चंद्र पांडे की कविताओं पर केंद्रित हो तब उसकी यह नियति है कि वह पूंजी और बाजार के विरोध में पहले एक लंबा प्रवचन दे और फिर कुछ पंक्तियों बाद यह कहे कि बिल्कुल यही सब कुछ हरीश चंद्र पांडे की कविताओं में दिखाई देता है या बहुत मुमकिन है कि वह समाज, संस्कृति और राजनीति के पतन से प्रारंभ करे और कहे कि जब हम हरीश चंद्र पांडे की कविताएं पढ़ते हैं तब इस पतन को पहचान लेते हैं, या वह यों शुरू भी हो सकती है और यों ही खत्म भी कि हरीश चंद्र पांडे हमारे समय के एक उल्लेखनीय/महत्वपूर्ण कवि हैं और इन्हें पढ़ते हुए मुक्तिबोध और शमशेर की ये कविता-पंक्तियां क्रमश: याद आती हैं :

जो है उससे बेहतर चाहिए
पूरी दुनिया साफ करने के लिए मेहतर चाहिए  

* * *

मुझको मिलते हैं अदीब और कलाकार बहुत
लेकिन इंसान के दर्शन हैं मुहाल          

आज से करीब दो दशक से भी ज्यादा पुरानी एक बातचीत में हिंदी आलोचना के समग्र रूप पर कृष्ण बलदेव वैद से बात करते हुए नेमिचंद्र जैन जो कहते हैं, जरा उसे पढ़ें:

''आलोचना के नाम पर जो लिखा गया है, वह ज्यादातर सूचना देने का काम है, रचना की अच्छाई-बुराई बताने वाला काम है। पर क्या आलोचना ऐसे दूसरे दर्जे का काम ही है। कोई भी श्रेष्ठ रचना जिंदगी के अनुभव और उसके ऊपर चिंतन-मनन से निकलती है। उसी तरह, मेरी राय में, श्रेष्ठ और सार्थक आलोचना वह है जो पूरी जिंदगी के साथ-साथ एक रचना के भी अनुभव से और उसके ऊपर सोच-विचार से बनती है। अगर इन दोनों चीजों को जोड़ पा रहे हैं, यानी आप एक तरह से यथार्थ की पुनर्रचना कर रहे हैं आलोचना में, तब तो आलोचना कुछ देती है। तब वह रचना की, रचनाकार की भी, शायद मदद करती है, और नए विचार, नए सूत्र आगे लाती है। पर अगर वह केवल जो कुछ पहले से मौजूद है, उसका किसी न किसी रूप में विवरण देती है तो वह नया कुछ नहीं लाती। आमतौर पर आलोचना या तो केवल विवरण है, या किसी न किसी पहले से तय पैमाने पर उसको अच्छा-बुरा कहने की कोशिश है। वास्तविक और सार्थक आलोचना वही है जो यह संप्रेषित कर सके कि रचना एक अनुभव है पूरा का पूरा, और उस अनुभव से गुजरकर आप क्या हो गए हैं, अब पूरी दुनिया कैसी दिख रही है, उस रचना से गुजरने के बाद। यह दृष्टि हमारी आलोचना में शायद नहीं है।''
 बहरहाल, इस दिलदुखाऊ उद्धरण के बाद हरीश चंद्र पांडे की कविता-सृष्टि पर एकाग्र प्रस्तुत लेख को आगे बढ़ाते हुए इन पंक्तियों का लेखक (इसे भी 'इंपले' कहकर मेधावी आलोचक संजीव कुमार काफी रूढ़ कर चुके हैं) जानता है कि यह लेख भी हिंदी आलोचना की मौजूदा संकटपूर्ण स्थिति से बाहर नहीं है, इसलिए यहां आकर उसे हरीश चंद्र पांडे की कविताओं के संदर्भ में एक उद्धरण चेंपना चाहिए, तो मंगलेश डबराल के कौल के मुताबिक :
''ज्यादातर समकालीन कवियों की तरह हरीश चंद्र पांडेय भी निम्नमध्यवर्गीय संवेदना के कवि हैं, लेकिन उनमें वह नकारात्मकता, जटिलता, यातना-बोध, अन्याय के प्रति क्रोध और तिरस्कार और अपने समय से हताशा नहीं है जो हमारे दौर के बहुत से कवियों में दिखती है।''
यह जो हमारे दौर के बहुत से कवियों में दिखता है, वह हरीश चंद्र पांडे में इसलिए नजर नहीं आता है क्योंकि उनके कवि में एक स्मृत्यात्मक भोलापन है। एक सरलता है, जो उनकी कविता के अब तक हुए पाठ में बहुत सपाट ढंग से विशिष्ट और उज्ज्वल दृश्य होती है। इस सरलता के संदर्भ में आए विशेषण संदेह से बाहर हैं, लेकिन इसके लिए किए गए विश्लेषण नहीं, क्योंकि ये बहुत एकायामी हंै। फॉरमूलाग्रस्त लगते हुए भी, फॉरमूलेबाजी से बहुत दूर एक बहुत शरीफ कविता बहुत बेहतर ढंग से एक बहुत खतरनाक दौर में हरीश चंद्र पांडे कैसे संभव कर पाए, इसकी जांच होनी अब तक बाकी है।

