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अप्रैल 2017

शर्त का कथ्य

अविनाश मिश्र

अंतिम किश्त/निर्मला गर्ग



निर्मला गर्ग की कविता-सृष्टि पर एकाग्र



समानता की शर्त के साथ प्रतिकार के प्रसंगों को लक्ष्य करती वरिष्ठ कवयित्री निर्मला गर्ग की कविता-सृष्टि में प्रतीक्षा का अपार धैर्य है। अनगढ़ रास्तों का सौंदर्य लिए हुए यह सृष्टि प्रकृति की भांति आकर्षक और अराजक है। संसार भीतर एक और संसार बना-बसा लेने वाले विमर्श यहां नहीं हैं। इन कविताओं का एक ही क्रम है— वह है लगातार भटकना। ये कविताएं जमीन का एक बड़ा टुकड़ा हथियाकर उसे सुंदर-समतल बनाने में यकीन नहीं रखती हैं। कविता के खाली पेट को निर्मला ने शिल्प से नहीं भरा है, बल्कि समाज में जारी संघर्षों से जुड़कर उसे उसकी असल खुराक दी है।     
हरा रंग उन दिनों फैशन में था जब साल 1992 में निर्मला गर्ग की कविताओं की पहली किताब 'यह हरा गलीचा' शीर्षक से प्रकाशित होकर आई। इस प्रचलन से परिचय बावजूद निर्मला के इस कदम को उनकी साहसिक काव्य-दृष्टि से जोड़ा गया। इस कविता-संग्रह में एक ऐसी स्त्री की शिनाख्त की गई जो जीने के लिए याचना नहीं, बल्कि शर्त सामने रखती है :

इंकलाब महज नारा नहीं है
शर्त है जरूरी
मनुष्य होने की

[ अभी वक्त है ]

पक्ष को बहुत स्पष्ट और वर्ग-शत्रु को बहुत प्रकट करते हुए निर्मला ने बहुत शुरुआत से ही बहुत मामूली व्यक्तियों की बहुत गैर-मामूली कविताएं मुमकिन कीं। 'यह हरा गलीचा' की दूसरी कविता में ही प्रतिबद्धता का प्रकटीकरण कुछ यों है :

तुम्हारे वजनी बहीखातों में
दर्ज है जिनकी थकन
जिनकी पस्ती
उन्हीं के
ठीक उन्हीं के गीत
उनके हौसले
बोलते हैं मेरी कविताओं में

मेरा तुम्हारा अब
जो भी नाता हो
एक ही डिब्बे में                
साथ-साथ बतियाते मुसाफिर तो
हम नहीं 

[तुम्हारे वजनी बहीखातों में ]

गांव, घर और नदी के सफर से शुरू करते हुए निर्मला गर्ग सारे संबंधों को — प्रचलित स्त्रीवादी रुदन की जगह — एक सहज जैविक फिक्र में अभिव्यक्त करती हैं। स्त्री-विमर्श से ऊपर वह वर्ग-विषमता को रखती हैं और इस तथ्य को नजरअंदाज नहीं करतीं कि स्त्रियां भी अत्याचारी और भ्रष्ट हो सकती हैं।  
इस अर्थ में देखें तो निर्मला गर्ग की कविताएं हिंदी की स्त्री-कविता में सबसे ज्यादा राजनीतिक कविताएं प्रतीत होती हैं। उन्होंने बराबर अपने संसार को वृहत्तर किया है। आत्मपूर्ण अभिव्यक्तियों के संकीर्ण दायरे से निकलकर वह खुद को एक अखिल मानवीय राग से निबद्ध करती रही हैं। बावजूद इसके निर्मला गर्ग की कविता-सृष्टि में स्त्रियां इतने अलग-अलग वर्गों से इतने अलग-अलग आयामों में इतने अलग-अलग संकटों के साथ आती हैं कि अन्याय और विषमता जीने की शर्त के कथ्य में नजर आने लगते हैं। इस बिंदु पर निर्मला गर्ग का कवितात्मक हस्तक्षेप उनके कुशल ऑब्जर्वेशन का साक्षी बनता है :      

