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अप्रैल 2017

देवेंद्र आर्य की ग़ज़लें

देवेंद्र आर्य

ग़ज़ल






(1)

ना तो 'ना', ना तो 'हाँ', यानी अंधा कुआँ
आइनों की ज़बां, पत्थरों के निशाँ।

ना तो धरती वही ना वही आसमाँ
पांडे पांडे रहे हम मियाँ के मियाँ।

किसका दिल जल रहा, उठ रहा है धुआँ
ग़म के रौशन दिये, हैं कहाँ आँधियाँ?

दोनों बीमाशुदा, आँधियाँ, बिजलियाँ
तीरगी में बचे रौशनी के निशाँ।

पहले तोते उड़े फिर उड़ी तितलियाँ
अच्छे दिन के गुमाँ, तालियाँ तालियाँ!

शव के सिरहाने थीं गन्ने की पर्चियाँ
सर में गठरी लिए गंगा मइया, कहाँ?

क़ातिलों ने लिखीं अम्न की दास्ताँ
मुल्क तैयार है, आइये मेहरबाँ

(2)

लोग फ़क़त दिल रखते हैं
हम हैं, न जान छिड़कते हैं।

दिन गिनने के दिन आये
दिन भी कहाँ सरकते हैं।

दुख जीवन की ग़ज़लों के
मतले हैं या मक़्ते हैं

जिस्म नहीं जज़्बात हैं हम
थकते थकते थकते हैं।

परकाओं नक़्क़ादों को
कवि अब कहाँ परकते हैं।

ख़ुद्दारी ईमान वफ़ा
आप भी क्या क्या बकते हैं।

शायर सपने और कबीर
गहरी नींद में जगते हैं।

आँसू में ढल के सपने
क्या क्या रंग बदलते हैं।

तौबा, पर तौबा से हम
तौबा भी कर सकते हैं।

(3)

दर्द का भी अजीब किस्सा है।
हाल पूछो तभी उभरता है।

वह बेचारी तो बोलती भी नहीं
पेड़ झुट्ठे हवा से लड़ता है।
कब हमें कर दे वक़्त के बाहर
वक़्त का यूं भी क्या भरोसा है!

तैरती थी नदी मछलियों सी
मैंने तो वह भी दौर देखा है।

ले के रख लो, चढ़ेंगे दाम आगे
उस तरफ़ धूप कितने बिस्वा है?

जाने क्या गड़ता रहता आँखों में
मुझको लगता है ख्वाब गड़ता है।

यूं तो शामिल हैं हम भी इसमें मगर
भीड़ तो भीड़ का ही हिस्सा है।

फिर ये कर्मण्ये वाधिकारस्ते!
आदमी तो ख़ुदा का मोहरा है!

कौन पूरा है पूरी दुनिया में
रात आधी है, दिन भी आधा है।

अपने और ग़ैर से निभाने में
कुछ न कुछ फ़र्क पड़ ही जाता है।

सब से पहला सवाल पैसे का
सबसे अन्तिम सवाल पैसा है।

(4)

आने की बाते है न ये जाने की बात है
सदियों से चलते आये ज़माने की बात है।

अपने लिए जो धान लगाने की बात है
उनके लिए वो धान कटाने की बात है।
एहसान शब्द सुनने में अच्छा भले न हो
तुम ही बताओ क्या ये भुलाने की बात है?

जो कर सका वो मुल्क़ का सरताज हो गया
बस शून्य में से शून्य घटाने की बात है।

राजा ने मंत्रियों से कहा, पेड़ काट दो
चिडिय़े की चोंच से गिरे दाने की बात है।

सच है कि झूठ, देव कि पत्थर, पता नहीं
एक रस्म बन गयी है, निभाने की बात है।

मज़हब कोई हो, मुल्क़ कोई, तन्त्र हो कोई
सारी बहस की जड़ में ख़ज़ाने की बात है।

फिर एक बार कविता के मानस को तौलिए
पढऩे से ज्यांदा सुनने-सुनाने की बात है।

इंसानियत के अर्थ किताबों में जो भी हों
दिल में सुलगती आग बुझाने की बात है।

(5)

ग़ज़लों नें खोदी है भाषा की खाई
अब ग़ज़लें ही करेंगी इसकी भरपाई।

चाहे जितनी चमकदार हो कविताई
छिपा नहीं करती है कवि की चतुराई।

दानिशमंद कहीं परहेज़ न कर बैठें
थोड़ी कम करिये ग़ज़लों की चिकनाई।

खोये चीनी वाली कविता यहाँ कहाँ
यहाँ जलेबी गुड़ की मिलती है भाई।
हाँ जी हम तो लिख लोढ़ा पढ़ पत्थर हैं
जाय कहाँ यह भीड़ ज्ञान से अगुताई।

मुझ को पा के कविता परम प्रसन्न हुई
मुझे देख कवियों की त्यौरी चढ़ आई।

रूह को जैसे जिस्म पुकारे कहाँ हो जी?
आई आई कह के मैं भागी आई।

हिन्दी उर्दू का रिश्ता कुछ यूं समझो
एक ननद जैसी है दूजी भौजाई।

बेईमान दूकान लगा कर बैठ गए
वाजिब दामों पर ईमान की तुरपाई।

(6)

था जिसके बूते पे ऊँचा कभी ज़मीर मेरा
हुआ है जान का दुश्मन वही शरीर मेरा।

किसी भी दाम पे मुझको बुला रहा बाज़ार
बदल न जाय कहीं दिल मेरा, ज़मीर मेरा।

बदलते रहते हैं तुलसी समय के साथ मगर
कभी बदलता नहीं है तो बस कबीर मेरा।

वो क्या है कह नहीं सकता मगर कुछ है तो ज़रूर
ये क्यों निशाने पे लगता नहीं है तीर मेरा।

कोई न आएगा मैके से, जानती है बहन
कहेगी फिर भी कि आता ही होगा वीर मेरा।

तमीज़म कोई हो, लहजा कोई, कोई भाषा
ग़ज़ल की दुनिया में चलता है बस ख़मीर मेरा।

ये एक मुद्दा है ऐसा कि सारे मुद्दे गड़प
है जान से भी कहीं प्यारा कश्मीर मेरा।

संपर्क : मो. 09794840990


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