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अप्रैल 2017

सीलू मवासी का सपना

दिनेश भट्ट

कहानी




गर्मी परवान पर थी। बाहर जैसे अंगारे बरस रहे थे। सड़क की गिट्टियाँ जगह-जगह उखड़ गई थी इसलिए प्रशांत को कार चलाने में परेशानी हो रही थी। बोतलें खंगाला, पीने का पानी भी खत्म हो रहा था। अपने काम के अंजाम को देखने का जोश कुछ ऐसा था कि उसे ये परेशानियाँ मामूली लग रही थीं। ऑस्ट्रेलिया से लौटने के दूसरे दिन भी प्रशांत मड़कापुर गाँव के लिए रवाना हो गया। हड़बड़ी में अकेला चला आया। चाहता तो किसी को साथ ले आता।
सूखे नाले से टर्न लिया तो सामने एलकापर गाँव नजर आया। तसल्ली हुई। एलकापार के बाद ऊँची पहाड़ी पार करते ही मड़कापुर है। पहली कार्यशाला हमने एलकापार में ही की थी। कितना मुश्किल हुआ था मैडम मैकेंजी को एलकापार तक लाना। पैंसठ वर्षीय उस अंग्रेज महिला में आदिवासी जीवन के उत्थान के लिए गहरा समर्पण-भाव था, इसलिए सारी कठिनाईयों के बावजूद वे यहाँ आ गई थीं। प्रशांत अपने दिमाग में जैसे सब कुछ दुहरा रहा था।
एलकापार में उसने गंगाधर सर के घर के ठीक सामने गाड़ी रोकी। आस-पास के घरों में सन्नाटा पसरा था। शायद सभी खेतों को गए थे। प्रशांत के कार से उतरते ही धूल-मिट्टी सने मवासी बच्चों का हुजूम कार के इर्द-गिर्द जमा हो गया। गंगाधर के घर पर ताला पड़ा था। बच्चों से उसने पूछा— ''सर कहाँ है?''
बच्चे मूक-दर्शक से केवल उसे घूर रहे थे। उसे याद आया, गाँव के इस टोले में कोई हिंदी नहीं जानता, सभी मवासी भाषा ही बोलते हैं। उन दिनों वह कुछ-कुछ मवासी सीख गया था, लेकिन अब दो साल हो चुके हैं। क्या कुछ याद आएगा।
भीड़ में गंगाधर का बच्चा दिखा। प्रशांत ने दिमाग पर जोर डालकर कुछ मवासी याद की और पूछा- ''ओबा तोरेण?'', मतलब, ''पिता कहाँ है?''
बच्चे ने खट जवाब दिया- ''काकू गोगोय डोय सेन ऊ।''
वह केवल दो शब्दों का अर्थ निकाल पाया। काकू याने मछली और डोह याने तालाब। मतलब, बेटे सर मछली मारने तालाब गए हैं।
उसने मड़कासुर की राह पकड़ी। वह तो सीलू सर से मिलने के लिए बेचैन था।
सीलू सर के चेहरे की उस खुशी को वह देखना चाहता था जो संघर्षों के कामयाब परिणाम के बाद सहज ही उतर आती है। छत्तीस वर्ष के इस नौजवान शिक्षक के चेहरे और दिल में अपनी जाति और अपनी भाषा के लिए प्रशांत ने जब कसक देखी थी, तब उसे लगता था यही वेदना, यही कसक बाबा अंबेडकर के अंदर रही होगी और शायद गांधी और महाश्वेता देवी में भी।
अपने लोगों और अपनी भाषा के पिछड़ेपन को दूर करने के लिए सीलू की छटपटाहट, मन की परिपक्वता और इच्छाशक्ति को याद करते हुए प्रशांत कार चलाते-चलाते सोचने लगा- ''आज सीलू कितना खुश होगा जब यहाँ के स्कूलों में अब बच्चे पहली-दूसरी कक्षा में मवासी भाषा की प्राइमर किताब से सीख रहे होंगे।''
इस जिज्ञासा से वह बढ़ रहा था कि पहुँचते ही वह मवासी भाषा पढ़ते हुए बच्चों को और सीलू को पढ़ाते हुए देखेगा। हिंदी-भाषी शिक्षकों को मवासी में पढ़ाते हुए देखेगा। उत्कंठा जोर मारने लगी।
उसे याद आया, यह सब इतना आसान नहीं था। एक लंबी जद्दोजेहद के बाद यह संभव हो पाया है।
तीन साल पहले की स्मृतियों को उसका मस्तिष्क परत-दर-परत उधेड़ेने लगा।
जिला शिक्षा एवं प्रशिक्षण संस्थान के व्याख्याता सुबोध पांडे के साथ प्रशांत मड़कासुर स्कूल के निरीक्षण पर आया था। पांडे जी हेडमास्टर के कार्यालय में आवश्यक खानापूर्ति कर रहे थे। वह कक्षाएँ देखने चला आया। एक कक्षा में शोर हो रहा था। एक कक्षा शांत थी। जबकि दोनों कक्षाओं में शिक्षक थे।
शांत वाली कक्षा में शिक्षक भीमनराव सीलू थे। प्रशांत ने उनसे ही पूछा- ''आपकी क्लास शांत है सर, किन्तु उस क्लास में शोर क्यों?''