एक औरत बैठती है गद्दी पर
चलाती है देश
सैकड़ों औरतें पिटती हैं
दिन में तीन बार

एक औरत पहनती है काला कोट
बांचती है कानून की किताबें
सैकड़ों औरतें देखती हैं
टुकुर-टुकुर हरूफों के छापे

एक औरत तानती है गर्दन
सीने पर लगाकर ढेर सारे बिल्ले
सैकड़ों औरतें बेआबरू होती हैं
रोज-ब-रोज हर कहीं

एक औरत उठती है
उठती है और चल पड़ती है
बार-बार कपड़े नहीं झाड़ती वह
सैकड़ों औरतें देखती हैं
देखती हैं और सोचती हैं

[ एक औरत ]

शोषण की शर्त के शिल्प से संचालित यथार्थ के बीच निर्मला गर्ग की कवि-स्थिति केवल प्रत्याशा का कथ्य ही नहीं रचती, बल्कि वह एक जमीनी प्रतिकार में भी खुद को व्यस्त रखती है और मानती है :

कौशल्या की बेटी
कौशल्या नहीं रहेगी
[हमें उम्मीद करनी चाहिए]

आरंभ से ही वामपंथी निर्मला गर्ग की कविताओं की दूसरी किताब 'कबाड़ी का तराजू' पर वरिष्ठ आलोचक विश्वनाथ त्रिपाठी की यह टिप्पणी उल्लेखयोग्य है : ''विचार को संवेदना से संश्लिष्ट करने की क्षमता निर्मला गर्ग में है। जो नैतिक, ऐतिहासिक है उसे वह सुंदर बना सकती हैं। भाषा की सहजता उसका साधन है। ...निर्मला गर्ग वैचारिकता और राजनीतिक प्रतिबद्धता को आस-पास की साक्षात् दृश्य-स्थितियों की रपट में पेश करती हैं अथवा भूतात्मक या प्राकृतिक बिंबों में। समकालीन प्रगतिशील कविता में राजनैतिक कविताएं लिखने की उन्होंने अपनी राह बनाई है।''           
ये बयान नई सदी के बयान नहीं हैं, लेकिन निर्मला गर्ग की बिल्कुल नई कविताओं के संदर्भ में भी इनकी प्रासंगिकता अकाट्य है। निर्मला गर्ग की काव्य-लौ अपने आरंभ से अब तक कभी मद्धम नहीं हुई है। यह सक्रियता इसलिए भी बगौर देखी-जांची जानी चाहिए क्योंकि निर्मला ने अपनी राजनीतिक राह बिल्कुल भी छोड़ी नहीं है, जबकि इस दरमियान कवयित्री का जीवन जटिल और हिंदी साहित्य का बड़ा हिस्सा मकड़ी के जालों से घिरा रहा है। कविता से दूर चले गए समाज में धीरे-धीरे सारे संवेदन हाशिए पर आते गए और 16 मई 2014 को एक अघट घट गया। बाद इसके बहुत सारी राजनीतिक राहें संदिग्ध हो गईं और बहुत सारी प्रगतिशीलता हास्यास्पद। पराजय ज्यों-ज्यों बढ़ती गई प्रगतिशीलों ने नागरिकों को कायर कहना शुरू किया और जनता को ही भंग करने की बात की जाने लगी। इस दृश्य में :

'भेडिय़ा आया भेडिय़ा आया' — कहने का समय जा चुका है
भेडिय़ा आंगन में आ चुका है

लेकिन अपनी जनता से बोलने-बतियाने वाली भाषा का साधिकार प्रयोग करने वाली निर्मला गर्ग की कविता राजनीतिक स्थितियां कैसी भी रही हों, कभी नई-नई पोशाकें पहनकर नहीं आई। नई-नई पोशाकें पहनकर आने वाली कविताओं पर उन्होंने खुद के बहाने से एक कविता में जोरदार व्यंग्य भी किया :

