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जनवरी 2017

अनिता वर्मा की कविताएं

अनिता वर्मा

कविता
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मधुमक्खियाँ

दुनिया एक मधुमक्खी का छत्ता है
छोटे-छोटे मोम के घर
जिनमें भरा हुआ है शहद
मीठा, रसीला, तरल और स्वादिष्ट
छत्ता मधुमक्खियों की रेलमपेल से भरा हुआ

प्राचीनकाल से एक रानी मधुमक्खी की ख़िदमत में
लगी हुई हैं ये मज़दूर मक्खियाँ
बड़े सबेरे निकल जाती हैं फूलों की तलाश में
दूर-दूर खेतों जंगलों को पार करतीं
लहरों की तरह उड़तीं नदियों, पहाड़ों पर
जहाँ मिल जाती रस से भरी कोई डाल
वहीं इकट्ठी हो जातीं मधुमक्खियाँ
फूलों का रस चूस-चूस मुँह को रस से भरतीं
बार-बार उन्हें निगलतीं, उगलतीं
बड़ी मेहनत से शहद बनाती हैं मधुमक्खियाँ
वह शहद फिर कैद हो जाता मोम के घरों में
जिस पर राज्य करती रानी मधुमक्खी

रानी मक्खी पता नहीं क्यों रानी मक्खी है
वह राजा भी हो सकती है
पता नहीं कब से चलती आती है उसकी हुकूमत
मज़दूर मक्खियाँ पता नहीं क्यों मज़दूर और मज़बूर हैं
वे हमेशा गरीब रहती आई हैं
छत्ते की पहरेदारी में तैनात
उन्हें सिर्फ शहद बनाना आता है

 


मेरा शहर

वर्षों पहले यहाँ जंगल की हवा चलती थी
फूलों की तासीर लिए बर्फ सी ठंडी हवा
घरों में आम, जामुन, बेल, आँवले के पेड़ थे
पके कटहल की महक दूर-दूर तक फैलती थी
गौरैयों के शोर से खुलती थी नींद
कभी-कभी नीलकंठ भी दिख जाता था
चाँद आँवले की फाँक सा खिड़की से झाँकता था
बादल अक्सर पेड़ों पर आराम करते थे
बदले में दे जाते थे बारिश की फुहार
मिट्टी की गंध

तब घरों में पंखे नहीं थे
न शहर में कोई ए.सी., कूलर की दूकान
लोगों के चेहरे भी तब फूल, बारिश और
पेड़ों की तरह हुआ करते थे

इसी बीच धीरे-धीरे विकास की हवा चलने लगी
गायब होने लगे, नीम, आँवले और बेल के पेड़
बड़ी-बड़ी इमारतें मिट्टी के भीतर से उग आईं
गौरैयों ने बदल ली अपनी जगह
न जाने कहाँ चली गईं किसी छाँव की खोज में
मकान और बाज़ारों ने धीरे-धीरे घेर ली सारी जगह
अब अमरूद और बेर घर-घर नहीं बँटते
कोई किसी का दु:ख भी नहीं बाँटता
कभी-कभी अचानक कोई गंध भूले से चली आती है
जंगल, मिट्टी और घास की याद दिलाती हुई
चेहरों से जा चुकी है पानी और हवा की नमी
उन्हें खोजना एक पुरानी सुरंग से गुज़रने जैसा है

 

डायन

मंगरी एक औरत है
एक आदिवासी बूढ़ी औरत
जिसके चेहरे पर पड़ी झुर्रियाँ बताती हैं
कि उसने उतने ही दु:ख उठाए हैं
जितना अमूमन एक औरत सहती है

वह दिन भर जंगल में लकडिय़ाँ लाती है
और पत्ते बटोरती है
घर में बेटे, बेटियाँ, बहुएँ सभी हैं
साफ-सुथरा लिया-पुता आँगन
कुछ मुर्गियाँ, बकरियाँ
एक अँधेरा कोना उसके लिए भी है
जहाँ पड़ा रहता है घर भर का कबाड़
वह एक वक्त खाती है
और कभी कुछ नहीं बोलती
सिर्फ काली बड़ी-बड़ी आँखों से देखती रहती है
देर तक एक टक किसी का भी मुँह

गाँव की औरते उसे डायन कहती हैं
कहती हैं वह बिसाही है
कर सकती है किसीका भी खात्मा
उसे देखते ही वे बच्चों को आँचल में छिपाने का यत्न करती हैं
मंगरी यह सब देखती रहती है एक टक

उसके देखने से अब तक गाँव का मुखिया नहीं मरा
न महाजन, न ठेकेदार
पाँच साल बाद भीख माँगनेवाला नेता भी नहीं मरा
जिसको मंगरी लगातार घूरती रहती थी
फिर भी मंगरी डायन बिसाहिन थी
और लोग उसकी छाया से कतराते थे
एक दिन उसने एक बछड़े को घास खिलाई
और वह दो दिन बाद चल बसा
लोगों ने मंगरी को मारा-पीटा, गालियाँ दीं
उसके कपड़े तक फाड़ डाले
वस्त्रहीन कर घुमाया उसे पूरे गाँव में
उसका काला दुबला शरीर थरथराता रहा
होठ फड़कते रहे
गांव के बाहर बैठाया गया उसे थाने में
फिर अचानक सक्रिय हो उठे पत्रकार
महिला आयोग और मानवाधिकारी
वक्तव्यों की बौछार लग गई
अध्यक्ष ने उसके साथ फोटो खिंचाई
जो अगले दिन अखबार में छपी
उसकी काली आँखें अब भी फटी हुई थीं
जिसमें ठहरा हुआ था अंधकार
एक संवेदनाशून्य समय के दस्तावेज की तरह

 

प्रेम

मैं सिर्फ प्रेम के लिए बनी हूँ
एक आदिम गुफा से आती हुई घास की गंध
पानी में चमकती मछलियाँ
और झरनों से फहराता झाग
वह आगे जो पत्थरों के रगडऩे से पैदा हुई है
वह सेब जो हव्वा ने खाया था
मैंने किरणों के वस्त्र पहन रखे हैं
जो तुम्हें पेड़ों की छालों से दिखते हैं
मेरा चेहरा सोया है पहाड़ों के ऊपर
जिसकी बंद आँखों को चूमते हैं तुम्हारे होठ
ब$र्फ पिघलती है और तुम्हारा सच सामने आ जाता है
मेरी रातें सुबह में बदल जाती हैं

 


अनिता वर्मा (रांची) - 09431103960


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