जवाब मिला- ''सर, उस क्लास में हिंदी टीचर है, मैं मवासी टीचर हूँ।''
''मैं समझा नहीं।''
''सर, इस गाँव के बच्चे मवासी भाषा ही जानते हैं इसलिए हिंदी - भाषी टीचर इन्हें ठीक से नहीं पढ़ा पाते हैं। मैं मवासी शिक्षक हूँ इसलिए अच्छे से पढ़ा लेता हूँ।''
''फिर तो ये बच्चे पढऩे में बहुत कमजोर रहते होंगे?'' अचंभित सा उसने पूछा।
''हाँ सर, पाँचवी कक्षा में पहुँचते तक बच्चे बामुश्किल पढऩा सीख पाते हैं। आठवीं पहुँचते-पहुँचते अधिकांश बच्चे स्कूल छोड़ देते हैं और खेती-किसानी, मजदूरी में लग जाते हैं।'' सीलू सर के चेहरे पर गहरा अवसाद सा उतर आया था।
सीलू के चेहरे को काला कहें या साँवला, इनके बीच का ही कोई रंग। इस रंग की भी एक चमक हो सकती थी लेकिन चेचक के दागों ने उसे भी दबा दिया था। गोल-मोल मझोली सी आँखें जिनमें कई-कई प्रश्न टंगे नजर आते थे। उसने हल्के गुलाबी रंग की शर्ट पहन रखी थी जिससे उसका व्यक्तित्व निखर रहा था नहीं तो अक्सर देखने में आता है कि काले-साँवले लोग डार्क रंग की शर्टें पहन लेते हैं, जिनसे उनका व्यक्तित्व भ्रमित करता है।
''ऐसे कितने स्कूल होंगे जहाँ भाषा की यह समस्या है?'' प्रशांत ने जैसे उसके चेहरे पर कुछ तलाशते हुए पूछा था।
''सर, छिंदवाड़ा जिले में लगभग तीस-चालीस मवासी-जनजाति के गाँव हैं और सभी जगह यही स्थिति है। किसी गाँव में कोई बिरला मवासी ही मैट्रिक पास कर पाता है।''
''मवासी भाषा क्या गोंडी भाषा से अलग है?'' प्रशांत ने तफ्तीश की।
''हाँ सर, गोंडी एकदम अलग भाषा है। गोंडी की अब लिपि भी बना दी गई है, मवासी की कोई लिपि नहीं है।''
''तुम्हारे जैसे मवासी भाषी टीचर और कितने होंगे?''
''पाँच-सात से ज्यादा नहीं।''
जवाब सुनकर वह हतप्रभ था। बौद्धिक विकास का दंभ भरने वाला यह महादेश। एक जनजाति, शिक्षा के सोपानों से इस तरह वंचित। प्रशांत के दिमाग में खटका हुआ।
तभी भोजन-अवकाश की घंटी बजी। बच्चे बाहर निकलने लगे।
वे दोनों भी बतियाते हुए स्कूल के बार निकल आए।
स्कूल एक बड़े से टीले पर बना था। टीले से पहाड़ों की एक बड़ी श्रृंखला नजर आ रही थी।
''क्या इन पहाड़ों पर भी गाँव हैं?''
''हाँ सर, मेरा गाँव भी इन्हीं पहाड़ों पर है। विकासखंड मुख्यालय बिछुआ से यहाँ तक पक्की सड़क है इसलिए आप चले आए लेकिन अब यहाँ से पहाड़ों पर बसे दस-पंद्रह गाँवों में पैदल ही पहुँचा जा सकता है।''
''इन गाँवों में तुम्हारे जैसे और भी पढ़े-लिखे लड़के हैं?''