शब्द की काया को
समय के खोल की जरूरत है क्या?
    [ शब्द ]

हरीश चंद्र पांडे कभी भी किसी भी स्पेस में उम्मीद और विचार और छूट चुकी स्थानिकताओं को भूलकर कविताएं नहीं रचते हैं। इस प्रकार के विस्मरण से उनकी कविताएं निर्भार हैं। असहमतियां भी उनकी बहुत स्पष्ट रही आई हैं, जहां टूटना भी खिंचता है देर तक। उनके नजदीक एक मूलार्थान्वेषी नजर है। वह संश्लिष्टतों में न उलझकर वहां उंगली रखते हैं, जहां अभी बहुत कुछ बचा है :

किसी औरत को स्कूटर में पीछे बैठी देख
आप यहां से सोचना शुरू नहीं करते
कि ये पटाई हुई औरत है
किसी बच्चे को आदमी के साथ घूमते देख
आप यह नहीं सोचते
कि यह उसकी रखैल का बेटा है

अभी बहुत कुछ बचा है
जिसे और बिगडऩे से बचाया जा सकता है
    [ अभी बहुत कुछ बचा है ]

हरीश चंद्र पांडे की कविताएं सामान्य समझ का अतिक्रमण करने के फेर में वहां कोई समयविरोधी सच प्रतिस्थापित नहीं करती हैं, बल्कि वह सामान्य समझ को मांजकर बदलाव के लिए उसे और विवेकपूर्ण बनाना चाहती हैं। इन कविताओं का कवि सभ्यता को विडंबनात्मक बोध के साथ देखता जरूर है, लेकिन कभी नाउम्मीद नहीं होता। मुक्ति की संभावना के प्रति वह सहज समर्पित है और वह लगातार इस प्रकार की जगहें तलाश रहा है, जहां मुक्ति के लिए संघर्ष जारी है। इस स्वर के सहारे उसकी कविताएं बहुधा एक सार्थक वक्तव्य बनती हैं :

न काटो पेड़
पेड़ मंच हैं पक्षियों के

पक्षी यहां से अपनी बात पूरी आजादी से उठाते हैं

न काटो पेड़
एक बहस करता हुआ आदमी कटता है
    [ मंच ]

