चौदह पीढिय़ाँ खेल रहीं थी धूप में कमर के नीचे तक लहराते बाल समय उच्चार रहा था प्रेम बारिश के इंतजार में पुलकित थी मिट्टी अग्नि के सहयोग से स्वाद-गंध से महक रहा था पूरा परिवेश।
लेकिन फिर जो हुआ भयानक था वह महापुरुष जिन्होंने तूफान के बारे में हमेशा आगाह किया, पहाड़ी रास्ते पर ऐसे लुढ़के कि ढूंढ़े नहीं मिले।
वृक्षों से पहले पत्ते गायब हुये फिर पूरे के पूरे वृक्ष। फूल बदरंग होते गये। मनुष्य की तुलना शेर, लोमड़ी और कुत्तों से होने लगी कौन कितनी तेज़ आवाज़ में भौंकता या गुर्राता है इससे तय होने लगा मानवता का मापदण्ड। सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण शब्द हो गया शौर्य और सबसे कम वज़नदार हुआ प्रेम
जंग, जंग, जंग के उन्माद में कान फटने लगे विश्वास ध्वस्त हुये चौदह पीढिय़ों की त्वचा जल गयी धूप में।
ईश्वर
परम क्षमतावान ईश्वर जब सामने आ ही गये तो दोस्तों ने दौड़ लगा दी। एक ठोकर खाकर गिरा और थर-थर काँपने लगा, एक सीधा लिफ्ट में जा घुस और चढ़ गया छ: मंज़िल बाकी लोग सुरक्षित दूरी पर मँुह फाड़े खड़े रहे।
मैं खड़ा रहा अपनी जगह पर ईश्वर आये न हाथ मिलाया न नमस्ते किया - ईश्वर ने सूँघा मुझे कहा- तुम्हारे भीतर से मनुष्य की गंध आ रही है तुम मेरे किसी काम के नहीं मैंने भी कहा - आपके शरीर से मनुष्य की गंध नहीं आ रही है आप मेरे किसी काम के नहीं।
ईश्वर के जाने के बाद दोस्त भागते हुए आये मेरे पास- 'क्या कहा ईश्वर ने तुमने क्या कहा'- पूछा दोस्तों ने। अरे मूर्खों 'वो ईश्वर नहीं ईश्वर का प्रेत था'- मैंने कहा।
अभिव्यक्ति का गीत
जल रहा हूँ फैल रहा हूँ पानी में भी जल रहा हूँ इस ओर है पानी-पानी उस ओर है गीली धूप बीच में नदी उदास है।
जड़ें नहीं है गुल्म-लता तक खींच रहे हैं! मोमबत्ती में मेधा जलती आखें किसकी इंतज़ार में तकतीं, थकतीं।
अश्रुजल का खारा पानी सोख रहा है जीवन-जल को बँटी-बँटाई धरती मिली है पिटी-पिटाई भाषा मुहावरों के अर्थ घिस गये वाक्यों का रह गया ढाँचा।