''नहीं सर, कोई नहीं हैं। मेरा बड़ा भाई बिछुआ में मजदूरी करता था, मैं उनके साथ रहकर पढ़ लिया और नौकरी मिल गयी। मेरे बचपन के साथी मजदूरी कर रहे हैं।'' उसकी बोली में एक बैचेनी भरी विनम्रता झलक रही थी।
भोजन-अवकाश की घंटी बज गई।
लौटते हुए प्रशांत ने अपना एक सुझाव सीलू सर के सामने रखा— ''क्यों भाई सीलू...! मवासी भाषा में प्राथमिक स्तर पर कुछ किताबें बना दी जाए तो बच्चे शैक्षिक अवधारणाओं को जल्दी समझ सकेंगे और उनकी बुनियादी मजबूर होंगी।''
''हाँ... क्यों नहीं?''
सीलू को जैसे बोतल से अभी-अभी निकला जिन्न मिल गया।
वह उत्सुकता में प्रशांत के नजदीक आ गया और बोला— ''सर, ये कैसे संभव है, मुझे बताइए। मैं कुछ भी करने को तैयार हूँ।'' उसके साँवले चेहरे पर उम्मीदों की हरियाली लहरा रही थी और सफेद दाँत चमक उठे थे।
दूरस्थ गाँव के इस नौजवान शिक्षक में अपनी भाषा और जाति के विकास के उत्कट ज•बे को देखकर प्रशांत बहुत प्रभावित हुआ था।
लौटते समय उसने सीलू को आश्वस्त किया कि वह मवासी में किताबों की बात ऊपर के अधिकारियों तथा शिक्षाविदों के बीच जरूर ले जाएगा।
ठीक उस तरह जैसे हम किसी सभागार में सुन रहे भाषणों से वैचारिक रुप से उद्वेलित तो होते हैं लेकिन सभागार से बाहर होते ही उसे विस्मृत कर देते हैं, वैसे ही प्रशांत अपनी रोजमर्रा जिंदगी की आपाधापी में सीलू से किए वादे को भूल गया।
कुछ दिनों बाद जिला शिक्षा एवं प्रशिक्षण-कक्ष से बाहर निकला तो, प्रशांत उसे प्राचार्य-कक्ष में घुसते दिखा। कहीं प्रशांत चला न जाए इस आशंका से सीलू प्राचार्य-कक्ष के बाहर ही खड़ा रहा जबकि उसे स$ख्त प्यास लगी थी।
प्रशांत के बाहर निकलते ही सीलू ने पुकारा- ''सर मैं सीलू...। आपने मवासी भाषा में प्राथमिक स्तर पर किताबें बनवाने का आश्वासन दिया था, उस पर कुछ काम हुआ क्या?''
प्रशांत उसके पास आया, कंधे पर हाथ रखकर कहा- ''याद है भाई, जल्द ही कुछ करते हैं।''
सीलू आगे कुछ कह पाता इसके पहले प्रशांत चल दिया।
इस मुलाकात के दो-तीन महीने बाद तक भी प्रशांत की तरफ से कोई हरकत नहीं हुई, तो सीलू एक दिन अपने तीन मवासी शिक्षक साथियों के साथ प्रशांत के घर आ धमका।
चारों ने जमकर प्रशांत की चाबी भरी।
कुछ दिनों बाद एक इत्तफाक हुआ। डाइट के पांडे जी प्रशांत को एक तीन दिवसीय लेखन कार्यशाला में राज्य शिक्षा केंद्र भोपाल ले गए। कार्यशाला ''बहु-कक्षा शिक्षण'' पर एक प्रशिक्षण-पुस्तिका तैयार करने के लिए आयोजित थी। कार्यशाला में बी.एड. कॉलेज एवं डाइट के व्याख्याता तथा कुछ शिक्षाविद मौजूद थे। कार्यशाला का लक्ष्य वे स्कूल थे जिनकी दर्ज संख्या सौ से कम है और दो शिक्षक कार्यरत हैं। ऐसे शिक्षक पाँच कक्षाओं का अध्यापन कैसे करें इस संदर्भ में ''प्रशिक्षण-पुस्तिका'' लिखी जानी थी। कुछ जिलों के डाइट प्रतिनिधियों ने अपने आलेख पढऩे प्रारंभ किए। आलेख वैचारिक रूप से भारी थे और इस प्रकार के स्कूलों के यथार्थ से एकदम दूर लग रहे थे। दो-तीन लोगों ने और आलेख पढ़े तो प्रशांत का सब्र का बांध फूट पड़ा। उसने हाथ उठाकर कार्यशाला के कोआर्डिनेटर प्रोफेसर गुप्ता से कुछ कहने की इजाजत मांगी। साथ आए पांडे जी इस डर से उसका हाथ दबा रहे थे कि कहीं वह कोई बबाल न खड़ा कर दे क्योंकि वहाँ प्रशांत केवल अकेला शिक्षक था बाकि सभी व्याख्याता और शिक्षाविद थे।
गुप्ताजी ने इजाजत दी तो प्रशांत ने बोलना शुरु किया- ''सर मैं सबसे पहले यह पूछना चाहता हूँ कि, क्या यहाँ उपस्थित सज्जनों में किसी ने लक्षित स्थिति में कभी बहु-कक्षा शिक्षण किया है?''