अन्न और रोजगार का जिक्र उसे नहीं भाता
समता और न्याय गए दिनों की बातें हो गईं
व्यस्त है नई-नई पोशाकें छांटने में
मेरी कविता इन दिनों 

[ नई-नई पोशाकें]

कविताओं की तीसरी किताब 'सफर के लिए रसद' तक आते-आते निर्मला गर्ग की कविताएं यात्रा-मोह की कविताएं नजर आने लगती हैं। इस कविता-संग्रह का शीर्षक भी इस प्रसंग में बेहद अर्थपूर्ण है। कविता के संसार में एक उल्लेखनीय दूरी तय कर लेने के बाद आगे के सफर के लिए कवयित्री को रसद चाहिए। पुराने तरीके चुक गए हैं, लेकिन सफर अभी खत्म नहीं हुआ है। यातनाएं रोज-ब-रोज नई होती जा रही हैं और अत्याचारी का चेहरा और ज्यादा चमकदार :

असफलताएं
सफलताओं का प्रवेश-द्वार नहीं हैं
गलियां नहीं हैं
जिन्हें पार कर आप खुले चौक में आएं
समय कल घूमकर आपके साथ खड़ा होगा
यह आश्वासन नहीं देतीं वे
वे तो सिर्फ यह बताती हैं
बची हैं अभी आपके पास
गुंजाइशें
बाहर आने की
चीजों को उनकी मौलिकता में देख पाने की
भरसक उन्हें बचा पाने की
उन लंबी-लंबी बहसों की आंच
किया करते थे आप दोस्तों के साथ
युवावस्था में
बचाती रही है आपको
लगातार गिरती शीत से
झाइयां गहरी नहीं हुई हैं उजले हैं स्वप्न
स्वप्नों के भीतर स्वप्न
देख पाते हैं अभी तलक आप  

[ असफलताएं ]

निर्मला गर्ग का यात्रा-मोह उनकी कविताओं को एक गतिमयता देता है। वह जहां जाती हैं, वहां की कविताएं दर्ज करती हैं। इन कविताओं में दृश्य की एक खास राजनीति है। इनमें गुजरते हुए भी गुजरे हुए में बने रहने का विवेक है और सामयिकता को उसकी ली गई और ली जाने वाली करवटों में देख पाने वाली नजर है। इस नजर के नजदीक अपना एक वैश्विक-बोध है।
बहुत कुछ कह देने के प्रयास में निर्मला गर्ग की कविता-सृष्टि संग्रह-दर-संग्रह अनायास बहुत वाचाल होती गई है। इस विकास-क्रम में बहुत बोलने वाली कविताएं धीरे-धीरे कम बोलने वाली कविताओं पर हावी होने लगती हैं। इनमें एक अंडरटोन का अभाव स्पष्ट नजर आने लगता है। इन्हें पढ़ते हुए इनके बारे में सोचा नहीं जा सकता। इस प्रकार का अवकाश ये अपने पढऩे वाले को नहीं सौंपतीं। ये हाथ आए प्रसंग की सारी परतें उधेड़ती हुई चलती हैं ताकि एक नंगा सच हाथ लग सके। कहानियां इनमें बसने के लिए बेकरार होने लगती हैं और गद्य इनका इंतजार करता हुआ दिखाई देता है :

'आगे की कथा अब कल'
वरुणा उठ जाती थी
कथाकार के लिए लाती थी जल
[ कथाकार ]
                
'मैं सरल होना चाहती हूं' इस ध्येय के साथ उपस्थित निर्मला गर्ग की कविता-सृष्टि में यहां आकर एक बुरी कविता दस अच्छी कविताओं पर भारी पड़ती नजर आती है। कवयित्री बुरी कविताओं से मुठभेड़ नहीं करती, उनसे रौब खा जाती है :

