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अप्रैल 2017

ममता सागर की कविताएं

अनुवाद : मोहन वर्मा

कविता/कन्नड



I Cried because I did not have shoes until I saw a child that did not have feet. - OSWAL DO GUAYASAM





सपने

हम कहाँ सोते हैं बिछौनों पर
सोते हैं सपनों पर।
झाड़ते हुए स्वप्न
जागते है नींद से;
सपने तितर-बितर
पसर कर पलंग पर
                   करते हैं प्रतीक्षा।
कल का सपना, परसों का सपना,
दस दिन पुराना सपना;
सपना आने वाले कल का
या फिर-
किसी भी दिन का;
उनके सपने, हमारे सपने,
या फिर सपने किसी और के-
एक-एक कर बीतते जाते हैं युग
और सपने इसी तरह
पलंग पर पड़े-पड़े करते हैं प्रतीक्षा।
शिथिल शरीर गिर कर
पसरता है पलंग पर
और तब...
बिस्तर पिघलता है
बुलबुले उभरते हैं
उदित होते हैं सपने
इंच-इंच कर, धीरे-धीरे
मैं नीचे खिसकती हूँ
सपनों में डूबती हूँ
वे घुस जाते हैं कान में, आँख में;
सपनों के भीतर से
जो देखते है वह एकदम अलग है,
जो सुनते है हम वह एकदम भिन्न है,
सपनों के अन्दर,
शरीर है और कोई दूसरा
             और मन भी विभिन्न है।

मैं जागती हूँ
नींद से चिपटे
         सपनों को झाड़ती हूँ,
चेहरे पर पानी के देती हूँ छींटे;
और जब नन्हीं बूँदें
नीचे लुढ़कती हैं,
झिलमिल प्रकाश में
करती हैं कोशिश
          ऊपर उछल आने की
उस पल लगता है
जैसे यह भी हो एक सपना
          पर किसी और का।

उनके सपने

सपने-
एक यहाँ, एक वहाँ
एक-दूसरे से जुड़े, एक-दूसरे में उलझे,
सपने दो, एक जैसे एक
हाथों में हाथ, होंठों से होंठ,
मन से मन और तन से तन जोड़े...
जकड़ लो बाहों में, देखो मुझे
कहता है उसका सपना;
उत्तर बन
            मुस्कराता है उनका स्वप्न।
वह देखता है स्वप्न।
उसे आँखों में भर ले;
और उनकी अभिलाषा-
चाहत का सपना बन
समेटले उसको।
वह है उसका सपना और वह है उसका स्वप्न।

खुद को भुलाकर, वह उठते हैं ऊपर
चाहते हैं मिल जायें, बन जायें एक ही स्वप्न
और इस तरह वे देखते हैं सपने...

सपने-
निरर्थक ही रखते हैं लालसा-
सच बनने की;
उसका स्वप्न निहारता है,
            चुमकारता है उसको
और देखता है सपना-
कि समा जाये, डूब जाये उसमें;
उसका सपना लगाता है परिक्रमा
घूमता है तेजी से उसके इर्द-गिर्द,
नीचे उतर, चाहता है कोंचना
नाचता है बिना रुके, भर कर उल्लास में;
कोमल तन, फैला कर डैने
वह जीत सकती है पूरे आकाश को
और बिखरा सकती है चाहता का अनन्त सुख।
सपनों पर सवार, वे निकल पड़े हैं
एक दूसरे की तलाश में
              तैरने, उडऩे।
वह- एक मत्स्य, वह- एक पक्षी;
वह लगाता है गोता, वह भरती है उड़ान।
झिलमिलाती लहरों पर
पलक झपकाये बिना,
लहर-लहर पर थिरकता है वह;
पानी में मिल, होकर पानी
जल की पगडण्डियों में,
            ढूँढ़ता है उसके पद-चिन्ह,
लगाता है गोता सपनों के साम्राज्य में।
इस छोर से उस छोर तक, विस्तृत आकाश में
वह खोजती है उसे, वह कहीं नहीं है।

तन को छूता कोमल स्पर्श,
जैसे साज़ पर थिरकती हों उँगलियाँ -
ऐसे शून्य विस्तार में,
सपनों के लिए जगह ही कहाँ है।

