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अप्रैल 2017

निरन्तर अन्तर्यात्रा की कविता

प्रभात त्रिपाठी

जहाँ होना लिखा है तुम्हारा/पारुल पुखराज



                                                                  
'जहाँ होना लिखा है तुम्हारा' अभी मैं इसी पर सोच रहा हूँ। मैं अपने सोचने को ही लिखना चाहता हूं। रोचक बात यह है, कि मैंने इस किताब का ब्लर्ब भी लिखा है, और शायद तब भी मैंने जरूर सोच समझ कर ही अपनी बातें लिखी होंगी। अभी फिर सोच रहा हूं, तो यह महज पुरानी सोच का औचित्य सिद्ध करने, या उसी में कुछ जोड़ तोड़ करने जैसा मामला नहीं है। मेरे भीतर सोच की प्रक्रिया का स्वत:स्फूर्त स्फुरण सा हो गया है, वह है क्या चीज? इतना तो तय है, कि उसकी कविता के विचार सार की वजह से ही यह नहीं है। दरअसल जब आप पाठ के साथ कोई सर्जनात्मक सम्बन्ध बनाने की सोचते हैं, तो यह किसी 'सार' के चलते नहीं, बल्कि एक तरह की मार्मिक 'मार' के चलते संभव होता है, कि आप उस पर इस तरह से सोचें, जैसे खुद उस संरचना में आप भागीदार हैं। आप भाषा में जज्ब समय के सच को, जैसे दुबारा अपनी आंतरिकता का सच बनाने के लिए शब्दों में रची दुनिया से जुडऩे की एक विकलता से भर गए हैं। मुझे लगता है, कि पारुल पुखराज की कविता में एक आत्मीय दुख है, जो अनायास ही मेरे अपने होने से, मेरी स्मृतियों से जुड़ गया है। कभी पढ़ा था, कि 'दुख सबको मांजता है', पर मैं नहीं जानता, कि वह मुझे मांज रहा है या नहीं, पर जोड़ जरूर रहा है, कविता के मन से ही नहीं, अपने मन से भी, जिसके बारे में मुझे ठीक ठीक नहीं पता, वह कितना मेरा है और कितना इस समय का, इस समाज का, इस सभ्यता का और इस संसार का। कहाँ लिखा है होना हमारा? पारुल शिद्दत से, बहुत पवित्र और खुले मन से खोजती हैं, होने के ठिकाने, होने के रूप रंग, न होने की कल्पना तक को जगह देती हैं, अज्ञात की सुध में बेसुध भटकती हैं, पर सारा कारोबार है शब्द के संसार का। बेशक, संसार के शब्द उनसे अलग थलग, उनसे अलहदा नहीं है। बल्कि ये संसार शब्द ही उन्हें किसी अन्य के लिए मानीखेज बनाते हैं। होने को देखना, सुनना, खोजना, खोना, पाना, होने में आना जाना, होने में इन्तजार, प्यार, घर परिवार, पशु पक्षी, पेड़ पौधे, नदी, झील, पहाड़, समुद्र, सभी जैसे संगवार की तरह उनके साथ हैं और वह खुद भी होने का दुख ही दिखाई देती, उम्मीद के कण दो कण कभी कभार बिखरेगी लगती है। पर इस होने के शब्दों में नहीं, 'दूसरे' थोड़े 'दूर के लगते' शब्दों में लिखना, जैसे उस विन्यास की गति प्रकृति से थोड़ा अलग हो जाना है और इसलिए लिखने की शुरुआत में ही एक तरह की विमूढ़ता घेर रही है। शब्द अपने मुद्रित विन्यास में, जिस तरह के मितकथन को साधते और व्यंजित करते नजर आते हैं, उसमें गति की आत्मीय मंथरता है, लेकिन गति किसी एक रस्ते पर बढ़ती और निश्चित ठिकाने पर जाकर, रुकने का आदेश देती, या इशारा करती गति नहीं है। सचमुच होने के रूप रंग, स्वाद, स्वर की अननुमेय विविधता से भरी एक ऐसी दुनिया है, जिसे आर्थी अन्तर्वस्तु की तरह सोचो, तो किसी सामान्यीकृत अवधारणा की तरह कुछ निष्कर्ष निकाल सकते हो, पर इसके पाठ ने मुझे सबसे पहली बात यही बताई और बिलकुल मेरी अपनी बात की तरह की बात थी वह, कि प्रचलित सामान्यीकरण के मुहावरे के रस्ते इसे मत पढ़ो। घर परिवार संसार के बीच, अपने होने की साधारणता को प्रकृति की प्राणमयता में रचती यह कविता, कुछ और होने के पहले वही है, जो अपने शब्द में है, और बाद में वह सब कुछ, जो व्यंजक गूंज की तरह पाठक के अंतस में रच रच जाती, उसे अर्थ से परे भी मौजूद 'अनुभव के भव' की तलाश के लिए भटकाती है।