बचना चाहती हूं मैं इनसे
ढूंढ़ती हूं तरकीबें
पर हो नहीं पाता 

[मैं खा जाती हूं रौब]

सरलता की तलाश में निर्मला गर्ग अनगढ़ता को गढ़ती हैं, लेकिन एक सीधे-सादे वाक्य को भी वह अपनी कहन में लाना चाहती हैं। समकालीन कविता में कुलीनतावाद खोजकर उसे बेनकाब करने वाले आलोचक अजय तिवारी के शब्द लेकर कहें तब कह सकते हैं : ''निर्मला गर्ग की कविताओं में न बौद्धिकता है, न दुरूहता। लेकिन उनकी सरलता हर जगह सपाट नहीं है।'' यहां एक अतिशयता के साथ दोहराएं तब कह सकते हैं कि इन कविताओं का तुलनात्मक अध्ययन सिर्फ प्रकृति के साथ हो सकता है।
कविताओं की चौथी किताब 'दिसंबर का महीना मुझे आखिरी नहीं लगता' की भूमिका में निर्मला गर्ग ने माना है कि कई बार उन्हें विषय के अनुरूप शिल्प नहीं मिलता है। विषय का दबाव ज्यादा होने पर वह ऊबड़-खाबड़ शिल्प से ही काम चला लेती हैं। इस बयान के उजाले में देखें तो निर्मला गर्ग की कविताओं का शिल्प कथ्य की शर्त पर संभव नहीं होता है। कथ्य की शर्त को अदा करना ही उनकी कविता-सृष्टि का शिल्प है :

जब हम कह रहे होते हैं
हिंसा बहुत बढ़ रही है समाज में
तब हम कह रहे होते हैं
न्याय घटता जा रहा है राज्य में
[जब हम कह रहे होते हैं]

आलोचक कविता को गणित की तरह पढ़ते हैं... यह मानने वाली निर्मला गर्ग की कविताओं की तैयारी बहुत भूमिगत किस्म की है। वह ऊपर से नजर नहीं आती है। यहां कविता की पहली पंक्ति कई बार आखिर में या मध्य में सोची जाती है। पुरस्कारप्रवीण और मंचमय कवयित्रियों के लोक में निर्मला गर्ग एक तिरछी स्पेलिंग की तरह हैं। असहज और जटिल यथार्थ को व्यक्त करने के लिए उनकी तैयारी सहज और सरल होने की रही है, लेकिन इसके लिए उन्होंने अपना तनाव, द्वंद्व और अवसाद खोया नहीं है। एक चिढ़ में वह अजीब रही आई हैं। कहन में वजन मनुष्य बने रहने की शर्त से आता है, समझौतों तले दबकर नहीं... इस सूक्ति के साए में देखें तो निर्मला गर्ग की बिल्कुल नई कविताएं एक नई ऊर्जा से संबद्ध लगती हैं :

जो लोग यहां रहने आएंगे
वे इस इमारत को बनता हुआ नहीं देख पाएंगे
उन्हें पता नहीं चलेगा कि रात में यह इमारत
आत्महीनता की खुली पीठ लगती है
सुबह बातचीत लगती है सदिच्छाओं से भरी
[इमारत]
 