एक सतत मुक्ति-विकल संघर्ष और उम्मीद का दामन न छोडऩे की यह अदा हरीश चंद्र पांडे को अपने निकट पूर्ववर्तियों में वीरेन डंगवाल से जोड़ती है। यहां यह ध्यान देने योग्य है कि अपराधबोधग्रस्तता और नाउम्मीदी की प्रमुखता वाली हिंदी की आठवें दशक की कविता में वीरेन डंगवाल एकमात्र उम्मीद नहीं छोडऩे वाले कवि हैं।
नवें दशक में दृश्य में आने और अपनी काव्य-अस्मिता अर्जित करने वाले हरीश चंद्र पांडे का रुख आठवें दशक की कविता को लेकर बहुत मध्यमार्गी किस्म का है। वह अपने संवेदनों और सौंदर्य-चेतना में आठवें दशक की तरफ ही झुके हुए प्रतीत होते हैं। पेड़ों, पक्षियों और बच्चों को लेकर वह कविता में बराबर ठोस और सरल वाक्य लिखते चले जाते हैं। इस प्रकार वह एक ऐसी कविता-सृष्टि निर्मित करते हैं जिसमें जोखिम कुछ कम हैं। यहां कविता रोज बनती है, उम्मीद और धैर्य रखती है और अंतत: सहज, स्वीकृत तथा मान्य होती है। यह कविता साधारण वस्तुओं और दृश्य में रूढ़ हो चुके जीवनानुभवों को एक चमक के साथ व्यक्त करती है और इतनी आसानी से अच्छी लगती है कि सरलीकरण का शिकार प्रतीत होती है। यह एक निम्नमध्यवर्गीय बोध ही है और इसे हरीश चंद्र पांडे की कविताओं के समीक्षकों ने ठीक ही पहचाना है। यह बोध जीवन में ठीक-ठाक हो जाने भर से संतुष्ट हो जाने वाला होता है। वह और बेहतर स्थिति के लिए नए संघर्ष इसलिए नहीं करता, क्योंकि इसमें ठीक-ठाक स्थिति के छूट जाने का खतरा साथ चलता रहता है :
 
अगर कहूंगा शून्य
तो ढूंढऩे लग जाएंगे बहुत-से लोग बहुत कुछ

इसलिए कहता हूं खालीपन
    [ असहमति ]

एक कवि के द्वारा अर्जित की हुई भाषा जब टूटकर नए सिरे से बनती है, तब कवि-समय कई नई मुसीबतों के सामने आ खड़ा होता है। भाषा टूटे इसलिए खुद को भी तोडऩा पड़ता है। अज्ञेय के कविता-संग्रह 'क्योंकि मैं उसे जानता हूं' पर लिखते हुए मलयज को याद करें :
''अज्ञेय ने अपने अतीत से अपने को तोड़कर भविष्य में जीने की कोशिश की है। पर अपने को तोडऩा कभी-कभी कितनी बड़ी दुर्घटना बन जाता है, यह इन कविताओं के वर्तमान से स्पष्ट है।''
इस उद्धरण के आलोक में अगर हरीश चंद्र पांडे की कविता-सृष्टि का वर्तमान देखें, तब देख सकते हैं कि उनके कवि ने अतीत से खुद को अलग कर भविष्य में जीने के लिए कोई तोड़-फोड़ नहीं की है, बल्कि उनकी कविता उनके मार्फत ही तैयार स्मृति के ऐसे सांचों से होकर बाहर आई जो टूटने के लिए कविताओं को समय में सार्वजनिक करते हैं। यहां यह यकीन प्रबल है कि जो चीज कभी टूटती नहीं, वह ऊब है :

जो टूटता है रोज
बल्कि दिन में कई-कई बार
बल्कि कभी घर पहुंचने से पहले ही रास्ते में
वही अमर है
    [ खिलौने अमर हैं ]

यह एक अनचाहा अमरत्व है और उन्हें मिलता है जो भविष्य के लिए स्मृति और वर्तमान से पलायन नहीं करते। जिंदगी और कविता में नई दूरियां और नए मरहले तय करते हुए हरीश चंद्र पांडे और उनके कवि ने अब तक अपने उपजीव्य को बदला नहीं है और उनका कवि-कर्म बहुत बुनियादी सिद्धांतों से संचालित होता रहा है। यह होना धैर्य की प्रमुखता लिए हुए है। इस धैर्य की परीक्षा किसी खौफ या प्रार्थना में झुकी हुई नहीं है :

