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जुलाई - 2017

जसिंता केरकेट्टा की कवितायें

जसिंता केरकेट्टा

शहर, गाय और घास

मैं नहीं जानता
चारागाहों से शहर तक
गायों की लंबी यात्रा के लिए
किसने बनवाई सड़कें?
कौन कर रहा गायब
पृथ्वी से उनके हिस्से की घास?
मैं यह भी नहीं जानता
किसने उड़ाई यह अफवाह
कि शहर के पास
घास उगा लेने की ताकत है।
वे घासों की तलाश में
अपनी पीठ पर
उम्मीद की गठरी बांध निकल पड़ीं
पूरे परिवार के साथ
उस रास्ते पर जो जाती थी
शहर की ओर
वहां भूख की सींघों ने
तोड़ दिया उनका सारा भ्रम,
वे तलाशने लगीं
अपने गांव-घरों और चारागाहों के रास्ते
बंद थे सारे रास्ते
उंची इमारतों से।
सड़कों पर पड़ी उदास
वे शामिल हो गई
बच्चों की टोलियों में,
टोलियां जो भोर होते ही
चुनने लगती हैं प्लास्टिक कचरे से,
बच्चों के नन्हें हाथों के बीच
कचरे की ढेर में फंसा है अब
उनका मुंह भी।
सड़क पर बेतहाशा भटकती हुई
उन्होंने पहली बार देखा
शहर में इंसान टांग रहे हैं
इंसानों को पेड़ पर
और पहली बार जाना
शहर के पास
घास उगाने की कोई ताकत नहीं,
सिहर उठी गायें धड़ाम से
बैठ गई सड़क पर
और तब से बैठी हैं
शहर के बीचों बीच
किसी धरने की तरह,
यह मांगते हुए कि
वे लौट जाना चाहती हैं
अपनी घासों के पास,
कि वे जाना चाहती है
जीवित चारागाहों तक
जो अब भी कहीं उनके इंतजार में हैं,
कि वे गुम हो जाना चाहती हैं
उन जंगलों में
जहां पेड़ और पत्ते तो बहुत होंगे
पर आदमी को न आती होगी
किसी आदमी को
पेड़ पर टांगने की कला...।


शहर की नाक

हर मौसम में यह शहर
चढ़ाए रहता है अपनी आंखों पर
एक काला चश्मा
जिससे यह भ्रम होता रहे
कि चश्मे के उस पार से
वह देखता होगा सबकुछ
मगर शहर के पास आंखें नहीं है
चेहरे पर एक लंबी नाक भर है

इसके पास
आदमी की गंध नहीं
मगर आदमी के पास
शहर की गंध है
यह नहीं जानता
क्या है आदमी होना?
इसलिए इसका पहला पाठ यही है
कि रुपयों के बिना इस शहर में
आदमी हो पाना मुश्किल है

यह इंसानों की गंध नहीं पहचानता
इसलिए सूंघ लेता है दूर से ही
सड़क पर या गलियों में,
झुंड में या फिर अकेले
राह चलती लड़कियों की गंध
और टूट पड़ता है एक साथ
जैसे कुत्तों की झुंड को
दिख गया हो
कोई मांस का टुकड़ा

यह पहचान लेता है
कन्या - भ्रूण की गंध
जैसे पहचानाता है
धूल की गंध,
लोहे की गंध,
बारूद की गंध,
मांस की गंध
खून की गंध

मिट्टी की गंध,
बारिश की गंध,
पेड़ की गंध,
जंगल की गंध
आदमी की गंध
बस इसकी कल्पना में है

जब कभी टकराती है
इसकी नाक से कोई आदिम गंध
एक आदमी निकल आता है
इसकी कल्पनाओं से बाहर
और यह शहर छूकर देखता है
उस आदमी की आंखें बड़ी हैं
मगर नाक है छोटी सी
वह खुश होता है यह सोच
अच्छा है!
लंबी नाक सिर्फ उसी के पास है
और गर्व से अपना सीना फुलाता है
पूछता है छोटी नाक वालों को
होती होगी दिक्कत
गंधों को पहचानने में,

आदिम गंध से सना आदमी कहता है
जब हर चीज खड़ी हो एक साथ
अपने अनूठेपन पर बिना बोले
किसी की भिन्नता को
निम्नता की तराजू पर बिना तौले
तब क्या जरूरत है लंबी नाक की?

क्या इतना काफी नहीं
कि वह पहचानता है
पृथ्वी की आत्मा को,
पहाड़ की आवाज को,
समय की पीड़ा को,
जमीन की धमनियों में
दौड़ते रक्त के मर्म को
और पृथ्वी की देह से उठती इंसानी गंध को...?


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