इन पंक्तियों के लेखक से हुई एक बातचीत में देवी प्रसाद मिश्र ने खुद को निर्मला गर्ग की बदहवासी का बड़ा कायल बताया है। इस बातचीत में वह आगे कहते हैं: ''निर्मला के लिए कहूं तो वह कितनी भी ऊबड़-खाबड़ हों, लेकिन वह किसी के भी पीछे जाने वाली कवयित्री नहीं हैं। उनका स्त्री-कविता में कोई पूर्ववर्ती नहीं है।''
निर्मला गर्ग की बदहवासी को यहां थोड़ा स्पष्ट करना चाहिए। यह बदहवासी एक सुंदर कल के लिए किसी जुलूस में शामिल होने जैसी बदहवासी है। यह अधिमूल्यित होती औसत स्त्री-कवियों की भीड़ में खुद के अवमूल्यन से उपजी बदहवासी है। यह साहित्य की व्यावहारिक राजनीति और आलोचनात्मक पारस्परिकता के विरुद्ध एक रचनात्मक बदहवासी है। दरअसल, कवयित्री दे दिए गए रास्तों पर नहीं चल रही है, इसलिए उसकी राह ऊबड़-खाबड़ है। इस ऊबड़-खाबड़पन में ही निर्मला ने अपनी कविता-यात्रा के लिए नए मार्ग बनाए हैं और यह सुखद है कि वह उन कवयित्रियों से अलग हैं जो अपने ही बनाए गुप्त-मार्गों में फंस गईं। नवें दशक की हिंदी कविता में यह अलगपन निर्मला गर्ग के बाद अगर किसी और कवयित्री में है तो वह सिर्फ सविता सिंह में है। इन दोनों ही कवयित्रियों की कविता-सृष्टि का जीवद्रव्य पूर्ववर्तियों के भाषा-संस्कार के प्रति अस्वीकार से निर्मित है। इस अस्वीकार में एक आदर्शीकृत निरासक्ति है:

वह बार-बार साधारणता की ओर मुड़ती। बार-बार
उसे खास की तरफ ठेला जाता। उसके चारों ओर
पुरानी भव्य दीवारें थीं। उनमें कोई खिड़की नहीं थी
सिर्फ बुर्जियां थीं। वहां से झांकने पर सिर चकराता था।
कमरों में बासीपन के अलावा और कई तरह की बू शामिल थी।
एक दिन यह सब लांघकर वह बाहर चली आई। हवा
और धूल की तरह सब ओर फैल गई
 [ डायना ]
अपनी कविता-सृष्टि को बराबर व्यापक करते हुए निर्मला गर्ग ने अपने आस-पड़ोस में ही नहीं दुनिया में कहीं भी हो रहे अन्याय और उसके खिलाफ जारी प्रतिरोध को दर्ज किया है। नेल्सन मंडेला, बेंजामिन मोलाइस, गोरख पांडेय, शंकर गुहा नियोगी, डायना, पाब्लो नेरूदा, प्रियंका-रिज़वानुर, दशरथ मांझी, नवीन सागर, ह्यूगो शॉवेज, मेजर दिनेश रघु रमन जैसे नाम निर्मला गर्ग की कविताओं में आकर एक नई लोकाभिमुखता हासिल करते हैं। बसरा-बगदाद और गाजा पट्टी की भयावहता को दर्ज करते हुए जब निर्मला गर्ग की कविता-सृष्टि हत्यारों का स्वागत करने से इंकार करती है, तब वह दरअसल हिंदी की स्त्री-कविता को उसके कुएं से बाहर निकाल रही होती है:

ईश्वर तो तुम्हें पहचानता तक नहीं
तुम्हारा साथी शैतान ही हो सकता है
शोषण का बीज तुम्हीं बोते हो दुनिया में
युद्ध की फसल भी तुम्हीं काटते हो
अपने घर में वंचित रखा बराबरी के हक से
अश्वेतों को और स्त्रियों को
[हम हत्यारों का स्वागत नहीं करते]