नीचे जल में पैठ, वह देखता है उसे
बारबार उछल कर, आता है ऊपर
ऊपर, बहुत ऊपर;
वह भी झुकती है, नीचे झपटती है,
लहरों के लगाती है चक्कर
साथ-साथ होना है एक सपना
यही है सच,
जिस थाम पर रखना सम्भव नहीं है!
जब सच्चाई करती है वार,
सपने होते हैं चूर,
बनकर रह जाते हैं मात्र स्मृतियाँ।

सपने जब खोलते हैं आँखें यथार्थ में
देखते हैं स्वप्न फिर से बन जायें सपना।
यदि यथार्थ भी देखने लगे सपने
सागर में पड़ जायेगी दरार
और
धरती-आकाश मिल होंगे एक
यदि ऐसा होता है,
           तो ऐसा ही होने दो।

 

एक कविता-अंधेरों के नाम

प्रकाश के चबूतरे के छोर पर
बैठा है अन्धेरा, जैसे एक परछाईं;
इधर-उधर देखता, बैठा है आराम से।
चाहता है हिले, हिल नहीं पाता
चाहता है बहे, बह नहीं पाता
बस बैठा चबाता है कथाएँ अन्धकार की।
रात्रि के घोर अँधेरे में
न कोई द्वेष है, न कोई ईष्र्या
और नहीं हैं 'वे' और 'हम' या 'तुम' और 'मैं'।
ऊँघते या पूरी तरह जागे हुए,
पगडंडी के साथ-साथ खिलते हुए सपने
हर पल, हर कदम, रचते हैं नई दुनिया।
प्रकाश के नगर से चल कर आई परछाइयाँ
अन्धकार में खोती हैं रूपरेखा
उतार फेंकती है डाह और नफरत
जाती हैं घुलमिल
जैसे गड्ड-मड्ड होता है पानी, पानी में,
बहती हैं अंधेरों में जैसे बहता है अन्धकार।
उँगलियाँ मरोड़ सकें, हाथ नहीं है अंधेरों के
एक दूसरे को चूम सकें, होंठ नहीं हैं अंधेरों के
न है लिंग, न योनि
घुल रहे हैं शरीर अन्धकार में;
निराकार में समा कर
होकर आकारहीन
सदैव के लिए ढलते है निरंकार में,
फैलते है अन्धकार में।
उस पल,
अन्धकार से परे यदि पग धरो
अभद्रता, पथभ्रष्टता,
परछाइयों के पाँव सटी फैली है दूर तक।
छिपाती हैं छातियाँ, छिपाती हैं योनियाँ,
हो जाने को एकाकार
कोटि-कोटि अखिल ब्रह्माण्ड पर
राज करने को आतुर
चलती हैं रोंदती परछाइयाँ।

बिना किसी विरोध के
नत होती है परछाइयाँ;
समेट लेती हैं सपने
             जो देखे थे अन्धकार में।

प्रकाश के चबूतरे के छोर पर बैठी
करती हैं इन्तज़ार
आने वाली रात का।

 

मेरी माँ और मैं

मैं एकदम माँ जैसी हूँ-
कृश काया, पतली-सूखी उँगलियाँ,
आँखों के नीचे, गहरे काले घेरे;
चिन्ताओं से बोझिल हृदय,
न खत्म होने वाली उधेड़-बुन से
आक्रान्त मन;
पर बाहर सदैव स्निग्ध मुस्कान।

मैं बिलकुल माँ जैसी हूँ;
बहते हैं उसके आँसू, मेरी आँखों से।

 

चाँदनी रात और बघारा बैंगन सब्जी

एक किलो चमचमाते गोल बैंगन
धोकर, काटो बारीक फाँको में
डंठल से पकड़
उसे लटकाओ अगर उलटा,
वह बैंगन नहीं, खिला फूल है कमल का;
नमक, मिर्च और खटाई
जीह्वा पर स्वाद एकदम भरपूर हो।
जब मूँगफली तल चुको,
ऊपर से छिड़क दो थोड़ा पाउडर तिल का
तेल में पकते मसालों की खुशबू
कम सेकम चार घर तक तो पहुँचे;
और फिर इसके साथ
मक्की की रोटी-
बेलो इतनी पतली जब तक टूट न जायें बाँहें;
तभी तो पूरा होगा
चाँदनी रात में बैठ कर खाना खाना।