पारुल पुखराज को पढ़ते हुए, उसकी हर कविता को पढ़ते हुए, मुझे बराबर यह अनुभव होता है, कि उसके यहाँ स्थायी भाव की तरह क्रियाशील है, इस संसार में होने का दुख। शायद अपने अधूरे होने का, और उसी के साथ पूरे होने की कोशिश का परिणाम है, उसका सारा सर्जनात्मक प्रयत्न। और इसी कोशिश में वह खोजती हैं, शब्द विन्यास के विविध रूपों में अपने अन्तर्मन की गति प्रकृति। यह अन्तर्मन निश्चय ही, किसी पूर्व निर्धारित, हर तरह से निश्चित गति प्रकृति का परिचालक नहीं है। और वह शायद मन के बारे में ही सोचती रहती हैं, कि कितना घना, कितना विविध, कितना बहुवर्णी संसार है मन के भीतर, पर जिसे स्वर या शब्द में साधने की कोशिश करो, तो सुरों और रंगों के बावजूद बार बार लहकने सा, झलकने सा, दिखता है वह दुख, जो शब्दों से कहीं दूर या परे, किसी जीवन्त उपस्थिति सा मौजूद है। क्या यह दुख स्त्री 'होने' का दुख है? दो टूक उत्तर नहीं है। स्त्री होने के दुख की एक सुदीर्घ परंपरा रही है हिन्दी कविता में। मीरा से महादेवी तक, अपने दुख को, अपने होने के विविध रूपों में पहचानती स्त्रियों ने, अपने को तरह तरह से अभिव्यक्त किया है। लेकिन अपने समय, अपने समाज और अपने घर और अपने मन की हालत को लिखने के लिए, उन्होंने जो रास्ता चुना, वह कविता का रास्ता है। कभी भावाकुलता में भाषा के कगार तोड़ती, फोड़ती, पुकार की एक विलक्षण गति, तो कभी उसी भाषा की अन्तरात्मा में अन्तर्निहित मौन के आकार पर पहुँचने की दिशा खोजती, इस काव्य परंपरा में अपना स्वर, अपने दुख की भाषा मिलाती हुई, इससे बहुत कुछ पाती हुई, भाषा के सत को आत्मसात करती हुई, 'अनुभव का भव' रचती हैं पारुल।
कभी कभी उसे पढ़ते हुए ऐसा भी लगता है, कि उसकी भाव व्यंजना में एक तरह की अनाकारता या कि अमूर्तता है और वहाँ मौजूद सारे शब्द जैसे किसी गूंज, किसी लय में बिला गए हैं। उस गूंज के विस्तार में, हम एक के बाद एक कविता से गुजरते, आखिर तक चले आते हैं, और तब भी सोचते हैं, कि कुछ है अन्दर जिसे सरल दो टूक अर्थ की तरह ही नहीं, बल्कि किसी और तरह या तरहों से देखना, जानना, पाना होगा। इसलिए यह भी लगता है, कि रैखिक या मूल या एकमात्र भाव की तरह 'दुख' को, काव्यनायिका के बयान और बखान से थोड़ा साफ नजर आते भावसिक्त अभाव को,  रचनाकांक्षा की विकलता में संसार के अनुभवों  से नम हुई आँखों से हमें शांत भाव से निहारते बिम्बों को, कुछ इस तरह से भी देखने की कोशिश करने की इच्छा होती है, कि खुद अपने आप से पूछें, कि इतने सख्त और सहज रूप से व्याकरणसम्मत विन्यास में बंधे ये शब्द, आखिर सचमुच हमसे क्या उतना ही कह रहे हैं, जितने अपने सहज सरलार्थ में कहते प्रतीत होते हैं। एक और अर्थ में यह भी लगता है कि, उनकी कई कविताएं पढ़कर भी, यह लगता है कि जैसे ये सारी कविताएं, किसी लम्बे सिलसिले के एकतान, विविधवर्णी भावरूप ही हैं। इसकी आकारगत और शब्दगत समानता तो लगभग उसी तरह प्रगट है, जैसी, इनकी प्रकृतिप्राणता। याने एक तरह से प्रकृति और वह भी उसका थोड़ा आत्मीय और नजदीकी रूप शायद काव्य विन्यास का ही नहीं, आत्मानुभव का ही एक अपरिहार्य हिस्सा मालूम पड़ता है। सतह पर आँख फिराते हुए ही, यह सहज ही महसूस किया जा सकता है, कि प्राय: सभी कविताओं में 'वाचक' ही कर्ताकारक है, हालांकि थोड़ा गहरे जाओ, तो यह भी लगता है, कि मानवेतर प्रकृति की प्राणवन्त उपस्थितियां ही जैसे असल वाचक हैं, क्योंकि वही हैं, जो दुख को ही नहीं, उस समूचे होने को धारे हैं, जहां कण दो कण सुख और उम्मीद बटोरती हुई कोई स्त्री जीने की कोशिश में लगी हुई। पर काव्य पाठ के समय यह बात किसी अ-भाव की तरह याद नहीं आती। नदियों, पहाड़ों, तालाबों, झीलों, पेड़ पौधे, जीव जन्तुओं को रचना प्रक्रिया की जीवन्त उपस्थितियों की तरह विन्यास में पिरोती कविताएँ ही संग्रह में ज्यादा हैं। बेशक इन सबको अपने अन्दर महसूस करती एक स्त्री तो वहां है ही। शायद दो एक कविताओं में परिवार के माध्यम से मानवीय उपस्थिति को दर्ज करती हुई भी दिखाई पड़ती हैं, वरना यह लगता है, कि दुख कहने की आत्माभिव्यक्ति की विवह्लता के बावजूद, वह ऐसी मन:स्थिति में नहीं आ पायी हैं, कि परिवेश और प्रकृति की इस आत्मीय दुनिया में, वह आत्मेतर, मानवीय उपस्थितियों को, ब्यौरों की शैल्पिक युक्ति की तरह ही इस्तेमाल करें, बल्कि, जिस गहरी अन्तर्निष्ठा के साथ वह कविता के स्वपरिभाषित स्वभाव से जुड़ी हैं, और जिस आदर्श से वह संवाद का सेतु रचना चाह रही हंै, वहां शायद यथार्थ मानव जीवन के गझिन ब्यौरों से, भावना की स्वत:स्फूर्त सक्रियता बाधित भी हो सकती है।
मेरा खयाल है, कि अब मुझे कुछ कविताओं के सहारे अपनी बात आगे बढ़ाने की कोशिश करनी चाहिए
कौन सुनेगा दु:ख
तुम्हारा