ये सारे मौन स्थिर चुप लोग
आग और हरकतों से भरे हैं

जो कल सड़कों पर दिखे थे
वही हैं ये
ये कल फिर सड़कों पर दिख सकते हैं
    [ परीक्षा कक्ष में ]

हिंदी साहित्य में आलोचना-पद्धतियां किसी रचनाकार के मूल्यांकन में — व्यावहारिक राजनीति से संचालित होने के बावजूद — व्यावहारिक राजनीति को समझने की कोशिश नहीं करती हैं। लेकिन यहां अगर इस तरह से समझें तो समझ सकते हैं कि हरीश चंद्र पांडे के धैर्य को उसका उचित दाम देने में इलाहाबाद की एक बड़ी भूमिका संयोग की तरह उपस्थित है। इन भूमिकाओं के — जो खत्म नहीं होतीं — विश्लेषण में न जाते हुए यह कहना चाहिए कि हरीश चंद्र पांडे की कविताएं हिंदी साहित्य के संसार में अपने आगमन से ही एक धैर्य साथ लिए हुए आईं। कुछ इस तरह के एक वक्त में जब सब कुछ बहुत जल्दी हड़पने की होड़ थी, वे बहुत देर में शुरू हुईं और शुरुआत के बाद भी उन्होंने बहुत देर तक धैर्य बनाए रखा। कवि अधैर्य की सीमा और उसकी परिणतियों से परिचित रहा :

अपने को ही परखने का ऐसा अधैर्य
और कहां
सिवा छोटी कक्षाओं के
    [ अधैर्य ]

आत्मान्वेषण के प्रति अधैर्य से बचकर हरीश चंद्र पांडे की कविता-सृष्टि और उनकी कवि-आयु में धैर्य एक अनिवार्य प्रत्यय की तरह उपस्थित है। धैर्य :

पतली सलाइयों पर मारा गया पहला फंदा

जिस चोट पर भरभराकर गिरा है
लंबा-चौड़ा पेड़
उस अंतिम चोट से पहले की सारी चोटें

दूध का धैर्य दही
सांस खींचना धैर्य दौडऩे के पहले
पालक के मुंह पर छींटे मारना छप्प-छप्प
सुबह-सुबह टमाटरों को पोंछना अंगोछे से
मटर के ढेर पर देर रात
मोमबत्ती का जलना

धैर्य, फल होने की यात्रा में
एक बीज का
पेड़ होना

धैर्य पूरा
आधा-अधूरा नहीं

धैर्य कान का कच्चा नहीं
    [ धैर्य ]

हरीश चंद्र पांडेय के तीसरे कविता-संग्रह 'भूमिकाएं खत्म नहीं होतीं' की समीक्षा लिखते हुए विजय कुमार एक जगह कहते हैं : ''कवि राग के ऐश्वर्य को जानता है।'' इस वाक्य को आगे बढ़ाएं तब कह सकते हैं कि यह राग ध्येय के धैर्य का राग है— प्रतिबद्ध और समय के अंतर्विरोधों से जुड़ता हुआ। इस राग के कवि में वह बौद्धिकता नहीं है जो अकर्तव्य से ग्रस्त और संचालित होती है, बल्कि वह सरलता है जो संकट में साथ खड़ी दिखाई देती है।
हरीश चंद्र पांडे के पहले से लगते दूसरे कविता-संग्रह 'एक बुरूंश कहीं खिलता है' में ही राजेंद्र कुमार के शब्दों में यह बात दर्ज हो गई थी : ''हड़बड़ी में कवि होना हरीश चंद्र पांडे की फितरत में नहीं है।'' इस संग्रह के महत्व को हिंदी साहित्य के संसार में कुछ देर से पहचाना गया, जबकि इस संग्रह में समय को समय से पहचानने की मूल्यवान कोशिश थी :

तेरह वसंतों में जितनी शक्ति और
जितना अनुभव संचित हो सकता है
सब झोंक दिया था उसने
    [ इक्कीसवीं सदी की ओर ]