सभागार को जैसे साँप सूंघ गया। गुप्ता जी सभी के चेहरे गौर से देख रहे थे। किसी से भी 'हाँ' का उत्तर न पाकर वे प्रशांत की तरफ मुखातिब हुए- ''आप कहना क्या चाहते हैं मिस्टर शर्मा?''
''सर मैं यह चाहता हूँ कि अनुभवहीन तथ्यों को प्रदेश के शिक्षकों पर न थोपा जाए। मैं बहु-कक्षा शिक्षण वाले स्कूलों और शिक्षकों की वस्तुस्थिति बताना चाहता हूँ ताकि बनाया गया मसौदा यथार्थपक हो।''
गुप्ता जी प्रशांत से न केवल खुश हुए बल्कि उन्होंने उसके कुछ सुझाव मसलन 'सामूहिक दक्षता' तथा 'बहु-कक्षा शिक्षण के लिए उसके द्वारा निर्मित सहायक शिक्षण सामग्री' को अपने मसौदे में प्राथमिकता से शामिल भी कर लिया।
इस सारे प्रसंग का लब्बोलुआब यह है कि गुप्ता जी से प्रशांत की अच्छी बन रही थी, वे हर डिश्कसन में उसे अवसर दे रहे थे।
एक दिन मौका पाकर प्रशांत ने मवासी भाषा के प्राइमर और सीलू सर की भावना का जिक्र छेड़ दिया।
दूसरे दिन सुबह-सुबह गुप्ता जी प्रशांत के कमरे में आए और कहा - ''मिस्टर शर्मा, आज राज्य शिक्षा केंद्र में 'इंटरनेशनल नेटवर्क फॉर डेवलपमेंट' की डायरेक्टर मैडम जेनिफर मैकेंजी एक मीटिंग ले रही हैं। वे यहाँ इंडियन ट्राईबल्स की शिक्षा और स्वास्थ्य पर काम कर रही हैं। मैंने मीटिंग में मवासी भाषा के लिए तुम्हारी इंट्री कर दी है। अच्छा होमवर्क करो, अपनी बात पु$ख्ता ढंग से रखो, शायद कुछ काम बन जाए। ठीक ग्यारह बजे सेंट्रल हॉल में पहुँच जाना।''
वह एक गोलमेज मीटिंग थी। हर चेहरे आमने-सामने। मैडम जेनिफर मैकेंजी के अलावा विभाग के कुछ उच्च अधिकारी और कुछ एन.जी.ओ. के सदस्यों से भी प्रशांत को रुबरु होना था। उसने अपनी बात कुछ इस तरह पेश किया -  ''मैडम, मवासी जनजाति की मुख्य भाषा मवासी है। मवासी की कोई लिपि नहीं तथा कोई लिखित व्याकरण भी नहीं है। छिन्दवाड़ा जिले के विकासखंड जुन्नारदेव, बिछुआ, सौंसर, मोहखेड़ के कुछ मवासी गाँवों में यह भाषा बोली जाती है। इन गाँव के स्कूलों के बुरे हाल हैं। हिंदी-भाषी टीचर यहाँ पढ़ाते हैं, बच्चे पढऩे-लिखने में बहुत कमजोर रहते हैं। बच्चे पाँचवी कक्षा में पहुँचते तक बामुश्किल पढऩा सीख पाते हैं। आठवी पहुँचते-पहुँचते अधिकांश बच्चे स्कूल छोड़ देते हैं और खेती-किसानी, मजदूरी में लग जाते हैं। किसी गाँव में कोई बिरला मवासी ही मैट्रिक पास कर पाता है। इस कारण इन गाँवों से पिछड़ापन और गरीबी दूर नहीं हो रही है।''
''मवासी क्या गोंडी ओर कोरकू से अलग भाषा हैं?'' मैकेंजी के किसी साथी ने पूछा था।
''हाँ सर, एकदम अलग है, हालांकि मवासी जनजाति गोंड, भारिया आदि जनजातियों के साथ निवास करती है। यह जनजाति अधिकांशत: पहाड़ों की तलहटी एवं मैदानी मठार में निवास करती आ रही है।''
''इनका कोई हिस्ट्री और जनसंख्या?'' मैकेंजी ने प्रशांत के चेहरे पर आंखें गड़ाकर पूछीं थी।
अब प्रशांत ने जेब से कागज निकाला। अधिकारियों के तरफ दिखाते हुए पूछा था, पढ़ सकता हूँ?