चाँद एकदम गोल, नहीं है कहीं से भी पिचका
उसके ठन्डे प्रकाश में
वह थकान, जो सारा दिन व्यस्त रही पकाने में
आखिर निकाल बैठी 'ओह...'
हवा के झोंके के साथ-साथ
अगला सवाल है-
कल के लिए क्या?
चाँद पर छा गया बादल का टुकड़ा।

अभी तो पूरा माह है अगली पूर्णिमा में -
                   राहत के लिए क्या यह कुछ कम है।

ममता सागर कन्नड़ की कवि, नाटककार एवं अनुवादक हैं। उनके द्वारा प्रकाशित पुस्तकों में तीन कविता संग्रह, चार नाटक, एक स्तम्भ लेखों का संकलन, भाषा, साहित्य, संस्कृति एवं लिंगभेद आदि विषयों पर लिखे गए समालोचनात्मक निबन्धों का संग्रह तथा स्लोवेनियन-कन्नड़ साहित्य के पारस्परिक प्रभाव पर लिखित पुस्तक सम्मलित हैं। उन्होंने विभिन्न भारतीय एवं विदेशी भाषाओं से कविताओं एवं गद्य का कन्नड़ तथा अंग्रेज़ी भाषाओं में अनुवाद किया है। इसके अलावा ममता सागर को अनेक काव्य वर्कशॉप, कविता समारोह के अलावा सेनेगल, यू.के., माल्टा एवं स्लोवानिया आदि देशों से कवियों को आमंत्रित कर उनके लिए काव्य समारोहों का आयोजन करने का श्रेय प्राप्त है। वह अनेक भारतीय कवियों एवं ऑस्ट्रेलिया, िफलीपीन्स तथा वियतनाम के रचनाकारों के साथ सहयोग कर कई समारोह में कविता पाठ कर चुकी हैं। कई साक्षात्कारों के अलावा वह लारा ली की डॉक्योमेंट्री 'कल्चर्स ऑफ रेज़िस्टेंस' का एक हिस्सा हैं। स्पेन के यावियर मॉनेरो द्वारा उनका साक्षात्कार एवं कविता पाठ उनकी डॉक्योमेंट्री 'लॉस चिकॉस दे मनेना' का अंग है। ममता सागर क्यूबा, सरबिया, स्लोबेनिया, विएतनाम, श्रीलंका आदि अनेक देशों में आयोजित काव्य समारोहों में कविता पाठ कर चुकी हैं जिनमें मेसेडोनिया का 'स्टूगा', साउथ अफ्रीका', निकरागुआ का 'ग्रनाडा पोएट्री फेस्टीवल' कोलम्बिया का 'मेडेलिन इंटरनेशनल पोएट्री फेस्टीवल' प्रमुख हैं। वह बेलग्रेड, सरबिया में 'पोएट इन रेज़िडेंस' रह चुकी हैं। ममता सागर बंगलौर यूनीवर्सटी के सेंटर फॉर कन्नड़ स्टडीज़ से सेवा मुक्त होकर आजकल स्वतंत्र रूप से कविता प्रसार एवं अन्य सामाजिक गतिविधियों में संलग्न हैं।





मोहन वर्मा हिंदी भाषा के कवि एवं अनुवादक। 'बूंद से नदी तक: एक कविता यात्रा' कविता संग्रह प्रकाशित। 'सामाजिक न्याय एवं चेतना की भारतीय कविताएँ' संकलन तथा 'नर-नारीश्वर' पेरूमाल मुरुगन के तामिल उपन्यास 'मथुरोबागन' का हिंदी अनुवाद प्रकाशनाधीन। इसके अलावा विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में कविताएँ प्रकाशित। पिछली शती के साठवें दशक में हिंदी काव्य में 'सहज कविता' आंदोलन के संस्थापकों में से एक। ई-पत्रिका 'जागरी' के कविता संपादक।


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