बतौर एक स्त्री-कवि निर्मला गर्ग के ये काव्य-प्रयत्न इसलिए भी स्मरण-योग्य हैं क्योंकि उन्होंने अब तक स्वयं को एक स्त्री-कवि की तरह नहीं बरता है। वह हिंदी में स्त्री-कवि होने का आरक्षण और लाभ नहीं चाहती हैं। ये छूट और सुविधाएं उन्होंने दूसरी कवयित्रियों के लिए छोड़ रखी हैं। 'रेलवे की तरह ही हिंदी साहित्य में भी, महिलाओं का एक अलग कम्पार्टमेंट है...' यह दर्ज करते हुए निर्मला गर्ग इस कम्पार्टमेंट से दूर रही हैं। वैसे यह कम्पार्टमेंट तब एलॉट हुआ जब बहुत एकांगी किस्म का स्त्री-विमर्श हिंदी में पूरी तरह छाया नहीं था और जब असद ज़ैदी ने वह कविता लिखी थी जिसमें 'बहनों को दबाती दुनिया गुजरती जाती है जीवन के चरमराते पुल से' और इसके बहुत बाद आलोक धन्वा ने वह कविता जिसमें 'सभी के खून में इंतजार है एक लड़की का...'
 यह स्त्री-कवियों से वंचित हिंदी साहित्य का आठवां दशक था जिसमें स्त्रियां और उनसे जुड़े प्रश्न कविता में मर्द-कवियों के हवाले से ही आ रहे थे। एक नई स्त्री की कविता का संसार कैसा हो सकता है, इसकी कोई जानकारी तब तक हिंदी कविता को नहीं थी। लेकिन नवें दशक में स्त्री-विमर्श की बहार ने हिंदी कविता को ज्यादा देर तक इस जानकारी से दूर नहीं रखा। स्त्री-प्रश्न हिंदी कविता में इतने अनिवार्य हो गए कि कई कवियों को अपने भीतर स्त्री खोजनी पड़ी। यह पवन करण का कविता-संग्रह 'स्त्री मेरे भीतर' आने से पहले की बात है, जब बद्रीनारायण ने एक कविता में कहा कि संसार की सारी नदियां स्त्रियों के रोने से बनी हैं...
कहने का आशय यह है कि हिंदी साहित्य में स्त्रियों के लिए बने कम्पार्टमेंट में पुरुष भी बेझिझक घुसने लगे। उनके रूप बदले हुए नहीं हुए थे, फिर भी उन्हें किसी ने उतारा नहीं और उन्होंने लंबी यात्राएं कीं। यहां तक आते-आते स्त्री-प्रश्न हिंदी कविता में एक सामूहिक जिम्मेदारी और चेतना के तहत व्यक्त होने लगे और बगैर भावुक हुए स्त्री-पुरुष समानता की लड़ाई यहां एक केंद्रीय-बिंदु और सरोकार की तरह सामने आई। लेकिन इस बनत में यह प्रश्न उठता है कि आखिर यहां निर्मला गर्ग क्यों खुद को एक स्त्री-कवि की तरह प्रस्तुत नहीं करती हैं:

आप हमारे अखबार में लिखना चाहती हैं कुछ?
लिख लाइए झटपट महिलाओं पर कुछ

ऐसे क्या देख रही हैं? आप कवि हैं
लिखना चाहती हैं समकालीन कविता पर?

लिख लेंगे उस पर तो और बहुत-से लोग
आप तो लिखें समकालीन महिला पर       

[समकालीन महिला]

दरअसल, निर्मला गर्ग की कविता एकरूपता से चिढ़कर मुमकिन होती है। हिंदी कविता में उपस्थित स्त्री के एकरूप वैभव के विरुद्ध होना ही उनकी कविता को इस प्रकार के नए विषयों तक ले जाता है, जो हिंदी कविता के कर्मपथ पर पहले नहीं आए थे। वह महज स्त्री-कवि होकर अपनी सीमाएं और संभावनाएं सीमित नहीं करना चाहतीं।  
वरिष्ठ कवयित्री शुभा की कविताओं पर केंद्रित एक आलेख में आलोचक आशुतोष कुमार ने समकालीन स्त्रीवादी कविता की चार प्रवृत्तियों की आसानी से शिनाख्त की है। इसके पीछे वर्गीकरण या श्रेणीकरण का प्रयत्न नहीं बल्कि रचना-प्रक्रिया को समझने की सुविधा है... इस सफाई के बाद आशुतोष आंदोलनकारी, अस्मितावादी, सामाजिकतावादी और दलित स्वर वाली चार प्रवृत्तियों का एग्जिट पोलनुमा खुलासा करते हैं। निर्मला गर्ग को वह सामाजिकतावादी स्वर वाली कवयित्रियों में गिनते हैं। लेकिन निर्मला की कविता-सृष्टि में आंदोलनकारी और अस्मितावादी कविताओं की भी कोई कमी नहीं है। प्रमाण के लिए दो उद्धरण देखें:  