''हाँ, क्यों नहीं।'' समवेत सहमति मिली।
उसने पढऩा शुुरु किया - ''मवासी मध्यप्रदेश की अनुसूचित जनजाति की सूची क्रमांक 32 पर उल्लेखित एक जनजाति समाज है। मवासी जनजाति की उत्पत्ति का कोई स्पष्ट उल्लेख नहीं मिलता है। यह कोलारियन जनजाति समूह की एक शाखा मानी जाती है। यह कोरकू जनजाति की एक शाखा है जो मोवास क्षेत्र में निवास करने के कारण कालांतर में मवासी के नाम से पहचाने जाने लगे। सन् 2001 ई. की जनगणना में मवासी की जनसंख्या 81212 थी इसमें छिन्दवाड़ा जिले में 66420 थी।
''आप क्या चाहते है, शर्मा जी?''
उसे बीच में टोका गया।
''मेरा सुझाव है कि मवासी भाषा में प्राथमिक स्तर पर कुछ किताबें बना दी जाए तो बच्चे अपनी भाषा के मार्फत बुनियादी शैक्षिक अवधारणाओं को समझ सकेंगे जो उन्हें शिक्षा की मुख्य धारा से जुडऩे में मदद करेगी।'+
''कौन लिखेगा किताबें?'' प्रश्न उछला।
''मेरे साथ कुछ मवासी शिक्षक हैं जो हिंदी और मवासी दोनों में दखल रखते हैं। वे इस काम के लिए कमर कस कर तैयार हैं।''
प्रशांत ने देखा मैडम जेनिफर मैकेंजी उसकी बात न केवल ध्यान से सुन रही थीं बल्कि बीच-बीच में पास बैठे अधिकारियों से चर्चा भी कर रही थीं।
भोपाल कार्यशाला से लौटने के एक पखवाड़े बाद प्रशांत को फरमान आया कि मैडम मैकेंजी मवासी क्षेत्रों का दौरा करना चाहती हैं, उसे जिला शिक्षा केंद्र के साथ मिलकर व्यवस्था बनानी है।
मैडम मैकेंजी के दौरे की खबर से भीमनराव सीलू का दिल जैसे नाच उठा था।
जब जिले की टीम मैडम मैकेंजी को लेकर एलकापार पहुँची थी, वहाँ का नजारा ही अलग था। भीमनराव सीलू तथा गंगाधर बेटे एलकापार और आसपास के गाँव के सैंकड़ों मवासी महिला-पुरुष और स्कूली बच्चों के साथ मैडम मैकेंजी की राह में पलक-पॉवड़े बिछाए खड़े थे। गाडिय़ाँ पहुँचते ही ढोल-मांदल पर थापें पडऩे लगी। स्कूल के सामने मंडप सजाया गया था जिसमें आम के पत्तों और गेंदे के फूलों की बंदनवार झूल रही थी।
जैसे ही मैडम मैकेंजी गाड़ी से उतरी, मवासी लोकगीतके स्वर वातावरण में तैरने लगे—

आले नी आदिवासी, आलेनी ठाकुर मवासी
                      धारा गन है आले गा राजा
आलेनी आदिवासी आलेनी ठाकुर मवासी - हो....हो... हो
आले गानी जाति छात्री कैलाओदा आलेनी
                  काकू बजोम दा जीलू भी बजोमदा
आलेनी आदिवासी आलेनी ठाकुर मवासी - हो....हो...हो

आदिवासियों के बीच आकर मैडम मैकेंजी अभिभूत थीं। उनका कैमरा हर दृश्य, हर हालात को कैद कर रहा था। सीलू की तैयारी देखकर प्रशांत भी विस्मय से भरा था।
स्वागत-सत्कार के बाद सीलू ने छोटा सा भाषण जैसा दिया, जिसमें उसने मवासी जाति के पिछड़ेपन के कारणों का खुलासा करते हुए फिर वही बातें दुहरायी जो उसने प्रशांत से कहा था। इस गाँव के स्कूलों के बुरे हाल हैं। हिंदी- भाषी टीचर यहाँ पढ़ाते हैं, बच्चे पढऩे-लिखने में बहुत कमजोर रहते हैं। बच्चे पाँचवी कक्षा में पहुँचते तक बामुश्किल पढऩा सीख पाते हैं। आठवीं पहुँचते-पहुँचते अधिकांश बच्चे स्कूल छोड़ देते हैं और खेती-किसानी मजदूरी में लग जाते हैं। किसी गाँव में कोई बिरला मवासी ही मैट्रिक पास कर पाता है।