चिडिय़ा सुन ले शायद
दुबकी मुँडेर पर

चींटियां सुन लें
रेंगती अवसाद पर

सुन लेगा

होगा जो भी आकुल
गाने को दुख अपना
तुम्हारी तरह

पहले ही मैंने दु:ख और वेदना को संकलन के मूल भाव की तरह पढऩे की कोशिश की, हालाँकि यहाँ मूल भाव को देखने के दौरान आने वाले सारे भाव विभाव शामिल हैं, क्योंकि किसी भी अच्छी कविता में हम वही भर नहीं देखते, जो कविता दिखाती है, बल्कि वह भी देखते हैं, जो हमारा मन हमें दिखाता है।
इसलिए ही मैंने यह उद्धरण चुना है। इसमें दुख कहने की आकुलता मुखर है, याने जाहिर के अर्थ में मुखर है। वैसे वाचाल तो उनकी कविता कहीं भी नहीं है। यहां जो उम्मीद जैसी बात है, कि चिडिय़ा या चींटियां या एक 'कोई' जो कविता की तरह आकुल है, उसकी संभाव्य उपस्थिति में यह एक संकोच भरा बयान है। रोचक यह है, कि मुंडेर पर चिडिय़ा कह कर, चींटियों का संदर्भ सामने लाकर, जैसे वे दुख सुनाने या कहने वाली के होने के जाहिर भौतिक सन्दर्भ को भी, संकेतित करती हुई लगती है। सिर्फ इसी कविता से नहीं, बल्कि इसके ठीक पहले (छुएगा नहीं उदासी) और उसके ठीक बाद की कविता (आंख भरने तक) जैसी कविताएं पढ़ते हुए भी, इस दुख के पीछे की आवाज को, उसकी मौन मूक व्यथा वेदना में ही नहीं, बल्कि उसकी लैंगिकता और उसकी वर्णीयता में भी हम पहचान सकते हैं। और मेरा खयाल है, कि स्त्री जीवन के दुखों, अगर  हम उसकी प्रखर, इहलौकिक संदर्भों में पहचानना चाहते हैं, तो हमें इस संग्रह को इस पूर्वग्रह के साथ ही पढऩा चाहिए, कि इस दुख का संदर्भ, यह समाज और स्त्री का परिवार, और आज की सभ्यता का ही है। उसी के भीतर से कहीं धीमी सी आवाज के होने के बावजूद, अपने भीतर की रिक्तता भी है।
पढ़ते हुए यह सहज ही अनुभव होता है, कि अपने अन्यथा सुविधा संपन्न वर्ग और एक भरे पूरे घर में रहने वाली स्त्री की (कवयित्री की नहीं) इस संवाद विकलता के पीछे का असल कारण, उसके रोजमर्रा के होने के दुख का भी असल कारण, उसका अकेलापन है। वह 'प्रतीक्षा' को जैसे रोज के किसी 'दुख' की तरह जानती है और न कह पाने, किसी  के द्वारा न समझे जाने को दैनिक मन:स्थिति में अन्तर्निहित नियति की तरह। इसका एक कारण तो यह भी है, कि उसका एक रोजमर्रे का अनुभव यह भी रहा है, कि 'अंधकूप में खाली डोल सी उतरी है उसकी हर पुकार', लेकिन इसके बावजूद यह भी कि:

बना रहता है
सदा
गरजने पर बादल के
होना उम्मीद का

वर्षा
हो न हो

एक तरफ खाली डोल सी अंधे कुएँ में उतरी पुकार की व्यर्थता और दूसरी तरफ बादल के गरजने से, बारिश के होने न होने के बावजूद, जगी रहने वाली उम्मीद, भाव के इन दो छोरों के बीच विभाव के संसार को प्रच्छन्न किए, उसकी कविता, दरअसल एक निरंतर अन्तर्यात्रा की कविता है, जहां वह उस स्वयं से मिलती है, जो उसका मन है,:

मौन होना
रूसना नहीं होता
जैसे नहीं होता
खूब बतियाने का अर्थ
संवाद

निमिष भर
स्वयं से बाहर निकल देखना
दूर से छाया
खिलाता है परिचय
अपने ही अपरिचित मन से

जाहिर है कि रोजमर्रा के जीवन में सारा कुछ करते रहने के बावजूद, हर आदमी अपने एकान्त में अपने खिलते हुए मन को देखने की कोशिश करता है। शायद सर्जक की सतर्कता के चलते ही, पारुल ने अपनी कविता का ऐसा रुपाकार रचा है, जहां पाठक की कल्पना के लिए पूरा अवकाश है। शब्दों को ही नहीं, वाक्य विन्यास को भी एकार्थी स्तर पर सीमित करने से अलग, वह उन्हें अपनी मुक्ति की इच्छा से ही इन कविताओं में मुक्त रखने की कोशिश करती रही है।
अपने संकोच के बावजूद, बार बार अपने भीतर जाकर अपने को देखती इस कविता के पीछे की स्त्री, अन्य सभी स्त्रियों जैसी लगती हुई भी, अपनी कविता में उनसे अलग दिखती है। शायद अपनी कविता के कारण, शायद महज काव्य बोध नहीं, बल्कि अपने जीवन बोध के कारण भी। लेकिन यह जीवनबोध, जिन जीवनानुभवों से जुड़ा है, बल्कि कहें कि जन्मा और विकसा है, उन्हीं अनुभवों के बीचों बीच जीती हुई वह लिखती है:

निषिद्ध
हैं कुछ शब्द
जीवन में
जैसे कुछ
जगहें

अंधी कोई
बावड़ी
जैसे
सिसकी अधूरी
सूना आकाश

व्यक्त हो जिनमें तुम

जहां होना लिखा है तुम्हारा

मैंने यह पूरी कविता जस की तस उतार दी है। जैसे संग्रह की कविताओं में भावपोषित और शैल्पिक दोनों ही स्तरों पर एक तरह की एकतानता या तारतम्यता है, वैसे ही किसी एक विशिष्ट कविता के बारे में भी यह बात सही है, कि भाव व्यंजना की सार्थकता को पूरी तरह से आत्मसात करने के लिए, एक गहरे स्तर पर स्त्री के दुख को अपने मन में थोड़ा निकट से जानने के लिए भी, उनकी कविता के कोटेबल कोट से काम नहीं चलता। उसे पूरे में पढऩा जरूरी लगता है। यह बात मैं उनके काव्य के सुघड़ स्थापत्य को रेखांकित करने के लिए नहीं कह रहा हूं, बल्कि उस मन को समझने का रास्ता ढूंढ़ते हुए कह रहा हूं, जहां सब कुछ साधारण सामान्य होने के बावजूद, बहुत कुछ अलग है। इस कविता के 'निषिद्ध' शब्द पर मैं अटका था। आगे पढ़ते हुए सोचने लगा था, कि 'जहां व्यक्त है, होना तुम्हारा' याने अंधी बावड़ी, सिसकी अधूरी या सूना आकाश, वे जगहें हैं, जहां एक स्त्री अपने होने रीतेपन को अपने मन के भीतर देख रही है? क्या इन्हीं जगहों के लिए कहा गया था, कि निषिद्ध हैं कुछ जगहें? मध्यवर्गीय स्त्री जीवन के अति सामान्य अनुभवों की अपनी जानकारी के आधार पर मुझे लगता है, कि कविता के भीतर की इस स्त्री का दुख समय और समाज और जीवन में अनुभूत बंधनों का, (शायद वर्जनाओं का भी) दुख है। लेकिन जिस शिद्दत से, और जिस मद्धम गूंज की सी आवाज में वह उसे रचती है, उससे लगता है, कि वह इसी संसार में होने के दुख को ही लिख रही है और लिखते हुए महसूस कर रही है:

कोई स्वप्न नहीं
नहीं
कोई एक भी

दांव सा
जिस पर खेलूं
जीवन

चुभे
जो

बंजर नींद
को

'बंजर नींद' और स्वप्नरहित जीवन को, रोजमर्रा के अनुभवों में जानने की वजह से ही, वह सर्जनात्मकता की ऐसी भाषा की तलाश में लगी हुई है, जो उसे, आत्मवेदना अवसाद के अभाव के बिलकुल एकरस या एक जैसे हो गए संसार में, रिहाइश की मजबूरियों से भिन्न होने की सार्थकता का अनुभव दे सके। शायद इसीलिए ही भाषा के भीतर आत्म के असल को पहचानने की अपनी कोशिश में, अपनी संस्कारी आस्तिकता के बावजूद, वह इसी कविता की ठीक पहले की कविता में यह कहती है, कि बाहर एक कमजोर कबूतर की गूटरगूँ में ईश्वर पुकारता है, चुगता है उसके पाप, दाना दाना। यही नहीं, इस स्वप्नहीन जीवन में उसे आवाज भी एक बियाबान की तरह लगती है, जहाँ वह गूंजती है, अंतिम सिसकारी सी। आशय यह है, कि इस वेदना विजडि़त सुघड़ अभिव्यक्ति के भीतरी संसार की यात्रा में, इतनी चौकसी रखनी ही होगी, कि हम इस आवाज के ऐसे हो जाने वाले ऑब्जेक्टिव को रिलेटिव की कल्पना तो करें, क्योंकि मुझे लगता है, कि इहलौकिक और कई बार दैहिक संदर्भों को अनुभूत व्यथा से जोड़ती हुई यह कविता हमें इस दिशा में अर्थ की खोज की ओर भी उन्मुख करती है।
उनकी एक कविता है 'उसमाए चेहरों का वास'। कविता में एक स्त्री बाहर के दृश्यों को देख रही है, तो सर्वत्र उसे गीले दृश्य, दिखाई दे रहे हैं। 'स्याह बादलों में डूबी साँझ', 'काई लगे पहाड़', 'फफूँद सने वृक्ष' और यह सब ऐसा, कि यहाँ 'चिडिय़ों की भीगी चहक' तक में 'सभ्यताओं  के उमसाए चेहरों का वास' है, और उन्हें देखना 'सदियों से जब्त रूदन का बेआवाज फूटना है। दरअसल मैं इन्हीं आखिर से गूंजती व्यंजना के आनुभविक दृश्य को देखता सोच रहा था, कि नायिका के मन के दुख को प्रकृति में प्रसारित देखना या दिखाना भर कवयित्री की रचना का मन नहीं है। अगर हम रचना के मन में प्राण रस की तरह मौजूद शब्द विन्यास के प्रयोजन तक जाना चाहें, तो हमें 'सभ्यता के उमसाए चेहरों' और 'सदियों से जब्त रुदन' के बारे में थोड़ा रुक कर सोचना होगा। इन शब्दों का प्रयोग अहेतुक नहीं है। या किसी निजी प्रसंग की मन:स्थिति भर से होने जैसा भावुक भी नहीं है, जैसा कि हम 'चौदह फरवरी' नामक कविता के बारे में कुछ हद तक कह भी सकते हैं। सामने के प्राकृतिक दृश्यिो तक में, सभ्यताओं के असर को इस तरह देखना, कि वह सदियों के जब्त रूदन से जुड़कर कथन की आलंकारिकता को वस्तुस्थिति की ऐतिहासिकता से जोडऩे सा लगता है।
दरअसल कवयित्री के यहां 'कोई' या 'अज्ञात' जैसे शब्दों का इस्तेमाल एकाधिक बार देखने को मिलता है। इसके अलावा सुगठित मितकथन की सुन्दर साधना के बावजूद, काव्य के विन्यास से ही झलकते संकोच की वजह से, यह बात भी सोची जा सकती है, कि कविता को एक तरह से पारलौकिक आध्यात्मिकता देने की कोशिश की जा रही है। इसीलिए मैं इसी प्रसंग पर बात करते हुए उनकी एक दूसरी कविता याद कर रहा हूं। 'उमगती पथरीले कण्ठ से' आवाज पर ही लिखी, इसी संग्रह की एकाधिक कविताओं की याद दिलाती है। जैसे 'खोजती हूं तुम्हें विह्वल बेआवाज' या 'याद करने पर/याद करने की आवाज नहीं होती,' जैसी कई कविताएं हैं, जहां बतौर शब्द आवाज का इस्तेमाल हुआ है, और जैसे वह शब्द ही एक तरह की दैहिक इकलौकिकता की ऊष्मा और पुकार का रूपाकार हो गया है। 'उमगती पथरीले कण्ठ से' में तो, जिस वातावरण में आवाज उमग रही है, उसका चित्रण ही एक तरह के रति भाव का परिचायक लगता है। संकोच के धागों के खुलने और आवाज की गिरह की ढीली पडऩे जैसी बात से कथन को आगे बढ़ाती, आखिर में वह कहती है, 'मारती, जिलाती, भस्म करती, लुटाती पल पल, सर्वस्व, विचरती देह के दलानों में अविराम।' इस तरह के शब्दों से गुजरते हुए कथन के वाचक को हम जिस रूप में देखते हैं, वह रूप निश्चय ही अपनी व्यथा वेदना तथा कामना के साथ, इस विशिष्ट भारतीय परिवेश में रहने, जीने वाली मध्यवर्गीय स्त्री का ही आत्मरूप लगता है। शायद स्वयं उसकी रचना में उसकी अन्तरंग पुकार सी शामिल, मुक्ति की उसकी इच्छा भी थोड़े मुखर रूप में स्वयं को रचती हुई कहती है:

उस अज्ञात की सुध में
वह बावड़ी का अंधेरा भी थी कहीं
दूब की नोक से ढरकती ओस की बूंद भी

आषाढ़ की सूनी रात

वह
कोई
थिरक थी
धुन थी
कबीलाई गीत थी

इस स्थिति के कथन की मुखरता तक पहुंचने के पहले काव्य नायिका 'नाजुक रगों में बिहाग की सरगम' और 'मधुर लयकारी' सुनती, 'सुलझाती संकोच के धागे, खुद निढाल हो' हो, देख चुकी है, अपने तन को 'नदी की धार पर विशाल बजरे सा', और यहां तक आने के बाद जो महसूस कर रही है, उसकी मुखरता, मुक्ति की उसकी इच्छा को ही शब्द देती प्रतीत होती है। आशय यह, कि अज्ञात की सुध में, जैसे कहीं ज्ञात और अनुभव की स्मृति भी छिपी है, जिसे उसने इच्छा के देवालय में, निर्भय विचरने की प्रार्थना की तरह जाना है। अनुभव में, संसार में होने के अपने अनुभव में, पीड़ा को, अचल जड़ होने की स्थिति तक जाने के बावजूद, काव्य नायिका के भीतर इच्छाओं का एक सघन और ऐन्द्रिक संसार है, लेकिन उसके पास उसी मात्रा में भाव और भाषा का संयम भी है। शायद यही कारण है, कि उसकी कविता भाव का मार्मिक संसार तो रचती है, पर विभाव के रुक्ष और यथार्थ बोझिल विवरणों से परहेज करती सी दिखाई देती है।




संपर्क : मो. 09424183427


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