उठाकर हाथों में कुल्हाडिय़ां
उड़ा दो परखच्चे इस व्यवस्था के
बदल देती है जो हमें अधमरे चूहों में
बांट देती है बेहिसाब खानों में
[खून से ज्यादा पवित्र और कुछ नहीं]

यह औरत कुछ नहीं मांग रही
न आंगन
न एक थान गहना
न गठ्ठा-भर हितोपदेश

बस उदास होने का हक मांग रही है

[यह औरत]

आशुतोष कुमार को जैसे दलित स्वर की तलाश है, उससे कई गुना बेहतर दलित स्वर वाली कविताएं भी निर्मला गर्ग की कविता-सृष्टि में मिल जाएंगी, बशर्ते उसे बगौर देखा जाए। वैसे हिंदी की समकालीन स्त्री-कविता या कहें कविता को गौर से देखने पर इस प्रकार के तमाम वर्गीकरण या श्रेणीकरण बेमानी लगेंगे। फिर भी अगर हिंदी की स्त्री-कविता का कोई वर्गीकरण या श्रेणीकरण करना ही तो वह केवल और केवल आयु के आधार पर ही हो सकता है। इन पंक्तियों का लेखक इस प्रकार का वर्गीकरण या श्रेणीकरण करने की इजाजत चाहता है, लेकिन निर्मला गर्ग की रचना-प्रक्रिया को समझने की सुविधा के लिए नहीं बल्कि इस प्रकार के तमाम वर्गीकरणों या श्रेणीकरणों को मनोरंजक सिद्ध करने के लिए।
हिंदी की स्त्री-कविता के बिल्कुल सामयिक परिदृश्य को देखें तो यहां चार वर्गों या श्रेणियों में विभक्त कवयित्रियां हैं। पहले वर्ग या श्रेणी में बीस से तीस वर्ष के बीच की कवयित्रियां हैं। वे शौकिया लिखती हैं और उनकी कविताएं (अगर वे कविताएं हैं तो) साहित्यिक पत्र-पत्रिकाओं से ज्यादा स्वनिर्मित ब्लॉग्स और फेसबुक की टाइमलाइन पर दिखती हैं। इस प्रकार की कवयित्रियां कहन में कोई कमाल करके जल्द से जल्द हिंदी कविता की मुख्यधारा (अगर वह अब तक कहीं है तो) में शामिल होना चाहती हैं। मंच पर कविता-पाठ के मौके और पुरस्कार इत्यादि इसमें मदद करेंगे यों उन्हें लगता है।
दूसरे वर्ग में तीस से चालीस वर्ष के बीच की कवयित्रियां हैं। वे पारिवारिक जिम्मेदारियों के बीच हिंदी कविता में स्थान बनाने के लिए संघर्षरत हैं। उन्हें लगता है कि उन्होंने बहुत देर से शुरू किया है और इसलिए उन्हें बहुत जल्दी में रहना चाहिए। वे जल्द से जल्द कैसी भी कविताएं लिख कर कहीं से भी कविता-संग्रह प्रकाशित और उसे लोकार्पित करवाना चाहती हैं। वे दौ सौ प्रतियों के साथ बीस लोगों के एक संकीर्ण संसार में लोकप्रिय होना चाहती हैं।
तीसरे वर्ग में चालीस से पचास वर्ष के बीच की कवयित्रियां हैं। यह वर्ग तब सक्रिय हुआ था जब छपने के लिए हिंदी की मटमैली साहित्यिक पत्रिकाओं के सिवाय दूसरा कोई ठिकाना न था। इनमें से कुछ कवयित्रियां हिंदी में आज बहुत अच्छे से स्थापित और स्वीकृत हैं, जबकि कुछ को अब भी एक कवयित्री के रूप में शुरुआत करनी है।
चौथे वर्ग में पचास से साठ वर्ष के बीच की कवयित्रियां हैं। इनमें से कई के पास आधा दर्जन से ज्यादा किताबें हैं। ये कई सामाजिक जंजालों से फिलवक्त मुक्त हैं और इसलिए लिखना और लिखना ही उनका एक और एकमात्र काम है। 
यह हिंदी की स्त्री-कविता का एक बहुत स्त्री-विरोधी वर्गीकरण या श्रेणीकरण लग सकता है, लेकिन इस पर भी ध्यान देना चाहिए कि हिंदी की सारी वास्तविक स्त्री-कविता इस वर्गीकरण या श्रेणीकरण के बाहर ही मुमकिन हो रही है। वह जब-जब सामने आती है, चौंकाती है। वह चुपचाप हिंदी के दृश्य पर अपनी छाप छोड़ रही है। अजंता देव, सविता ग्रोवर, मोनिका कुमार और नेहा नरुका ये वे चार नाम हैं जो चार पीढिय़ों से आते हैं और ऊपर किए गए वर्गीकरणों या श्रेणीकरणों से अलग सतत सृजनरत हैं।
निर्मला गर्ग की कविता-सृष्टि पर एकाग्र यहां प्रस्तुत आलेख की एकाग्रता आखिर तक आते-आते हिंदी की स्त्री-कविता के एक मनोरंजक वर्गीकरण या श्रेणीकरण से भंग जरूर हुई, लेकिन इस क्षेपक का औचित्य सिद्ध किया जा सकता है, क्योंकि निर्मला गर्ग के कवि-कर्म ने हिंदी आलोचना के असहनीय वर्गीकरणों या श्रेणीकरणों के बीच खुद को विचार से साधा और अर्थ से निष्पन्न किया है। उनकी कविता दमन के विरुद्ध जुलूसों में शामिल रही है और मनचलों से डरी नहीं है। वह सदा मोर्चे पर मौजूद रही है। हिंदी कविता के समकालीन-विमर्श में निर्मला गर्ग की कविता अनगढ़ता की शर्त पर कथ्य से समृद्ध कुछ इस प्रकार का एक अर्थ-वृत्त रचती है कि वह सारी घेरेबंदियों से अलग नजर आने लगती है।  