मैडम मैकेंजी की हिन्दी बहुत अच्छी नहीं थी, इसलिए पास बैठा प्रशांत किसी द्विभाषिये की तरह अंग्रेजी में उन्हें सीलू की बातें समझाते रहा।
मैडम मैकेंजी ने मवासी बच्चों के साथ खेल खेला, फोटो खिंचवाएं। सभी के साथ पलसे की पत्तल पर कुटकी का भात और चने का बेसन मजे से खाया। भोजन करते समय एक मजेदार वाकया हुआ। जिस बड़े चम्मच से बेसन परोसा जा रहा था मैकेंजी उसे बार-बार देख रही थीं। आखिर उन्होंने परोसने वाले के हाथ से उसे ले लिया और आँखें फाड़कर देखने लगीं। प्रशांत मैडम मैकेंजी की जिज्ञासा ताड़ गया था, उसने उन्हें बताया- दरअसल वह चम्मच नहीं तुम्बा यानी सूखी हुई लौकी है जिसके अंदर का गूदा निकालकर चम्मच बना लिया गया है। प्रशांत ने यह भी बताया कि ये लोक पलाश के पत्तों से अनाज की कोठी बना लेते हैं, लकड़ी की परात बना लेते हैं और बारिश में पलाश के पत्तों की छतरी भी बना लेते हैं।
''प्रकृति के नजदीक रहना ठीक है लेकिन आधुनिक सुविधाओं से भी ये आदिवासी क्यों दूर रहें, हमें इनका उत्थान करना ही चाहिए।'' मैडम मैकेंजी ने द्रवित होकर बड़ी ही सहजता, विश्वास और सादगी से यह भावना प्रकट की थी।
अगले गाँवों के दौरों के लिए मैडम मैकेंजी ने सीलू को साथ ले लिया था। सीलू की आखों में उम्मीद की रोशनी और चाल में फुर्ती अलग ही नजर आ रही थी।
दो दिनों तक प्रशांत की टीम ने उन्हें बिछुआ ब्लाक के भीमान- गोंदी, टेकापार, जामरापानी, चकारा, आमाझिरी, मड़कासुर, गाँव तथा जुन्नारदेव ब्लाक के सांगाखेड़ा, मुआरी, रामपुर गाँव ले जाकर मवासी जीवन एवं शिक्षा की स्थिति से रूबरू कराया।
मैकेंजी हालात से व्यथित हुई थीं। उन्होंने प्रशांत-सीलू से मवासी भाषा में कक्षा पहली के लिए भाषा-गणित के प्राइमर पढ़ाने के लिए एक प्रोजेक्ट बनवाया और लेकर चली गईं।
अगले चार-पाँच महीने तक प्रशांत अपने कामों में व्यस्त रहा। इस दौरान सीलू पाँच-छ: बार उससे मिलने आया लेकिन उसके पास कोई सूचना नहीं थी इसलिए वह उसे टालते रहा।
लंबे समय तक कोई सार्थक कार्रवाही नहीं हुई तो आखिर एक दिन सीलू प्रशांत को खींचकर जिला शिक्षा केंद्र ले गया।
एक अधिकारी ने बताया कि लौटने के एक महीने बाद ही मैडम मैकेंजी ने अपनी संस्था 'इंटरनेशनल नेटवर्क फॉर डेवलपमेंट' से भाषा-गणित के प्राइमर बनाकर पढ़ाने के लिए जिला शिक्षा केंद्र को पाँच लाख रुपए उपलब्ध करा दिए थे।
''फिर आप लोग क्या कर रहे है?'' दोनों अंदर से खौल उठे।
दोनों के दिमाग में गुस्से और आक्रोश का अजीब सा कॉकटेल उफन रहा था, लेकिन अफसर के सामने मातहत अक्सर अंदर से गरम और ऊपर से नरम ही होता है सो दोनों यह आश्वासन पाकर लौट आए कि कुछ दिनों में काम शुरु कर दिया जाएगा।
महीना बीत गया तो सीलू की बैचेनी बढ़ गयी। अंधेरे में घूमती सर्च लाईट की तरह उसके अंदर यह विचार बार-बार चक्कर लगा रहा था कि जिला शिक्षा केंद्र में रखे पाँच लाख उसकी अगली पीढ़ी का भविष्य हैं। दुनिया कहाँ से कहाँ पहुँच गयी  थी लेकिन मवासी खोह-खंदकों में ही मर-खप रहे हैं। ये पाँच लाख रुपए हजारों बच्चों को इन पहाड़ों से बाहर निकालने का जरिया है।
