काटे जाने तक पेड़ भी एक पता है आँधियों में बराबर होने से पहले रेत का एक ढूह भी एक मौसम के लिए तो खेत में खड़ी बाजरे की फ़सल भी एक पता है
जैसे सेंट पीटर्सबर्ग विशाल हर्मिटिज संग्रहालय में 2.10 पर बंद घड़ी एक महान क्रांति के सम्भव हो जाने के चरम क्षण का पता है वैसे ही पुरी के सागर तट पर उठी एक प्रचंड लहर किसी के साँवले चेहरे पर झलके उजले विस्मय का अजीब-अजीब पते होते हैं लोगों के कोई अपने कमरे के बाहर टँगी नेम प्लेट में रहता है तो कोई किस फ़ाइल पर टँकी एक घुग्गी में कोई एक ईमेल आईडी पर तो कोई अपनी वॉल या हैश टैग पर किसी पत्रिका का कोई अंक उठाकर देख लीजिए पता लग जाएगा कि सारे लेखक और कवि घर में नहीं किसी मोबाइल नम्बर के वाहक सेलफ़ोन में रहते हैं
कोई एक पते पर पूरा का पूरा नहीं रहता जैसे मेरी आत्मा गाँव की उस कोठरी में रहती है जहाँ मैं पैदा हुआ था मगर शरीर एक महानगर के आलीशान बंगले में मेरी हैसियत मेरे काले कारनामों में मगर कंगाली मेरे क़र्ज़ कूटते बैंक खाते में मेरी ताकत मेरी बोली की मिठास में मगर मेरी सारी कमजोरियाँ मेरी कविताओं
कभी चाँद सूत कातने वाली एक बुढिय़ा का पता था और अब उन कामयाब लम्हों का जब मानव के चरण वहाँ पड़े मगर वह अब भी उन बादलों का पता है जिनका अवगुंठन यह सुनिश्चित करता है कि उसका चेहरा आज किसी को न दिखे
होने को तो समय भी एक पता है कुछ कवि आज भी वीरगाथा काल में बसते हैं कुछ भक्तिकाल में विहँसते हैं कुछ रीतिकाल में लसते हैं मगर अंतत: उत्तर आधुनिक रिज़ॉर्ट में जा फँसते हैं दरअसल तुम वहाँ नहीं रहते कविवर जहाँ लिखते हो रहते तो वहाँ हो जहाँ लोगों को दिखते हो रहने को तो एक फ़रार हत्यारा और डिमेंशिया का मारा एक खोया हुआ बूढ़ा भी कहीं न कहीं रहता है मगर पता तो वही है जो किसी न किसी जाननेवाले को पता हो
विज्ञान हमेशा आज में रहता है कला सर्वकाल में किंतु सत्ता चाहे जितनी सुहासिनी-सुमधुरभाषिणी हो रहती मध्यकाल में ही है
वे मुझसे मेरा स्थायी पता पूछते हैं और तब मुझे याद आता है कि मेरा एक स्थायी पता भी है जहाँ रहना तो दूर गए भी काफी दिन भए और मैं अपने वर्तमान पते के गालों पर एक हल्की चपत लगाकर उन्हें कहता हूँ दुनिया तो कब की बदल चुकी मुंशी जी यहाँ तो फुटपाथ और लैम्प पोस्ट भी स्थायी पते की हैसियत रखते हैं!
पीले दरख्त और ताज़ादम फूलों की कविता
1
मैंने देखा कि दरख्त पीले पड़ते जा रहे हैं और रात एक शाम की तरह धूसर और उदास है कल रात-भर पत्तों के झडऩे की आवाज़ आती रही लगा कि सितारे भी झड़ रहे हैं साथ-साथ मेरे चश्मे के शीशे बूढ़े हो गए हैं कभी भी हो सकते हैं सुपुर्दे ख़ाक दुकान ए चश्म ऊंची हैं और मेरे पैर कमज़ोर वे रास्ते जो जाते है दुनिया के मेले तक परछाइयों से भरे है
किनकी परछाइयां हैं ये कहां गये वे लोग जो जाते थे इसी रास्ते दुनिया के मेले तक कैसे ढूंढू उन्हें कि मेरे पैर कमज़ोर और चश्मे के शीशे बूढ़े हो गए हैं
आटे की वह बोरी जिसे चलना था साल-दर-साल ओस की बारिश में बह गयी खेत खाली हैं और गोदाम ऊंची दुकानों के पार मरने लगी है भूख मर जाएगी धीरे-धीरे क्या मतलब भूख का अनाज़ों से खाली दुनिया में
रातें अब ज़्यादा और ज़्यादा धूसर गिनती के सितारे बचे हैं संतरे की फांक-भर चांद मेरी ही तरह अकेला है इसके मरते ही सुबह होगी
लो हो गयी सुबह और मैंने देखा कि मेरी हंसी जा रही है गहरी चुप्पी में डूबकर पुकारा उसे और वह इत्मीनान से जाती हुई दिखती रही पत्तों और सितारों के झडऩे की रातों में शायद उनके कान भी झड़ गये कहां जाएगी वह परछाइयों से भरी दुनिया में घोड़े की तरह हिनहिनाते भौंरों की तरह गुनगुनाते बच्चों की तरह खिलखिलाते हवा की तरह आते और जाते आंचल की तरह फडफ़ड़ाते धूप और शहद और आसुओं के सौदागर शब्दों से भरा मेरा दिमाग उस बोरी की तरह खाली है बह गया जिसका आटा ओस की बारिश में कल रात
ओ मुझे छूती हुई नर्म हथेली शब्द होते तो पूछता - कैसा लगेगा तुझे मेरे बगैर?