इस संग्रह की कविताओं में स्थितप्रज्ञता के प्रति अस्वीकार, परिवर्तन के प्रति धैर्य और एक नए मौसम की आहटें थीं, लेकिन हमारी कविता और आलोचना — यानी काली आंखें, सफेद बाल, पूर्वाग्रहग्रसित, संपर्कवादी, पुरस्कारप्रेरित, राजधानीकेंद्रित, व्यस्तातिव्यस्त, मंच की धनी, तालीतलब — ने इन पर तत्काल कोई खास ध्यान नहीं दिया। दरअसल, हमारे समादृत कवियों और आलोचकों का मुख्य व्यसन और व्यवसाय निकृष्टता को प्रतिष्ठित करना रहा है और है। वे अपने आलेखों, साक्षात्कारों और वक्तव्यों में प्राय: नकली नामों को उजागर कर वास्तविक प्रतिभाओं को दबाने का काम करते आए हैं। इस प्रकार के घटनाक्रमों के बहुत बाद की बात है जब वरिष्ठ हो चले हरीश चंद्र पांडेय के कवि ने यह दर्ज किया :

बर्बादी का भी अपना एक संगीत हुआ करता है
    [ सार्वजनिक नल ]

और :

चाहे से, न चाहा गया अधिक मिलता है कभी-कभी     
    [ उत्खनन ]

उत्खनन के बगैर उत्थान और पतन को समझना संभव नहीं है। भाषा और प्रतिभा कोई अचल संपत्ति नहीं हैं, वे भी खर्च होती रहती हैं। उन्हें संघर्ष से सतत अर्जित करते रहना होता है। कुछ खत्म हो जाने का या कुछ खो देने का ज्ञान और पूर्वानुमान अगर एक रचनाकार में बराबर मौजूद रहता है, तब वह बराबर भाषा और भाषा में दृष्टि को संभाले रखता है। इन सूक्तियों के सौजन्य से यह तथ्य बहुत स्पष्ट नजर आता है कि इस प्रकार का ज्ञान और पूर्वानुमान हरीश चंद्र पांडेय की कविता-सृष्टि में आरंभ से अब तक सतत रहा है। इसलिए ही वह जड़ताओं को गतिमयता और अपूर्णताओं को उड़ान देते आए हैं। इतिहास की क्रूरता और देवत्व के छद्म को उन्होंने उसकी वर्तमानता में परखा है और भाषा का प्रयोग प्रपंच के लिए कभी नहीं किया है, बल्कि उसके जरिए अपने समय के स्पष्ट अर्थांतरों  को संभव बनाया है। यह जानते हुए भी कि — एक दिन में नहीं बन गए अक्षर/ एक दिन में नहीं बन गई वर्णमाला/ एक दिन में नहीं बन गई भाषा/ एक दिन में नहीं बन गई पुस्तक/ लेकिन/ — एक दिन में नष्ट किया जा सकता है कोई भी पुस्तकालय हरीश चंद्र पांडे वक्त जरूरत के लिए शब्द और शब्दों में उदाहरण बचाते आए हैं। बचाने की बहुलता उन्हें हिंदी कविता के नवें दशक के काव्य-व्यवहार से जोड़ती है, बावजूद इसके (जैसा कि यहां पूर्व में भी कहा गया) कि वह अपने संवेदनों और सौंदर्य-चेतना में आठवें दशक की तरफ झुके हुए प्रतीत होते हैं। लेकिन उनकी कविता आठवें दशक की कविता से इसलिए भी कुछ भिन्न है, क्योंकि उनका देखना सीमित नहीं है। वह सब कुछ को निगाह देते हैं और बहुत साधारणता को भी बहुत सारयुक्त विधि से उसके मूलार्थ में अभिव्यक्त, अर्थान्वित और संप्रेषित कर देते हैं। उनकी काव्य-दृष्टि उस दृश्य-सामथ्र्य, उस दृश्य-संभावना को जानती है जो उनकी कविता को पूर्ण और प्रासंगिक बना सकती है :