एक रात उसे जब नींद नहीं आयी तो उसने पेन-कागज उठाया और मैडम मैकेंजी को पत्र लिख डाला कि काम अभी शुरु नहीं हुआ है।
पत्र पोस्ट करने के आठवें दिन से ही, गाँवों से लेकर भोपाल तक बैठकों, प्रशिक्षणों, कार्यशालाओं का दौर शुरू हो गया। अफसरों की गाडिय़ाँ डीजल-पेट्रोल खपाने लगीं। प्रशिक्षण-कार्यशाला की भोजन-आवास व्यवस्था तथा यात्रा-व्ययों में हजारों रुपए साफ होने लगे।
लेकिन इस महती कार्य को अंजाम देने के मुख्य किरदार थे, वे चार मवासी शिक्षक भीमनराव सीलू, गंगाधर बेटे, शोभाराम सीलू और रामचरण बोसम, जिन्होने दिन रात एक कर किताब लिखी थी। इसके लिए उन्हें घंटों डाइट में बैठना पड़ता था और कई बार भोपाल की यात्रा करनी पड़ी थी। तथाकथित शिक्षा के विद्वानों से दूर हटकर कोनों में बैठकर ये चारों शिक्षक अक्षरों, वर्णों, शब्दों, निबंधों, गिनती, गणितीय संक्रियाओं को मवासी में तब्दील कर रहे थे। हर अक्षर, हर वर्ण, हर शब्द यहाँ विकास का सपना गढ़ रहा था इसलिए चारों ने अपनी पूरी तमन्यता और क्षमता झोंक दी थी। चौबीस घंटे उनके दिमाग में किताब के हर्फ-हर्फ फडफ़ड़ाते थे।
इस दौरान प्रशांत साये की तरह उनके साथ रहा और गहन भाषायी कठिनाइयों को निपटाया।
बहरहाल दोनों किताबों की पांडुलिपि तैयार थी।
सीलू और प्रशांत खुश थे कि उनका सपना साकार हुआ था।
किताबें प्रेस में चली गई थीं।
इस दौरान प्रशांत को एक सुनहरा अवसर मिला। मवासी प्रोजेक्ट के कारण एक फेलोसिप मिली और अध्ययन के लिए दो साल के लिए उसे ऑस्ट्रेलिया भेजा गया।
ऑस्ट्रेलिया में रहते उसने एक बार जानकारी ली थी, तो मालूम हुआ कि मवासी पुस्तकें कक्षा में पढ़ाना शुरु कर दी गई हैं। वह बहुत खुश हुआ था।
फेलोशिप पूरी कर कल ही वह ऑस्ट्रेलिया से लौटा है और मड़कासुर जा रहा है। किताबों को देखने और भीमनराव सीलू से मिलने की उत्कंठा उसके अंदर जोर मार रही है।
एलकापार के बाद ऊँचे-नीचे गोल-गोल रास्ते पहाड़ के चारों तरफ लिपट से गए थे, इसलिए वह कार तेज नहीं चला पा रहा था।
मड़कापुर गाँव शुरु होते ही, सीलू का घर टीले पर है, इसलिए प्रशांत कार नीचे खड़ी कर पैदल ही ऊपर चढऩे लगा। घर के नजदीक पहुँचते ही उसे दिखा, जैसे कोई व्यक्ति पीछे के दरवाजे से निकलकर नीचे नदी की ओर उतर रहा है।
दरवाजे पर दस्तक दी। भाभी निकली थीं। उन्होंने बताया, गर्मी की छुट्टियाँ हैं इसलिए वे बाहर गए हैं। आप चाहें तो हेड मासब से मिल लें, वे अभी स्कूल में बैठे हैं।
वह उल्टे पाँव स्कूल की तरफ भागा। हेड मासब मिल गए थे। उसका शक सही निकला। घर के पीछे से निकलकर नदी की तरफ उतरने वाला व्यक्ति भीमनराव सीलू ही था। हेड मासब ने बताया कि वह कहीं बाहर नहीं गया है, उसकी पत्नी झूठ बोल रही है। वह आपसे नहीं मिलना चाहता।
अब प्रशांत सकते में था। उसने हेडमासब जी से पूछा - ''सीलू मुझसे क्यों नहीं मिलना चाहता सर?''