संदर्भ :
प्रस्तुत आलेख में निर्मला गर्ग के अब तक प्रकाशित चार कविता-संग्रहों— 'यह हरा गलीचा' (1992), 'कबाड़ी का तराजू' (2000), 'सफर के लिए रसद' (2007), 'दिसंबर का महीना मुझे आखिरी नहीं लगता' (2012) और 'जलसा', 'सदानीरा', 'जनपथ', 'कृति ओर' जैसी पत्रिकाओं में प्रकाशित कविताओं को आधार बनाया गया है। इसके अतिरिक्त उनकी प्रकाशित-अप्रकाशित डायरियों, टिप्पणियों और उनके कविता-संग्रहों पर पत्र-पत्रिकाओं में आईं कुछेक समीक्षाओं को भी पाठ में लाया गया है, यह अलग बात है कि प्रयोग में नहीं। विश्वनाथ त्रिपाठी का उद्धरण 'कबाड़ी का तराजू' के ब्लर्ब से लिया गया है और अजय तिवारी का 'इंद्रप्रस्थ भारती' में प्रकाशित उनके लेख 'नारीवाद से बचते हुए' से। देवी प्रसाद मिश्र से इन पंक्तियों के लेखक की बातचीत 'पाखी' के अक्टूबर-2016 अंक में और शुभा की कविताओं पर आशुतोष कुमार का आलेख 'पक्षधर' के 21वें अंक में प्रकाशित है।

संपर्क- मो. 09818791434


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