जितने भर में छपी है कविता
क्या उतना गंदा पानी
छंटा होगा?
    [ गंदा पानी ]

हरीश चंद्र पांडे एक शब्द-सजग कवि हैं। उनके यहां शब्द यूं ही नहीं आ जाते हैं। वह नीति-वाक्यों तथा दे दिए गए शब्दों और नामों का भ्रम और उनके पीछे छिपी हिंसा को जानते हैं। भयानक शब्द-जाल से भरे हुए एक कविता-समय में वह शब्दों को उनकी सही जगह बताते हैं। इस शब्द-सजगता में भी मौजूदा कविता-समय के मन-मिजाज और स्थिति को देखते हुए उनके कविता-संग्रह संख्या के लिहाज से कुछ कम नहीं हैं। कविताओं ने उनके पास आना कभी कम नहीं किया है, यों उन्हें पढ़ते हुए लगता है। इस काव्य-संपन्नता में वह खुद को दुहराते हुए लग सकते हैं, लेकिन दुहराते नहीं हैं। उनकी सरलताएं उनकी मनुष्य-केंद्रित दृष्टि की देन प्रतीत होती हैं। सब तरफ फैली विडंबनाओं के बीच वह अंतत: मनुष्यता ही है जो हरीश चंद्र पांडे की कविता-सृष्टि में खुद को बार-बार नए सिरे से दुहराती है। वह अपने विकास-क्रम में सरलता का अतिक्रमण इसलिए नहीं करते हैं, क्योंकि वह संप्रेषण का अर्जित विवेक नष्ट नहीं करना चाहते। हिंदी साहित्य के संसार में उन्हें सब कुछ बहुत धीरे-धीरे मिलता रहा है। एक कवि को इस रूप में देखना बहुत उम्मीद देता है कि प्रशस्तियों और प्राप्तियों के बीच वह अपने ध्येय का धैर्य बड़ी काव्यात्मकता के साथ संभाले हुए है और सही बने रहने की कोशिश में लगा हुआ है। एक कवि और कर ही क्या सकता है। 
***
संदर्भ :
प्रस्तुत आलेख में हरीश चंद्र पांडे के अब तक प्रकाशित चार में से तीन कविता-संग्रहों — साहित्य संगम, इलाहाबाद से प्रकाशित 'एक बुरूंश कहीं खिलता है' (द्वितीय संस्करण, 2001), भारतीय ज्ञानपीठ, नई दिल्ली से प्रकाशित 'भूमिकाएं खत्म नहीं होतीं' (2006) और 'असहमति' (2013) को आधार बनाया गया है। इससे अलग 'पहल' के 96वें अंक, 'नया ज्ञानोदय' के जनवरी-2016 अंक और 'समकालीन जनमत' के जनवरी-2017 अंक में प्रकाशित उनकी कविताओं से भी मदद ली गई है। मंगलेश डबराल को उद्धृत करने के लिए 'कथा' में प्रकाशित आलेख 'कविता में इंसान' को धैर्य से पढ़ा गया है। विजय कुमार का वाक्य 'चिंतन दिशा' में प्रकाशित आलेख 'भूमिकाएं इसलिए कभी खत्म नहीं होतीं' से और राजेंद्र कुमार का वाक्य 'एक बुरूंश कहीं खिलता है' के ब्लर्ब से उतारा गया है। इसके अतिरिक्त समय-समय पर 'पहल', 'पक्षधर', 'कथा' और 'अनहद' में हरीश चंद्र पांडे के कृतित्व पर केंद्रित आलेखों को भी पाठ में लाया गया है, यह अलग बात है कि प्रयोग में नहीं। मलयज का उद्धरण उनकी किताब 'कविता से साक्षात्कार' में प्रकाशित 'तीसरे अज्ञेय की तलाश' से और नेमिचंद्र जैन का उद्धरण कृष्ण बलदेव वैद की किताब 'शिकस्त की आवाज' से है। आलेख के अंतिम दो वाक्य वीरेन डंगवाल की एक कविता 'कवि' से प्रेरित हैं।    


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