''जबसे स्कूलों में मवासी भाषा वाली किताबें बंद हुई हैं, वह इतना दुखी है कि इनसे जुड़े लोगों से न वह मिलता है और न ही इस विषय में बात करता है।''
''किताबें बंद हो गई...!''
''हाँ, किताबें बंद हो गई। छ: महीने बाद ही सभी स्कूलों से किताबें उठा ली गयी थीं।''
''क्यों बंद हुई किताबें?'' प्रशांत को लग रहा था जैसे वह किसी अंधेरे कुएँ में गिरता चला जा रहा है।
''बैठिए, मैं बताता हूँ।''
एक कुर्सी प्रशांत की तरफ सरकाते हुए उन्होंने बताना शुरु किया- ''इस विधान सभा के विधायक आदिवासी हैं लेकिन मवासी नहीं हैं। एक बार वे स्कूलों के दौरे पर आए थे, उन्होंने बच्चों को मवासी में पढ़ते देखा। अगले विधानसभा सत्र में उन्होंने प्रश्न उठा दिया कि सभी समाज के बच्चे अंग्रेजी पढ़ रहे हैं, आगे बढ़ रहे हैं और हमारे क्षेत्र में आदिवासी बच्चों को हमारी ही भाषा में पढ़ाया जा रहा है। वैसे ही हम पिछड़े हैं, हमें और पिछड़ा बनाया जा रहा है। जल्दी ही ये किताबें स्कूल से हटायी जाएं और अंग्रेजी पढ़ायी जाए ताकि हमारे बच्चे भी तरक्की कर सकें। अफसरों ने उन्हें समझाने की कोशिश की थी, लेकिन वे नहीं मानें। उनके साथ आदिवासियों का एक बड़ा वोट बैंक था सो सरकार ने जल्दी ही किताबें बंद कर दी।''
हेडमासब की बातें सुनकर प्रशांत का मुँह हैरत से खुला रह गया। उसने अपना सिर पकड़ लिया और पूछा- ''क्या एक-दो किताबें यहाँ पड़ी होंगी सर?''
उन्होंने दो किताबें ढूंढकर दी।
पहला पेज खोला तो देखकर दंग रह गया। किताब के निर्देशन-मार्गदर्शन में दिल्ली, भोपाल और जिले के आई.ए.एस. अफसरों के नाम थे। पुस्तक-संयोजन में डाइट के सभी व्याख्याताओं तथा जिला स्तर के अधिकारियों के नाम बड़े-बड़े अक्षरों में सुशोभित थे। लेखकगण में चारों मवासी शिक्षकों के नाम बारीक अक्षरों में एक कोने में दुबके हुए थे। कुछ नाम ऐसे भी थे जिन्हें प्रशांत ने इस प्रोजेक्ट में कभी नहीं देखा था।
किताबों में प्रशांत का नाम कहीं से कहीं तक नहीं था।
प्रशांत ने किसी विलुप्त सभ्यता के अवशेष की तरह दोनों किताबों को साथ लिया और कार में आकर बैठ गया।
जैसे की उसने कार स्टार्ट की, हेडमासब दौड़े आए थे- ''सर, ये सीलू सर के दो हजार रुपये के यात्रा-भत्ता बिल लेते जाइए, किताब लिखते समय के हैं। कोई अधिकारी निकालने को तैयार नहीं है। संभव हो तो निकलवा दीजिएगा।''




दिनेश भट्ट नये कहानीकार हैं। मध्यप्रदेश के छिंदवाड़ा में रहते हैं।  मो. 09977638902


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