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दुकान ए चश्म बाहर नहीं भीतर है आईना के सामने खड़े होकर निहारो अपने अक्स को उतार कर वह चश्मा जिसके शीशे बूढ़े हो गए हैं तुम्हारे अक्स की मौजूदगी दलील है तुम्हारे होने की परछाइयां हैं तो लोग भी होंगे यकीनन मेरी परछाईं नहीं बन सकती तेरे बगैर कि पेड़ के साथ ही पैदा होती है उसकी परछाई
अज़ल से अज़ल तक घूमती हुई पृथ्वी के पास अनंत पेटों को अनंतकाल तक खिलाने से कहीं अधिक आटा है मगर बोरियों के बाहर हिम्मत के झोपड़ों में जाकर देखो जतन के जांते चल रहे हैं लगातार बह रही है झुर-झुर पुरवा बयार उड़ रहीं सन जैसी उजली लटें
हंसी कहीं नहीं जाती जैसे नहीं जाते फूल वनों की काया से फूलों का मातम मत करो वे फूल जो पतझड़ के बाद खिलते हैं पतझड़ के पहले खिले फूलों से ज़्यादा ताज़ादम ज़्यादा ख़ूबसूरत होते हैं
घोड़े खरहरा के नशे में मस्त हैं भौंरे कमल-क्रोड़ में क़ैद हवा में नमी है इसीलिए थमी है बच्चे सो रहे हैं और आंचल गीले गरज़ ये कि धूप और शहद और आसुओं से सारे सौदागर अपने अपने तरीक़े से गुसल फरमा रहे हैं जल्द ही नमूदार होंगे नये विन्यासों में नयी बातें लिए वक्त के नये पन्ने पर
और नर्म हथेली से कुछ मत पूछो लामिस से छिपा है कौन सा राज़ उसकी आत्मा पसीज रही है पीते रहो चुपचाप अमरित यही है!!
गृहस्थ और गिलहरियाँ
ईशान कोने में जो आम का पेड़ है उसे काटने को मत कहो मुनिवर कि वह मेरी तृप्ति का ही नहीं दो से चार हुई गिलहरियों का भी घर है न जाने क्यों तुम्हारे शास्त्र कहते हैं कि वृक्षों की छाया घर पर न पड़े
रोज़ सुबह छींटे गए तंडुलों का नाश्ता करते क़ुदरत की इन फ़ुर्तीली संतानों को देखता हूं वे भी मुझे देखती हैं हौले से सिर उठा और झट जा छुपती हैं छत पर पड़ी किसी भी चीज़ के पीछे और मुझे दूध पीती बेटी का गुड मॉर्निंग कहकर माँ के आँचल में छुपना याद आ जाता है
स्मृति छवियाँ गिलहरियों की तरह ही तो होती है छोटी और तेज़ एक झलक जो चकित कर जाए
मुनिवर कैसे कौंधेगी यह बिजली मेरी रगों में कैसे घटित होगा यह चमत्कार आम के उस पेड़ के बिना वसंत के आते-आते गिलहरियों की गति मानो बढ़ जाती है एक ही झटके में हरे पत्तों और पीली मंजरियों के पीछे जा छिपना वसंत में ही सम्भव है जिसे आप जैसे मुनि जानें न जानें मनुष्य तो सारे के सारे जानते हैं
मगर इनकी धमाचौकड़ी से किसी भी मंजरी की एक भी कली नहीं टूटती कैसी साधना कैसा गहन सरोकार यह कविता नहीं तो और क्या है मुनिवर
और जब ऋतु गर्म और नम हो जाती है गिलहरियाँ ही जानती हैं सबसे पहले कि आम अब रसाल हो गए हैं उसके चखे आमों का स्वाद कभी लेकर तो देखिए मुनिवर आप भी गृहस्थ हो जाएँगे ईशान कोने में जो आम का पेड़ है उस पर बसी गिलहरियों की तरह!
केवल कवि
वह जो कवि है केवल कवि है क्या कविता के अलावा और कुछ भी नहीं करता मसलन खेतीबाड़ी टाइपिंग सिलाई बुनाई रफ़्फ़ू या कोई और काम जैसे करते थे कबीर रैदास
क्या वह अपने लिए रोटी भी नहीं सेंक पाता अपने कपड़े और शौचालय की सफ़ाई भी नहीं पूछा जाना चाहिए उससे कि क्या तुमने कभी किसी सूरदास को सड़क पार कराई तीमारदारी की कभी लूट और हक़ के बीच खड़े हुए किसी को कुछ पढ़ाया-सिखाया कविता के बाहर जाकर रोशनी के आगे मशाल लेकर चले बने कभी फ़र्ज़ की मिसाल अधिकारों के लिए हाहाकार के बीच मीरा की तरह भाँति-भाँति के विष पिए और पी कभी मुक्तिबोध की तरह तरह-तरह की चाय दिन-दोपहरी कभी भी खाली पेट अपनी हताश संगिनी की सूनी आँखों की आँखों के आकाश में सूखे पत्ते की तरह उड़ते-उधियाते कि एक ही ताने के बाद अपने प्रभु के अभयारण्य में जा बसे
प्रिय भक्तों कभी सोचा है कि रत्ना के पास रहकर लिखा जाता यदि रामचरितमानस तो कैसा होता।